tag:blogger.com,1999:blog-7826407029213632952024-02-21T13:20:26.677+05:30वैतागवाड़ीGeet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.comBlogger129125tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-22397303591790601492021-08-08T18:51:00.002+05:302021-08-08T18:51:44.720+05:30नई वेबसाइट geetchaturvedi.com<div>नई <a href="http://www.geetchaturvedi.com" target="_blank">वेबसाइट</a> तैयार है। इस पते पर देख सकते हैं : </div><div><br /></div><div>www.geetchaturvedi.com</div><div><br /></div><div>ब्लॉग की नई पोस्ट भी अब से वहीं पर अपडेट होंगी। <a href="https://geetchaturvedi.com/blog/" target="_blank">कृपया वहाँ जुड़ जाइए</a>।</div><div><br /></div><div>https://geetchaturvedi.com/blog/</div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" />Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-280596317951227602016-05-09T07:02:00.000+05:302016-05-11T03:49:46.050+05:30सबद पर दस नई कविताएं <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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दस नई कविताएं <b>सबद</b> पर प्रकाशित हुई हैं. उनमें से एक नीचे है.<br />
सारी कविताओं को पढ़ने के लिए <a href="http://vatsanurag.blogspot.in/2016/04/GeetChaturvediPoems.html" target="_blank">यहां क्लिक करें. </a><br />
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<b>व्युत्पत्तिशास्त्र</b></div>
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एक था चकवा. एक थी चकवी. दोनों पक्षी हर समय साथ-साथ उड़ते. अठखेलियां करते. पंखों से पंख रगड़ तपिश पैदा करते.<br />
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(भाषाशास्त्री नोट करें : प्रेम की उत्पत्ति 'साथ' से हुई.)<br />
<br />
एक रोज़ शरारत में उन्होंने एक साधु की तपस्या भंग कर दी. साधु ने शाप दे दिया कि आज से तुम दोनों का साथ ख़त्म. जैसे ही दिन ढलेगा, चकवा नदी के इस किनारे होगा और चकवी नदी के उस किनारे. <br />
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(भाषाशास्त्री नोट करें : प्रेम की उत्पत्ति 'विरह' से हुई.)<br />
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दिन-भर चकवा और चकवी एक-दूसरे को पहचानते तक नहीं. जैसे ही अंधेरा छाता, वे उड़कर नदी के विपरीत छोरों पर चले जाते. वहां से सारी रात अपने प्रेम की वेदना की कविता गाते. मिलन की प्रतीक्षा करते. <br />
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(भाषाशास्त्री नोट करें : प्रेम की उत्पत्ति 'कविता' से हुई.)<br />
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रात-भर दोनों दुआ करते कि किसी तरह साधु ख़ुश हो जाए और अपना शाप वापस ले ले. लेकिन शाप देने के बाद साधु लापता हो गया. वह साधु शब्द में भी नहीं बचा. प्रेम को लगा शाप कभी वापस कहां होता है? <br />
<br />
(भाषाशास्त्री नोट करें : प्रेम की उत्पत्ति 'शाप' से हुई.) <br />
<br />
चकवी अक्सर मेरी कविताएं पढ़ती हैं. पढ़-पढ़कर रोती है. कहती है, 'चकवा जो गाता है, तुम वह लिखते हो. ऐसा आखि़र कैसे करते हो? तुम चकवा हो?'<br />
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भोली है. यह नहीं जानती, मैंने कभी कोई कविता दिन में नहीं लिखी. <br />
<br />
(भाषाशास्त्री अब नोट करना बंद करें : प्रेम और कविता जब शुरू होते<br />
हैं,तब भाषा का कोई काम नहीं बचता. इतिहास में जितने भी महान<br />
प्रेमी हुए, उनमें एक भी भाषाशास्त्री न हुआ.)<br />
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पोस्ट-स्क्रिप्ट : <br />
हर शाम चकवी पूछती है : 'रात-भर जागोगे? ऐसी कविता लिखोगे, जो नदी के दोनों किनारों को जोड़ दे?'<br />
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>
</div>
Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-84205250781109909112015-06-08T20:45:00.000+05:302015-11-04T02:50:14.742+05:30(भू) लोक-कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="text-align: justify;">
*1*</div>
<div style="text-align: justify;">
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उस ग़रीब को अपना अपराध समझ में न आया, लेकिन बादशाह ने उसे सज़ा सुना दी. सज़ा थी कि कड़ाके की ठंड में रात भर इसे निर्वस्त्र, कमर-भर पानी वाली नदी में खड़े रखा जाए. बादशाह को यक़ीन था कि इस तरह उसे जो मौत आएगी, वह मिसाल क़ायम करेगी. बादशाहों को मौत की मिसालें बनाने का बड़ा शौक़ होता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह ग़रीब कमर-भर पानी में डूबा हुआ, निर्वस्त्र, बादशाह की सुनाई सज़ा का अनुवाद अपनी ठिठुरन में करता रहा. सुबह हुई, तो लगभग नीला, कांपता हुआ-सा, नदी से बाहर निकला. बादशाह अपनी हैरत में डूब गया कि इसे मौत क्यों नहीं आई. उसे संदेह हुआ कि इसने या किसी और ने सज़ा अमल करने में छल किया है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पूछने पर उस ग़रीब ने बताया, 'जब मैं पानी में खड़ा हुआ, तो मुझे बहुत ठंड लगी. मुझे लगा, मैं इसी पल मर जाऊंगा. तभी मेरा ध्यान आधा कोस दूर आपके महल पर गया. उसके बुर्ज़ पर एक दिया जल रहा था. मैं उसे देखने लगा. थोड़ी ही देर में ऐसा लगा कि वह दिया आधा कोस दूर नहीं, बिल्कुल मेरे पास है. उसके बाद मुझे उसकी रोशनी, उसकी गर्मास महसूस होने लगी. मैं उस दिये के कारण जीवित हूं.'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
*2*</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बादशाह को ख़ुद पर फिर गर्व हुआ. इस बार भी छल का उसका संदेह सही साबित हुआ. उसने सज़ा बढ़ा दी. कहा, आज रात छाती तक पानी में इसे निर्वस्त्र रखा जाए, वहां से नज़र आने वाले सारे दिये बुझा दिए जाएं. इसके पास गर्मी और रोशनी का क़तरा भी न पहुंचे, ध्यान रहे.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अगली सुबह ग़रीब फिर जि़ंदा बच निकला. वैसा ही नीला, ठिठुरता. बादशाह फिर हैरान हो गया. पूछने पर ग़रीब ने कहा, 'बादशाह, मैं तो पूरी ईमानदारी से सज़ा ही भुगत रहा था. एक समय मुझे यह यक़ीन हो गया था कि बस, कुछ पलों बाद ही मैं मर जाऊंगा, लेकिन रात के उस पहर मैंने देखा, जब आसपास कोई दिया नहीं था, दूर उत्तर के आसमान में एक तारा उग आया. मैं उसे बेहद ध्यान से देखने लगा. उसकी रोशनी और गर्मास मुझ तक पहुंचने लगी. वह तारा मेरे बिल्कुल पास ही था.'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बादशाह उसकी बची हुई ठिठुरन देख रहा था, तभी उसने कहा, 'बादशाह, आज की रात सारे तारों को भी बुझा देना.'</div>
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<div>
<br /></div>
</div>
Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-2810429225579257452015-04-09T00:28:00.000+05:302015-07-05T00:52:13.761+05:30लिखने की आदतों के बारे में दस सवाल <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://api.ning.com/files/kV4MbYiv7oSQeFMTgLHejErY6npKKqBo0WEKrKUTrzemiFgonbecNPzeZDbypZK9rTVN3hWqMB2rAHZhr-1zmhCpvKZSt3tC/1082063962.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="http://api.ning.com/files/kV4MbYiv7oSQeFMTgLHejErY6npKKqBo0WEKrKUTrzemiFgonbecNPzeZDbypZK9rTVN3hWqMB2rAHZhr-1zmhCpvKZSt3tC/1082063962.jpeg" height="640" width="412" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: right;"><i>Art : Mike Stillkey</i></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लिखने-पढ़ने को लेकर एक चर्चा<b> सबद</b> पर हुई थी. वहां के सवाल-जवाब यहां भी : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<b><div style="text-align: justify;">
<b>१. आप कब लिखते हैं?</b></div>
</b><div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसका कोई निश्िचत समय नहीं है. कई बार ऐसा होता है कि कोई विचार या छवि मन या दृष्टि में आई, और उसे उसी क्षण लिख लिया गया.और कई बार ऐसा होता है कि कोई विचार या छवि पंद्रह साल से मन के भीतर थी, और अब जाकर लिखी गई. जैसे परागण की प्रक्रिया है.तितलियां एक फूल पर बैठती हैं, उसके परागकणों को अपने पैरों में चिपकाकर दूर देश ले जाती हैं और वहां उन परागों का बीजन होता है.तितलियों के पैर में चिपकते समय यह पता नहीं चलता कि उस परागकण का कोई अस्तित्व भी है या नहीं, और उसका भविष्य क्या होगा.लेखन में आने वाली छवियां भी ऐसी ही होती हैं. विशेषकर वे, जिनके बारे में हम कहते हैं कि ये बरसों पहले की कोई छवि अथवा विचार हैं. वेछवियां या विचार बरसों तक मन के भीतर की हवा में भटकते हैं, बाहर आते हैं, तो कई बार पता भी नहीं चलता था कि ये भी भीतर थे. अमूमन,तुरंत कुछ नहीं होता, सिवाय एक टेंपरेरी जॉटिंग के, वह विलंबित रहता है. किसी विचार को कब लिखा जाना है, इसलिए यह तय नहीं होता.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<b><div style="text-align: justify;">
<b>२. क्या लिखने का कोई तय वक़्त है?</b></div>
</b><div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हां. लिखने की अलग्-अलग छवियां हैं. लिखना मेरे लिए निहायत निजी काम है. कोई मुझे देख रहा हो, तो मैं लिख नहीं सकता. जैसे कोई मुझेदेख रहा हो, तो आम नहीं खा सकता. आम खाना भी निहायत निजी रस है. मुझे हैरत होती है कि ग़ालिब सबके सामने आम कैसे खा लेते थे.और लोग भी. :-) इसीलिए मैं अमूमन रात को लिखता हूं, यह तय होने के बाद कि अब मुझे लिखता देखने के लिए कोई शरीर नहीं आएगा.इसका एक व्यावहारिक कारण नौकरी भी है. हालांकि मेरे लिए कोई नियम अंतिम नहीं होता, मैं ख़ुद को चौंका देता हूं और सबसे ज़्यादा वादाखि़लाफ़ी भी ख़ुद से ही करता हूं. इसीलिए कुछ चीज़ें मैंने दिन में भी लिखी हैं. 'पिंक स्लिप डैडी' का एक हिस्सा मैंने मुंबई एअरपोर्ट के बाहरएक ओपन रेस्त्रां में लिखा था. ट्रेन में यात्रा करते हुए भी मैंने कुछ चीज़ें लिखी हैं. लेकिन यह सब हमेशा नहीं. नियमित लेखन के लिए रात कासमय तय है. लिखते समय कई बार मुझे रेफरेंस की ज़रूरत पड़ती है, डायरी में लिए गए नोट्स पढ़ने होते हैं, मुझे अच्छा लगता है कि लिखतेसमय मेरे चारों ओर किताबें, फिल्में और संगीत हो. यह हर कमरे में उपलब्ध नहीं. इसलिए मैं अपनी स्टडी में, अपने टेबल पर ही बैठकर लिखता हूं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<b><div style="text-align: justify;">
<b>३. लिखने के लिए कम्प्यूटर या कागज़ में से किसका इस्तेमाल करते हैं और क्यों?</b> </div>
</b><div>
अब काग़ज़ की आदत नहीं रही. मानसिकता भी वैसी नहीं रही. काग़ज़ कुछ भी लिखा जाए, तो वह प्रथमदृष्टया जॉटिंग्स होते हैं. मुख्य लेखनसीधे लैपटॉप पर ही होता है. मैं कई बरसों से कम्प्यूटर के साथ हूं. और अधिकतम लिखाई उसी पर है. काग़ज़ ज़्यादा श्रम लेता है. मुझे रफ़्तारपसंद है. और की-पैड पर उंगलियां कई बार मन में आने वाले विचारों की रफ़्तार के साथ तालमेल बिठा लेती हैं. बशर्ते की-पैड रफ़्तार से घबराकर मशीन को हैंग न कर दे. लिखने के बाद उलटफेर करता हूं और वह कम्प्यूटर पर आसान है. गैजेट्स और तकनीक मुझे आकर्षित करते हैं. इसलिए जब कुछ नहीं होता, तो मैं अपने मोबाइल पर भी लिख लेता हूं, कई बार अपने टैब पर भी. मुझे याद है कि कविता की कुछ पंक्तियाँ ऑन-द-गो सूझी हैं और उन्हें मैंने मोबाइल पर टाइप कर ख़ुद को ही एसएमएस कर दिया है.<br /><div>
<span style="background-color: #eff0e8; color: #565653; font-family: Tahoma, Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 20px;"><br /></span></div>
</div>
<b>४. लेखन के बीच अन्तराल या निरन्तरता किस तरह बनाते हैं? </b><br /><br />यह चीज़ तो बिल्कुल अपने हाथ में नहीं है. मैं निरंतरता बनाना चाहता हूं, जीवन अंतराल बनाता है. दोनों के बीच छीनाझपटी चलती है. और दोनों एक दूसरे से दुखी हो जाते हैं. चूंकि मैं एक थीम या प्लॉट पर काफ़ी समय तक काम करता रहता हूं, इसलिए पहली दिक़्क़त यह होती है कि इतने समय के लिए एक विचार को, उसके कई सहयोगी विचारों को, अपने दिमाग़ में बनाए रखना. उसके सूत्र को पकड़े रखना. इसीलिए मेरे लिए कौंध का विशेष महत्व नहीं है. कौंध भी संचयित हो जाती हैं. तुरंत बाहर आ नहीं दमकतीं. जैसे 'सावंत आंटी की लड़कियां' लिखने में मुझे चार साल का समय लगा था, और उस दौरान मैंने पांच शहर बदले थे. कुछ दिन लिखने के बाद सब कुछ छूट जाता, और मैं लगभग यह भूल जाता कि आखि़र बात कहां छूटी थी, मुख्य विचार क्या था. हर चीज़ के नोट्स लेने, ईको की तरह चित्र और नक्शे बनाने की पुरानी आदत के कारण काफ़ी चीज़ें संभल जातीं. दो-तीन सिटिंग के स्ट्रगल के बाद मैं वापस अपनी लय पकड़ पाता. इसीलिए लिखने से पहले हर चीज़ के नोट्स बनाने को मैं अपने लिए ज़रूरी मानता हूं.<div>
<br /></div>
<b>५. क्या कभी 'रायटर्स ब्लाक' का अनुभव किया है ? इससे कैसे उबरते हैं?</b><div>
<br />लेखक हमेशा एक रायटर्स ब्लॉक की तरफ़ अग्रसर होता है. यदि रचनात्मकता कोई प्रवाह है, तो यक़ीनन उसमें बाधाएं भी होंगी. सारी धाराएं अंतत: एक विशाल और व्यापक बाधा की ओर प्रस्थान ही हैं. मुझे कई बार रायटर्स ब्लॉक का अनुभव होता है. इस सवाल के साथ मुझे कालिदास का एक सुंदर बिंब याद आता है. कुमारसंभव का दृश्य है यह. तपस्या के बाद पार्वती को शिव के दर्शन हुए हैं. वह आगे बढ़कर शिव को छू लेना चाहती हैं, लेकिन साथ ही खुद को रोक भी देती हैं. कालिदास यहां एक बिंब देते हैं कि जिस तरह नदी एक बाधा के पास पहुंचकर अपने प्रवाह को वापस मोड़ लेती है, दीवार से टकराकर पानी थोड़ा मुड़कर या तो पीछे की तरफ़ अपना रास्ता बनाता है, या ज़रा-सा दूसरे किनारे की ओर बढ़ जाता है, उसी तरह पार्वती अपना एक पैर उठा लेती हैं, जिससे यह भान होता है कि वह आगे बढ़ रही हैं, लेकिन अपने दूसरे पैर को वह टिकाए रखती हैं यानी ज़मीन भी नहीं छोड़ रहीं यानी आगे बढ़ना भी नहीं चाहतीं. कालिदास ने दृश्य को यहीं फ्रीज कर दिया है. यह स्त्रियोचित गति और स्थैर्य का, मन और अन्यमनस्कता का, आगे बढ़ने और रुक जाने का बहुत सुंदर बिंब है. यह अवांतर अर्थों में प्रेम की प्रतीक्षा का बिंब हो, लेकिन कई बार मुझे यह रायटर्स ब्लॉक का बिंब दिखता है. यह रचनात्मकता का भी बिंब है. लेखक हमेशा पार्वती जैसी इसी मुद्रा में रहता है. एक पैर आगे बढ़ाए हुए, हवा में और दूसरा पैर रोके हुए, ज़मीन पर टिकाए हुए. आप कभी भी रचना की तरफ़ पूरी तरह, दोनों पैर बढ़ाकर नहीं जा सकते. आपमें जितनी गति होगी, उतना ही स्थैर्य भी होगा. आप जितना मन से कर रहे होंगे, उतनी ही अन्यमनस्कता भी होगी. मैं हर समय लिख रहा होता हूं और हर समय एक ब्लॉक में भी रहता हूं. मन और अन्यमनस्कता के बीच, गति और स्थैर्य के अनुपात में फ़र्क़ आता है, तो वह ब्लॉक बन जाता है. मेरे साथ कई बार होता है ऐसा.<br /><br />कुछ बहुत ही स्थूल किस्म के कारण भी होते हैं. मनोदशा, परिस्थितियों के अलावा कई बार कोई ऐसा असाइनमेंट अपने हाथ में ले लें, जो दरअसल आपकी सीमा से काफ़ी बाहर हैं. ख़ुद को स्ट्रेच करने के बाद भी वहां तक नहीं पहुंच पाते, फिर भी संघर्ष कर रहे हैं, तो नतीजा यह निकलता है कि आप जो मूल काम कर रहे थे, उससे तो भटक ही गए, यह जो बीच में काम शुरू किया था, यह भी गया. जैसे क्रिकेट में खिलाड़ी फॉर्म खो देते हैं, एक संघर्ष भरी पारी के बाद, उसी तरह लेखन में भी होता होगा. कई बार मैं मित्रों-संपादकों को नाराज़ कर देता हूं, और इसी डर के कारण मना कर देता हूं. क्योंकि ऐसे कामों के कारण यह ब्लॉक मेरे अनुभव में आ चुका है.<br /><br />वैसे, मैं यह मानता हूं कि ऐसा ब्लॉक होना बहुत ज़रूरी है. यह विश्लेषण का समय देता है. प्रवाह में आई कोई भी बाधा एक ख़ास कि़स्म का घर्षण पैदा करती है और घर्षण अमूमन ऊर्जा के कारक बनते हैं. ठीक ब्लॉक के वक़्त में बेचैनी होती है, अवसाद आता है, लेकिन उसके बाद ताज़गी भी दिखती है. यह सांप का केंचुल छोड़कर अपना त्वचा को पुनर्नवा करते रहने के उपक्रम की तरह है.<br /><br />रायटर्स ब्लॉक का चूंकि कोई एक कारण होता नहीं, इसलिए उससे निपटने का भी कोई एक तरीक़ा नहीं हो सकता. यह बहुत निजी और इंडीविजुअल्स के हिसाब से बदलता जाता है. जैसे क्रिकेट में कहते हैं न, अपने बेसिक्स से चिपके रहो, लाइन और लेंग्थ पर ध्यान दो, फुटवर्क और टाइमिंग संभालो. वही करता हूं. ब्लॉक्स के दिनों में मैं मिनिमलिस्ट हो जाता हूं. बहुत बुनियादी तकनीकों का प्रयोग करता हूं. उन दिनों मेरा लक्ष्य किसी भी तरह ख़ुद को अभिव्यक्त कर लेना होता है. अभिव्यक्ति की सुंदरता द्वितीय हो जाती है. संकट तो अभिव्यक्ति पर है. एक बार वह संकट हटा दिया जाए, तो अभिव्यक्ति में कलात्मक सुंदरता को वापस पाया जा सकता है. उसमें आप ख़ुद एक बदलाव महसूस करते हैं. अचानक एक चमकीला विचार या एक चमकीली पंक्ति आती है, जो आपको ब्लॉक से बाहर खड़ा कर देती है. जैसे मुझे याद है, उभयचर में मैंने एक पंक्ति लिखी है, 'दुर्भाग्य के दिनों में सुंदरता की फि़क्र करना कला से ज़्यादा जिजीविषा है.' यह पंक्ति एक ब्लॉक के दौरान ही लिखी गई थी. उस समय मैं ख़ुद से जूझ रहा था और मैंने पाया कि जब आप न लिखने के संकट का साहस से सामना करते हैं, तब आपकी जिजीविषा ही आपकी कला बन जाती है.</div>
<div>
<br /></div>
<b>६. न लिखने के दिनों में क्या करते हैं ?</b><div>
<br />न लिखने के दिनों में मैं बहुत कुछ करता हूं. पढ़ता हूं. बार-बार पढ़ी गई चीज़ों को बार-बार पढ़ता हूं. बीस साल पुराना ग्रीटिंग कार्ड खोजता हूं और पंद्रह साल पुरानी कोई तस्वीर. बहुत पीछे छूट गए किसी शख्स या बात का चेहरा खोजता हूं. जिन लोगों से प्रेम करता हूं, उनसे जी खोलकर बातें करता हूं. जल्दी सोने की कोशिश में बिस्तर में घुस जाता हूं और छह घंटे तक करवटें बदलने के बाद पाता हूं कि सो ही नहीं पाया, जाने क्या-क्या सोचता रहा. सड़क पर देर तक पैदल चलता हूं. पौधे लगाता हूं. उन्हें पालता-पोसता हूं. कुछ स्केच बनाता हूं, कभी-कभार पेंटिंग कर लेता हूं, किचन में कोई एकदम देसी या एकदम विदेशी या एकदम प्रायोगिक, व्यंजन बनाता हूं. कमरे की बत्ती बुझाकर अधलेटा संगीत सुनता हूं. नया संगीत खोजता हूं. पुराने के पास फिर-फिर जाता हूं. मोत्ज़ार्ट, फिलिप ग्लास और प्रैसनर तीनों को एक साथ चला देता हूं एक ही कमरे में, फिर स्वरलहरियों को खोजता हूं. फिल्में देखता हूं. अगर उस दौरान कुछ और काम नहीं, या छुट्टी का दिन है, तो एक ही दिन में चार-चार फिल्में देख लेता हूं. ये यब ऐसी हरकतें हैं, जिन्हें मेरे घरवाले नहीं समझ पाते और बहुत अचरज से देखते हैं. पर यह सब कुछ करते हुए दिमाग़ में लगातार वही चीज़ चलती रहती है, जो मैं लिख नहीं रहा, लेकिन जिसे मैं जल्द ही लिखने वाला हूं. दरअसल, जिन वक़्तों में मैं नहीं लिख रहा होता, उन्हीं वक़्तों में लिख रहा होता हूं. बाक़ी के दिन तो टाइपिंग के दिन हैं.</div>
<div>
<br /></div>
<b>७. कितने घंटे पाबन्दी से लिखते हैं ?</b><br /><br />कितने घंटे का हिसाब नहीं बनता. ज़रूरी नहीं है कि आप छह घंटे टेबल पर बैठे हैं और सारा समय लिखते ही रहें, हो सकता है कि उन छह घंटों में आपने छह मिनट ही लिखा हो. लेकिन यह ज़रूर है कि मैं अपनी टेबल पर बैठता ज़रूर हूं, भले दो घंटे रोज़ के लिए या छह घंटे रोज़ के लिए. इस दौरान बहुत कुछ होता है. संभव है कि मैं किसी विचार के शक्ल लेने का इंतज़ार कर रहा होऊं. हो सकता है कि काफ़ी समय तक उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ जाए. उस दौरान मैं पढता रहता हूं. संगीत सुनता हूं या पसंदीदा फिल्मों की पसंदीदा क्लिप्स देखता हूं. उस समय किसी मित्र से बात ही कर रहा होऊं. इस बारे में मुझे काफ़्का की वह बात बहुत पसंद है, जो उन्होंने फेलिस को एक ख़त में लिखी थी- 'जैसे मुर्दे को उसकी क़ब्र से अलग नहीं किया जाता, उसी तरह कोई मुझे अपनी राइटिंग टेबल से अलग करने की कोशिश न करे.' लिखने की मेज़ लेखक का ताबूत होता है. वह उसी में दफ़न रहता है. अगर आप मेज़ पर नहीं लिखते, तो भी उस जगह का यही मतलब है.<br /><br /><br /><b>८. कितना लिख लेना एक दिन में पर्याप्त लगता है ?</b><br /><br />यह भी अमूर्त है. पर्याप्त की बात तो ऐसे है कि एक ही बैठक में महाकाव्य लिख डालने की आस बन जाए. कोई भला प्रतीक्षा की वेदना से क्यों गुज़रना चाहेगा ? कई बार ऐसा होता है कि लिखने से पहले यह समझ में आ जाए कि क्या लिखने जा रहे हैं. अगर किसी प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है, तो पहले से पता होता है कि यह-यह लिखना है. यह देखना सुखद होता है कि जो-जो आप जिस-जिस तरह लिखना चाहते हैं, उस-उस को उसी-उसी तरह लिख ले रहे हैं. यह संतोष देता है. बाक़ी समय नोट्स लिखना चलता है और वह एक बैठक में एक पंक्ति भी हो सकता है. दिन-भर में मैं इतनी ई-मेल्स के जवाब देता हूं कि कई बार वह भी पूरा-पूरा लेखन ही लगता है. हालांकि पैक-अप करते समय मैं माइक्रोसॉफ़्ट वर्ड में जाकर, (मैं उसे बुनियादी टाइपिंग के लिए कभी इस्तेमाल नहीं करता, मेरी नज़र में वह बहुत ख़राब प्रोग्राम है टाइपिंग या लेखन के लिए) वर्ड काउंट ज़रूर करता हूं, क्योंकि उस प्रोग्राम का वर्ड काउंट सबसे सही है. कभी पचास शब्द होते हैं, तो कभी पांच सौ. एक दिन में अपने लिए डेढ़ हज़ार शब्द लिख लेना उत्सव की तरह है. मैं फ़ाइल पर पिछली सिटिंग के वर्ड काउंट डाल देता हूं. जब मुझे पता चला कि हेमिंग्वे भी रोज़ का लिखा गिनते थे और नोट करके महीने का औसत निकालते थे, तब मुझे अच्छा लगा था वह. फिर भी शब्द संख्या से ज्यादा महत्वपूर्ण संतोष और आनंद है, क्योंकि बाज़ दफ़ा ऐसा भी हो चुका है कि आज के लिखे हज़ार शब्द, कल दुबारा पढ़ने पर पूरी तरह डिस्कार्ड भी हो जाते हैं.<br /><br /><br /><b>९. पढ़ने के लिए कितना वक़्त निकालते हैं ?</b><br /><br />अमूमन दोनों का वक़्त एक ही है. उसी सिटिंग में पढ़ना भी है, उसी में लिखना भी. मेरे पास प्रिंट की किताबों से ज़्यादा ई-बुक्स हैं, इसलिए ऑन-द-गो मोबाइल में भी पढ़ना हो जाता है. जब मैं किसी थीम पर काम कर रहा होता हूं, तो सिर्फ़ वही चीज़ें पढ़ता हूं, जिनका संबंध मेरी थीम से होता है. वैसे भी, मेरी पढ़ाई बहुत फोकस्ड और थीमेटिक रही है. मैं सब कुछ नहीं पढ़ पाता.<br /><br /><br /><b>१०. पढ़ने की आदत लेखन में बाधक तो नहीं ?</b><br /><br />यह वही बात है कि जब आप सांस छोड़ते हैं, तो क्या आपको सांस लेने में दिक़्क़त महसूस होती है? लिखना ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पढ़ना अपने आप शामिल है. मेरे लिए दोनों एक ही प्रक्रिया के दो खंड या पहलू हैं. जब मैं पढ़ रहा होता हूं, तब भी लिख रहा होता हूं. बिना उंगलियों की जुंबिश के. और जब लिख रहा होता हूं, तो भी पढ़ ही रहा होता हूं.<div>
<div style="background-color: #eff0e8; color: #565653; font-family: Tahoma, Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 20px;">
</div>
</div>
</div>
Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-4113058444276591132013-02-14T05:37:00.000+05:302013-02-14T06:11:33.098+05:30तुम्हारी मुस्कान तुम्हारे होंठों में छिपी / अनकही बातों की दरबान है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPExYwsVkw0vs2_mi3gXZ4qt8m3ntUuDZlv6hP76QbL89-sKIdoL7ubzhefPbpHSh6CvSv4cRtAb-RVPnFLImZs16H60e05ntQ6njVAaDSht_YHI_tQkxO7t3AThplEKIo1juXda6h-0fl/s1600/anna+aden5.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPExYwsVkw0vs2_mi3gXZ4qt8m3ntUuDZlv6hP76QbL89-sKIdoL7ubzhefPbpHSh6CvSv4cRtAb-RVPnFLImZs16H60e05ntQ6njVAaDSht_YHI_tQkxO7t3AThplEKIo1juXda6h-0fl/s400/anna+aden5.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>चित्र मेरी प्रिय फोटोग्राफ़र Anna Aden का, जिसके खींचे हर चित्र पर मैं फि़दा हूं.</i></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<br />
<a href="http://www.facebook.com/geetchaturvedi/posts/10200838455548031" target="_blank">एक कविता</a>, आज के दिन के लिए. <a href="http://www.facebook.com/geetchaturvedi27/posts/306519419470108" target="_blank">ख़ास </a><br />
<br />
* * *<br />
<br />
<b>नि:शब्द</b><br />
<br />
<br />
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">आज एक नि:शब्द का उच्चारण करो</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">जिस शब्द से बनी थी यह सृष्टि</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">उसे बो दो अपने बग़ीचे में</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">कुछ दिनों में वह एक पौधा बन जाएगा</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">उसे तुम अपनी दृष्टि से सींचना</span><span lang="HI"></span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">मैं मेहनतकश विद्यार्थी हूं तुम्हारे प्रेम का</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">हर वक़्त इम्तहानों की तैयारी में लगा हुआ</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तुम्हारी ख़ामोशी के सीने पर</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तिल की तरह उगे हैं मेरे कान</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">जिन पंक्तियों की मैंने प्रतीक्षा की</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">वे जमा हैं तुम्हारे होंठों की दरारों में</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तुम्हारी मुस्कान</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तुम्हारे होंठों में छिपी</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">अनकही बातों की दरबान है</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">किसी किताब के पन्ने पर</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">कोई बहुत धीरे-धीरे खेता है नाव</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">आधी रात तुम्हारे कमरे में गूंजता है</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">पानी का कोरस</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तुम्हारी आंख के भीतर एक मछली</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तैरना स्थगित करती है</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तलहटी को घूरते हुए गाती है</span> <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">बेआवाज़</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">पानी कभी नया नहीं होता और प्रेम भी</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">फिर भी कुछ बूंदों को हम हमेशा ताज़ा कहते हैं</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">जब मन पर क़ाबू न हो</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तो याद करना</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">कैसे तेज़ बारिश के बीच अपनी छतरी संभालती थी</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">कभी-कभी चिडि़या हवा में ऐसे उड़ती है</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">जैसे करामाती नटों के खेत से चुरा ले गई हो</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">अदृश्य डोर पर चलने का हुनर</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">जोगनों की तरह साधना करती हो</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तुम पर आ-आ बैठती हैं तितलियां</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">जो दीमक तुम पर मिट्टी का ढूह बनाती है</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">उन्हें तुम सितारों-सा सम्मान देती हो</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तुम्हारे कमरे में एक बल्ब</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">दिन-रात जलता है</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">इस वक़्त तुम्हारे कमरे में होता</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तो तुम्हारी आंखों के भीतर झांकता</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">आंखें आत्मा की खिड़की हैं</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">इच्छा</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">देह की सबसे ईमानदार कृति है </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">देह इस जीवन का सबसे बड़ा संकट है</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">ऐसे चूमूंगा तुम्हें कि</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">तुम्हारा हर अनकहा पढ़ लूंगा</span> <o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">होंठ दरअसल मन की आंखें हैं</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt;">
<br /></div>
<br />
* * *<br />
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<br />
<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background-color: transparent; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial; border: none;" /></div>
Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-83431658948272275372012-12-08T12:50:00.001+05:302012-12-08T12:51:00.844+05:30कवि जहां से देखता है, दरअसल, वह वहीं रहता है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjyaS2l0hGvnGcS5MDlg6g0yrhRZRuakL0dtJkaWCfemxXIXznuLVa-C-K52zR0hXoEZSNGMfSlA9a-ibv0braXnK2gMQO-20RhYE0Cxj836OZobpja8_Jfz3JrSdNciUF6lP7kWrOpiY8g/s1600/Iman+mersal11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjyaS2l0hGvnGcS5MDlg6g0yrhRZRuakL0dtJkaWCfemxXIXznuLVa-C-K52zR0hXoEZSNGMfSlA9a-ibv0braXnK2gMQO-20RhYE0Cxj836OZobpja8_Jfz3JrSdNciUF6lP7kWrOpiY8g/s320/Iman+mersal11.jpg" width="217" /></a></div>
आपके टिकने की जगह या 'पोजीशन' का सवाल, लेखन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। फ़र्ज़ कीजिए, हम पांच कवियों को एक गुलाब या एक लाश देते हैं और उस पर लिखने के लिए कहते हैं। जिस 'पोजीशन' से वे उस पर लिखेंगे, वही 'पोजीशन' उन्हें एक-दूसरे से अलग करेगी। कुछ लोग इसे 'एक लेखक द्वारा अपनी आवाज़ पा लेना' कहते हैं। अपनी पोजीशन पाने में बहुत समय लगता है और मेरा मानना है कि लेखन में यही बुनियादी चुनौती भी है। एक बार आपने अपनी पोजीशन पा ली, लेखन अपने आप खुलने लगता है, हालांकि उस समय नई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। मेरी कविताओं के मामले में बेचैनी यही थी कि इस दहलीज़ वाली पोजीशन से अरबी भाषा में कविता कैसे लिखी जाए।<br />
<br />आज मैं इस पूरी यात्रा का वर्णन कर पा रही हूं, लेकिन उस समय तो मैं उस बेचैनी को साधारण तौर पर निराशा ही मान लेती थी।<br />
* *<br />
<br />
ईमान मर्सल अरबी की श्रेष्ठतम कवियों में से एक हैं. उनकी तीस कविताओं का अनुवाद और कविता पर लिखा उनका गद्य पढ़ने के लिए यहां जा सकते हैं.<br />
<br />
<b><a href="http://vatsanurag.blogspot.in/2012/11/sabadpustika8.html" target="_blank">सबद पुस्तिका 8 - ईमान मर्सल की कविताएं</a></b><br />
<br />
इधर किए गए कामों में इन कविताओं का अनुवाद करना बहुत संतोषजनक अनुभव रहा.<br />
<br />
<br />
<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>
Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-53064729485875318942012-09-07T17:53:00.000+05:302015-02-12T11:32:35.043+05:30समय का कंठ नीला है <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2bq0In5bHCeIK4JpY15xKHig03ZA_epRCYetYtdPwqpxsM9Akl4KCaTTsfpERlFLFyStNXnhZWpjQm7uyzNRuLC38e9w2oQictWE-zhYYtZmjgIF5iyuDEf50l7GfyLN7Dlii39EfohN_/s1600/lomonosov+2130361.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2bq0In5bHCeIK4JpY15xKHig03ZA_epRCYetYtdPwqpxsM9Akl4KCaTTsfpERlFLFyStNXnhZWpjQm7uyzNRuLC38e9w2oQictWE-zhYYtZmjgIF5iyuDEf50l7GfyLN7Dlii39EfohN_/s1600/lomonosov+2130361.jpg" height="400" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>इज़राइली फोटोग्राफ़र कैटरीना लोमोनोसोव का की एक कृति. </i></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<br />
<br />
प्रेम के दिन टूट जाने के दिन होते हैं। शुरू में ऐसा लगता कि सबकुछ फिर से बन रहा है, लेकिन प्रेम, बैबल के टॉवर की तरह होता है। सबसे ऊंचा होकर भी अधूरा कहलाता है।<br />
<br />
जब मनुष्यों ने बैबल का टॉवर बनाना शुरू किया था, तब ईश्वर बहुत ख़ुश हुआ था. धीरे-धीरे टॉवर आसमान के क़रीब पहुंचने लगा. ईश्वर घबरा गया. उसे लगा, मनुष्य उसे ख़ुद में मिला लेंगे. वे सारे मनुष्य एक ही भाषा में बात करते थे. ईश्वर ने उनकी भाषा अलग-अलग कर दी. उनमें से कोई भी एक-दूसरे को नहीं समझ पाया. सब वहीं लड़ मरे.<br />
<br />
जैसे मनुष्य की रचना ईश्वर ने की है, उसी तरह प्रेम की अनुभूति की रचना भी उसी ने की होगी। ईश्वर शैतान से उतना नहीं डरता होगा, जितना मनुष्य से डरता है। उसी तरह वह मनुष्य से इतना नहीं डरता होगा, जितना वह प्रेम से डरता है। वह प्रेम को बढ़ावा देता है, और प्रेम जैसे-जैसे ऊंचाई पर जाता है, आसमान छू लेने के क़रीब पहुंच जाता है, ईश्वर उस प्रेम से घबरा जाता है। उसके बाद वह दोनों प्रेमियों की भाषा बदल देता है। जब तक दोनों प्रेमियों की भाषा एक है, तब तक वे प्रेम की इस मीनार का निर्माण करते चलते हैं। जिस दिन उनकी भाषा अलग-अलग हो जाती है, उसी दिन वे एक-दूसरे को समझना बंद कर देते हैं और उस मीनार की अर्ध-निर्मित ऊंचाई से एक-दूसरे को धक्का मारकर गिरा देते हैं।<br />
<br />
नीचे गिरने के बाद हम पाते हैं कि हमारे सिवाय और कोई चीज़ नीचे नहीं गिरी।<br />
<br />
* *<br />
<br />
यह हिस्सा है मेरे आने वाले उपन्यास 'रानीखेत एक्सप्रेस' का.<br />
इसका एक अंश 'सबद' पर प्रकाशित हुआ है.<br />
पूरा अध्याय पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें.<br />
<br />
<b><a href="http://vatsanurag.blogspot.in/2012/09/14.html" target="_blank">सबद पर 'रानीखेत एक्सप्रेस' </a></b><br />
<br />
<br />
<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>
Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-91660841660647344002012-08-25T18:19:00.000+05:302012-08-25T18:27:28.925+05:30मेरे बचपन की पतंग आसमान में लटकी भुरभुरी उम्मीद है <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglgofHYPjcKXyIIx4_ZSRq5U37ZOMaMrdBGTQoKbIfI4CtkUtC63DFRSRLvWWo4FXgri-0xF_C6D5jMtDRdfylaZeUN-EtmNaRYkWLJ5WF51s9w5aBq0uu3vYqlssnNktjrDpPa-2xMV9s/s1600/introcyclo.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="247" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglgofHYPjcKXyIIx4_ZSRq5U37ZOMaMrdBGTQoKbIfI4CtkUtC63DFRSRLvWWo4FXgri-0xF_C6D5jMtDRdfylaZeUN-EtmNaRYkWLJ5WF51s9w5aBq0uu3vYqlssnNktjrDpPa-2xMV9s/s400/introcyclo.jpg" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
'बेवजह गलियों में भटकता है एक कवि, </div>
<span style="text-align: justify;">पाता है कि वह रास्ता भूल गया है.' </span><br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह एक वियतनामी लोकगीत की पंक्तियां हैं, जो त्रान आन्ह हुंग की फिल्म 'साइक्लो' में कहीं बजती हैं. इस फिल्म को मैं कई बार देख चुका हूं. त्रान आन्ह हुंग की फिल्में उन वीरान जगहों की तरह हैं, जहां आप सिर्फ़ एक बार जाकर लौट नहीं सकते, आप दुबारा-तिबारा जाएंगे, आप वहां घर नहीं बनाएंगे, लेकिन हर समय आप घर में रहते भी नहीं हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
घर से बाहर एक जगह ऐसी भी होती है, जहां आप उतनी ही बार जाते हैं, जितनी बार घर जाते हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हरा, आन्ह हुंग की टेक है. वह किसी भी दृश्य का हरे में अनुवाद कर सकते हैं और उमंग के रंग से उदासी का भाव पैदा करते हैं. जब सबकुछ बहुत बोल रहा हो, बोलता ही जा रहा हो, उनकी कम बोलने वाली इन फिल्मों के पास जाना, शब्दों की क़ीमत जानना है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ ऐसा ही अहसास मेक्सिकन मेकर कार्लोस रेगादास की फिल्में देखकर होता है, लेकिन इसके बाद भी वह बिल्कुल अलग भूगोल हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस समय मुझे 'साइक्लो' में टोनी लिऊंग का किरदार याद आता है, जो माफिया सरगना है और कवि भी है. लगभग गूंगा यह किरदार पृष्ठभूमि में कविताएं पढ़ता है, बहुत ज़रूरी होने पर कोई एक वाक्य उच्चरता है और हमेशा सिगरेट होंठों से लगाए रखता है. वह अपराध के लिए अनमना है. कवियों की तरह. </div>
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कवि, अनमने के आंगन में रहते हैं. कविताएं उनके अनमने की हरियाली हैं. </div>
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पूरी फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं, जहां इस कवि को संभवत: रोना हो. उसकी आंख से कोई आंसू नहीं गिरता. ऐसे समय उसकी नाक से ख़ून बहने लगता है. </div>
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<div style="text-align: justify;">
गिरे हुए आंसू, आंख के अंधेरों को याद करते हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
बहा हुआ ख़ून, धमनियों की भुलभुलैया को याद करता है. </div>
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किसी एक पृष्ठभूमि में कवि की अनमनी आवाज़ गूंजती है : </div>
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मेरी आत्मा के भीतर सूर्योदय हुआ है </div>
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हर घर के लिए एक-एक टुकड़ा सूरज </div>
<div style="text-align: justify;">
हर एक के लिए अंजुरी-भर रोशनी </div>
<div style="text-align: justify;">
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<div style="text-align: justify;">
छतरी के नीचे एक पत्ती कांपती है </div>
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और ओस याद करती है बादलों को </div>
<div style="text-align: justify;">
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पृथ्वी विशाल हवाओं की सांस छोड़ती है </div>
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जीवन के भीतर फैलती है झुरझुरी </div>
<div style="text-align: justify;">
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मेरे बचपन की पतंग </div>
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आसमान में लटकी भुरभुरी उम्मीद है </div>
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हृदय खुलते हैं, लोग रहते हैं </div>
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एक ऐसी दुनिया में </div>
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कोई भी जिससे बाहर नहीं है </div>
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* * * </div>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>
Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-2744366047824902322012-07-28T19:33:00.002+05:302012-07-28T19:35:06.548+05:30प्रेम की पंक्ति पर कट का निशान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKDMHGQQy9hzsFtueh3mvOCLELEqg474EcVlKkPwcosffviS0JrgbnCpj98vhBvfNTVz1k6M0xfdGjg1A9XlzdWQ6GOwoch4Jalu0NrOphyphenhyphenpsv5EKxha7iXPO7hExgy96ZpbF2dKnchDrh/s1600/Censoring+an+Iranian+Love+Story+-+Shahriar+mandanipour.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKDMHGQQy9hzsFtueh3mvOCLELEqg474EcVlKkPwcosffviS0JrgbnCpj98vhBvfNTVz1k6M0xfdGjg1A9XlzdWQ6GOwoch4Jalu0NrOphyphenhyphenpsv5EKxha7iXPO7hExgy96ZpbF2dKnchDrh/s400/Censoring+an+Iranian+Love+Story+-+Shahriar+mandanipour.jpg" width="300" /></a></div>
'सेंसरिंग एन ईरानियन लव स्टोरी' पिछले दिनों पढ़ी सुंदरतम किताबों में से है. शहरयार मंदानीपुर का यह उपन्यास आधुनिक ईरान में प्रेम करने और प्रेम कथा लिखने दोनों को एक विडंबना की तरह प्रस्तुत करता है.<br /><br />ईरान में साहित्य पर सेंसरशिप की तलवार है. किताब तब तक नहीं छप सकती, जब तक कि मंत्रालय उसे मान्यता न दे दे. आप कहानी लिखें, पांडुलिपि तैयार करके संस्कृति मंत्रालय के पास भेजें, छह महीने, साल-दो साल, कुछ मामलों में पांच साल बाद मंत्रालय से जवाब आएगा. शायद ही कोई किताब ऐसी हो, जो बिना काट-छांट के प्रकाशित होती हो. ज़्यादातर किताबों को सीधे ख़ारिज कर दिया जाता है. <br /><br />स्थिति यह है कि सदियों से मक़बूल निज़ामी गंजवी की प्रेमकथा 'ख़ुसरो और शीरीं' को छापने पर वहां पाबंदी लगा दी गई है. समकालीन कृतियों को तो लंबे समय तक अटका दिया जाता है. विश्व साहित्य की जिन महान किताबों को वहां छापने पर मनाही है, उनमें दोस्तोएवस्की की 'गैंबलर', फॉकनर की 'ऐज़ आय ले डाइंग', नबोकोव की 'लोलिता' और मारकेस की 'मेमरीज़ ऑफ़ माय मेलन्कली होर्स' प्रमुख हैं. (जो अभी याद आ रहीं, ऐसी तो सैकड़ों हैं.)<br /><br />मंदानीपुर इस उपन्यास में दारा और सारा की लोकप्रिय कथा वर्तमान की पृष्ठभूमि में लिखते हैं. किताब में एक ही कहानी के दो संस्करण साथ-साथ चलते हैं. एक जो लेखक लिख रहा है. उसे आशंका है कि उसके लिखे को सेंसर अप्रूव नहीं करेगा. इसलिए वह ख़ुद ही उसे सेंसर कर देता है. इसके लिए सब-स्क्रिप्ट का प्रयोग कर टाइपिंग के दौरान वाक्य पर बीच में से 'कट' लगा देता है. यानी पाठक उस वाक्य को भी पूरा पढ़ सकता है. इस तरह पूरी कहानी दो स्तरों पर चलती है. कटे हुए वाक्यों में ईरान का सच पढ़ा जा सकता है. अनकटे वाक्यों में एक राज्य लेखक से जो लिखवाना चाहता है, वह पढ़ा जा सकता है. बहस्तरीयता और मेटाफिक्शन का यह प्रयोग दुर्लभ और रोचक है. इसे पढ़ते हुए कल्वीनो की 'इफ़ ऑन अ विंटर्स नाइट अ ट्रैवलर' बराबर याद आती है. <br /><br />यह किताब इतनी अच्छी लगी है कि इस पर विस्तार से लिखने का मन है. राज्य, लेखक, सेंसर, सेल्फ़-सेंसर, प्रेम, दमन और अंतत: विरोध में की गई मॉकरी इसके कंटेंट को शक्ति देते हैं. और तकनीक, जैसा कि कहा ही, अत्यंत उन्नत तो है ही. अब यह मेरी अत्यंत प्रिय पुस्तकों में शामिल हो गई है.<div style="text-align: justify;">
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<span style="background-color: white;"><a href="http://www.homeshop18.com/censoring-iranian-love-story/author:mandanipour/isbn:9780349121451/books/miscellaneous/product:27582784/cid:14567/" target="_blank">जिन्हें लेनी हो, यहां से मंगा सकते हैं. </a><br /></span></div>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-2816300605597901182012-06-28T15:57:00.001+05:302012-06-28T15:58:31.350+05:30निशास्वर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEji6RFATDdezPLkunTRfd4xhoVTQYms1589H8Z4YoEcI_L9qBjIcftKpYR4-8Yb7VBdngTx3FVn06ipRyLJ9RG3RpBGy2lR19POUpc4AGeAYxoi-e8ulTEw0-VCKThqabhnYXeUxMbvDtrW/s1600/S001%252824x36%2529.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEji6RFATDdezPLkunTRfd4xhoVTQYms1589H8Z4YoEcI_L9qBjIcftKpYR4-8Yb7VBdngTx3FVn06ipRyLJ9RG3RpBGy2lR19POUpc4AGeAYxoi-e8ulTEw0-VCKThqabhnYXeUxMbvDtrW/s400/S001%252824x36%2529.JPG" width="400" /></a></div>
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जाग, दो निद्राओं के बीच का पुल है, जिस पर मैं किसी थके हुए बूढ़े की तरह छड़ी टेकता गुज़र जाता हूं. दिन की किसी ऊंघ में जब यह पुल कमज़ोर होता है, मैं छड़ी की हर थाप पर अपने क़दम रखता हूं. आवाज़ पायदान होती है. पदचाप की ध्वनि पैरों के होंठों से निकली सीटी है. <br /><br />दिन कुछ कंकड़ों की तरह आते हैं. उनका आकार तय नहीं होता. कई बार इतनी दूर बैठकर मैं अपने दिनों को देखता हूं कि भारी चट्टान-से एक दिन को कंकड़ मानने की भूल कर बैठता हूं. <br /><br />चट्टान की चोट को कितना भी दूर खड़े होकर देखो, कंकड़ की चोट जैसी नहीं दिखेगी. ध्यान रखना कि <br /><br />छल जिन लोगों का बल है, उनकी पेशानी पर ठंडे पानी की पट्टियां रखना. वहां मेरे नाम के बल बुख़ार की तरह पड़ते हैं. <br /><br />तुम्हारा चेहरा जब-जब भी मैं हथेली में थामता हूं, मुझे लगता है, मैं अपनी सारी स्मृतियों को अपने प्रेम की अर्घ्य दे रहा. तुम मेरे आंसुओं से आचमन करती हो. खिलखिलाते हुए पानी का प्रदेश बन जाती हो. <br /><br />सारी रात मैं अंधेरे के सिरहाने बैठता हूं और सीली माचिसों को कोसता हूं. इस समय दिन अतीत है. सूरज अतीत की उपस्थिति था. गर्मी अतीत की एक घटना. इस समय इस कमरे में जितनी भी उमस है, वह अतीत की उमस है. <br /><br />जबकि दिन मैंने अतीत में जाकर नहीं गुज़ारा था. <br /><br />किसी ने पूछा था, तुम गुनहगार हो, जो तुम्हें नींद नहीं आती? गुनहगारों को जागती हुई रातें मिलें, यह उनका अव्वल नसीब होगा. जो मुतमईन सोते हैं, वे भी बेगुनाह नहीं हैं. <br /><br />आंसू में नमक हो न हो, नहीं पता, उनमें गोंद ज़रूर होती है. वह अपनी जीभ की गरम नोंक पर रोपती थी मेरा हर आंसू और आसमान में सितारा बनाकर चिपका देती थी. सितारे टिमटिमाते हैं, क्योंकि वे मुझसे नज़रें नहीं मिला पाते. मुझे हर सितारे की कहानी पता है. <br /><br />चौंधियाना, दृश्य को भंग करना है. <br /><br />छोटे बादलों की ये क़तारें आसमान में पड़ी सिलवटें हैं. मेरी रातें गठरी से बाहर निकले कपड़ों की तरह मुड़ी-तुड़ी हैं. उमस का पसीना श्रम का मख़ौल है. <br /><br />आत्मा इस देह के भीतर उतनी ही अजनबी है<br />जैसे बड़े शहर के बड़े बाज़ार की बड़ी भीड़ के बीच अजनबी हूं मैं <br /><br />सुनो, तुम थोड़ा ज़ोर से गाया करो <br />झींगुर मेरी रातों को धीरे-धीरे कुतर रहे हैं <br /><br />काजल आंख का सपना है. तुम्हारी बाईं आंख से थोड़ा काजल जो फैल गया है, तुम उसकी फि़क्र कभी मत करना. सपनों की कालकोठरी से भला कोई बेदाग़ निकला है?<br /><br />* * * <br /><br />एक अनाम रात, जिससे चांद की कलाएं भी नितांत अपरिचित हैं, जिसे पड़ोसन रातें भी नहीं पहचानतीं, रोज़मर्रा की रातों के गुच्छे में अचानक उग आई. उस रात के अभिवादन में बुनी गई शब्दों की एक देह<span style="background-color: white;">. साथ लगी पेंटिंग सिद्धार्थ की है. </span><div>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>
</div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-87044798588007443682012-06-12T15:57:00.003+05:302012-06-12T15:59:03.410+05:30नेरूदा और मातील्दा - एक प्रेमकथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUXopieS12hw2UOyIKCQKdYLzYqZknJksAVK2DyAV0lSysi72CAr2pXDyNFBJ7Q5aUXMgaUggotESF0qx7Y5ffL79X4P87_3ANR24Gn82XJCqjn1SQVxrnlDXgRERB5LDws4fTYC4PfFLI/s1600/Neruda+y+Matilde.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="403" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUXopieS12hw2UOyIKCQKdYLzYqZknJksAVK2DyAV0lSysi72CAr2pXDyNFBJ7Q5aUXMgaUggotESF0qx7Y5ffL79X4P87_3ANR24Gn82XJCqjn1SQVxrnlDXgRERB5LDws4fTYC4PfFLI/s640/Neruda+y+Matilde.jpg" width="640" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">नेरूदा और मातील्दा, इस्ला नेग्रा के पीछे तट पर. </td></tr>
</tbody></table>
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पाब्लो नेरूदा और मातील्दा उर्रूतीया की प्रेमकथा, उनका संग-साथ, उनके संस्मरण, नोंकझोंक आदि मुझे बहुत आकर्षित करते हैं. दोनों के बारे में कुछ भी मिले, मैं खोज-खोजकर पढ़ता हूं. इनके प्रेम के उन्माद के किस्से, नेरूदा की कविताओं के कई अनछुए पहलओं की ओर ले जाते हैं.<br />
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निर्वासन के दिनों में पाब्लो मेक्सिको में थे और वहां उनकी तबीयत बिगड़ गई. चूंकि उनके शत्रु बहुत थे, उनके दोस्तों ने उनकी मिज़ाजपुर्सी के लिए किसी अत्यंत विश्वस्त को उनके साथ रखने का फ़ैसला किया. चिली का तानाशाह पाब्लो के पीछे पड़ा था और उसकी सा़जि़श पाब्लो के भोजन में ज़हर मिला देने की थी. ऐसे में पाब्लो के साथ किसी विश्वासपात्र का होना ज़रूरी था. उनका एक दोस्त एक संघर्षशील गायिका को जानता था, जो अगर पाब्लो के साथ रहे, तो तानाशाह को भनक भी न लगेगी. वह थी चिली की ही मातील्दा. साथ रहने के दौरान दोनों में प्रेम हो गया. मातील्दा मेक्सिको में ही बस गईं. लेकिन ठीक होने के बाद नेरूदा को मेक्सिको से भी भागना पड़ा. वह यूरोप पहुंच गए. <br /><br />काफ़ी समय बाद उन्होंने किसी तरह व्यवस्था की कि मातील्दा भी यूरोप आ जाएं. उन्होंने मातील्दा को बर्लिन के पुस्तक मेले में बुलाया. नेरूदा, सारी व्यवस्था किसी ख़ुफि़या एजेंट की तरह करवाते थे. यानी एअरपोर्ट से एक गाड़ी मातील्दा को लेगी, रास्ते में उसे बदल दिया जाएगा, पहले वह दूसरी जगह पहुंचेंगी, वहां से तीसरी जगह और उसके बाद पहली जगह यानी जहां मुलाक़ात होनी थी. मातील्दा उत्साहित थीं. जब वहां पहुंचीं, तो नेरूदा और उनके दोस्तों को देख आतंकित हो गईं. नेरूदा ने उनकी मुलाक़ात तुर्की कवि नाजि़म हिकमत से कराई. नाजि़म, पाब्लो के उस प्रेम के बारे में जानते थे. वह मातील्दा को देर तक देखते रहे. अचानक छह फीट ऊंचे नाजि़म ने छोटी-सी मातील्दा को गोद में उठा लिया, उनका माथा चूमते हुए कहा, 'आय अप्रूव !' <br /><br />मातील्दा दंग रह गईं. जिस रिश्ते को छिपाए रखने के लिए वह अपनी हर अभिव्यक्ति को नियंत्रित रखती थीं, उस रिश्ते के बारे में पाब्लो अपने दोस्तों से बेहिचक बात करते थे. थोड़ी देर बाद क्यूबा के कवि निकोलास गीयेन टहलते हुए आए और पाब्लो से कहा, 'तो यह है मातील्दा.' और रहस्यमय तरीक़े से मुस्कराते रहे. मातील्दा किताबों और दोस्तों में भटकती रही, नेरूदा अपने कार्यक्रमों में उलझे रहे.<br /><br />शाम होने पर नेरूदा ने मातील्दा से कहा, 'गाड़ी तुम्हें होटल तक छोड़ देगी. जल्दी पहुंच जाओ. वहां तुम्हारे लिए एक तोहफ़ा रखा हुआ है.' दिन-भर के अनुभव से हैरान मातील्दा सोच में पड़ गईं कि उन्हें यूरोप रुकना चाहिए या लौट जाना चाहिए. जैसे ही वह होटल के अपने कमरे में पहुंची, भीतर नेरूदा और नाजि़म पहले से मौजूद थे. मातील्दा को हैरान देख दोनों ठहाका मारकर हंस पड़े. नाजि़म ने नाटकीय अंदाज़ में नेरूदा की ओर उंगली से इशारा किया और बोले, 'मैडम, ये है आपका तोहफ़ा. हमारे समय का सर्वश्रेष्ठ कवि.' और हंसते हुए ख़ुद कमरे से बाहर चले गए. <br /><br />मातील्दा ने मेक्सिको में जिस नेरूदा को जाना था, वह जान बचाने की ख़ातिर सबसे छिपे बैठे बीमार नेरूदा थे. असली नेरूदा यहां बैठे थे. मुसीबत के सबसे गाढ़े पलों में भी गगनभेदी ठहाके लगाने वाले और अक्सर क़रीबी दोस्तों को इसी तरह चौंका देने वाले नेरूदा. अगले कुछ दिन दोनों ने यूरोप में साथ घूमते हुए बिताए. दोनों रोमानिया में जिस मकान में ठहरे थे, उसकी केयरटेकर एक रोमानियन महिला थी, जो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थी. ये उसकी भाषा न समझ पाते, न ही वह इनकी भाषा समझ पाती. फिर भी वे आपस में बात करते, और बातों को संगीत की तरह सुनते. एक सुबह नाश्ते के दौरान पाब्लो ने केयरटेकर से अंडे उबालने के लिए कहा. अंडों की संख्या बताने के लिए उन्होंने दो उंगलियां उठाकर इशारा किया. केयरटेकर मुस्कराई और थोड़ी देर बाद ग्यारह उबले अंडों के साथ लौटी. उनके यहां दो उंगलियों का अर्थ दो नहीं, ग्यारह होता था. वे जितने दिन वहां रहे, नेरूदा उस केयरटेकर को देखते ही ठहाके लगाने लगते थे. <br /><br />मेक्सिको में मातील्दा, नेरूदा के बच्चे की मां बनने वाली थीं, लेकिन स्वास्थ्य ख़राब हो जाने के कारण तीन माह का गर्भपात हो गया. उसके बावजूद मातील्दा, नेरूदा के साथ कोई लंबा भविष्य नहीं देख रही थीं. उनके लिए पाब्लो एक बहुत अच्छे दोस्त थे, जिससे बेशुमार चुहल की जा सकती है. जिसकी कविताओं को रोते हुए पढ़ा जा सकता है और किताब तकिए के नीचे रखकर सोया जा सकता है. उन शुरुआती दिनों के रिश्ते, अगंभीरता, व्यथा और तेज़ आकर्षण को नेरूदा के संग्रह 'द कैप्टन्स वर्सेस' की कविताओं में देखा जा सकता है. नेरूदा ने ये कविताएं मातील्दा के साथ यूरोप में बिताए समय में ही लिखी थीं. वह कविता लिखते, मातील्दा को उसकी पुर्जी थमाकर कहते, जब कोई भी पास न हो, तब पढ़ना. मातील्दा अपने कमरे में रात-रात भर एक ही कविता पढ़ती रहतीं. लेकिन वह डरने भी लगीं. उन्हें लगता था कि यह छिपा हुआ रिश्ता ज़्यादा नहीं चलेगा. एक दिन नेरूदा हमेशा के लिए चले जाएंगे. ऐसे किसी दुख को वह दूर से ही भगा देना चाहती थीं. कई दिनों की उथलपुथल के बाद उन्होंने घोषणा कर दी कि वह नेरूदा के साथ नहीं रहेंगी, मेक्सिको लौट जाएंगी. नेरूदा ने उन्हें मनाने की कोशिश की. उनके क़रीबी दोस्त गीयन ने इस बारे में मातील्दा से बात करनी चाही, लेकिन मातील्दा ने किसी की सुनने से इंकार कर दिया. </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgf-3wiAoF_S4pCB3NcbZ_zAQtFvyf0eW7bhzCnwpxvAJTuhAeCZP6aSQFFEQsaqvqzoKnrclFatwRgAf0kqPjbnkCXRwl1BMTUMrEc8AFl0BzcQ0T1IYxfA_9YXEunOlcYEX4dyvxIBU5O/s1600/502879_1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgf-3wiAoF_S4pCB3NcbZ_zAQtFvyf0eW7bhzCnwpxvAJTuhAeCZP6aSQFFEQsaqvqzoKnrclFatwRgAf0kqPjbnkCXRwl1BMTUMrEc8AFl0BzcQ0T1IYxfA_9YXEunOlcYEX4dyvxIBU5O/s1600/502879_1.jpg" /></a></div>
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एक दिन दोनों अलग हो गए. मातील्दा पेरिस आ गईं, उस मकान में जिसे नेरूदा ने उन्हीं के लिए किराये पर लिया था. वहां से उन्हें मेक्सिको रवाना होना था. नेरूदा यूरोप में भटकते रहे. उन्हें कुछ-कुछ दिनों में जगह छोड़नी होती थी. तमाम कोशिशों के बाद भी मातील्दा मेक्सिको का टिकट ख़रीदने की हिम्मत न जुटा पाईं. पेरिस में ही एक महीने रहीं. पीड़ा, अवसाद, दुख और उहापोह के बीच वह प्रतीक्षा करती रहीं कि शायद नेरूदा उन्हें एक तार कर दें, कोई चिट्ठी लिख दें या फिर किसी दिन फ़ोन ही कर दें. ऐसा कुछ न होता देख वह हताश हो गईं. उन्हें लौट जाने का अपना फ़ैसला ग़लत लग रहा था, लेकिन जितनी बेरुख़ी से वह नेरूदा को छोड़ आई थीं, उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह ख़ुद ही अपने दुख को स्वीकार कर सकें और नेरूदा को खोजकर यह कह सकें कि तुम्हारे बिना नहीं रहा जा रहा. <br /><br />जिस दिन उन्होंने मेक्सिको का टिकट ख़रीदा, उसी शाम उन्हें नेरूदा का फ़ोन आया. उनकी आवाज़ सुनते ही वह खिल उठीं. लेकिन नेरूदा ने रूखी सी आवाज़ में कट-टु-कट सिर्फ़ एक लाइन कही, 'कल दोपहर कहीं मत जाना. तुम्हारे नाम एक पार्सल भेजा है.' मातील्दा को लगा कि नेरूदा की नई किताब 'कान्तो जनरल' आने वाली थी, उन्होंने वही भिजवाई है. फिर भी नेरूदा का फ़ोन पाकर उन्हें बेतहाशा ख़ुशी हुई. उन्हें अच्छा लगा कि पाब्लो ने अभी तक उन्हें अपने जीवन से बाहर नहीं किया है. वह अगली दोपहर का इंतज़ार करने लगीं. शाम हो गई, कुछ नहीं आया. रात को अचानक दरवाज़े की घंटी बजी, मातील्दा ने लपककर दरवाज़ा खोला, तो सामने नेरूदा की एक पत्रकार मित्र खड़ी थी, जिससे इनकी भी अच्छी बनती थी. वह प्राग से, शाम वाली फ़्लाइट से आ रही थी. <br /><br />थोड़ी देर बात करने के बाद मातील्दा ने पूछा, 'मेरा कोई पार्सल आने वाला था, क्या तुम्हीं लाई हो?' <br /><br />दोस्त ने कहा, 'मैं ही तुम्हारा पार्सल हूं. मुझे पाब्लो ने ही भेजा है, अपने आप नहीं आई हूं.' <br /><br />फिर दोस्त ने कहना शुरू किया, नेरूदा बीमार हो गए हैं. दुबले और क्लांत हैं. उनका मन नहीं लगता, वह चिड़चिड़े हो गए हैं. सारे दोस्त अब उनसे दूर भागने लगे हैं. उनसे बात करने जाओ, तो काटने को दौड़ते हैं. आज सुबह उनका फ़ोन आया. मुझे नींद से जगा दिया और कहा, तुम्हारा टिकट तैयार है. एअरपोर्ट पर मिल जाएगा. सीधे पेरिस पहुंचो और मातील्दा को मेरे पास ले आओ.<br /><br />मातील्दा को यह सब सुन अच्छा लगा, लेकिन वह जताने लगीं कि उन्हें लौटना है. उन्होंने टिकट भी ख़रीद लिया है. वह पाब्लो के प्रस्ताव के बारे में सोचेंगी और मेक्सिको पहुंचकर उन्हें चिट्ठी लिख देंगी. <br /><br />यह सुनकर दोस्त ज़ोर से हंसी और बोली, 'लगता है, तुम पाब्लो को अब भी नहीं जान पाई. इतना समय नहीं होता उसके पास. यह सुबह की टिकट है, हम दोनों की. सुबह हम जिनेवा पहुंच रहे हैं. वहां एअरपोर्ट के बाहर एक कैफ़े में पाब्लो हमारा इंतज़ार कर रहा होगा. और हां, सुन लो, ऐसे नहीं चलोगी, तो मुझे मजबूरन पेरिस से ही अपने कुछ और दोस्तों को बुलाना होगा. फिर हम सब तुम्हें जबर्दस्ती उठा ले जाएंगे. ऐसा पाब्लो ने ही कहा है. उसने सबको तैयार रहने को कहा है. बस, उन्हें बुलाने की देर है.'<br /><br />मातील्दा वहीं सुबकने लगीं. अगली सुबह जिनेवा के उस कैफ़े में दोंनो प्रेमी तरुणों की तरह चिपके हुए थे और देर तक रोते रहे थे.<br />
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background-color: transparent; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial; border: none;" /></div>
</div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-12774374794407573652012-06-09T19:50:00.000+05:302012-06-09T19:50:01.368+05:30मंत्रोच्चार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-15Igs5YUe96hYlP7dHI9EZqS1zXQMd7WZmPwPjHD7Ie2QncTrnHC8I4MWPLfWGlKG0uE6y2beOh6aVkZ8uKis0l8SE5SFP5VztJMtQtT1QcKnzf09nnaSnc00cBFQ9A8xuDfTv89u6LP/s1600/VS+GAITONDE.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-15Igs5YUe96hYlP7dHI9EZqS1zXQMd7WZmPwPjHD7Ie2QncTrnHC8I4MWPLfWGlKG0uE6y2beOh6aVkZ8uKis0l8SE5SFP5VztJMtQtT1QcKnzf09nnaSnc00cBFQ9A8xuDfTv89u6LP/s400/VS+GAITONDE.jpg" width="283" /></a></div>
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तुम्हारा नाम तुम्हारी उपस्थिति के पाठ का शीर्षक है <br /><br />नींद के पहले स्वप्न होते हैं <br />सो जाने के बाद किसी स्वप्न का कोई अर्थ नहीं <br />हमारे भीतर का अंधेरा हमारी कंखौरी तले चिपका होता है <br />किसी-किसी रात हम जुगनू भी नहीं होते <br /><br />फाउंटेन पेन को मैं साध नहीं पाता <br />दस मिनट खुला रख दो तो सूख जाती है स्याही <br />मित्रों जैसी एक निब सूखकर शत्रुओं की तरह काग़ज़ से रगड़ खाती <br />थोड़ा ज़ोर से हिल जाए अगर जेब के ही भीतर<br />तो वैसे ही छलकती <br />जैसे कड़वी रातों को तुम्हारे आंसू छलके थे <br /><br />कोई कपड़ा देह को दाग़ से नहीं बचा पाता <br />कोई देह आत्मा को खुरच से नहीं बचा पाती <br /><br />इससे बुरा क्या <br />अगर आंख की पुतली ही आंख की किरकिरी बन जाए <br />कुछ नदियां ताउम्र ज़मीन के नीचे ही बहती हैं <br /><br />तुममें विसर्जन तुम्हारा सर्जन है <br /><br />तुम पूरी थी तुममें से टूटकर निकला मैं <br />मैं भी पूरा हूं बिल्कुल अधूरा नहीं <br />देखो, टूटने से भी पूरा हो सकते हैं हम <br /><br />हम हमेशा उसी से प्रेम करते हैं <br />हम जिसके बस के नहीं होते <br /><br />शालीनता अतिभंगुर है<br />नूह, अपनी नौका में तुम रोज़ उसे रखना <br /><br />दुख का शौर्य रणभूमि से बाहर खड़ा होता है <br /><br />घास दृश्य पर टंका हरा फुटनोट है <br />अनुपस्थिति जीवन में घास की तरह उगती है असीमित <br /><br />नये निष्कर्षों को पुराने ब्रह्मसत्यों में सीमित कर देना <br />यात्राओं की सरासर अवहेलना है <br />फूहड़ मंत्रोच्चार है <br />
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<div style="text-align: right;">
<i><b>(बीते दिनों की कविता. साथ लगी पेंटिंग वीएस गायतोंडे की है.)</b></i></div>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-59731826709714445132012-05-26T20:33:00.000+05:302012-05-26T20:33:09.286+05:30भगवत रावत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2cxIFKm3k5sMisFsT8c-IiCf3SuLsofgO0V3jXbeY5Xn2vOTZ-zff7woyir9697rym2Co9FoXLKU6U-4Po5mXjwVo7wfGaSMysbCLmBvLf9xrNTPtMii_HorrAxz1qC8aPklkPW7E-A-H/s1600/Bhagwat+Rawat.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2cxIFKm3k5sMisFsT8c-IiCf3SuLsofgO0V3jXbeY5Xn2vOTZ-zff7woyir9697rym2Co9FoXLKU6U-4Po5mXjwVo7wfGaSMysbCLmBvLf9xrNTPtMii_HorrAxz1qC8aPklkPW7E-A-H/s320/Bhagwat+Rawat.jpg" width="212" /></a></div>
<span style="text-align: justify;">क़रीब डेढ़ साल पहले- </span><br />
<div style="text-align: justify;">
शाम फ़ोन बजता है. उस तरफ़ एक कांपती हुई, लेकिन ओजस्वी बुज़ुर्ग आवाज़ है. उलाहने का आरोह है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'तुम्हें आने की फ़ुरसत नहीं मिलती?' </div>
<div style="text-align: justify;">
'दादा, क़सम से. बहुत उलझा हुआ हूं. नहीं निकल पाया.'</div>
<div style="text-align: justify;">
'अभी कहां हो?'</div>
<div style="text-align: justify;">
'दफ़्तर में.' </div>
<div style="text-align: justify;">
'तुम नहीं आ रहे, तो हम ही दस मिनट में पहुंच रहे हैं. सीढ़ी नहीं चढ़ पाएंगे, इसलिए तुम नीचे ही आ जाना.' </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
क़रीब पंद्रह मिनट बाद दफ़्तर के बाहर सड़क पर हम मिलते हैं. यह भगवत रावत थे. हिंदी के वरिष्ठ कवि. बलवान कवि. हम दो घंटे से ज़्यादा बाहर चाय की भीड़-भरी गुमटी पर बैठे रहे. दुनिया-जहान की बातें करते रहे. वह सन् 80 का भोपाल और सत्तर का हैदराबाद बताते रहे. उनकी बातें, एक से जुड़ती एक. किसी ने स्वेटर में ऊन की एक गांठ खोल दी हो. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उनके ठहाके. बीच-बीच में दर्द की शिकन. बुज़ुर्गियत लाड़ और शिकायतों का युग्म है. पुराने से शिकायत होती है. नये से लाड़ होता है. जो नहीं हो सका, उसकी शिकायत होती है. जो होना संभव दिख रहा है, उसके लिए लाड़ होता है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उनमें यह दोनों था. उनमें कवि होने का अधिकार था. कुछ कवि बहुत संकोच से दुनिया को देखते हैं. वह पूरे अधिकार से दुनिया को देखते थे. अधिकार का ऐसा बोध या तो ईश्वर में होता है या कवि में. और दोनों अलग ध्रुव हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह उस समय की बात है, जब रावत जी से लोगों ने उम्मीदें छोड़ दी थीं. वह बरसों से किडनी ख़राब होने के कारण बीमार थे. ख़ुद ही डायलिसिस करते थे. उस समय भी उनमें वह गर्मजोशी थी कि एक युवा कवि से मिलने उसके दफ़्तर पहुंच गए. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उनकी हालत स्थायी रूप से ऐसी ही कमज़ोर और बीमार थी. जि़ंदगी का हर पल, पुरानी बचतों के पल का ब्याज़ लग रहा था. फिर भी वह भोपाल के साहित्यिक कार्यक्रमों की शोभा थे. मंच से एक गरजती हुई आवाज़ आएगी और वह किसी एक ग़लत रेफ़रेंस को दुरुस्त कर देंगे. अपनी स्मृति और गर्जना से किसी वक्ता की साहित्यिक चतुराई की पोल खोल देंगे. अभी कुछ महीनों पहले की बात है. उन्हें साहित्यिक कार्यक्रमों में इसी रूप में देखा किया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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जो जानते हैं, वे मानेंगे कि यह रुग्णता दारुण बना देती है. वह कुछ बरस पहले कंपकंपाए थे, पर फिर से ज्योतिर्मान हो गए. ऐसा जीवट आम नहीं. जीने की इच्छा उनकी पीठ पर उगा पंख थी. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भोपाल में उनकी उपस्थिति पितामह-सरीखी़ थी. वह भोपाल का सारा चिरकुटत्व देखते और बेबस रह जाते. बल की ध्वनि से बोलते, फिर चुप हो जाते. अभी भी उनके भीतर प्रतीक्षा थी. अब भी वह कविताएं लिख रहे थे. अब भी उनके पास योजनाएं थीं. और अब भी, इन सबको लेकर आंखों में इतनी चमक, आवाज़ में उमंग थी कि उनके डोलने की कांप उनका सिंगार बन जाती. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ वृद्धताएं बहुत सुंदर होती हैं. इतनी सुंदर कि हज़ार तरुणाइयां उनके आगे पानी भरे. देखा जाए, तो पूर्णिमा का चांद दरअसल वृद्ध चांद होता है. भगवत यही बने. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आज सुबह भोपाल के भदभदा श्मशान में बहुत भीड़ थी. हर तरफ़ से लोग आए थे. सारे उनके चाहने वाले. सब जानते थे कि ऐसा होना बहुत दिनों से बदा है. किसी भी पल उनके न रहने की ख़बर आ जाएगी. फिर भी, सब जब उन्हें सार्वजनिक जगहों पर देखते थे तो यही महसूस होता था, इतनी आसानी से नहीं . इस आदमी की देह का गुरदा कमज़ोर हुआ, तो मन में गुरदा उग गया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जानना हो कि रस्सी में कितना बल है, तो उसे एक बार जला दिया जाए. जलने के बाद बल नहीं जाता, यानी बना हुआ बल, भरा हुआ बल था. इस कहावत को नकार में न देखें. आज मैंने अपनी आंख से भगवत रावत की देह को जलते हुए देखा है. भगवत की कविता का बल तो बना ही रहेगा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हम लोगों को एक लाड़ अब कभी नहीं मिलेगा. </div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ उलाहने हम लोग अब कभी नहीं सुनेंगे. </div>
<div style="text-align: justify;">
एक अडिग कंपकंपाहट हमेशा के लिए थिर गई. </div>
<div style="text-align: justify;">
उनकी राख में त्वचा की तरह झुर्रियां हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8VHGfVzuXch16KmVq_awCoHanto6V_9dvlbtWzLwSyBLiUMlnbvBqkNtV2WLKXwe1yVmswHlOfDblEEIRkmmRQf6axLIc9KZa7pfVhV5JPeCpEtrWp61xgFQVbVGfi_0jRF3yUmqm3OGl/s1600/Sabad+Poetry+Film+-+7+Poems+by+Geet+Chaturvedi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8VHGfVzuXch16KmVq_awCoHanto6V_9dvlbtWzLwSyBLiUMlnbvBqkNtV2WLKXwe1yVmswHlOfDblEEIRkmmRQf6axLIc9KZa7pfVhV5JPeCpEtrWp61xgFQVbVGfi_0jRF3yUmqm3OGl/s640/Sabad+Poetry+Film+-+7+Poems+by+Geet+Chaturvedi.jpg" width="320" /></a></div>
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यह नया है. सबद की सालगिरह पर बना है.<br />
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यह 'सबद पोएट्री फिल्म' है. इसमें मेरी सात कविताएं हैं. अपनी कविता पर एक छोटा-सा वक्तव्य है. बहुत सारी जि़ंदा तस्वीरें हैं और चुनिंदा संगीत है. कहना न होगा, बिना किसी संसाधन के यह काम हुआ है.<br />
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यह एक छोटी-सी कोशिश है. सबद पर प्रकाशित-प्रसारित हुई है. इस लिंक पर देखें.<br />
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<b><a href="http://vatsanurag.blogspot.in/2012/05/blog-post_18.html" target="_blank">सबद पोएट्री फिल्म : गीत चतुर्वेदी</a></b><br />
<br />
या सीधे यू-ट्यूब पर ही देख लें.<br />
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<iframe allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="http://www.youtube.com/embed/Gc5VIo7R83E" width="420"></iframe>
<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background-color: transparent; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial; border: none;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-18663116394518369962012-05-16T15:01:00.000+05:302012-05-16T15:02:50.234+05:30एक ताज़ा इंटरव्यू<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjegNwFmGOGfpQC7MjQ4Y3HLXgvJ913nD9kWJQBvoszgOzpD9YIe0CqSV8UX2AS_-zbjYhE6KdNLRSs-z17AW9WQMHWxf73znXXn7qsDu8ea3HBS2Lt1MSfFIBd1skAIaGz7CPxunA3FsTo/s1600/Geet+Chaturvedi+5.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="304" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjegNwFmGOGfpQC7MjQ4Y3HLXgvJ913nD9kWJQBvoszgOzpD9YIe0CqSV8UX2AS_-zbjYhE6KdNLRSs-z17AW9WQMHWxf73znXXn7qsDu8ea3HBS2Lt1MSfFIBd1skAIaGz7CPxunA3FsTo/s640/Geet+Chaturvedi+5.JPG" width="640" /></a></div>
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युवा कवि सिद्धान्त मोहन तिवारी ने एक इंटरव्यू लिया है, जिसे उन्होंने अपने ब्लॉग<b><a href="http://ssiddhantmohan.blogspot.in/" target="_blank"> 'बुद्धू-बक्सा'</a></b> पर प्रकाशित किया है. इसके सवाल बहुत अनोखे हैं, इसलिए कि वे एक बड़े फलक को संबोधित करते हैं. उनके जवाबों में कई बार अटकाव का अंदेशा रहा. बहरहाल, वे ऐसे बुनियादी प्रश्न हैं, जिन पर बात करने में बहुत आनंद आया. ख़ासकर, समय का सवाल. हम अपनी रचनाओं में उसी को छूना चाहते हैं, उसी के पार जाना चाहते हैं, और घर्षण भी उसी से होता है.<br /><br />नीचे दिए गए लिंक पर जाएंगे, तो आपको यह पूरा इंटरव्यू पढ़ने को मिलेगा. इसमें समय, धर्म, प्रेम, स्मृतियों आदि पर मेरे कुछ ऑब्ज़र्वेशन हैं, नई कविताओं की शैली के बारे में विस्तार से बातें हैं और हमेशा की तरह, अपने प्रिय लेखकों के प्रति मेरा श्रद्धासुमन-अर्पण भी है.<br /><br /><span style="background-color: #fff4de; color: #6c6969; font-family: Tahoma, Geneva, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify;"><span lang="HI" style="background-color: #d9ead3; font-family: Utsaah, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 27px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px;"><span style="color: red; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px;"><b><a href="http://ssiddhantmohan.blogspot.in/2012/05/blog-post.html" target="_blank">गीत चतुर्वेदी से सिद्धांत मोहन तिवारी की बातचीत</a></b></span></span></span>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-32879421089956292192012-04-27T15:42:00.000+05:302012-04-27T15:52:41.070+05:30नेपथ्य में भव्यता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi18xs9H459LvZpSDdWLATNlEUp0r-b2jiVIQWpUdeO5slH_IPLToegJxYItys-nZd1g0CXaQCMtUvbKm6Gf5dyETOwSBKHdSZyxATjYQ05_gnpO5YNolwfnvlwMrdnWIKkUlFNcWrkaTn6/s1600/Ram-Kumar-Photograph-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="210" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi18xs9H459LvZpSDdWLATNlEUp0r-b2jiVIQWpUdeO5slH_IPLToegJxYItys-nZd1g0CXaQCMtUvbKm6Gf5dyETOwSBKHdSZyxATjYQ05_gnpO5YNolwfnvlwMrdnWIKkUlFNcWrkaTn6/s400/Ram-Kumar-Photograph-1.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">वाराणसी, राम कुमार. </td></tr>
</tbody></table>
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'मेघदूतम' में कालिदास, उज्जैन को स्वर्ग से टूटकर गिरा एक टुकड़ा कहते हैं. जब मेघदूत इस शहर की छत से गुज़रता है, तो बस, इसे निहारता रहता है, इसकी और इसके लोगों की तारीफ़ में कई पन्ने लिखे हैं उन्होंने. यक्ष अपनी स्त्री के प्रेम में है, विछोह में है, उसी तरह जल से भरे उस मेघ को अगर पूरे काव्य में किसी से प्रेम हुआ जान पड़ता है, तो उज्जैन से ही हुआ होगा. वह इतनी प्रेमिल आंखों से इस शहर को निहारता है.<br /><br />कई बार मैं सोचता हूं कि जब मेघ, अलकापुरी पहुंच गया होगा, तो उसके बाद वह ख़ुद एक विचित्र कि़स्म के बिछोह से पीडि़त हुआ होगा-- उज्जैन का बिछोह. वह किसे दूत बनाएगा ? उज्जैन जैसे शहर, क्या अघोषित और अन-अभिव्यक्त प्रेम को अभिशप्त हैं ? महाकाल उज्जैन में रहते हैं, लेकिन बसेरा उनका कैलाश है, नगरी उनकी काशी है. अशोक अपने जीवन के महत्तम पाठ उज्जैन में पढ़ते हैं, लेकिन उनका अस्तित्व मगध में रहता है, राजगृह में टहलता है, कलिंग में वह शेखर हैं. महेंद्र और संघमित्रा, विदिशा चले गए हैं, श्रीलंका के खाते में हैं. वर:मिहिर का नाम ख़ुद उज्जैन हिचक से लेता है कि उन्हें शहर से नहीं, आसमान से प्रेम था. और वह बार-बार बग़दाद भाग जाना चाहते थे. <br /><br />क्या अतुल्य भव्यता भी आपको द्वितीयक बनने को प्रशस्त करती है ? ऐसा होता है. सारी भव्यताएं एक दिन नेपथ्य में चली जाती हैं. <br /><br />बहुत कम शहर ऐसे बचे हैं, जो एक साथ दो युगों में जीते हैं. पुराने मिथकीय शहर नष्ट हो चुके हैं. ट्रॉय कहीं नहीं है, कुन्स्तुनतूनिया अब अत्याधुनिक इस्ताम्बुल है, रोम अपने शव का म्यूकस है. पटना, नालंदा, कश्मीर अपने भव्य अतीत के वर्तमान चुटकुले या दर्द हैं. उज्जैन इसलिए भी विरल है कि वह अब भी एक अवधारणात्मक इतिहास की धूल में जि़ंदा है. कई सारे नगरों के साथ ऐसा नहीं हो पाता. <div>
<br /></div>
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विक्रमोर्वशीयम में कालिदास ने कथा की पृष्ठभूमि प्रतिष्ठानपुर को बनाया है. विद्वानों में एकराय नहीं कि यह प्रतिष्ठानपुर है कौन-सी जगह? उन्होंने जैसा वर्णन किया है, उसके आधार पर कुछ लोग उसे प्रयाग पास स्थित एक छोटा-सा क़स्बा झूंसी मानते हैं. महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों में झूंसी कई बार आता है. लगभग चार बड़े राजवंशों के दौरान महत्वपूर्ण स्थान रहे प्रतिष्ठान के नाश की कथा भी कम दिलचस्प नहीं है. चौदहवीं सदी में यहां हड़बोंग नामक राजा का राज था. कहते हैं, अन्यायी था. एक बार एक पीर उसके राज्य में आए और राजा उनका यथोचित सम्मान न कर पाया, उल्टे अपमान कर बैठा. तब पीर ने क्रुद्ध होकर आसमान में चमकने वाले मिरिख सितारे को हुक्म दिया कि वह इस नगर पर वज्र की तरह गिरे. ग़लती राजा की थी, दंड पूरे नगर को मिला. नगर झुलस गया. बर्बाद हो गया. झुलसने के कारण उसका नाम झूंसी पड़ा. </div>
<div>
<br /></div>
<div>
अगर ऐसी कहानियों में सत्यता हो, तो सबसे बड़ी बात निकलकर आती है कि एक राजा की ग़लती के कारण सिर्फ़ नगर और उसके नागरिकों को ही दंड नहीं मिलता, बल्कि पूरा इतिहास दंडित हो जाता है. क्योंकि कोई भी नगर कभी भी सिर्फ़ वर्तमान नहीं होता. इस कथा में वह पीर शायद अतीत का प्रतीक है. जिन नगरों और राजाओं को अतीत का सम्मान करना नहीं आता, उन पर मिरिख, वज्र बनकर टूटता है. झूंसी को भी नहीं पता कि उसका झुलसना समय के एक विशाल वृक्ष का झुलसकर लुप्त हो जाना है.</div>
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<br /></div>
<div>
शहरों से प्रेम अपने अस्तित्व से प्रेम की तरह है. बहुत सारे लोग बदन पर कपड़ों की जगह शहर ओढ़कर चलते हैं. वे भाषा नहीं बोलते, शहर बोलते हैं. तभी किसी को देखते ही आप पहचान जाते हैं कि यह बठिंडा का है. और किसी की बोली सुनते ही आप कह देते हैं कि यह भोपाली है. यह ऐसा समय है, जिसमें सबसे ज़्यादा क्राइसिस आइडेंटिटी की है. कुछ लोग अपनी आइडेंटिटी को खो चुके हैं. कुछ के पास है, लेकिन वे उस आइडेंटिटी से दूर भागते हैं. और कुछ अपनी आइडेंटिटी को त्यागकर दूसरी आइडेंटिटी ग्रहण कर लेना चाहते हैं. जैसे एक क़स्बाई, लगातार चाहता है कि उसकी आइडेंटिटी मुंबई-दिल्ली के साथ जुड़ जाए. जैसे मुंबई-दिल्ली में कई लोग लगातार चाहते हैं कि उनकी आइडेंटिटी न्यूयॉर्क-लंदन से जुड़ जाए. </div>
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<div>
इस तरह का संघर्ष अपने इतिहास के साथ संघर्ष है. यह अपने शरीर से अपनी परछाईं को हटा देने का संघर्ष है. <div style="background-color: rgba(255, 255, 255, 0.917969); text-align: -webkit-auto;">
<div>
<span style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
</span></div>
</div>
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<div style="text-align: right;">
<i>(27 अप्रैल को दैनिक भास्कर में प्रकाशित.)</i></div>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>
</div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-4022788027234210682012-04-21T18:25:00.002+05:302012-04-21T18:25:36.603+05:30पिकासो की प्रेमिकाएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQLnNHxCm3GZP7IvmsnSLrDkc1qyO1PbUqTb9K7GW8JfZmBnYzewpQEfSTgDyWwfV071Ipo6aFb0jMJO7tHEh1OK4WA7gaf6BYy1zCrnLfiFky1hBSF_ji6AFucFsIpI3DVLhEcubGm6NP/s1600/Le+reve+picasso.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQLnNHxCm3GZP7IvmsnSLrDkc1qyO1PbUqTb9K7GW8JfZmBnYzewpQEfSTgDyWwfV071Ipo6aFb0jMJO7tHEh1OK4WA7gaf6BYy1zCrnLfiFky1hBSF_ji6AFucFsIpI3DVLhEcubGm6NP/s400/Le+reve+picasso.jpg" width="296" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i><b>पिकासो की पेंटिंग 'सपना'. इसमें मैरी वॉल्टर मॉडल के रूप में हैं.</b></i></td></tr>
</tbody></table>
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<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: arial; text-align: -webkit-auto;">पिकासो का प्रेम-जीवन बहुत डरावना है. पिकासो ने कई बार प्रेम किया और हर बार वह ख़ुद प्रेम से दूर हुए. कई बार मुझे लगता है कि प्रेम भी उनके लिए एक प्रयोग था. वह न जाने किस चीज़ की तलाश कर रहे थे. उनके जीवन में कई प्रेम के बारे में पता चलता है, लेकिन सात प्रेमिकाओं ने उनकी कला पर गहरा प्रभाव डाला. पिकासो के कलात्मक जीवन में आलोचक सात मोड़ मानते हैं. द ब्लू पीरियड, द रोज़ पीरियड यानी गुलाब-काल, द न्यूड, क्यूबिज़्म, अफ्रीका से प्रभावित काल, क्लासिक दौर और सर्रियलिस्ट आदि हिस्से. हर प्रेम के बाद पिकासो के चित्रों में बदलाव आया. </span></div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: -webkit-auto;">
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<b>1904 :</b> </div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
फरनांदे ओलिवर, पिकासो की पहली प्रेमिका थी. उसके साथ रहकर पिकासो ने 'द रोज़ पीरियड' पर काम किया. उस दौरान की अधिकांश पेंटिंग्स में जिस महिला की छवि है, वह ओलिवर ही है. दोनों नौ साल तक साथ रहे. पिकासो बहुत ईर्ष्यालु और पज़ेसिव प्रेमी थे. ओलिवर पर इतना संदेह करते थे कि कुछ घंटों के लिए बाहर जाना हुआ, तो ओलिवर को कमरे में बंद कर देते और बाहर से ताला लगा देते थे. ऐसा बरसों तक होता रहा, जब तक कि उनके जीवन में एवा गूल न आई. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: arial;"><br /></span></div>
<span style="font-family: arial;"><div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>1913 :</b></div>
<div style="text-align: justify;">
एवा गूल के साथ भी पिकासो ओलिवर की तरह ही रहना चाहते थे, लेकिन यहां टकराव हुआ. उनका प्रेम-संबंध बहुत छोटा रहा. एवा ने दूर होने की धमकी दी, तो पिकासो ख़ुद ही दूर हो गए. एवा इसे सहन नहीं कर पाई, उसे टीबी हो गई. मनोरोगों और अवसाद से जूझते 1915 में उसकी मृत्यु हो गई. उसकी मृत्यु ने पिकासो को तोड़ दिया. क्यूबिज़्म पर किए गए तमाम कामों में आप पिकासो का एवा के प्रति प्रेम देख सकते हैं. क्यूबिज़्म में पिकासो पैशन से भरे हुए हैं.</div>
</span><div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<span style="font-family: arial;"><div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>1918 :</b></div>
<div style="text-align: justify;">
रूसी नर्तकी ओल्गा कोकलोवा से शादी करने से पहले पिकासो का ओल्गा की कई मित्रों से प्रेम रहा. ओल्गा रूसी नर्तकी थी और यूरोप के अभिजात्य में उसकी गहरी पैठ थी. उसने पिकासो को कई हाई-प्रोफ़ाइल लोगों से मिलाया, उनकी कला को पेरिस के एलीट के बीच प्रस्तुत किया. पिकासो मूलत: बोहेमियन स्वभाव के थे और ओल्गा पूरी तरह एलीट. दोनों में नहीं जमनी थी. नहीं जमी. ओल्गा से मुलाक़ात ही वह समय था, जब पिकासो ने बैलेरिना में पेंटिंग के प्रभावों को बदल दिया. उसी दौरान फिल्मकार ज़्यां कोक्त्यू से उनकी मित्रता गहरी हुई. कोक्त्यू ने कहीं लिखा, 'पिकासो मुझे रोज़ हैरत में डाल देते हैं. वह कई सुंदर आकार बनाते हैं, और घोषित सुंदरता से कुरूप आकारों की तरफ़ बढ़ते हैं. फिर वह सुंदर, सरल आकारों, चित्रों को रिजेक्ट कर देते हैं.' पिकासो ने यहां एक नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ा था. लोगों ने जब उसे देखा, तो हैरान रह गए थे. उसे तुरत स्वीकृति नहीं मिली थी. यह ओल्गा के साथ पिकासो के प्रेम व कटु संबंधों का प्रतिफलन था. इनमें पिकासो का रंग-प्रयोग बहुत आक्रामक हो गया था. वहां ओल्गा भी अवसाद और पागलपन से घिर रही थी. 17 साल साथ रहने के बाद दोनों अलग हो गए. ओल्गा को नर्वस ब्रेकडाउन हो गया. वह विक्षिप्तों-सी हो गई. वह हमेशा उनका इंतज़ार करती रही. ओल्गा को जब भी यह लगता कि पिकासो का प्रेम अब फलां लड़की के साथ चल रहा है, तो वह उस लड़की से संपर्क करती और पिकासो से दूर होने के लिए धमकियां देती. धमकाते-धमकाते वह रोने लगती और धमकी, गुज़ारिश की भाषा में बदल जाती, 'मुझे मेरा पाब्लो लौटा दो.' पिकासो ने उसे तलाक़ नहीं दिया था, क्योंकि ऐसा करने पर संपत्ति का आधा हिस्सा उसे देना होता. पिकासो धन के मामले में बेहद कंजूस थे. ओल्गा अपनी मृत्यु तक पिकासो की पत्नी बनी रही. </div>
</span><div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<span style="font-family: arial;"><div style="text-align: justify;">
<b>1927 :</b></div>
<div style="text-align: justify;">
45 साल के पिकासो के जीवन में सत्रह साल की मैरी वॉल्टर आई. दोनों ने अपना प्रेम और रिश्ता गुप्त रखा. पिकासो उस समय ओल्गा के साथ रह रहे थे. वह किसी भी तरह इस रिश्ते को छुपा लेना चाहते थे, लेकिन वह अब तक सेलेब्रिटी बन चुके थे और ऐसा होना मुश्किल था. वह उनकी पेंटिंग्स के लिए मॉडल का काम करने लगी. पिकासो ने अपने घर के सामने एक मकान किराए पर लेकर मैरी को दिया. कुछ ही बरसों बाद उन्होंने एक महलनुमा स्टूडियो बनाया और मैरी वहां रहने लगी. 1935 में मैरी ने पिकासो की बेटी को जन्म दिया. इसके बाद ओल्गा सहित सभी को पिकासो के इस संबंध के बारे में जानकारी मिल गई. ओल्गा ने इसी घटना के बाद पिकासो को छोड़ दिया. मैरी हमेशा पिकासो से शादी करना चाहती थी. 'गेर्निका' बनाने के ठीक पहले क़रीब पांच साल तक पिकासो की पेंटिंग्स में बहुत चमकीले रंग, प्रसन्न चेहरे वाली एक युवती और आह्लाद के स्ट्रोक्स दिखते हैं. वे सब मैरी वॉल्टर है. चित्रों में अनूदित प्रेम. बेटी के जन्म के दो साल बाद पिकासो का एक और प्रेम होना था डोरा मार से. इस प्रेम के बारे में जानकारी मिलते ही मैरी बहुत दुखी हुई. वह अपनी बेटी के साथ दूर रहने चली गई. पिकासो ने कभी उससे शादी नहीं की, लेकिन हमेशा उसकी आर्थिक मदद करते रहे. 1977 में, पिकासो की मौत के चार साल बाद, बरसों लंबे अवसाद से परेशान होकर मैरी ने गले में फंदा डालकर आत्महत्या कर ली. </div>
</span><div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<span style="font-family: arial;"><div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>1936 :</b></div>
<div style="text-align: justify;">
एक दावत में कवि पॉल एलुआर, पिकासो की मुलाक़ात फ्रेंच फोटोग्राफ़र डोरा मार से कराते हैं. डोरा बला की ख़ूबसूरत है और बहुत सुंदर स्पैनिश बोलती थी. पिकासो उसके भाषा पर प्रभुत्व से प्रभावित हो गए. पिकासो ने डोरा मार से प्रेम के बाद ही महान पेंटिंग 'गेर्निका' बनानी शुरू की. स्पैनिश गृहयुद्ध की विभीषिका पर आधारित यह पेंटिंग अगर आप सामने देखें, तो रोंगटे खड़े हो जाएंगे, लेकिन उस पेंटिग में भी एक सुंदर चेहरा है, लेकिन वह रो रहा है. वह डोरा मार है. डोरा मार फोटोग्राफर थी और उसने 'गेर्निका' की रचना-प्रक्रिया और उसकी निर्मिति की छवियां बनाईं. 'गेर्निका' के बारे में कही गई उसकी बातें आज भी सबसे ज़्यादा प्रामाणिक मानी जाती हैं. एक दिन मैरी वॉल्टर अचानक पिकासो के स्टूडियो पहुंची और वहां उसने डोरा मार को देखा. डोरा के साथ प्रेम की ख़बरें मैरी ने सुन रखी थीं. वहां दोनों में कहासुनी हुई. पिकासो ने कहा कि तुम दोनों आपस में तय कर लो, मुझे किसके साथ रहना चाहिए. वह कुर्सी लगाकर बैठ गए. दोनों प्रेमिकाओं की कहासुनी बाक़ायदा कुश्ती में बदल गई. उन्होंने एक-दूसरे के बाल खींचे, कपड़े फाड़ दिए, और एक-दूसरे का उठाकर पटक दिया. मैरी वॉल्टर ने अपमानित और पराजित महसूस किया और पिकासो के जीवन से बाहर चली गई. डोरा मार उनके साथ रही. पिकासो ने अपने संस्मरणों और इंटरव्यूज में कहा है, 'वह मेरे जीवन का सबसे सुंदर क्षण था, जब मैंने दो औरतों को मारपीट करते देखा, इस बात के लिए मारपीट कि मेरे साथ कौन रहेगा.' पिकासो हमेशा उन स्थितियों को पसंद करते थे, जब एक महिला, उन पर दावेदारी के लिए दूसरी को कोस रही होती थी. लेकिन सात साल बाद पिकासो डोरा मार से भी अलग हो गए. डोरा के लिए यह इतना बड़ा सदमा था कि वह रोती रही, रोती रही. वह इतना रोई कि उसे रोना रोकने के लिए दवाएं लेनी पड़ीं. उसके बाद वह कभी अवसाद से बाहर नहीं आ सकी. बीस साल इसी दुख में रहने के बाद उसके कुछ प्रेम और हुए, लेकिन पिकासो की जगह कोई न ले पाया. पिकासो ने अपनी पेंटिंग्स में हमेशा उसे रोती हुई सुंदरी के रूप में दिखाया था. डोरा मार को नहीं पता था कि पिकासो उसका वर्तमान नहीं, उसका भविष्य रंग रहे हैं. प्रेम में पागल हुई, धोखा खाई एक रोती हुई बर्बाद सुंदरी. पिकासो ने उसके लिए निजी पेंटिंग्स बनाई थीं. 1997 में डोरा ने अपनी मृत्यु तक उन्हें छिपाए-संभाले रखा था. </div>
</span></div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<b>1944 :</b></div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<b></b>पिकासो 63 साल के थे, जब उनका प्रेम कला की छात्रा 23 वर्षीय जीलो से होता है. पिकासो से संबंध को जीलो ने प्रेम के साथ-साथ अपने कैरियर में बड़े बदलाव की तरह भी देखा. पिकासो के साथ उसने कला की बारीकियां सीखीं. पिकासो के लिए उसने आर्ट क्रिटीक का काम किया. मॉडल के अलावा वह पिकासो के आयोजनों की मेज़बान भी थी. डोरा मार से प्रेम के दौरान ही पिकासो का प्रेम जीलो के साथ हुआ और इसी कारण वह डोरा से अलग हुए. दोनों के अलग होते ही जीलो पिकासो के साथ रहने लगी. उसने भी पेंटिंग्स बनाईं और उसे नाम मिला, लेकिन पेरिस के कलाजगत का यह मानना था कि एक अत्यंत प्रतिभाशाली लड़की ने पिकासो से प्रेम करके ख़ुद को ख़त्म कर लिया है. अगर वह खु़द अकेले अपनी पेंटिंग्स पर काम करती, तो शायद उसे ज्यादा प्रसिद्धि मिलती. जीलो पेरिस में ही थी, जहां उसने पिकासो की रूसी नर्तकी पत्नी ओल्गा के पागलपन को झेला. ओल्गा ने पिकासो की प्रेमिकाओं में संभवत: जीलो पर ही सबसे ज़्यादा प्रहार किए. जीलो की स्थिति भी ओल्गा जैसी ही होने लगी. क़रीब दस साल तक साथ रहने के बाद वह पिकासो से अलग हो गई. अलगाव के बाद उसने किताब लिखी- लाइफ़ विद पिकासो, जिसकी लाखों प्रतियां बिकीं. पिकासो ने उस किताब का प्रकाशन रुकवाने के लिए कोर्ट में केस कर दिया था, लेकिन वह हार गए. जीलो ने उसके बाद पेंटर और लेखिका के रूप में अपना जीवन बिताया, और वह पिकासो की एकमात्र प्रेमिका थी, जिसने पिकासो से अलगाव के बाद अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया. </div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: -webkit-auto;">
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
<b>1953 :</b></div>
<div style="font-family: arial; text-align: justify;">
पिकासो अब बूढ़े हो गए थे, लेकिन अब नवयुवतियों के प्रति उनका प्रेम और प्रगाढ़ हो रहा था. जीलो के साथ प्रेम के दौरान ही उनके कई छिटपुट संबंध बने, लेकिन 27 साल की जैकलीन रोके के आने से जीलो के साथ उनके संबंध समाप्त हो गए. रोके भी उनमें से थी, जिनसे पिकासो पहली ही नज़र में प्रेम कर बैठे. उसे प्रभावित करने के लिए एक दिन वह रोके के घर गए और उसके दरवाज़े पर चॉक से कबूतर का चित्र बनाया. उसके बाद वह छह महीने तक लगातार हर रोज़ रोके को गुलाब देते रहे. अंतत: रोके भी उनके प्रेम में पड़ गई. इस प्रेम को भी उन्होंने गुप्त रखा. जीलो ने अपने पति को तलाक़ दे दिया था और पिकासो से शादी करना चाहती थी. पिकासो ने ही उसे तलाक़ देने को कहा था, लेकिन उस दौरान उन्हें लगा कि जीलो सिर्फ उनके पैसों के कारण उनसे शादी करना चाहती है. पिकासो ने चोरी-छिपे रोके से शादी कर ली. यह पिकासो का आखि़री प्रेम था. दोनों 20 साल तक साथ रहे. पिकासो अब हर चीज़ से दूर हो चुके थे. बीमार और बूढ़े. सिर्फ़ चित्र बनाया करते. रोके को सामने रख उन्होंने 400 से ज़्यादा चित्र बनाए. रोके न केवल उनकी पत्नी थी, बुढ़ापे का सहारा, बल्कि उनकी सेक्रेटरी भी. 1973 में पिकासो की मौत के बाद उनकी जायदाद को लेकर विवाद हो गया्. जीलो, पिकासो के बच्चों की मां थी. उसने केस कर दिया. रोके क़ानूनी पत्नी थी. अंत में मामला सुलझाया गया और पिकासो की जायदाद से बनी संस्था 'म्यूसी पिकासो' की स्थापना हुई. यह नाम पिकासो की प्रेमिकाओं और प्रेरणाओं की स्मृति में रखा गया. रोके पिकासो से बहुत जुड़ी हुई थी. उनके मरने के बाद उनकी कला और उससे जुड़ी आर्थिकताओं को संभालती रही, लेकिन अकेलापन उसके लिए भारी था. वह पिकासो को याद कर हमेशा रोती. रुदन से अवसादग्रस्त होती. कभी हाइपर हो जाती. ऐसी ही, स्मृतियों के आक्रमण में ख़ुद को संभलने में अक्षम पा उसने ख़ुद को गोली मार ली. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: arial;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<span style="font-family: arial;"><div style="text-align: justify;">
पिकासो ने सबसे प्रेम किया. उनका निजी जीवन था, उनका रवैया सही था या ग़लत, इस पर नैतिकतावादी कुछ भी कह सकते हैं. हम भी कह सकते हैं. <br /><br />पर बहुधा मुझे लगता है, शायद पिकासो बहुत जुनूनी प्रेमी थे, इसीलिए उनका अलग होना उन स्त्रियों को सहन नहीं हुआ, जो ख़ुद उनसे अलग हो जाना चाहती थीं. शायद पिकासो ने उनके अनेक प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ दिया था. प्रेम में ऐसी दीवानगी उस समय भी आती है, जब आपका प्रेमी आपके प्रश्नों के जवाब नहीं देता. तब आप सिर्फ़ प्रेम के लिए नहीं जी रहे होते, बल्कि उन उत्तरों के लिए भी जी रहे होते हैं. </div>
</span></div>
<br />
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<div style="text-align: right;">
<i>(डायरी से.)</i></div>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: transparent; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial; border-bottom-style: none; border-color: initial; border-image: initial; border-left-style: none; border-right-style: none; border-top-style: none; border-width: initial;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-90875836895731851312012-04-10T15:12:00.000+05:302012-04-10T15:12:43.124+05:30शब्द-बोध, दिशा-बोध<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzkWA2YCl3gtXB1D3rq-h7s_YCPp0ggbWxvxBQdooGtnbhgrNQ8phRacR4miZiyl_hQwr_UQZgtZwWz58srlmtEbpNBNt-yApqA9NvFqVuf_hj1JbnMqgGqeonPamIKDOyVmqTK9kgbAp5/s1600/Ravindra+Vyas+Painting+1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzkWA2YCl3gtXB1D3rq-h7s_YCPp0ggbWxvxBQdooGtnbhgrNQ8phRacR4miZiyl_hQwr_UQZgtZwWz58srlmtEbpNBNt-yApqA9NvFqVuf_hj1JbnMqgGqeonPamIKDOyVmqTK9kgbAp5/s640/Ravindra+Vyas+Painting+1.jpg" width="464" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b><i>Painting : Ravindra Vyas, Indore.</i></b></td></tr>
</tbody></table>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<br />
कविता के भीतर कुछ शब्द लगातार कांपते रहते हैं. वे पत्तों की तरह होते हैं. हवा का चलना बताते हैं. दिशा-बोध कराते हैं. कांपते हुए शब्दों का दायित्व है कि वे दूसरे शब्दों को जगाए रखें, जिलाए रखें.<br />
<br />
कविता के सौष्ठव और प्रभाव पर तभी फ़र्क़ पड़ता है, जब उन शब्दों के साथ अभ्यास व प्रयोग किया जाए. बाक़ी शब्द इतने सेंसिटिव नहीं होते.<br />
<br />
कविता अपने में प्रयुक्त सारे शब्दों पर नहीं, महज़ कुछ शब्दों पर टिकी होती है. उन शब्दों से बनने वाले अदृश्य वातावरण पर टिकी होती है. क़रीब से देखें, तो अदृश्य पर सबकुछ नहीं टिक सकता. ध्वनि टिकती है. दृ
श्य टिकता है. तरंग टिकती है. और आकाश भी इसी अदृश्य पर टिका है. बहुत दूर से पृथ्वी को देखें, तो पता चले कि पृथ्वी भी निराधार है. अदृश्य पर टिकी है.<br />
<br />
इसलिए
हर चीज़ को क़रीब से देखने की ज़रूरत भी नहीं. दूर होकर देखना बहुधा पूरा देखना है. यह उसी तरह है, जैसे बचपन में हम एक खेल खेलते थे. एक गेंद में रबर की रस्सी बंधी होती है. रबर का एक सिरा हम उंगली में बांध लेते, फिर गेंद को हाथ में पकड़ ठीक सामने फेंकते. गेंद तेज़ी से दूर जाती, उतनी ही तेज़ी से लौट आती. लौटती गेंद को पकड़ना आसान नहीं होता. यह उसे पकड़ लेने का खेल था.<br />
<br />
कवि उसी गेंद पर बैठा होता है. वह जितनी तेज़ी से चीज़ के क़रीब जाता है, उतनी ही तेज़ी से लौट भी आता है. तेज़ी के इन्हीं पलांशों के बीच उसे अपनी स्थिरता का ग्रहण करना होता है. वे पल, पलांश ही उसकी काव्य-दृष्टि की मर्जना करते हैं.<br />
<br />
* * *<br />
<br />
(डायरी का एक टुकड़ा. अभी समालोचन पर मेरी डायरी के कुछ टुकड़े प्रकाशित हुए हैं. डायरी मेरे नोट्स हैं. पढ़ाई या न-लिखाई के दिनों में साथ रहती है. उसमें निजी ब्यौरे बहुत कम होते हैं. मेरे पास बहुत कम निज है. जो निज है, वह इतना ज़्यादा निज है कि मैं उसे डायरियों को भी नहीं बताता.<br />
<br />
बहरहाल, डायरी के उन टुकड़ों को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर जा सकते हैं. ऊपर जो टुकड़ा लगा है, वह समालोचन की प्रस्तुति में शामिल नहीं है.)<br />
<br />
<b><a href="http://samalochan.blogspot.in/2012/04/blog-post_07.html" target="_blank">समालोचन : निज घर : गीत चतुर्वेदी की डायरी</a></b><br />
<br />
* * *<br /><br />
ऊपर लगी कलाकृति हमारे प्यारे मित्र <b>रवींद्र व्यास</b> की है. आज 10 अप्रैल उनका जन्मदिन है. उन्हें जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएं देते हुए यह सब उन्हें समर्पित. <br />
<br />
<br />
<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-85232546533957592322012-03-16T19:38:00.000+05:302012-03-16T19:38:00.292+05:30आंसू चांद की आंखों से नहीं, उसके थन से निकलते हैं दूध बनकर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhe8rRItdzlqOPBjB7igRLWgVGD285THx-wo-g_qDeu_y7BEX7ChciawGmW7SwGufTO3WaAez3POk_c79iArnWyOGlHCwRaBOfhGDoFHqpvXHhxto3LqDJhuMIgYFSUnzxGahWJot-gcOgo/s1600/iwona+siwek+front+1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhe8rRItdzlqOPBjB7igRLWgVGD285THx-wo-g_qDeu_y7BEX7ChciawGmW7SwGufTO3WaAez3POk_c79iArnWyOGlHCwRaBOfhGDoFHqpvXHhxto3LqDJhuMIgYFSUnzxGahWJot-gcOgo/s400/iwona+siwek+front+1.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>Iwona Siwek-Front, Polish Artist.</i></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<br />
<br />
मछली होना दुखद है<br />
गहरे तैरती है फिर भी थाह नहीं पाती<br />
<br />
पेड़ को अदृश्य हवा हिला देती है<br />
मेरे हाथ नहीं हिला पाते<br />
<br />
अथाह और अदृश्य में दुख की आपूर्ति है<br />
<br />
मैं यहां नहीं होता तो सड़क का एक लैंप पोस्ट होता<br />
मेरी आत्मा अगर मुझमें नहीं होती<br />
तो जंगल के बहुत भीतर अकेले गिरता झरना होती<br />
<br />
बारिश मुझसे ज़्यादा मेरी छतरियों को भाती है<br />
पैदल चलना नृत्य की कामना है<br />
<br />
छोटा ईश्वर दिन में सोता है<br />
सारी रात तितलियों का पीछा करता है <br />
<br />
* * *<br />
<br />
अतीत मातृभूमि है<br />
वर्तमान मेरा निर्वासन<br />
कोई सड़क कोई हवा मेरी मातृभूमि तक नहीं जाती<br />
मैं अनजानी जगहों पर रहता है<br />
श्रेष्ठतम रहस्य अपनी मासूम दृष्टि से मेरी पीठ पर घावों की भुलभुलैया रचते हैं<br />
<br />
तुम्हारे जितने अंग मैं देखूंगा<br />
उतनी कोमलता उनमें बरक़रार रहेगी<br />
मेरी दृष्टि गीला उबटन है<br />
<br />
जुलाई की बारिश मेरी नींद की गंगा है<br />
<br />
पुरानी फ़र्शों पर पड़ी दरारें उनकी प्रतीक्षा हैं<br />
जिन्होंने नयेपन में उनसे प्रेम किया था<br />
<br />
हर दरार के भीतर कम से कम एक अंधेरा रहता है<br />
<br />
पेंसिल का छिलका फूल बनने का हुनर है<br />
टूटी हुई नोंक टूटे सितारों की सगेवाली है<br />
<br />
छोटा ईश्वर हर अंग से बोलता है<br />
उसके होंठ उपजाऊ हैं चुप का बूटा वहीं हरा खिलता है<br />
<br />
* * *<br />
<br />
मृत्यु सबसे शक्ितशाली चुंबक है<br />
अपनी कार मैं नहीं चलाता<br />
गंतव्य उसे अपनी ओर खींच लेता है<br />
<br />
पुरानी छत की खपरैल पर तुम्हारे साथ बैठा मैं<br />
दूर से तुम्हारी ओर झुके गुंबद की तरह दिखता हूं<br />
<br />
नीमरोशनी में अधगीली सड़क पर पानी का डबरा<br />
नदी का शोक है<br />
तुम्हारे पदचिह्न ईंट हैं जिन्हें जोड़कर मैं अपना घर बनाऊंगा<br />
<br />
भाषा के भीतर कुछ शब्द मुझे बेतहाशा गुदगुदी करते हैं<br />
तुम्हारा संगीत हमेशा मेरी त्वचा पर बजता है<br />
तुम्हारी आवाज़ के अश्व पर बैठ मैं रात के गलियारों से गुज़रता हूं<br />
<br />
तुम्हें जाना हो तो उस तरह जाना<br />
जैसे गहरी नींद में देह से प्राण जाता है<br />
मौत के बाद भी थिरकती मुस्कान शव का सुहाग है <br />
<br />
छोटा ईश्वर ताउम्र जीने का स्वांग करेगा<br />
उम्र के बाद वह तुम्हारी गोद में खेला करेगा<br />
<br />
* * *<br />
<br />
इमारतें शहरों की उदासी हैं<br />
मैं इस शहर की सबसे ऊंची इमारत की छत पर टहलता हूं<br />
आंसू चांद की आंखों से नहीं, उसके थन से निकलते हैं दूध बनकर<br />
रात का उज्ज्वल रुदन है चांदनी<br />
<br />
धरती और आकाश के बीच बिजली के तार भी रहते हैं<br />
<br />
उबलते पानी के भीतर गले रहे चीनी के दाने त्वचा की तरह दिखते हैं<br />
बालाखिल्य की तरह मैं अपनी भाषा से उल्टा लटका हूं<br />
मेरी उम्मीदें गमले में उगे जंगल की तरह थीं<br />
मिट्टी में जड़ की तरह धंसा मैं तुममें<br />
जड़ होकर भी मैं चेतन था<br />
इसीलिए चौराहों पर तुम्हें दिशाभ्रम होना था<br />
<br />
ढलान पर खिला जंगली गुलाब अपने कांटों के बीच कांपता है<br />
मेरी आत्मा कांपती है झुटपुटे में प्रकाश की तरह<br />
कुछ दृश्यों को मैं सुंदर-सा नहीं बना पाता<br />
चित्रकला की कक्षा में मैं बहुधा अनुपस्थित रहा<br />
<br />
अकूत और अबूझ में पीड़ा का बहनापा है<br />
<br />
घाव लगने पर छोटा ईश्वर सिगरेट सुलगाता है<br />
अ-घाव के दिनों में कंकड़ों का चूरा बना पानी में बहाता है. <br />
<div>
<br /></div>
<br />
* * *<br />
<br />
<div style="text-align: right;">
<i>('छोटा ईश्वर' सीरिज़ की ये कविताएं नीत्शे के प्रति मेरा आदर है. आदर अनंत है. सीरिज़ अनादि है. <br />साथ में लगी पेंटिंग मेरी प्रिय पोलिश चित्रकार इवोना सिवेक-फ्रंट Iwona Siwek-Front की है.) </i></div>
<br />
<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-59716183646937411852012-03-07T13:08:00.000+05:302012-03-07T13:30:12.027+05:30तुम्हारा नाम उच्चारना तुम्हें हमेशा के लिए त्याग देना है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<br />
<br />
बेई दाओ मेरे प्रिय कवि हैं. 1989 में चीन से निर्वासित होने के बाद दुनिया के कई हिस्सों में रह-भटक कर कविता करने वाले बेई दाओ अब हांगकांग में रहते हैं और कविता के भीतर अपनी आत्मा की कैलीग्राफ़ी करते हैं. पहली नज़र में गूढ़ लगने वाले बेई दाओ को राजनीतिक कवि माना जाता है. पिछले कुछ बरसों से नोबेल पुरस्कार के दावेदार हैं, इस क़दर, जो कि उनके क़रीबी दोस्त बताते हैं, कि हर साल नोबेल की घोषणा के आसपास वह अपना फ़ोन बंद कर देते हैं, क्योंकि घोषणा से पहले यार-दोस्त-मीडियावाले-मुंहलगे पाठकगण इस तरह का फ़ोन कर-करके परेशान कर देते हैं कि देखना, इस बार तुम्हें ही मिलेगा. फिर घोषणा के बाद यह कह-कहकर कि अरे, इस बार भी नहीं. अगली बार तो पक्का मिलेगा, यक़ीन है. अकेला रहने वाला कवि ऐसे फोन कॉल्स से घबरा जाता है. <br /><br />लेकिन अपने आप में यही एक बड़ा उदाहरण है कि उनके पाठकों को उन पर और उनकी कविता पर कितना यक़ीन है. <br /><br />मैंने बेई दाओ की 36 कविताओं का हिंदी अनुवाद किया है. साथ में एक विस्तृत लेख भी है उन पर, और कविता के उपकरणों पर. सबद पर <a href="http://vatsanurag.blogspot.in/2012/03/blog-post.html">'सबद पुस्तिका 7</a>' के रूप में प्रकाशित हुआ है. नीचे दिए लिंक पर जाइए, कविताएं पढि़ए. एक विराट कवि के वैभव को देखिए. <br /><br />हर बार की तरह यह सबद पुस्तिका भी पीडीएफ़ फॉर्मेट में डाउनलोड करने के लिए उपलब्ध्ा है. नीचे दिए 'सबद' के लिंक पर जाने के बाद 48 पेज की इस पुस्तिका को आप डाउनलोड कर सकते हैं, प्रिंट निकालकर पढ़ सकते हैं, और फ़ाइल में सुरक्षित रख सकते हैं.<div>
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_cBoZQqD-kr-6rFGgiWBOyVsRqkO3RuaJCLl-okabw1CT9j8xSe5gCf8Fy4kSv7N-OlGYN4Sysy_LgfNl3cvbkdjHiE0n4DoW1EeYknCVUet7r0ZsRjvKXu9tGaW9jjYmE0XzZZbu8uQ/s1600/Sabad+Pustika+7+-+Bei+Dao+-+Geet+Chaturvedi+-+Cover+page+copy.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_cBoZQqD-kr-6rFGgiWBOyVsRqkO3RuaJCLl-okabw1CT9j8xSe5gCf8Fy4kSv7N-OlGYN4Sysy_LgfNl3cvbkdjHiE0n4DoW1EeYknCVUet7r0ZsRjvKXu9tGaW9jjYmE0XzZZbu8uQ/s400/Sabad+Pustika+7+-+Bei+Dao+-+Geet+Chaturvedi+-+Cover+page+copy.JPG" width="277" /></a></div>
<div>
<br /><div style="text-align: center;">
<b><a href="http://vatsanurag.blogspot.in/2012/03/blog-post.html">इसे पढ़ने और डाउनलोड करने के लिए यहां जाइए.</a></b></div>
<br />
<b>नमक</b><br /><i>(चिन सान लान्ग के साल्टवर्क नामक फोटोग्राफ़ को देखने के बाद)</i><br /><br /><br />निगेटिव पर काली रात का कोयला<br />लोगों के रोज़मर्रा के नमक में तब्दील हो जाता है<br />एक चिडिय़ा नई ऊंचाइयों को छूती है<br />छत पर लगे पैबंद<br />पृथ्वी को ज़्यादा दुरुस्त बनाते हैं<div>
<br /></div>
<div>
धुआं पेड़ों से भी ज़्यादा ऊंचाई पर पहुंचता है<br /><div>
यह जड़ों की स्मृति से निकलता है<br />भारी बर्फ़बारी की नक़ल करता हुआ<br />समय अपनी अमीरी का प्रदर्शन करता है<br />रोज़गार के अंधे कुएं<br />सुबह के दुख पर छलक-छलक जाते हैं</div>
<div>
<br /></div>
<div>
कांपती हुई चहारदीवारी पर चलती हुई शराबी हवा<br />सड़क पर गिर जाती है<br />कोहरे के भीतर कोई घंटी गूंजती है -<br />ऐसे कि बस धड़कता रह जाता है काग़ज़ का हृदय*<br />
<br />
<br />
<b>शीर्षकहीन-2</b></div>
<div>
<br />दुर्घटनाओं से भी ज़्यादा अपरिचित<br />मलबों से भी ज़्यादा संपूर्ण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
तुम्हारा नाम उच्चारना</div>
<div>
तुम्हें हमेशा के लिए त्याग देना है</div>
<div>
<br /></div>
<div>
यौवन के कीचड़ पीछे छूट गए हैं</div>
<div>
घड़ी के भीतर कहीं</div>
<div>
*</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<b>बेई दाओ </b></div>
<div>
<br /><br />
<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>
</div>
</div>
</div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-6004716341211526042012-02-27T01:44:00.000+05:302012-02-27T01:57:28.514+05:30मैं समंदर को प्रेम क्यों कहता हूं?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZrHXVdn0a7kNw0JmcoEPQqV-pG8yjlOxU4ZHP1fsYRjIeVZuQ6AHXyE01C8g79l8Drk6XB50ZdPmOsiuN16zuNXcK5bt1_rf5ioPtXHyxsJ653Xq0_g_6RveBAaAIn8H0IDo-55Hr1MJo/s1600/Aphrodite.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="286" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZrHXVdn0a7kNw0JmcoEPQqV-pG8yjlOxU4ZHP1fsYRjIeVZuQ6AHXyE01C8g79l8Drk6XB50ZdPmOsiuN16zuNXcK5bt1_rf5ioPtXHyxsJ653Xq0_g_6RveBAaAIn8H0IDo-55Hr1MJo/s400/Aphrodite.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>photo source : unknown (with apologies)</i></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
कल एक मित्र ने पूछा, 'जब भी प्रेम पर लिखते हो, उसमें समंदर ज़रूर आता है. क्यों?' </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने कहा, 'पेड़ भी आते हैं. आसमान भी आ ही जाता है.' </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'लेकिन समंदर ज़्यादा आता है.' </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने उसे कुछ कारण बताए. सारे तो मैं बता भी नहीं पाऊंगा. या उनका समय ही नहीं अब. पर समंदर मेरी निजी पसंद है. बहुत सारे लोगों को पसंद है, इसलिए निजता वैसी भी नहीं. कुछ ऐसी है, जैसे हवा सबकी निजी ज़रूरत है, फिर भी जीव होने के कारण मेरी विशेष ज़रूरत भी है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहला कारण तो संभवत: यही है कि मैं मुंबई का हूं, वहीं पला-बढ़ा, वहीं हंसा-रोया. जब बहुत ख़ुश होता, तो समंदर के पास चला जाता. जब बहुत उदास होता, तो समंदर के पास चला जाता. किनारे जब अकेला बैठता, तो समंदर सशरीरी रूप में मेरी बग़ल में आ बैठता. किनारे जब किसी के साथ बैठता, तो समंदर हम दोनों के बीच एक पतली दरार की तरह अंड़स जाता. जिस समय निगाहों के आगे न होता, उसकी तस्वीर होती. भयानक चुप्िपयों के बीच मैंने समंदर की आवाज़ को स्मृति की तरह सुना है. तब से मेरा यक़ीन है कि आवाज़ें गीली होती हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस समय भी जब यह लिख रहा हूं, कमरे में सिर्फ़ की-बोर्ड खटक रहा है, बीच-बीच में आदत के मुताबिक़ टाइप करते हुए मैं शब्दों को उच्चार भी रहा हूं. जैसे यही पंक्ति उच्चार कर टाइप की. और कोई बाहरी आवाज़ नहीं है. फिर भी मैं समंदर की गीली आवाज़ को कानों में टपकता पाता हूं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं अपनी हथेली का स्पर्श अपनी ही जीभ से करता हूं. अरब सागर का नमक मेरे स्वाद का अभिवादन करता है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे तैरना नहीं आता. गहरे पानी से मैं हमेशा ख़ाइफ़ रहता हूं. डूबने के लिए किसी ट्रेनिंग की ज़रूरत नहीं पड़ती. उसे कोई नहीं सिखा सकता, इसलिए वह तैरने से भी ज़्यादा मुश्किल है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जितनी बार मैंने समंदर को देखा, पाया, वह सिर्फ़ ऊपर से ही बेज़ार रहता है, लगातार अस्थिर. एक ही दिशा में बार-बार दौड़ता हुआ. उसके भीतर की तस्वीरें देखी हैं. निस्तब्धता है. गहरी शांति. अपूर्व स्थिरता. लहरें गहराई का गुण नहीं. लहरें समंदर की त्वचा हैं, शल्कयुक्त. अस्थिरता आंखों का सुरमा है. चंचलता गहना है. शांति उपलब्धि है. स्थिरता को हमेशा एक अस्थिर चादर की दरकार होती है. लहरें सबकुछ बाहर फेंक देती हैं. गहराई सबकुछ समेट लेती है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
प्रेम का स्वभाव भी कुछ ऐसा ही है. सारी बेचैनी ऊपरी होती है, भीतर कहीं प्रेम की शांति होती है. आप कितना भी लड़ रहे हों, भीतर एक स्थिरता होती है, इस अनुभूति से भरी कि प्रेम है, निश्िचत है, तभी यह अस्थिरता है. प्रेम हर चीज़ को लौटा देता है. प्रेम हर चीज़ को गहराई में समेट लेता है. प्रेम निराकार न होता, तो यक़ीनन उसका आकार समंदर जैसा होता. एक अस्थिर स्थिरता. एक स्थिर अस्थिरता. एक स्थिर गति. एक गतिमान स्थैर्य. यानी प्रेम. यानी समंदर. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
घंटों समंदर के किनारे अकेले बैठे रहने के बाद उभरने वाली ये अनुभूतियां अब भी साथ चलती हैं. इसीलिए समंदर अब भी साथ चलता है. दृष्टि में नहीं है. स्मृति में चलता है. जीवन में आप कितनी भी बुरी स्थिति में हों, प्रेम हमेशा आपके साथ चलेगा. दृष्टि में न चले, स्मृति में तो चलेगा ही. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
*</div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHuvwc8Ix9tJVP9dTG9-lOlclmpxA3uRV0YErB3hMIzKRpHwju6JQx2yI7fJtRMs_GKn1L8Erspzua1GyzgcjYaCTTS0mRCu5A0cJLOXcWRYSVhOwudy_swAoZZyKz0LEabDxveE7yf0Td/s1600/Diana-Catherine.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHuvwc8Ix9tJVP9dTG9-lOlclmpxA3uRV0YErB3hMIzKRpHwju6JQx2yI7fJtRMs_GKn1L8Erspzua1GyzgcjYaCTTS0mRCu5A0cJLOXcWRYSVhOwudy_swAoZZyKz0LEabDxveE7yf0Td/s400/Diana-Catherine.jpeg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>Pic by Diana Catherine</i></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
एक और कारण्ा है. वह ग्रीक मिथॉलजी से आता है. अफ्रोडाइटी ग्रीक मिथ में प्रेम, सौंदर्य और आनंद की देवी हैं. उसके पिता आसमान (यूरेनस) और मां दिन (दिएस) है. लेकिन वह दिएस से नहीं जन्मी थी. वह समंदर से जन्मी थी. बहुत सुंदर कथा है. विस्तार में नहीं जाऊंगा. यही कि एक द्वंद्व में यूरेनस का जननांग कटकर समंदर में गिर गया. लहरें झाग से भरी हुई थीं. झाग को लातिन में अफ्रोस कहते हैं. उस झाग से एक सुंदर युवती का जन्म या अवतरण हुआ. महान सुंदरी. अफ्रोस से निकलने के कारण उसका नाम अफ्रोडाइटी पड़ा. उस महान सुंदरी को प्रेम की देवी कहा गया. इस तरह प्रेम की देवी का जन्म समंदर के भीतर से होता है. अफ्रोडाइटी की सुंदरता के कारण युद्ध हुए. ख़ुद उसने कई युद्धों में भाग लिया. ट्रॉय के युद्ध में वह पेरिस के साथ थी. पेरिस के प्रेम ने उस युद्ध को जन्म दिया था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अफ्रोडाइटी, जिसने जीवन में अनंत बार प्रेम किया. प्रेम की शुद्धि और निष्ठा पर विमर्श चलाना सरपंचों का काम है, सहृदय सिर्फ़ उसका प्रेम देखेगा. मैं जब भी किनारे की झाग देखता हूं, मुझे अफ्रोडाइटी याद आती है. मैं झाग से निकलती एक देवी को देखता हूं और पाता हूं कि समय का गुज़र जाना हमारा भ्रम है. वह वहीं रहता है. कहीं नहीं जाता. जैसे हज़ारों साल पुराना वह ग्रीक समय कहीं नहीं गया. वह बांद्रा में बैंड स्टैंड के किनारे खड़ा रहता है. वह नरीमन पॉइंट पर खड़े होने पर मरीन ड्राइव के क्वीन्स नेकलेस की तरह दमकता रहता है. </div>
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ऋग्वेद कहता है कि हम सब जल की संतति हैं. हम सब पानी से पैदा हुए हैं. समंदर के पानी से. अफ्रोडाइटी पानी से पैदा होती है. हम सब पानी से पैदा हुए हैं. हम सब अफ्रोडाइटी हैं. अफ्रोडाइटी प्रेम की देवी है. हम सब प्रेम के देव हैं. प्रेम के देवों को समंदर पैदा करता है. प्रेम को समंदर पैदा करता है. फिर क्यों न भला समंदर प्रेम का स्वामित्वबोधी रूपक हो? </div>
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भाषा में मुझे नर-नारायण्ा का युग्म बड़ा मोहता है. सवाल आस्तिकताओं का नहीं, भाषा का है. नारायण, जिसका व्यावहारिक अर्थ विष्णु से लिया जाता है, लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ है - वह जो पानी पर तैरता हो. जब यह कहा जाता है कि नर ही नारायण है, तो तुरंत मुझे ख़्याल आता है कि नर तो पानी पर तैरते हैं. भले तैरना न भी आए, तब भी. मन आपका सबसे बड़ा तैराक है. देह डुबो दोगे, मन को कैसे डुबोओगे? वह तो तिरता पार निकल जाएगा. डूबने की नई जगह का पता खोज लाएगा. उठो, नई जगह चलो. आप प्रेम में डूबते हैं, लेकिन प्रेम हमेशा तैरता रहता है. सबकुछ समंदर में डूबता है, लेकिन समंदर हमेशा तैरता रहता है. भले कहीं न पहुंचे. इस तरह समंदर ही नारायण है. वह जो पानी पर तैर सके. प्रेम भी यही है. हमेशा तैरता रहता है. भले कहीं न पहुंचे. </div>
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पानी यानी नदी नहीं. जीवन की पहली नदी, (जिसे सही तरह से नदी कह सकते हैं, मुंबइया नाला टाइप नदियों से परे) जब देखी थी, तब तक मैं समंदर के इश्क़ में पड़ चुका था. और जब यह विचार आया कि अंतत: सारी नदियां, समंदर के मोह में ही धरातल पर तैरती हैं, तो लगा, मैं तो पहले ही गंतव्य में डूबा हूं. मैं नदी से समंदर की तरफ़ नहीं जाता, समंदर से नदियों की तरफ़ आया हूं. मैं उल्टे रास्तों का यात्री हूं. </div>
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जब मैं ये सारी चीज़ें देखता हूं, तो समंदर को प्रेम से सिल देता हूं. दोनों एक हैं मेरे लिए. मेरी कविता और गद्य के लिए भी. </div>
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पुराने ज़माने से कवियों को समंदर एक रूपक की तरह लुभाता रहा है. मुझे भी लुभाता है. ऐसे समय में मुझे नेरूदा का वह उद्घोष याद आता है, जब उन्होंने छद्म प्रयोगवादियों की ओर मुस्कान फेंकते हुए कहा था-- The Rose and The Moon are not alien to us. यानी सृष्टि के अंत तक दोनों ही प्रेम के प्रतीक बने रहेंगे, चाहे कितने भी नयेपन का आग्रह हो. </div>
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ऐसे बहुत सारे कारण हैं, जिनके बारे में इत्मीनान से लिखूंगा, जिनने मेरे चेतन-अवचेतन में इस तरह के बिंब जिलाए हैं. और मेरे जिन दोस्तों को हमेशा यह गुप्तरोग रहता है कि तुम विदेशी साहित्य से प्रभावित हो, वे हैरत में पड़ जाएंगे कि अधिकांश बातें भारतीय मिथॉलजी से निकलकर आती हैं. </div>
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<i>(डायरी का हिस्सा, 21 फ़रवरी 2012)</i></div>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>
</div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-62087422711360586132012-01-09T03:06:00.000+05:302012-01-09T03:10:38.221+05:30वो छह कहानियां<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<i>(हंस के दिसंबर 2011 अंक में मेरी दोनों किताबों की समीक्षा आई है. समीक्षा सरिता शर्मा ने लिखी है. उसे यहां लगा रहा हूं ताकि जो हंस नहीं पढ़ते, वे भी इस पर एक नज़र डाल सकें.)</i><br />
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गीत चतुर्वेदी की लंबी कहानियों में विभिन्न कला माध्यमों का इस्तेमाल करके गढ़ी गई भाषा, अर्थों के अनेक स्तर और आपस में गुंथी विषयवस्तु और पात्र, उन्हें अन्य नई कहानियों से अलग स्थान प्रदान करते हैं. उन्हें कविता 'मदर इंडिया' के लिए भारत भूषण पुरस्कार मिल चुका है और हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस ने उन्हें दस सर्वश्रेष्ठ युवा लेखकों में शामिल किया है. </div>
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वह लेखन के पुराने ढर्रे को तोड़ते हुए पाठकों के लिए चुनौती प्रस्तुत करते हैं. </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFDGWtCGsoxpoK7z6Yu1BGhAZliCuGffkptQXS34iOAqBZBcqHEsygByy-mgbtxMePHRjcttoTZBwaPdSNTKDKfGeXsov3IbH5Xhw08WlV2lOoIcmrH9mkAPj9PsvweuIIsActC3rdWV1X/s1600/1.+Savant+Aunt+Ki+Ladkiyan_Cover+-+Geet+Chaturvedi.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFDGWtCGsoxpoK7z6Yu1BGhAZliCuGffkptQXS34iOAqBZBcqHEsygByy-mgbtxMePHRjcttoTZBwaPdSNTKDKfGeXsov3IbH5Xhw08WlV2lOoIcmrH9mkAPj9PsvweuIIsActC3rdWV1X/s320/1.+Savant+Aunt+Ki+Ladkiyan_Cover+-+Geet+Chaturvedi.jpg" width="213" /></a></div>
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'सावंत आंटी की लड़कियां' कहानी संग्रह में तीन लंबी कहानियां 'सावंत आंटी की लड़कियां', 'सौ किलो का सांप', और 'साहिब है रंगरेज़' में थीम, भाषा और परिवेश की साम्यता है. इनमें किरदारों की लगातार आवाजाही होती है. पहली कहानी के गौण किरदार अगली कहानी के मुख्य किरदार हो जाते हैं और मुख्य किरदार हाशिये पर चले जाते हैं. निम्न मध्य वर्ग के मुख्य किरदार दरअसल गौण ही होते हैं और अर्थ का विस्तार करने पर हम पाते हैं कि हर किस्म की प्रमुखता, कई सारी गौणताओं का गुच्छा ही होती है. इन कहानियों में शहर के भीतर बसे कस्बे-गांव का माहौल है, स्त्री की प्रेम की आकांक्षाएं, असफलताएं और उनके जीवन पर फिल्मों के प्रभावा के ज़रिए प्रोविंशियल जियोग्राफिक एक्सप्रेशन को चित्रित किया गया है. </div>
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<b>'सावंत आंटी की लड़कियां' </b>में युवा होती बेटियों के विवाह के लिए चिंतित माता-पिता और परंपराओं को तोड़कमर प्रेम करके जीवनसाथी का चुनाव करने को आतुर बेटियों को मध्यवर्गीय जड़ता के परिवेश में दिखाया गया है. </div>
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नंदू प्रेम की धारणा से इतनी अभिभूत है कि उसका कोई न कोई प्रेम संबंध चलता रहता है. और वह प्रेमी के साथ भाग जाती है. मगर हर बार पकड़ी जाती है. अंतत: उसकी शादी माता-पिता की मर्जी से होती है. दूसरी ओर पढाकू छोटी बहन सुधा खुद को इन झंझटों से दूर रखती है. कहानी के अंत में जब वह भी माता-पिता के चुनाव को धता बताकर प्रेमी के साथ भाग जाती है, तो पड़ोसी, माता-पिता ही नहीं, पाठक भी स्तब्ध रह जाता है. दो पीढि़यों के बीच की दूरी भी इसका कारण है. पार्वती को हमेशा इस बात का दुख रहता है कि उसके पति को गुस्सा क्यों नहीं आता ? <i> 'जिस बाप की चार-चार लड़कियां हों और जवान हो गई हों, उस बाप को किसी बात पर गुस्सा नहीं आता, यह कैसी शर्मनाक बात है.' </i>नंदू का प्रेम फिल्मों से इतना प्रभावित है कि जब बबल्या को उसके पिता ने पीट दिया तो,<i> 'अपने प्रेमी में सतत एक हीरो की तलाश करने वाले नंदू को उससे नफ़रत हो गई' </i>. यही हाल बंडू जाधव का हुआ-- <i>'आज वह उसे दुनिया का सबसे बदसूरत इंसान लगा- काला भुजंग. वह पछताने की रात थी. क्या देखकर वह उसके साथ भागी थी ? ' </i> निर्णय लेने में आर्थिक स्वतंत्रता बहुत महत्वपूर्ण है. हेमंत और नंदू कई दिन साथ रहने के बाद भी शादी नहीं कर पाए क्योंकि उनमें से कोई भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं था, जबकि सुधा ने अपना निर्णय चुपचाप ले लिया क्योंकि उसका क्रिकेटर प्रेमी कमाता था. यह कहानी लड़कियों के मनोजगत और प्रेम की आकांक्षा की कहानी है जिसे नए मुहावरे और मुंबइया भाषा ने बहुत दिलचस्प बना दिया है. </div>
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<b>'सौ किलो का सांप'</b> अपेक्षाकृत छोटी होने के बावजूद इतने स्तर और अर्थ समेटे हुए है कि आम पाठक के लिए कई अंतर्धाराओं को समझ पाना दुष्कर हो सकता है. इसमें सांप पकड़कर गुजारा करने वाले बंडू नागमोड़े और उसकी बेटी कमला की अनियंत्रित इच्छाओं की व्यथा-कथा है. यह डार्क ह्यूमर और विडंबनात्मक है कि लोगों के सांप काटे से बचाने वाले बंडू के पिता, पत्नी और बेटी की मौत का कारण सांप ही बनते हैं. वस्तुत: सांप इच्छाओं के प्रतीक हैं. हमारी अनियंत्रित इच्छाएं, चाहे वे प्रेम की हों या धन पाने की, अंतत: हमें अपना शिकार बना लेती हैं. कमला ख़तरनाक ज़हरीले कोबरा को गले में लटकाकर उससे खेलती है और बदमाश अर्जुन गढ़वाली के साथ शादी करके सुखी जीवन बिताने के सपने देखती है. उसका बलात्कार हो जाता है और कोबरा उसे डंस लेता है. प्रतीकात्मक रूप से इच्छाएं नियंत्रित न करने पर डंस लेती हैं. </div>
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इच्छा दोधारी होती है. कहानी की मुख्य दृष्टि यही है कि प्रेम विश्वासों की बलि ले लेता है. कहानी में बंडू जब सरपंच से जमीन का सौदा करने जाता है तो वहां बुरी तरह पिट जाता है और उसका हुनर दगा दे जाता है.<i> 'वह खुद को किसी थिएटर में महसूस कर रहा है, जहां कोई सस्ती फिल्म चल रही हो.' </i> पत्नी सखूबाई के साथ खुश रहने के बाद भी बंडू काम करने वाली रमाबाई के साथ शारीरिक संबंध बना लेता है. ' <i>बंडू काका नागमोड़े के दिल में एक औरत रह रही थी. एक औरत वहां रूह की शक्ल में थी. एक औरत देह बनकर. एक औरत स्मृति थी. एक औरत वर्तमान. एक औरत के साथ उसका रिश्ता बहुत पवित्र किस्म का था. एक औरत की ओर उसे नज़र नहीं उठानी थी और एक औरत को उसे सिर्फ देह पकडकर उठा देना था.' </i>शारीरिक आकर्षण और अात्मिक प्रेम को यहां बहुत सुंदर ढंग से परिभाषित किया गया है. सांप को भी कहानी के अंत में बहुत सूक्ष्म तरीके से जोड़ा गया है.
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<b>'साहिब है रंगरेज़'</b> में डिंपा की मां और उसके पति डेविड के प्रेम और नफ़रत भरे रिश्ते को घात-प्रतिघात के साथ उभारा गया है. डेविड अपनी पत्नी से बेहद प्रेम करता है मगर उसके खुलेपन से सशंकित होकर उसकी बुरी तरह पिटाई कर देता है. दांपत्य प्रेम की यह कुछ हद तक यथार्थवादी तस्वीर है कि पत्नी कुछ समय तक प्रतिरोध के बावजूद पति को छोड़ देने के विकल्प को नहीं अपनाती है. </div>
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इस कहानी के आयरनी और डार्क ह्यूमर में कहकहे का अनुवाद अक्सर विरल रुदन में होने की आशंका बनी रहती है. पिटाई के दृश्य में कल्पना के मेल से भयावहता और बढ़ जाती है-<i> 'डर के लिहाफ में लिपटकर अनावृत्त दौड़ती भव्य स्त्री. बेल्ट लहराते दौड़ते आते पति को बार-बार मुड़कर देखती भव्य स्त्री. थोड़ी देर पहले तक प्यार के महासागर में गोते लगाने के बाद नफ़रत के रंग में पगी भव्य स्त्री. कुछ देर पहले तक साहिब की छुअन से लाल हुई और उजलेपन से आक्रांत एक भव्य स्त्री.' </i> </div>
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पीटने के बाद जब डेविड माफी मांग कर पत्नी से प्यार करता है तो वह सब भूल जाती है. <i>'साहिब हजार बार मार... हर रोज मार.. तेरा गुस्सा.. तेरी मार.. सब सिर माथे है... </i></div>
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इस कहानी की विषयवस्तु यही है कि प्रेम जितना मुक्त करता है एक या दोनों को, उतना ही एक लंबी गुलामी भी है. प्रेम, प्रेमी को गुलाम बना देता है. डिंपा की मां डेविड से प्रेम करती है, उसकी हिंसाओं को झेलती है तो अपनी आत्मा का पतन महसूस करती है. उसके प्रेम में डूबती है तो अपना आत्मा का उत्थान पाती है. उसमें दोनों शेड्स हैं. उन दोनों का प्रेम भी उतना ही गहरा है और एक-दूसरे के प्रति हिंसा भी. इतनी हिंसा के बावजूद वह उसे छोड़कर नहीं जाती क्योंकि उसे डेविड से हिंसा मंजूर है. वह प्रेम से बाहर नहीं होना चाहती और यहां आकर प्रेम एक गुलामी में बदल जाता है. ऐसा आर्थिक गुलामी के कारण नहीं है, क्योंकि डेविड का अमीर दोस्त उसे डिंपा के साथ दुबई ले जाने को तैयार है. वह पिछली कहानी के नंदू से कहती है,<i> 'नंदू, तू तो भाग भी सकती है. उनके बारे में सोचा है कभी, जो अपनी मर्जी का कर भी नहीं पाते.'</i> कभी-कभी उसे लगता है कि ' <i>उसके भीतर भी थोड़ी सी नंदू सावंत होती, तो अच्छा था.' मगर वह मानती है कि डेविड दिल से अच्छा है.</i> </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKtNJNAbbt3Va3I5VA6l4TKAE-__lz9Xf8arrm5JxXHv5BqyfV9CgKmNOJahYqvvqoUwYtLDmau9dFvsaVAXBKKEMcWyK5TNZmaLRjLg3fZlFWEx1iwX_eoTkT4rCb2_u9InndRQyjFk7q/s1600/2.+Pink+Slip+Daddy_Cover+-+Geet+Chaturvedi.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKtNJNAbbt3Va3I5VA6l4TKAE-__lz9Xf8arrm5JxXHv5BqyfV9CgKmNOJahYqvvqoUwYtLDmau9dFvsaVAXBKKEMcWyK5TNZmaLRjLg3fZlFWEx1iwX_eoTkT4rCb2_u9InndRQyjFk7q/s320/2.+Pink+Slip+Daddy_Cover+-+Geet+Chaturvedi.jpg" width="211" /></a></div>
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दूसरे कहानी संग्रह 'पिंक स्लिप डैडी' में बाजार, उपभोक्तावाद, वैश्वीकरण और उदारवाद के मध्यवर्ग पर पड़ने वाले दु
ष्परिणामों को बहुत बारीकी से दिखाया गया है. 'गोमूत्र', 'सिमसिम' और 'पिंक स्लिप डैडी' इन तीनों कहानियों के नाय कार्पोरेट जीवन शैली के चलते अकेलेपन और टूटन के शिकार हैं. </div>
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<b>'गोमूत्र' </b>में भारतीय अर्थव्यवस्था और बाजार की निर्ममता को नायक के अंतर्द्वंद्व और तनाव के माध्यम से दर्शाया गया है. इसमें अभावों और लालसाओं से ललचाये मध्यवर्ग के सपनों की कटु हकीकत को अतियथार्थ और फैंटेसी का सहारा लेकर व्यक्त किया है. यह एडम जगायेवस्की की कविता 'आग' का भारतीय संदर्भों में पुनर्पाठ भी है. इसका नायक मध्यवर्गीय नौकरीपेशा युवक है जो विज्ञापनों को देखकर और पत्नी की लालसाओं को पूरा करने के लिए क्रेडिट कार्ड से इतना उधार ले लेता है कि समय से चुका नहीं पाता. बैंकवाले रकम की वसूली के लिए उसे परेशान करने लगते हैं तो वह अपने आसपास के लगभग सभी लोगों को उसी तरह की समस्या का सामना करते हुए पाता है.<i> 'जब मैं उधार के बारे में सोचता हूं, तो मुझे मदर इंडिया का सुक्खी लाला याद आ जाता है, गोदान का होरी याद आता है.' </i></div>
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कथावाचक के जीवन में सब कुछ विखंडित है. विज्ञापन हर वस्तु को बेचने के लिए औरत का सहारा लेते हैं. व्यंग्य से कथावाचक कभी पत्नी को खाना बनाने वाली तो कभी प्यार करने वाली बताता है. वह मध्यवर्गीय चालाक व्यक्ति है जिसे अर्थव्यवस्था डिल्डो से अधिक कुछ नहीं समझती. वह अपने अफसर बाबा को खुश करने के लिए उसकी बकवास सुनता रहता है मगर बाबा भी उसे डिल्डो ही मानता है और जरूरत पड़ने पर उसकी कोई मदद नहीं करता. नायक और बाबा अलग-अलग हैं लेकिन दोनों की छल, पलायन और आत्मदारिद्र्य की मानसिकता समान है. हमारी संस्कृति पर पाश्चात्य प्रभाव इतना पड़ गया है कि हम उन जैसे होते जा रहे हैं. यही एकरूपता है. यह कहानी आदमी के 'अहं ब्रह्मास्मि' से 'अहं ब्रांडास्मि' का सफर दर्शाती है जिसमें शिकारी ही शिकार है. मध्यवर्ग को संबोधित करते हुए कहा गया है- <i>'वे सब स्टीरियोटिपिकल इमेजेस में ही जिया करते थे, वे सब प्रोटोटाइप थे मेरे वर्ग के, जिसे मध्यवर्ग कहा जाता है.' </i> क्रेडिट कार्ड देने वालों के तर्क सुनकर नायक भ्रमित हो जाता है.<i> 'हम आपको पैसा उधार नहीं देते, बल्कि एक बेहतर जीवन देते हैं.' </i>आदमी की तकलीफों को भी चैनल वाले बाजार में बेच देते हैं. नायक को बकरा मानते हैं तो वह अपनी लाचारी पर कहता है,<i> 'आप मेरा भी अपमान बेचेंगे टीवी पर. मेरा अपमान, मेरा डर, मेरी घबराहट, मेरी खिसियाहट- सब आपके लिए बिकाऊ है'. </i></div>
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<b>'सिमसिम' </b>जिंदगी की शुरुआत करते युवक और जीवन के अंत पर खड़े और बदलती दुनिया में अप्रासंगिक हो चुके एक बूढ़े के आपसी संबंधों की कहानी है. कहानी की बुनावट फिल्म की पटकथा जैसी है. इसमें प्रेम के प्रति दो पीढि़यों के फर्क को दर्शाया गया है. कहानी में जितने चैप्टर हैं, जितने कोट हैं, उतनी ही थीम है, कोई एक केंद्रीय थीम नहीं है. सभी दृश्यों की कहानी से बृहत्तर कहानी की रचना होती है और हर दृश्य कहानी के गल्प में विकास करके कथ्य धारा को आगे बढ़ाता है. कहानी के आरंभ में नदी के सड़क में बदल जाने का रूपक है. 'नदी जब सड़क बनती है, तो सबसे पहले अपनी रफ्तार खो देती है. जैसे अगले पन्नों में चलने वाले ये सारे लोग खो गए.' जीवन और प्रेम नदी की तरह प्रवाहित होता है. सजल नहीं, तो नदी नहीं है. नदी का सूख जाना जीवन और प्रेम का सूख जाना है. कहानी में सारे किरदार अपने जीवन का जल खो बैठे. कहानी में ग्लोबलाइजेशन के वर्चस्ववादी स्वरूप के यथार्थ की भी झलक दिखाई गई है. पृष्ठभूमि में एक जर्जर पुस्तकालय है जहां कोई किताबें लेने नहीं जाता है. सिमसिम दो पीढि़यों, दो ध्वनियों, दो समयों, अतीत और वर्तमान, कल्पना और यथार्थ, तथा स्वप्न और स्मृति का रहस्य द्वार है जिसका किसी मंत्र से खुलना तय है. एक ही खिड़की वह चाभी है, जो दो अलग-अलग उम्र के लोगों को अलग-अलग आभास देती है. बूढ़ा 52 साल पुरानी लड़की के विस्मृत प्रेम को खिड़की पर खड़ी लड़की को देख याद करता है. उसी खिड़की और लड़की को देखकर नई उम्र का लड़का भी सांकेतिक प्रेम में चला जाता है. इससे स्मृति का मूल्य और कल्पना का अवमूल्यन उजागर होता है. दोनों एक साथ प्रेम में हैं. बूढ़ा अपनी स्मृति से प्रेम कर रहा है और लड़का अपनी कल्पना से. बूढ़े को खिड़की के टूटने पर बहुत दुख होता है क्योंकि वह उससे स्मृति के तार पर जुड़ा हुआ है. लड़के को खिड़की के टूटने का दुख है लेकिन वह जल्द ही उससे बाहर आ जाता है. </div>
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कहानी में शक्ित का विमर्श भी है. भूमाफिया के पास शक्ति है, वह उसका उपयोग करता है. राज्य के पास पूंजी की शक्ति है. वह विकास के नाम पर विध्वंस करता है. सिंधु लाइब्रेरी और दिलखुश समोसे वाले की दुकान को तोड़कर वहां नई इमारतें खड़ी कर दी जाती हैं. यह सिर्फ इमारतों का विध्वंस नहीं है, स्वप्नों, लगावों, स्नेहों और जुड़ावों का विध्वंस है. राज्य को किसी के स्नेह से कोई लेना-देना नहीं होता. मंगण की मां अजन्मे बेटे को अपने गुड्डे में देखती है और उसे मंगण मानकर उसका ध्यान रखती है. बूढ़ा किताबों से बच्चों की तरह प्रेम करता है. दिलखुश भी सभी से अच्छा बर्ताव करता है, मगर सभी चरित्र त्रासद स्थिति में पहुंच जाते हैं. खिड़की के टूटने पर लड़का, बूढ़े के बारे में सोचता है,<i> 'उस दीवार और खिड़की के टूटने पर जितना भी मलबा बना होगा, मैं उसके चेहरे पर देख सकता हूं.' </i></div>
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आर्थिक असंगितयों के भावनात्मक उत्पात और अद्वैत की विषयवस्तु अंतिम कहानी<b> 'पिंक स्लिप डैडी'</b> में बहुत उत्कटता से उभरकर आती है. यह एक सटायर है जिसमें कार्पोरेट उच्च मध्य वर्ग की आकांक्षाओं और धूर्तताओं का चित्रण है. नायक प्रफुल्ल शशिकांत उर्फ पीएस दाधीच के माध्यम से समाज के बाह्य यथार्थ के साथ साथ उसकी मानसिक संरचना भी देखने को मिलती है. कॉर्पोरेट पूंजी के विकास के दुष्परिणामों में व्यक्ति का जीवन अपने मूल्य खो रहा है. इसमें कई धरातल एक साथ चलते हैं जैसे प्रेम, छल, सफलता की कामना, अकेलापन, भ्रम और अलग-थलग पड़ जाने की प्रक्रिया. हर चीज़ को हारजीत में तौला जाता है चाहे वह आपस में बातचीत हो या प्रेम और सेक्स के क्षण ही क्यों न हों. यही पूरे समाज की सच्चाई है. अकेलेपन से बचने के लिए सफलता पाने की किताबें पढ़ी जाती हैं और धर्मगुरुओं की शरण ली जाती है. यहां तक कि आम आदमी को ट्रेनिंग देकर बाकायदा धर्मगुरु बनाया जाता है और उसकी मार्केटिंग की जाती है. टैरो कार्ड रीडर पृशिला पांडे और मदर सेबास्टियन ऐसी ही हाई प्रोफाइल आध्यात्मिक गुरु हैं. नायक को विफलता से बचने के लिए सिस्टम की हां में हां मिलाकर स्टाफ की छंटनी करनी पड़ती है. वह ऐसी दुनिया का हिस्सा बन जाता है जहां प्रेम और घृणा के बीच कोई फर्क नहीं रह जाता. चालाकी, मक्कारी, धूर्तता, नाटक का इस्तेमाल किया जाता है और ईमानदारी, सचाई, निष्ठा जैसे गुण वहां बेकार हैं. पावर पॉलिटिक्स और अहम के टकराव का सिलसिला वहां चलता रहता है. नीचे के लोगों की कोई बिसात नहीं. संबंधों की गरिमा और पारिवारिकता को कोई महत्व नहीं दिया जाता. संबंधों का इस्तेमाल सीढ़ी के रूप में किया जाता है. </div>
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पीएस दाधीच स्प्लिट पर्सनैलिटी का शिकार है. उसके अनेक महिलाओं से संबंध हैं. उसकी पत्नी सबीना पाल उसे छोड़कर चली जाती है क्योंकि वह पति का उदासीनता और अपने अकेलेपन को बर्दाश्त नहीं कर पाती. महिला चरित्रों को बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से विकसित किया गया है. पति के सेक्स स्कैंडल से हताश मिसेज लाल की चुप्पी और अंतत: आत्महत्या कर लेना, पृशिला पांडे का लोगों को अपने लिए इस्तेमाल करना, सबीना लाल का झटके से पति को छोड़ जाना, अजरा जहांगीर का जोश और सफलता की कामना और उत्प्रेक्षा जोशी की प्रेम के प्रति उदासीनता उन्हें यादगार बना जाता है. </div>
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इस संकलन की सभी कहानियों में एक सूक्ष्म अंतर्धारा चलती रहती है जो पाठकों को विचलित करती है. कॉर्पोरेट वर्ल्ड की आंतरिक गतिविधियों और निम्न मध्यवर्ग पर किसी और लेखक ने इतनी गहराई से नहीं लिखा है. इनमें नए मुहावरे गढ़े गए हैं और शब्दों का नये ढंग से प्रयोग है जैसे रजकनीति, भ्रमास्मि, ब्रांडास्मि, कर्जयोद्धा. अंतर्वस्तु और भाषा में ये कहानियां विलक्षण हैं और पाठकों को चुनौती देती हैं. </div>
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मधु मंगेश कर्णिक की माहिम की खाड़ी की तरह मुंबई के आम लोगों के जीवन को भाषा की रचनात्मकता और सामाजिक सरोकारों से लैस करके दिखाया गया है. हालांकि सीधी-सपाट व्यक्तिगत अनुभवों पर लिखी गई चुटीली कहानियों के पाठकों को सभी छह कहानियां बहुत लंबी और अत्यधिक गूढ़ अर्थों वाली लग सकती हैं मगर मिथकों और दंतकथाओं का उपयोग करके गीत चतुर्वेदी ने कहानियों को पठनीय और प्रवाहमयी बना दिया है. </div>
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<br /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-63375802669983194192012-01-07T21:13:00.000+05:302012-01-07T21:17:20.480+05:30इन दिनों<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjrjAgdEATqbFMhrKZ8VHBbnFRu2Whz9TtH46yiKOW7m5lZS04cW_bmduHalqyERfkcSxZ4CWn8-go2j0JpHCSw5bomYEdfxYuBK05m7VnK9g1KswCWvNiXFAAI8RYnhOf9A3JLSZETGC7T/s1600/Geet+Chaturvedi.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjrjAgdEATqbFMhrKZ8VHBbnFRu2Whz9TtH46yiKOW7m5lZS04cW_bmduHalqyERfkcSxZ4CWn8-go2j0JpHCSw5bomYEdfxYuBK05m7VnK9g1KswCWvNiXFAAI8RYnhOf9A3JLSZETGC7T/s200/Geet+Chaturvedi.jpg" width="132" /></a></div>
पिछले दिनों कुछ कविताएं हुई हैं. 2010 में<b><a href="http://vatsanurag.blogspot.com/2010/04/blog-post_04.html"> 'उभयचर'</a></b> के बाद मैंने कोई कविता नहीं लिखी थी. 2011 के मध्य और आखि़री महीनों में कुछ हुई हैं. अगस्त में जो कुछ लिखा गया था, उनमें से कुछ<b><a href="http://vatsanurag.blogspot.com/2011/08/blog-post_29.html"> सबद </a></b>पर आया था, कुछ -लोकमत' और 'नवभारत टाइम्स' के दिवाली विशेषांकों में.<br />
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बीते दिनों जो कविताएं हुईं, उनमें से कुछ <b>'समालोचन' </b>पर प्रकाशित हैं. नीचे दिए गए लिंक पर जाकर वे कविताएं पढ़ी जा सकती हैं.<br />
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<b><a href="http://samalochan.blogspot.com/2012/01/blog-post_04.html">समालोचन - पांच नई कविताएं - गीत चतुर्वेदी</a></b><br />
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-35741963494447364222011-12-21T02:52:00.000+05:302011-12-21T02:52:24.710+05:30आषाढ़ पानी का घूंट है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://haysvillelibrary.files.wordpress.com/2010/07/the-scent-of-rain-and-lightning.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="400" src="http://haysvillelibrary.files.wordpress.com/2010/07/the-scent-of-rain-and-lightning.jpg" width="262" /></a></div>
तुम्हारी परछाईं पर गिरती रहीं बारिश की बूंदें<br />
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मेरी देह बजती रही जैसे तुम्हारे मकान की टीन<br />
अडोल है मन की बीन<br />
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झरती बूंदों का घूंघट था तुम्हारे और मेरे बीच<br />
तुम्हारा निचला होंठ पल-भर को थरथराया था<br />
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तुमने पेड़ पर निशान बनाया<br />
फिर ठीक वहीं एक चोट दाग़ी<br />
प्रेम में निशानचियों का हुनर पैबस्त था<br />
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तुमने कहा प्रेम करना अभ्यास है<br />
मैंने सारी शिकायतें अरब सागर में बहा दीं<br />
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धरती को हिचकी आती है<br />
जल से भरा लोटा है आकाश<br />
वह एक-एक कर सारे नाम लेती है<br />
मुझे भूल जाती है<br />
मैं इतना पास था कि कोई यक़ीन ही नहीं कर सकता<br />
जो इतना पास हो वह भी याद कर सकता है<br />
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स्वांग किसी अंग का नाम नहीं<br />
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आषाढ़ पानी का घूंट है<br />
छाती में उगा ठसका है पूस.<br />
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: transparent; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial; border-bottom-style: none; border-color: initial; border-image: initial; border-left-style: none; border-right-style: none; border-top-style: none; border-width: initial;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-782640702921363295.post-4218171458280373562011-10-11T11:52:00.000+05:302011-10-11T12:08:10.322+05:30शाम से आंख में नमी-सी है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://jagjitsingh.imess.net/gallery/wallpapers/1024x768/Jagjit-Singh-Live_01.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://jagjitsingh.imess.net/gallery/wallpapers/1024x768/Jagjit-Singh-Live_01.jpg" width="320" /></a></div>
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ईश्वर के उपवन के सबसे सुंदर पक्षी ने जगजीत के गले को अपने सबसे मुलायम पंख से छुआ था। कश्मीरी कारीगरों की रेशमकला के कई किस्से इतिहास में मिलते हैं। उस कलाकारी को देख जहांगीर ने उसे ईश्वरीय हाथों की बुनावट कही थी। अगर उस कला का आवाज़ में अनुवाद किया जाए, तो निश्चित ही वह जगजीत सिंह की आवाज़ होगी। </div>
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कई गायकों को आप अकेले में सुनते हैं, लेकिन जगजीत आपको भीड़ के बीच भी अकेला कर देते हैं। सत्तर के दशक में महानगरीय आपाधापियों ने जब व्यक्ति के आत्म पर गहरी चोट करना शुरू कर दिया था, उसी दौरान उनकी आवाज़ रेशमी सुकून की तरह हमने अपने कानों में पहनी थी। मुंबई की ठसाठस भरी लोकल ट्रेन में जब कोई मोबाइल या आईपॉड का ईयरफोन कानों में खोंस उन्हें सुन रहा होता है, तो जगजीत उसे उस भीड़ से बाहर ले जाते हैं, एक नितांत निजी आत्म के क्षेत्र में खड़ा करते हैं। जिस अवस्था को आप घंटों की विपश्यना से प्राप्त करते हैं, उसी अवस्था को जगजीत अपनी आवाज़ में बुनी एक ग़ज़ल से उपलब्ध करा देते हैं। यह उनकी आवाज़ का वैभव है, जो एक साथ प्रेम, पीड़ा, उम्मीद, प्रतीक्षा और यक़ीन की अटल मीनारें आपके भीतर खड़ा करता है। जाने कितने होंगे, जिन्होंने प्रेम के अपने अनुभवों को जगजीत की आवाज़ में व्यक्त होते पाया होगा। महानतम प्रेमी मजनूं अगर अपनी दीवानगी को गाकर व्यक्त करता, तो वह जगजीत की ही आवाज़ होती। जैसे महानतम शायर ग़ालिब जगजीत की आवाज़ में फबे। </div>
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वह एक विनम्र और सकुचाई हुई आवाज़ थी। प्रेम से ज़्यादा संकोची कुछ नहीं होता। उसकी सांद्रता होंठों की बुदबुदाहट से ज़ाहिर होती है, चीख़ने से नहीं। जगजीत की आवाज़ में वह दर्द है, जो दबे पांव आता है, शोर नहीं करता और आपसे ख़ुद पर उस एतबार की मांग करता है, जो यह बता सके कि आपका रुदन बेआवाज़ होगा। वह होंठों के आधे खुलने पर निकली अनमनी-सी आवाज़ है, जो सबसे पहले मन को ही बांधती है। मन का पौधा शांति में उगता है। जगजीत की आवाज़ शांति की सिंचाई है। वह शास्त्रीयताओं के तने पर सुगमता की क़लम लगाते हैं और दिल को छू जाने वाली मख़मली सरलता और तरलता का गुलाब उगाते हैं।</div>
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वह विवशता के गायक हैं। उस विवशता के गायक, जिसमें यह हुनर है कि वह पराए दर्द को अपना बना ले। उसी तरह जैसे फुटपाथ पर बैठ अकेली रोती हुई स्त्री को हम कातरता से देखते हैं, घर लौटते हैं, तो पाते हैं कि हमारी विवशता के भी हाथ होते हैं, और उसने अपने हाथों में उस स्त्री का चेहरा थाम रखा है। वह स्त्री वहीं छूट गई है, लेकिन उसका रुदन हमारे साथ चला आया है। हमारे अकेलेपन में वह हमारे होने को परिभाषित करता है। जगजीत की आवाज़ उसी तरह हमारे होने की परिभाषा है।</div>
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कलाकार ईश्वर की सबसे प्यारी संतान होता है। हे ईश्वर! तुम जब भी अपनी बनाई दुनिया के तमाम दंद-फंद से कुछ पलों के लिए अलग होकर अकेले होना चाहते होगे, अपने आत्म के सबसे क़रीब बैठना चाहते होगे, मुझे यक़ीन है, उस समय तुम जगजीत सिंह को सुनते होगे। ईश्वर! अपनी आत्मा पर लगी हुई हर खुरच को तुम जगजीत की आवाज़ के मख़मल से पोंछा करते होगे। मुझे यक़ीन है।</div>
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<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-small;"><i>(11 अक्टूबर को दैनिक भास्कर में प्रकाशित)</i></span></div>
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<img src="http://signatures.mylivesignature.com/54486/321/DFE9374F03726808FEE6FCD0654C688D.png" style="background: transparent; border: none;" /></div>Geet Chaturvedihttp://www.blogger.com/profile/14811288029092583963noreply@blogger.com18