Thursday, June 28, 2012

निशास्‍वर



जाग, दो निद्राओं के बीच का पुल है, जिस पर मैं किसी थके हुए बूढ़े की तरह छड़ी टेकता गुज़र जाता हूं. दिन की किसी ऊंघ में जब यह पुल कमज़ोर होता है, मैं छड़ी की हर थाप पर अपने क़दम रखता हूं. आवाज़ पायदान होती है. पदचाप की ध्‍वनि पैरों के होंठों से निकली सीटी है.

दिन कुछ कंकड़ों की तरह आते हैं. उनका आकार तय नहीं होता. कई बार इतनी दूर बैठकर मैं अपने दिनों को देखता हूं कि भारी चट्टान-से एक दिन को कंकड़ मानने की भूल कर बैठता हूं.

चट्टान की चोट को कितना भी दूर खड़े होकर देखो, कंकड़ की चोट जैसी नहीं दिखेगी. ध्‍यान रखना कि

छल जिन लोगों का बल है, उनकी पेशानी पर ठंडे पानी की पट्टियां रखना. वहां मेरे नाम के बल बुख़ार की तरह पड़ते हैं.

तुम्‍हारा चेहरा जब-जब भी मैं हथेली में थामता हूं, मुझे लगता है, मैं अपनी सारी स्‍मृतियों को अपने प्रेम की अर्घ्‍य दे रहा. तुम मेरे आंसुओं से आचमन करती हो. खिलखिलाते हुए पानी का प्रदेश बन जाती हो.

सारी रात मैं अंधेरे के सिरहाने बैठता हूं और सीली माचिसों को कोसता हूं. इस समय दिन अतीत है. सूरज अतीत की उपस्थिति था. गर्मी अतीत की एक घटना. इस समय इस कमरे में जितनी भी उमस है, वह अतीत की उमस है.

जबकि दिन मैंने अतीत में जाकर नहीं गुज़ारा था.

किसी ने पूछा था, तुम गुनहगार हो, जो तुम्‍हें नींद नहीं आती? गुनहगारों को जागती हुई रातें मिलें, यह उनका अव्‍वल नसीब होगा. जो मुतमईन सोते हैं, वे भी बेगुनाह नहीं हैं.

आंसू में नमक हो न हो, नहीं पता, उनमें गोंद ज़रूर होती है. वह अपनी जीभ की गरम नोंक पर रोपती थी मेरा हर आंसू और आसमान में सितारा बनाकर चिपका देती थी. सितारे टिमटिमाते हैं, क्‍योंकि वे मुझसे नज़रें नहीं मिला पाते. मुझे हर सितारे की कहानी पता है.

चौंधियाना, दृश्‍य को भंग करना है.

छोटे बादलों की ये क़तारें आसमान में पड़ी सिलवटें हैं. मेरी रातें गठरी से बाहर निकले कपड़ों की तरह मुड़ी-तुड़ी हैं. उमस का पसीना श्रम का मख़ौल है.

आत्‍मा इस देह के भीतर उतनी ही अजनबी है
जैसे बड़े शहर के बड़े बाज़ार की बड़ी भीड़ के बीच अजनबी हूं मैं

सुनो, तुम थोड़ा ज़ोर से गाया करो
झींगुर मेरी रातों को धीरे-धीरे कुतर रहे हैं

काजल आंख का सपना है. तुम्‍हारी बाईं आंख से थोड़ा काजल जो फैल गया है, तुम उसकी फि़क्र कभी मत करना. सपनों की कालकोठरी से भला कोई बेदाग़ निकला है?

* * *

एक अनाम रात, जिससे चांद की कलाएं भी नितांत अपरिचित हैं, जिसे पड़ोसन रातें भी नहीं पहचानतीं, रोज़मर्रा की रातों के गुच्‍छे में अचानक उग आई. उस रात के अभिवादन में बुनी गई शब्‍दों की एक देह. साथ लगी पेंटिंग सिद्धार्थ की है. 


10 comments:

Unknown said...

Pure musical note, this निशास्वर..

You have created for this nameless night, not only a body but a soul as well..

Love your thought process..
आँसू में गोंद है ये पता था, रोते आँख लग जाये.. जागे, न खुले ..
पर आँसू सितारे बन आकाश में चिपक जाएँ और टिमटिमायें क्योंकि वे आपसे नज़रें न मिला सके....... ये तो बस आप ही सोच सकते हैं.. :)

Pratibha Katiyar said...

किसी ने पूछा था, तुम गुनहगार हो, जो तुम्‍हें नींद नहीं आती? गुनहगारों को जागती हुई रातें मिलें, यह उनका अव्‍वल नसीब होगा. जो मुतमईन सोते हैं, वे भी बेगुनाह नहीं हैं.

वंदना शुक्ला said...

गीत जी कि कविता पढते हुए लगता है जैसे कोई स्वप्न देख रहे हैं |सपने का अगला द्रश्य नहीं पता होता कि क्या होगा, ...नदी,समुद्र,आँखें,,चेहरा चट्टान,फूल,पत्ती,आँसू,देह या आत्मा .....|हर पंक्ति एक अलग दुनियां में खुलती है और हमारी कल्पना प्रायः हतप्रभ रह जाती है,हम उनकी कल्पनाओं/अनुभूतियों के साथ हिलोरते हैं स्वप्नदर्शी बन |उनकी हर पंक्ति हर अहसास एक अनोखी अनुभूति है | कल्पना के कितने पड़ाव ,कितने रंग और कितनी दिशाएँ होती या हो सकती हैं ,उनकी कविता जानती है|और एक खासियत,जो गीत चतुर्वेदी की काव्य रचना को विशेष बनाती है वो कल्पनाओं की नवीनता .,बुनावट और शब्द विन्यास है जहाँ उनका काव्य संसार अपनी राह खुद गढता है बगैर किन्ही दोहरावों,पूर्वाग्रहों या लीकबद्ध होने के |

वंदना शुक्ला said...

गीत जी कि कविता पढते हुए लगता है जैसे हम किसी स्वप्न में हैं ..लिहाजा अगला द्रश्य क्या होगा समुद्र,चट्टान,फूल,चेहरा,देह ,अन्दाज़ना मुश्किल है |हर द्रश्य और उपमा एक एक करके खिड़की की तरह खुलती जाती है और पाठक चकित हो जाता है|वस्तुतः कल्पना के कितने पड़ाव,कितने रंग या कितनी दिशाएँ होती या हो सकती हैं उनकी कविता जानती है |उनकी अनोखी कल्पनाओं व अनुभूतियों के साथ पाठक हिलोरता ,मन्त्र मुग्ध होता है |गीत चतुर्वेदी की खासियत जिससे उनकी कविता एक अलग राह गढती है उनका अद्भुत शब्द विन्यास,अनोखी कल्पना शीलता और दोहरावों व लीक बद्धता से विलगता है |पाठक इन कविताओं को उतनी ही संलग्नता और विभोर होकर पढता है जितनी गहराई और मुलामियत से ये लिखी गई हैं |
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sarita sharma said...

निद्रा का पुल पार करते ही पढ़ी यह पोस्ट.जब आप पुल पर चढ़ना शुरू करते हैं हम उतर चुके होते हैं. जागती रातों में लिखने का गुनाह ईर्ष्या का विषय है. मेकबेथ की याद आती है. Methought I heard a voice cry "Sleep no more! Macbeth does murder sleep." मन के मौसम, रिश्तों की उमस, अतीत उजाले की स्मृति, छल कपट के आचरण और प्रेम के आचमन वाला रात को समर्पित स्वप्नमय गद्य.

ANULATA RAJ NAIR said...

पढ़ती चली गयी....या शायद बहती चली गयी..........

सुन्दर!!!

अनु

indianrj said...

कमाल है! अनिद्रा का इतना सुंदर अर्थ भी हो सकता है, मालूम नहीं था. ख़त्म क्यूँ हो गई, इसका अफ़सोस है. ये बहुत-बहुत लम्बी होनी थी, अगर एक रात पूरी पढने में ही बीत जाती तो(?), नींद न आने का गुनाह कुछ कम होता.

indianrj said...

कमाल है! अनिद्रा का इतना सुंदर अर्थ भी हो सकता है, मालूम नहीं था. ख़त्म क्यूँ हो गई, इसका अफ़सोस है. ये बहुत-बहुत लम्बी होनी थी, अगर एक रात पूरी पढने में ही बीत जाती तो(?), नींद न आने का गुनाह कुछ कम होता.

indianrj said...

कमाल है! अनिद्रा का इतना सुंदर अर्थ भी हो सकता है, मालूम नहीं था. ख़त्म क्यूँ हो गई, इसका अफ़सोस है. ये बहुत-बहुत लम्बी होनी थी, अगर एक रात पूरी पढने में ही बीत जाती तो(?), नींद न आने का गुनाह कुछ कम होता.

Surendra Chaturvedi said...

bahut khoob lika aapne....sundar