Monday, November 29, 2010

उसका आना तय था बहुत पहले से



जब मैं छोटा था, तो सोचता था, बड़ा होकर किताब बनूंगा। लोगों को चींटियों की तरह मारा जा सकता है, एक लेखक को मारना भी मुश्किल नहीं, लेकिन किताबों को नहीं मारा जा सकता। उन्हें नष्ट करने की कितनी भी कोशिश की जाए, यह संभावना हमेशा रहती है कि दुनिया के किसी निर्जन कोने में, किसी लाइब्रेरी के किसी खाने में, उसकी एक प्रति तब भी बची रह जाए।
- अमोस ओज़  (अ टेल ऑफ लव एंड डार्कनेस)



बूढ़े की कहानी-3

पेंसिल उसे परेशान करती है। छीलते-छीलते जब लगता है कि खासी नुकीली हो गई है, ठीक उसी समय जाने क्या हो जाता है कि नोंक टूट जाती है और शार्पनर में अटक जाती है। किसी तरह ठोंक-ठाककर वह नोंक निकालता है और पेंसिल को नए सिरे से छीलना शुरू करता है।

दीवार के सहारे पीठ टिकाकर अधलेटे बसरमल की जांघों पर ड्राइंग बुक है। बूढ़े और कांपते हाथों से वह उस पर पेंसिल बिछा देता है। आड़ा-तिरछा हिलाकर कुछ लकीरें बनाता है।

मंगण मां धीमे कदमों से बाहर आती है। उसके हाथ में पानी से भरा मग्गा है, जो छलक रहा है और दूसरे हाथ में प्लास्टिक का गुड्डा है। मग्गे के पानी में साबुन का झाग है। गुड्डे को पानी में डाल, तल्लीनता से उंगलियों से रगड़-रगड़कर उसे धो रही है।

बसरमल कुर्सी पर बैठी मंगण मां की तस्वीर बनाने लगता है। सबसे पहले कुर्सी की पीठ बनाता है। फिर उस पर टिकी हुई मंगण मां की पीठ। फिर कुर्सी की सीट बनाता है। फिर उससे सटी हुई मंगण मां की सलवार। फिर सलवार से बाहर निकले उसके पैर।

एक आकृति-सी बन गई है। सलवार को देखकर लग रहा है कि यह मंगण मां है। बस, इससे ज़्यादा नहीं बनाना उसे। पता नहीं, कितने साल पहले, उसने मंगण मां से कहा था, ‘यह समझ में आ जाए कि आप क्या सोच रहे हैं और क्या बनाना चाहते हैं, तो उसके बाद नहीं बनाना चाहिए।’

याद नहीं, उस समय मंगण मां ने क्या कहा था।

वह फिर वही बात उससे कहता है। उसका गुड्डा पानी में डूबा हुआ है। उसकी उंगलियां भी वहीं पर है। वह पानी में ही हाथ डाले-डाले उसकी ओर देखती है। इस तरह, जैसे सुन ना पाई हो। वह अपनी बात दुहराता है। मंगण मां का चेहरा फिर वैसा ही है। जैसे चाहती हो, एक बार और कही जाए वही बात, उसी तरह। कुछ पल पहले की तरह, कुछ बरस पहले की तरह।

वह उठकर चली जाती है। भीतर से वाश बेसिन में पानी गिरने की आवाज़ आती है। उसने गुड्डे को अब साफ पानी से धो दिया है।

बसरमल अपनी ड्राइंगबुक के पिछले पन्नों को देखता है। वहां कई पन्नों से मंगण मां नहीं है। उसने बहुत दिनों बाद उसकी देह और आकृति पर पेंसिल फिराई है। वह उस पर आहिस्ता से उंगली फिराता है। याद नहीं, आखिरी बार कब उसने मंगण मां की देह पर उंगलियां फिराई थीं। वह तस्वीर के बगल में सिंधी में लिखता है- 'जालो’। फिर रबर से मिटा देता है। फिर अंग्रेज़ी में लिखता है- 'शी’। फिर उसे भी मिटा देता है। फिर वह अंग्रेज़ी में ही लिखता है- 'मेलन्कली’।

अमरूद की खुशबू पूरे कमरे में फैल जाती है। इतनी बारीक होती है वह खुशबू कि कई बार नाकों की पकड़ में नहीं आती। पर बसरमल उस महक को मीलों दूर से भी पहचान लेता है। वह एक पुराने पन्ने की ओर जाता है। वहां एक पीठ है, और उस पर एक लंबी चोटी लहरा रही है। उसके पीछे एक पन्ने पर किसी बच्चे के पैर हैं और एक फुटबॉल। उसके किनारे लिखा है-

उसका आना तय था बहुत पहले से
वह आज भी इंतज़ार कर रही है

वह उन पैरों के आसपास दो जोड़ी पैर और बनाता है। एक ने पैंट और बूट पहने हैं, दूसरे ने सलवार और चप्पल। फैमिली पूरी हुई।

मंगण मां भीतर से लंबी पाइप लेकर निकली। रबर की पीली पाइप, जो करीब चालीस फुट की होगी। उसने उसका एक सिरा वॉश बेसिन के नल में लगाया है और दूसरा सिरा पकड़कर खींच रही है। वह उसे बाहर लेकर जाएगी। सामने की सड़क धोएगी।

'सड़क को क्यों धोना भई? वैसे ही वहां से पब्लिक निकलती है।’

मंगण मां फिर बसरमल की तरफ उसी तरह देखती है, जैसे सुनी हुई बात को एक बार और सुनने की इच्छा हो। कमर झुकाए धीरे-धीरे बाहर निकल जाती है।

बसरमल ड्राइंग की किताब में और पीछे जाता है। वहां एक खिड़की बनी है। जैसे पूरा पन्ना एक दीवार हो और उस पर एक खिड़की। अधूरी-सी। उसमें एक ही पल्ला है। दूसरा कहीं गिर गया या बनाया नहीं गया। खिड़की पर जाली है, जिस पर बड़े-बड़े फूल बने हैं। वह जाली के बीच बची सफेद जगह पर तिरछी पेंसिल से पतली-पतली लकीरें भरने लगता है। थोड़ी देर बाद एक पन्ने पर जाकर रुक जाता है। वहां किताबों की रैक है, जिसमें किताबें नहीं हैं। वे नीचे फर्श पर बिखरी हुई हैं। उसके किनारे लिखा है,

एक डॉट यानी फुल स्टॉप
तीन बार डॉट डॉट डॉट यानी
चीज़ें अभी खत्म नहीं हुईं
जिंदगी जारी है

किताबों की बगल में वह एक बोरी बनाता है। उसकी बगल में एक और बोरी। फिर एक और। फिर एक कुदाल। फिर कुछ ईंटें। ईंटें, ईंटों जैसी नहीं दिखतीं। वह उन्हें मिटा देता है। फिर वह बोरियों को मिटा देता है। फिर कुदाल को। फिर रैक को। फिर किताबों को। वह सब कुछ मिटा देता है। पूरे पन्ने को फिर से सादा बना देता है।

दराज़ से वह नया इरेज़र निकालता है और पूरी ड्राइंग बुक को सादा करने पर जुट जाता है।

उसे नहीं याद, यह आदत उसमें कब और क्यों आई। वह एक ड्राइंग बुक लेता है, उसमें कुछ समय तक तस्वीरें बनाता है और कुछ समय बाद सबको मिटा देता है। फिर उन्हीं पन्नों पर कुछ और बनाता है। तब तक, जब तक कि वे पन्ने इस लायक बचे रहें।

वह एक पेंसिल बन जाना चाहता है, ताकि इस दुनिया की आकृति में कुछ ज़रूरी रेखाएं जोड़ दे।

वह एक इरेज़र बन जाना चाहता है, ताकि इस दुनिया की आकृति से कुछ फालतू रेखाएं मिटा दे।

या एक खिड़की। या एक गेंद। या एक बच्चा। या एक स्त्री। वह बसरमल बनना छोड़ बाकी कुछ भी बन जाना चाहता है।

बाहर आकर मंगण मां के पास बैठ जाता है। वह पानी के फव्वारा से सड़क धो रही है। उसकी धोई हुई सड़क से फटफट करती एक मोटरसाइकल गुज़रती है। मंगण मां बुदबुदाने लगती है। मेहनत का ज़ाया होना उसे बुरा लगता है।

बसरमल कहता है, 'उसका फोन फिर आया था। वही सारी बातें। पर मैं नहीं बेचना चाहता।’

मंगण मां उसकी तरफ नहीं देखती।

वह उसके हाथ से पानी की पाइप ले लेता है और खुद भी वहीं बैठकर सड़क धोने लगता है।

(कहानी सिमसिम का एक अंश)


 

Friday, November 12, 2010

आदत बदस्‍तूर





लिखने की आदतें के बाद कुछ मित्रों की चाह थी कि मैं अपनी आदतों के बारे में भी लिखूं. ऐसा करना आसान नहीं होता, क्‍योंकि आदतें इसीलिए आदतें होती हैं कि उन्‍हें आप ख़ुद नहीं पहचान पाते. कोई न कोई, कभी, दर्ज या अ-दर्ज तरीक़े से आपको टोकता है, टोक कर आपका ध्‍यान उसकी ओर ले जाता है और तब आप पाते हैं कि हां, यह तो सही कह रहा है, मैं तो ऐसा ही करता हूं. आदत अच्‍छी लगी, तो आप ज़ाहिरा तौर पर मान जाते हैं. अच्‍छी नहीं लगी, तो मुकर भी जाते हैं, फिर भी आदत बदस्‍तूर रहती है. 

जैसे पॉल ऑस्‍टर से किसी ने पूछा, अब लैपटॉप्‍स का ज़माना आ गया है, आप अभी भी अपने पुराने टाइप राइटर पर ही क्‍यों लिखते हैं? ऑस्‍टर कुछ देर सोच में पड़ गए और बोले, मैंने यह बात सोची ही नहीं थी कि मुझे लैपटॉप पर शिफ़्ट हो जाना चाहिए. निश्चित ही उन्‍हें अहसास होता होगा, जैसा कि उन्‍होंने बाद में कहा भी कि कंप्‍यूटर पर कॉपी एडिट करना ज़्यादा आसान होता है, लेकिन उनकी आदत में कंप्‍यूटर नहीं घुसता, तो नहीं घुसता. ड्राफ़्ट फ़ाइनल होने तक वह हर बार पूरी स्क्रिप्‍ट को फिर से टाइप करते हैं. यानी दस बार करेक्‍शंस किए, तो दस बार टाइपिंग. मैं सोचता हूं कि इस तरह न्‍यूयॉर्क ट्रायलॉजी पूरा करने में उन्‍हें कितना वक़्त लगा होगा.

पर मैं ऐसा नहीं करता. मेरी आदतें अभी भी बहुत मिली-जुली हैं और की-बोर्ड के कारण लंबे समय तक क़लम का साथ छूटे रहने के बाद भी पिछले कुछ बरसों में मेरा यह पक्‍का विश्‍वास हो गया है कि फा़इनल होने से पहले प्रिंट आउट्स पर क़लम के निशान होने ही चाहिए. कॉपी राइटिंग और एडिटिंग दोनों तरह से हो. पहले जितना कुछ ऑनलाइन हो सकता हो, उतना. फिर ऑफ़लाइन क़लम से. वह भी अपनी पसंदीदा हरी स्‍याही से. या फिर बैंगनी स्‍याही से. बिना लाइन वाले सादे काग़ज़ों पर. पॉल ऑस्‍टर की आदत दूसरी है. वह अपना सारा लेखन चार लाइन वाली नोटबुक में करते हैं, जैसी नोटबुक्‍स छोटी क्‍लासों में बच्‍चों को अंग्रेज़ी और कर्सिव में महारत के लिए दी जाती हैं. 

हालांकि मैं अपनी आदतों की तफ़सील में नहीं जाऊंगा, क्‍योंकि वह ख़ुद को भी अटपटा ही लगेगा और मैं देर तक सिर्फ़ अपने बारे में बोल भी नहीं पाऊंगा, दो-चार लाइनों बाद ही उसमें मेरे प्रिय लेखकों के प्रसंग आने लग जाएंगे. जैसा कि ऊपर के पैराग्राफ़ में ही हो गया है. 

कविता और कहानी लिखने के तरीक़े भी अलग-अलग हैं. छोटी और स्‍वत:स्‍फूर्त कविताएं एक बार में लिख ली जाती हैं, अगर उस समय कंप्‍यूटर पर हों, तो तुरंत टाइप हो जाता है, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है. कविताएं अचानक आती हैं, कई बार लंबे समय से दिमाग़ में चल भी रही होती हैं, लेकिन उन्‍हीं के बीच कोई अप्रत्‍याशित आती है. तब मेरी कोशिश होती है कि उसे पेंसिल से लिख लूं. और वे कुछ-कुछ पंक्तियों में होती हैं. तब जो किताब सामने है, उसके हाशिए पर, या अंत में प्रकाशक द्वारा फर्मे की सहूलियत के लिए छोड़े गए सादे पेजों पर नोट कर लेता हूं. फिर अगली फ़ुरसत में वे पेंसिल से ही डायरी या नोटपैड के सादे पेजों में चली जाती हैं, वहां जमा होती रहती हैं. कई बार इस तरह जमा होती रहती हैं कि बाद में पढ़ने पर यह समझ में नहीं आता कि यह पंक्‍ित क्‍यों लिखी थी. ख़ैर. कुछ कविताएं, पंक्‍ितयां देरी से खिलने वाले फूलों की तरह होती हैं. वे वैसी ही होती हैं, तो होती हैं. आप कुछ नहीं कर सकते. हां, उन पर ज़ोर-आज़माइश ज़रूर कर सकते हैं. इसी दौरान मैं एक बार उन्‍हें टाइप कर लेता हूं, प्रिंट ले लेता हूं और फिर उन पर काम. (कविता पर काम करना चाहिए या नहीं, मैं इस पर कुछ पंक्तियों बाद आऊंगा. यह एक दिलचस्‍प सवाल है, क्‍योंकि कई मित्र पर इस पर आपत्ति करते हैं, उनका मानना है कि कविता एक बार में ही जैसी लिखी जाए, वैसी ही होनी चाहिए, उस पर काम करने का अर्थ है कविता के आगमन के क्षणों की मन:स्थितियों या म्‍यूज़ का अनादर करना. मेरी नज़र में ऐसा नहीं है.)

काम का यह सिलसिला चलता ही रहता है. जब तक कि उससे एक ख़ास कि़स्‍म की विरक्ति न हो जाए. यहां विरक्ति, आसक्ति का ही समानार्थी है, जैसे मैंने पहले भी कई बार अतीत को भविष्‍य का समार्थी माना है. और समार्थी का संधि-विच्‍छेद मुझे एक और अर्थ देता है, वह है 'सम पर पहुंचाने वाला अर्थ.' जैसे मेरी एक कविता है 'माउथ ऑर्गन'. मैंने उसे सबसे पहले 97 में लिखा था, और बाद के बरसों में वह नोटपैड में यूं ही पड़ी रही. बीच के छह बरसों में जब मैंने लिखना लगभग बंद ही कर दिया था, तब मैं बीच-बीच में उसमें चला जाता, उसमें कुछ खदड़-बदड़ कर देता, जैसे सिम पर रखी हुई सब्‍ज़ी को आप जांचने के लिए उसमें यूं ही कलछुल फिरा दिया करते हैं. पर उससे कुछ हुआ नहीं. कविता की मूल संरचना और रेंज पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. दस साल बाद मैंने उसे टाइप किया और उसके प्रिंट पर काम करना शुरू किया, और तब मैं शायद उसके आरोह को छू पा रहा था,  मुझे यह नहीं याद था कि पहली बार मैंने उसे क्‍या सोचकर लिखना शुरू किया था, लेकिन दस साल बाद मैंने पाया कि इसकी कुछ पंक्तियों में अभी भी धड़कन बाक़ी है. और उसी धड़कन को और ज़्यादा पंप करने की ज़रूरत है. और यह तब तक चलता रहा, जब तक कि मैंने अपने संग्रह का आखि़री प्रूफ़ नहीं पढ़ लिया. उसमें तब भी बहुत बदलाव हुए थे. और वह संग्रह की उन कुछेक कविताओं में से है, जिनका पहले कभी प्रकाशन हुआ ही नहीं था. इन सबका अर्थ यह नहीं कि वह एक बहुत बड़ी और महान कविता हो गई, क्‍योंकि अब भी मैं उसमें अपने स्‍टैंटर्ड्स पर नहीं पहुंच पाया हूं. जब मैं रचनाओं से जुड़े हुए पृष्‍ठभौमिक तथ्‍यों के बारे में बात करता हूं, तो दरअसल रचना की रसोई की एक यात्रा करने जैसा होता है. चूंकि हमारे यहां रचनाओं की फिजि़क्‍स पर बात करने का कोई चलन ही नहीं है, सो इसे तुरंत एक नकरात्‍मक प्रवृत्ति की तरह देखा जाता है कि अरे देखो साब, फलां की एक किताब अभी छपी नहीं कि वह यह गिनाने लग गए हैं कि यह पांचवां ड्राफ़्ट है, इसे लिखने में मुझे चार साल लग गए या ब्‍ला-ब्‍ला. जबकि यह तो महज़ उसके फिजि़क्‍स का एक फ़ैक्‍ट है, जिसे लेखक उतनी ही सहजता से बताता है, जितना कि वह अपनी रचना में जाता है. सहजता एक दुर्लभ गुण है, केवल लेखक के रूप में ही नहीं, पाठक और साथी लेखक के रूप में भी हमें इसे सहर्ष, सगर्व आरोहित करना चाहिए. इसे एक लेखक की इन्‍वॉल्‍वमेंट के रूप में भी देखा जाना चाहिए. 

इसी सिलसिले में मुझे एक बार फिर विलियम फॉकनर याद आते हैं. उनसे एक बार पूछा गया कि आप अपनी किस किताब को सबसे ज़्यादा पसंद करते हैं. उनका जवाब था, 'जिस किताब ने लिखने के दौरान मुझसे सबसे ज़्यादा संघर्ष कराया हो, जिसने सबसे ज़्यादा रुलाया हो, सबसे ज़्यादा मेहनत कराई हो. मैं अपनी रचनाओं की गुणवत्‍ता को इसी आधार पर मापता हूं. जैसे कि एक मां अपने उस बच्‍चे से सबसे ज़्यादा प्रेम करती है, जो उसकी बात नहीं मानता, बड़ा होकर अपराधी बन जाता है या चोरी-हत्‍याएं करने लगता है. मां को पता है कि अच्‍छा बेटा तो अच्‍छा ही है, वह बुरे काम नहीं करेगा, लेकिन यह जो बुरा बेटा है, इसे ज़्यादा प्‍यार करो, क्‍योंकि प्‍यार के कारण इसके सुधर जाने की संभावनाएं बची रहेंगी. उसी तरह एक लेखक अपनी सबसे शैतान, बदमाश, चंचल कृति की ओर देखता है.' उन्‍होंने 'द साउंड एंड द फ़्यूरी' को इसी श्रेणी में रखा, जिसे उन्‍होंने पांच अलग-अलग तरीक़ों से लिखा था और उम्र के आखि़री बरसों में बाक़ी चार वर्शन्‍स को भी छपवा देने के बारे में विचार किया था. और जहां तक मुझे याद पड़ता है, एक निबंध में उन्‍होंने बताया था कि इसका अंत उन्‍होंने पैंतीस से ज़्यादा बार लिखा था. इससे थोड़ा-सा कम काम उन्‍हें 'ऐज़ आय ले डाइंग' पर करना पड़ा था. और यहां यह कहना दिलचस्‍प होगा कि फॉकनर के जिस 'योक्‍नेपटाफ़ा' ने आगे चलकर माकोंदो और मालगुड़ी की रचना में प्रेरक भूमिका निभाई, छपकर आने के बाद उनके इस उपन्‍यासों पर कम ही लोगों ने ध्‍यान दिया था. 

हर लेखक अपने लिए लिखने का एक समय तय कर लेता है, लगभग, वह उसी समय लिखेगा या उस समय लिखने को लेकर ज़्यादा आरामदेह महसूस करेगा. जैसे कुछ ड्यूटी अवर्स की तरह नौ से पांच का समय चुन लेते हैं, कुछ दोपहर का. ज़्यादातर लोग सुबह जल्‍दी उठकर लिखते हैं. रॉबर्ट ब्‍लाय मेरे प्रिय अंग्रेज़ी कवियों में हैं और उनके ग़ालिब के अनुवादों को कई बार मैं इस शायर को आज दिनांक में समझने के लिए गाइड की तरह देखता हूं, उनकी सुबह लिखने की आदत हैरान करती है. वह सुबह पांच बजे उठते हैं, बिस्‍तर छोड़ने से पहले ही वह काग़ज़-क़लम लेकर एक कविता लिखते हैं. हर सुबह बिला नागा. जैसे सुबह की चाय. और पिछले पचास साल से वह हर सुबह ऐसा ही करते हैं. उनकी सुबह लिखी कविताओं का संग्रह 'मॉर्निंग पोएम्‍स' नाम से संकलित भी है. 

मेरे लिए सबसे आरामदेह समय रात का होता है, रात ग्‍यारह बजे के बाद. मुझे अंधेरा चाहिए. तेज़ रोशनी से मेरा माइग्रेन भड़क उठता है और मैं जिन चीज़ों से सबसे ज़्यादा डरता हूं, उनमें यह माइग्रेन भी है. दिन में कोई कमरा ऐसा नहीं होता, जहां पूरी तरह अंधेरा हो, और दिन में घर रहा भी नहीं जाता, काम पर जाना होता है. सो रात का समय सुविधाजनक होता है. नौकरी के घंटे बदलते-बढ़ते रहते हैं, इसलिए यह बैठक कई बार अनिश्चित हो जाती है. कई बार लंबा स्‍थगन. ऐसा सबके साथ होता होगा. एक दिन आप एक शब्‍द भी नहीं लिख्‍ा पाते और किसी दिन पूरे हज़ार शब्‍द लिख जाते हैं. इसका कोई औसत या हिसाब नहीं. हेमिंग्‍वे जैसे लोग अपवाद हैं. उनकी डेस्‍क के सामने एक चार्ट लगा होता था, जिसमें वह हर रोज़ नोट करते थे कि आप कितने शब्‍द लिख लिए. कभी साढ़े छह सौ तो कभी पंद्रह सौ. हर रोज़ के चार्ट के बाद वह महीने का औसत निकालते थे और अगर वह ठीकठाक रहा, तो ख़ुश होते थे, वरना कलपते थे, ख़ुद को कोसते थे और अपना औसत बढ़ाने की कोशिश करते थे.

बैठक से जुड़े हुए नखरे भी हैं. जैसे मैं थर्मस में चाय बनाकर अपने साथ रखता हूं. कई बार अलग-अलग तरह की चाय. रेगुलर, ग्रीन और लेमन तीनों. मूड अच्‍छा हुआ और माइग्रेन का ख़तरा न रहा, तो कॉफ़ी. यहां जैक केरुआक की याद आती है. वह लिखते समय खाने की कुछ चीज़ें लेकर बैठता था. हालांकि कई लोगों को निरर्थक लगेगा यह सब, क्‍योंकि एक तरह से आप क्‍या लिख रहे हैं, बहुत महान या कचरा लिख रहे हैं, इन सब बातों का इससे कोई लेना-देना नहीं, और मैं अभी कंटेंट पर बात कर भी नहीं रहा, अलबत्‍ता कंटेंट भी एक आदत ही होता है, ऐसा मेरा मानना है, फिर भी यह ज़रूर कि सारी कलाएं या लेखन एक नशे की तरह ही होता है और सारी आदतें नशों में ही तब्‍दील हो जाती हैं, वे अपने आप होने लगती हैं, इसलिए वे अनजाने ही एजेंट प्रोवोकेटर की भूमिका ले लेती हैं. 

कहानी पर काम करने की आदतें अलग हैं, कविताओं से अलग, उन पर कभी अगली बार बात करेंगे. इस समय 'काम करना' पर अटकाव है. क्‍या एक लेखक को अपनी रचनाओं पर काम करना चाहिए? यानी जब रचना स्‍वत:स्‍फूर्त तरीक़े से ख़ुद को लिखवा ले जाती है, तो क्‍या सायास उसकी तराशना, मरम्‍मत, पुनर्लेखन आदि करना चाहिए? कला निजी आदत और निजी अनुभव है, इसलिए उसका कोई नियम तो होता नहीं, हर कलाकार अपने लिए कुछ सरणियां तैयार करता है और उन्‍हीं के आधार पर इस प्रश्‍न से जूझता है. मुझे बाबा बोर्हेस बहुत पसंद हैं और उनकी कही बातें न केवल लेखक, बल्कि किसी भी कलाकार के लिए दिशासूचक होती हैं, लेकिन उनकी कुछ बातों से मैं कभी सहमत नहीं हो पाता, उनमें से एक यह है कि वह कहते हैं, जब आप अपनी रचनाओं पर बार-बार काम कर रहे होते हैं, तो ज़रूरी नहीं कि आप उसकी सुंदरता बढ़ा ही रहे हों, ज़्यादातर मौक़ों पर आप उसे बर्बाद कर रहे होते हैं. बाबा को ऐसे अनुभव हुए होंगे, जो वह ऐसा कहने पर विवश हुए, पर मेरे अनुभव अलग हैं. 

मैंने पिछले दिनों आर्ट ऑफ नॉवल पर कुछ बेहतरीन चीज़ें पढ़ी हैं, और उन्‍हें पढ़ते हुए ऐसे कई मुद्दों पर मैं अपनी राय से संतुष्‍ट भी हुआ. मैंने पहले भी कहा है कि कला स्‍वत:स्‍फूर्त नहीं होती, वह अत्‍यंत नियंत्रित अभिव्‍यक्ति है. स्‍वत:स्‍फूर्त होना सिर्फ़ एक भ्रम है. आप अपने चेतन में या अवचेतन में उसके बारे में सोचते रहते हैं, उसे पा लेना चा‍हते हैं, और पा लेते हैं. कुछ चीज़ें अनायास आपके पास आ जाती हैं, लेकिन वे इसलिए आती हैं कि कुछ दूसरी चीज़ें उनके लिए ज़मीन तैयार कर देती हैं. गेंदबाज़ी इसके लिए बढि़या उदाहरण है. बॉलर जानता है कि उसे इनस्विंग करानी है, तो बॉल को कहां टप्‍पा दिलाना होगा, कलाई को कैसे झटकना होगा. वह इन‍स्विंग फेंकना चाहता है, सो फेंकता है. यही उसका नियंत्रण है. इनस्विंग फेंकने की इच्‍छा के बावजूद अगर वह आउटस्विंग फेंक देता है, तो वह असफल है, अनियंत्रित है, कलाहीन है. भले उस आउटस्विंग पर उसे विकेट मिल जाए, लेकिन वह ख़ुद जानता है कि वह ग़लत है. संभव है कि अगली बार उसे इस ग़लती का खामियाजा भुगतना पड़े. वह एक स्‍वत:स्‍फूर्त गेंद का इंतज़ार नहीं कर सकता. उसकी एक चाही हुई इनस्विंगर अगर उसकी उम्‍मीद से ज़्यादा स्विंग हो जाती है, तो भी यह स्‍वत:स्‍फूर्त नहीं है, क्‍योंकि इसमें पिच का वह गड्ढा या पैच मददगार है, जो एक्‍स्‍ट्रा टर्न दे देता है या वह हवा जो गेंद पर सहायक रहम करती है. आज जितनी भी कलाएं हैं, उनमें बॉलिंग से ज़्यादा कलात्‍मक उदाहरण नहीं मिल सकता, कलात्‍मक नियंत्रित अभिव्‍यक्ति का.  और इस नियंत्रण के लिए उसे लगातार काम करना होता है, अभ्‍यास करना होता है. लेखक का काम करना गेंदबाज़ के काम करने से थोड़ा ज़्यादा कठिन है, क्‍योंकि लेखक को नतीजा तुरंत नहीं मिलता, बरसों लग जाते हैं, जबकि गेंदबाज़ अगले कुछ मिनटों में जान लेता है कि कितना परसेंट डिलीवर हुआ. 

ओरहन पमुक की नई किताब इसी किस्‍म के विषयों को छूती है. यह है हार्वर्ड में उनके लेक्‍चर्स का संग्रह, जो कुछ दिनों पहले ही रिलीज हुआ है- 'द नाइव एंड द सेंटीमेंटल नॉवलिस्‍ट'. फ्रे‍डरिक शिलर नामक दो सदी पुराने एक जर्मन लेखक के एक निबंध को आधार बनाकर उन्‍होंने लेखकों की दो श्रेणियां बनाई हैं- पहली नाइव, जो सीधा-सादा, भोला-भाला है, जो उन्‍हीं चीज़ों में यक़ीन करता है, जो उसके पास अपने पैरों पर चलकर आ जाती हैं. और दूसरी श्रेणी है- सेंटीमेंटल, जो बहुत रिफ्लेक्टिव होता है. वह अपने तरीक़े से सोचता है, और अपने इमोशंस और रिफ्लेक्‍शंस के सहारे उसमें इनोवेट करते जाता है. आधुनिक समय का अच्‍छा लेखक दोनों ही तरीक़ों के मिश्रण से बनता है.   

यह किताब पमुक के सबसे सुंदर कामों में से है, जो रचना-प्रक्रिया और पाठकीय-प्रक्रिया की कई अंधेरी गलियों को रोशन करती चलती है. इनके अलावा मिलान कुंडेरा की नई किताब 'एनकाउंटर' भी है, जो आर्ट ऑफ फिक्‍शन को विश्‍लेषित करने वाली उनकी सीरिज का नया हिस्‍सा है. पुरानी तीन किताबें हैं 'द आर्ट ऑफ़ नॉवल', 'टेस्‍टामेंट्स बीट्रेड' और 'द कर्टेन'. मेरी कोशिश होगी कि अगली पोस्‍ट्स में मैं इन पांचों किताबों पर बात करूं. 



Tuesday, November 9, 2010

कैट्स इन द क्रैडल





लिखने कुछ और बैठा था, लेकिन मन इस पुराने गाने में अटक गया है. कुछ गाने लगातार आपके साथी बन जाते हैं, कुछ धुनें भी. वे आपके भीतर इस क़दर बस जाती हैं कि कब आपके मुंह से निकल पड़ें, आपको अंदाज़ा भी नहीं होता. कई बार आपकी पहचान भी उसी धुन से ही बन जाती है. वह उस धुन में ऐसे खो जाता है कि कब उस धुन को फेरबदल कर अपनी धुन बना लेता है, उसे भी नहीं पता चलता. जैसे मैंने अपने पिताजी को आज तक सिर्फ़ एक ही गाना गुनगुनाते हुए सुना है- मुबारक बेगम का 'कभी तनहाइयों में यूं हमारी याद आएगी'. वह अब भी जब तल्‍लीन होकर कुछ कर रहे होते हैं, तो यही गुनगुनाते हैं. मैंने कई बार पूछा है कि वे किसकी तनहाइयों में जाकर अपनी याद दिला आना चाहते हैं, हमेशा की तरह वह हा-हा-हा कर देते हैं. वह बहुत अच्‍छी बांसुरी बजाते हैं, तबला बजाते हैं, माउथ ऑर्गन भी. हैं कहूं या था, क्‍योंकि आखि़री बार उनसे यह सब सुने हुए भी दस से ज़्यादा साल होने को आए. किसी ज़माने में सितार पर उनका अच्‍छा हाथ था, यह भी जानने वालों से ही सुना है, उन्‍हें बजाते हुए नहीं सुना. वह संगीत में डूबे हुए धुनी इंसान थे, पर अब गाने की (या किसी भी कि़स्‍म की) ज़रा-सी ऊंची आवाज़ भी उनका ब्‍लडप्रेशर बढ़ा देती है. फिर भी कभी-कभार मुबारक बेगम उनके होंठों पर आ जाती है. कितना अचरज भरा लगता है कि एक इंसान किसी एक धुन के सहारे, एक गीत के सहारे अपना ज़्यादातर जीवन गुज़ार दे.

मुबारक बेगम का वह गीत कब मेरे भी पसंदीदा गीतों में शामिल हो गया, मुझे नहीं पता. यहां उसका चर्चा तो पिताजी के संदर्भ में आ गया, उस गीत को याद करने का काम मेरे दोस्‍तों राजकुमार केसवानी और यूनुस ख़ान के जि़म्‍मे, पर जिस गीत में मेरा मन अटका हुआ है, वह है अग्‍ली किड जो का कैट्स इन द क्रैडल. 1992 में जब अमेरिकाज़ लीस्‍ट वांटेड रिलीज हुआ था और इसके दो गाने बिजी़ बी और कैट्स इन द क्रैडल ने एमटीवी पर धूम मचा दी थी, तो मैंने ठाणे पश्चिम में स्‍टेशन से बिल्‍कुल लगी हुई, म्‍यूजि़क की उस समय की सबसे बड़ी दुकान, गणेशा म्‍यूजि़क सेंटर से तुरंत यह कैसेट ख़रीदा था. क़ीमत थी 95 रुपए. अब वह कैसेट मेरे पास नहीं है, लेकिन उसका कवर, उसकी मोटाई, उसे सुनते समय हुए अनुभव और उसके गानों के शब्‍द अब तक याद हैं. और 'कैट्स इन द क्रैडल' तो अब तक का साथी बना हुआ है. 

यह गाना ओरिजिनली अग्‍ली किड जो  का नहीं है, हैरी चैपिन का है. बहुत समय बाद जाकर यू-ट्यूब पर चैपिन वाला वर्शन सुना, लेकिन मैं दुनिया के उन बहुतेरे लोगों में शुमार हूं, जो यह मानते हैं कि किड्स ने चैपिन के सुंदर गाने को और सुंदर बना दिया. उसे एकदम से नया कर दिया. शायद मेरे ऐसा मानने के पीछे यह कारण हो कि मैंने बहुत लंबे समय तक सिर्फ़ किड्स वाला वर्शन ही सुना था और मेरे दिल के क़रीब वो ज़्यादा है. दिल तो दिल है, क़ुरबत बिना किसी शर्त के कर लेता है. यह एक पिता की तरफ़ से गाया गया गाना है, जो अपने बेटे को समय नहीं दे पाता. और एक दिन पाता है कि अब बेटा भी उसे समय नहीं दे पाता. 

मेरे पिताजी ने मुझे भरपूर समय दिया, भरपूर प्‍यार दिया, लेकिन फिर भी इसे सुनते हुए हर बार उनकी याद आ जाती है. यह गाना आप ही के लिए, डैड! 



Cats in the cradle
Ugly Kid Joe

My child arrived just the other day
came to the world in the usual way
but there were planes to catch
and bills to pay
he learned to walk while I was away
he was talking for a minute
and as he grew
he'd say I'm gonna be like you Dad
you know I'm gonna be like you

And the cats in the cradle
and the silver spoon
little boy blue and the
man on the moon
when you comin' home Dad
I don't know when
we'll get together then
you know we'll have
a good time then

Well my son turned ten
just the other day
he said thanks for the ball Dad
come on let's play
can you teach me to throw
I said not today - I got a lot to do
he said that's o.k.
and he walked away and he
smiled and he said
you know I'm gonna be like him yeah
you know I'm gonna be like him

And the cats in the cradle ...

Well he came from college
just the other day
so much like a man I just had to say
I'm proud of you could you
sit for a while
he shook his head
and he said with a smile
what I'd really like Dad
is to borrow the car keys
see you later can I have them please

And the cats in the cradle ...

I've long since retired
my son's moved away
I called him up just the other day
I'd like to see you if you don't mind
he said
I'd love to Dad
if I could find the time
you see my new job's hassle
and the kids have the flu
but it's sure nice talking to you Dad
it's been sure nice talking to you
and as I hung up the phone
I occured to me
he'd grown up just like me
my boy was just like me

And the cats in the cradle ...

And the cats in the cradle ...