Saturday, May 26, 2012

भगवत रावत




क़रीब डेढ़ साल पहले- 
शाम फ़ोन बजता है. उस तरफ़ एक कांपती हुई, लेकिन ओजस्‍वी बुज़ुर्ग आवाज़ है. उलाहने का आरोह है. 

'तुम्‍हें आने की फ़ुरसत नहीं मिलती?' 
'दादा, क़सम से. बहुत उलझा हुआ हूं. नहीं निकल पाया.'
'अभी कहां हो?'
'दफ़्तर में.' 
'तुम नहीं आ रहे, तो हम ही दस मिनट में पहुंच रहे हैं. सीढ़ी नहीं चढ़ पाएंगे, इसलिए तुम नीचे ही आ जाना.' 

क़रीब पंद्रह मिनट बाद दफ़्तर के बाहर सड़क पर हम मिलते हैं. यह भगवत रावत थे. हिंदी के वरिष्‍ठ कवि. बलवान कवि. हम दो घंटे से ज़्यादा बाहर चाय की भीड़-भरी गुमटी पर बैठे रहे. दुनिया-जहान की बातें करते रहे. वह सन् 80 का भोपाल और सत्‍तर का हैदराबाद बताते रहे. उनकी बातें, एक से जुड़ती एक.  किसी ने स्‍वेटर में ऊन की एक गांठ खोल दी हो. 

उनके ठहाके. बीच-बीच में दर्द की शिकन. बुज़ुर्गियत लाड़ और शिकायतों का युग्‍म है. पुराने से शिकायत होती है. नये से लाड़ होता है. जो नहीं हो सका, उसकी शिकायत होती है. जो होना संभव दिख रहा है, उसके लिए लाड़ होता है. 

उनमें यह दोनों था. उनमें कवि होने का अधिकार था. कुछ कवि बहुत संकोच से दुनिया को देखते हैं. वह पूरे अधिकार से दुनिया को देखते थे. अधिकार का ऐसा बोध या तो ईश्‍वर में होता है या कवि में. और दोनों अलग ध्रुव हैं.

यह उस समय की बात है, जब रावत जी से लोगों ने उम्‍मीदें छोड़ दी थीं. वह बरसों से किडनी ख़राब होने के कारण बीमार थे. ख़ुद ही डायलिसिस करते थे. उस समय भी उनमें वह गर्मजोशी थी कि एक युवा कवि से मिलने उसके दफ़्तर पहुंच गए. 

उनकी हालत स्‍थायी रूप से ऐसी ही कमज़ोर और बीमार थी. जि़ंदगी का हर पल, पुरानी बचतों के पल का ब्‍याज़ लग रहा था. फिर भी वह भोपाल के साहित्यिक कार्यक्रमों की शोभा थे. मंच से एक गरजती हुई आवाज़ आएगी और वह किसी एक ग़लत रेफ़रेंस को दुरुस्‍त कर देंगे. अपनी स्‍मृति और गर्जना से किसी वक्‍ता की साहित्यिक चतुराई की पोल खोल देंगे. अभी कुछ महीनों पहले की बात है. उन्‍हें साहित्यिक कार्यक्रमों में इसी रूप में देखा किया.  

जो जानते हैं, वे मानेंगे कि यह रुग्‍णता दारुण बना देती है. वह कुछ बरस पहले कंपकंपाए थे, पर फिर से ज्‍योतिर्मान हो गए. ऐसा जीवट आम नहीं. जीने की इच्‍छा उनकी पीठ पर उगा पंख थी. 

भोपाल में उनकी उपस्थिति पितामह-सरीखी़ थी. वह भोपाल का सारा चिरकुटत्‍व देखते और बेबस रह जाते. बल की ध्‍वनि से बोलते, फिर चुप हो जाते. अभी भी उनके भीतर प्रतीक्षा थी. अब भी वह कविताएं लिख रहे थे. अब भी उनके पास योजनाएं थीं. और अब भी, इन सबको लेकर आंखों में इतनी चमक, आवाज़ में उमंग थी कि उनके डोलने की कांप उनका सिंगार बन जाती. 

कुछ वृद्धताएं बहुत सुंदर होती हैं. इतनी सुंदर कि हज़ार तरुणाइयां उनके आगे पानी भरे. देखा जाए, तो पूर्णिमा का चांद दरअसल वृद्ध चांद होता है. भगवत यही बने. 

आज सुबह भोपाल के भदभदा श्‍मशान में बहुत भीड़ थी. हर तरफ़ से लोग आए थे. सारे उनके चाहने वाले. सब जानते थे कि ऐसा होना बहुत दिनों से बदा है. किसी भी पल उनके न रहने की ख़बर आ जाएगी. फिर भी, सब जब उन्‍हें सार्वजनिक जगहों पर देखते थे तो यही महसूस होता था, इतनी आसानी से नहीं . इस आदमी की देह का गुरदा कमज़ोर हुआ, तो मन में गुरदा उग गया.

जानना हो कि रस्‍सी में कितना बल है, तो उसे एक बार जला दिया जाए. जलने के बाद बल नहीं जाता, यानी बना हुआ बल, भरा हुआ बल था. इस कहावत को नकार में न देखें. आज मैंने अपनी आंख से भगवत रावत की देह को जलते हुए देखा है. भगवत की कविता का बल तो बना ही रहेगा. 

हम लोगों को एक लाड़ अब कभी नहीं मिलेगा. 
कुछ उलाहने हम लोग अब कभी नहीं सुनेंगे. 
एक अडिग कंपकंपाहट हमेशा के लिए थिर गई. 
उनकी राख में त्‍वचा की तरह झुर्रियां हैं. 



Sunday, May 20, 2012

सात कविताएं, ध्‍वनि और दृश्‍य






यह नया है. सबद की सालगिरह पर बना है.

यह 'सबद पोएट्री फिल्‍म' है. इसमें मेरी सात कविताएं हैं. अपनी कविता पर एक छोटा-सा वक्‍तव्‍य है. बहुत सारी जि़ंदा तस्‍वीरें हैं और चुनिंदा संगीत है. कहना न होगा, बिना किसी संसाधन के यह काम हुआ है.

यह एक छोटी-सी कोशिश है. सबद पर प्रकाशित-प्रसारित हुई है. इस लिंक पर देखें.

सबद पोएट्री फिल्‍म : गीत चतुर्वेदी

या सीधे यू-ट्यूब पर ही देख लें.


 

Wednesday, May 16, 2012

एक ताज़ा इंटरव्‍यू








युवा कवि सिद्धान्‍त मोहन तिवारी ने एक इंटरव्‍यू लिया है, जिसे उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग 'बुद्धू-बक्‍सा' पर प्रकाशित किया है. इसके सवाल बहुत अनोखे हैं, इसलिए कि वे एक बड़े फलक को संबोधित करते हैं. उनके जवाबों में कई बार अटकाव का अंदेशा रहा. बहरहाल, वे ऐसे बुनियादी प्रश्‍न हैं, जिन पर बात करने में बहुत आनंद आया. ख़ासकर, समय का सवाल. हम अपनी रचनाओं में उसी को छूना चाहते हैं, उसी के पार जाना चाहते हैं, और घर्षण भी उसी से होता है.

नीचे दिए गए लिंक पर जाएंगे, तो आपको यह पूरा इंटरव्‍यू पढ़ने को मिलेगा. इसमें समय, धर्म, प्रेम, स्‍मृतियों आदि पर मेरे कुछ ऑब्‍ज़र्वेशन हैं, नई कविताओं की शैली के बारे में विस्‍तार से बातें हैं और हमेशा की तरह, अपने प्रिय लेखकों के प्रति मेरा श्रद्धासुमन-अर्पण भी है.

गीत चतुर्वेदी से सिद्धांत मोहन तिवारी की बातचीत