Monday, April 28, 2008

कविता और मन बज़रिए एक छोटी-सी तहलील...

जापानी कवि शुंतारो तानिकावा ने कहीं लिखा है कि अकेले में भी कविता पढ़ते वक़्त मेरे हाथ कांपा करते हैं, तो ज्ञानरंजन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि जब मैं कमरे में बंद होकर कविताओं का ज़ोर-ज़ोर से पाठ करता हूं तो मुझे कहानी लिखने का मन करता है। कविता ऐसा क्या असर करती है कि सुनते-पढ़ते ही रचनात्मकता के बीज अंखुआने लगते हैं. हर किसी के साथ ये अनुभव अलग-अलग हो सकता है. युगोस्लाविया का एक साइकियाट्रिस्ट था. ख़ूब कविताएं लिखता था. कई संग्रह भी थे उसके पास. वह जब कविता पढ़ता था, तो उसका मन किसी की हत्या करने को करता था. कितनी भयानक है यह बात? और वह हत्या करता भी रहा. सीरियल किलर था. काफ़ी समय बाद पकड़ा गया. पहल के एक अंक के लिए जब मैंने तुर्की कवि आकग्यून आकोवा से संपर्क किया था, और उनसे आत्मकथ्य मांगा था, तब उन्होंने इस हत्यारे कवि के बारे में बताया था और उसकी कुछ कविताएं भी पढ़ाई थीं. यह किसी भी कवि और संवेदनशील पाठक को झिंझोड़कर रख देने के लिए काफ़ी है. कविता निर्दोषों की हत्या के लिए उकसाती है, ऐसा पहले कभी नहीं सुना. और पता नहीं किस सनक में उस हत्यारे ने अपनी हत्याओं के लिए कविताओं को जि़म्मेदार ठहराया. इस पर विश्वास भी नहीं होता.

वहीं हार्ट क्रेन की कविताओं को याद कर चार्ली चैपलिन अपने हास्य में करुणा जोड़ा करते थे। ऐसे ही किसी क्षण में उन्होंने कहा था कि- कविता दुनिया के नाम लिखा गया एक प्रेम-पत्र है। ये सारी बातें बेतरतीब हैं, इनमें कोई सिलसिला नहीं. पता नहीं, पढ़ने वालों को कैसी लगें. पर ये कविता पढ़ने से होने वाले अनुभव हैं. हर किसी को होते हैं. हर कोई इनके बारे में सोचता है. मैं भी सोचता हूं. हर कविता अलग-अलग असर छोड़ती है, जैसे ये कविता है, अख़्तरुल ईमान की 'तहलील' यानी अंत: विश्लेषण. इस कविता को पढ़कर मेरा मन करता है भागता जाउं, भागता जाउं, फॉरेस्ट गंप की तरह, बस भागता ही जाउं. कहां, नहीं पता. क्यों, नहीं पता. तय है, आप हंसेंगे. पर मन तो मन है. आपकी हंसी से बदल थोड़े जाएगा. ख़ैर, ये कविता पढि़ए. ईमानदारी से बताइए, आपका मन क्या कहता है. क्या ये सवाल मन में नहीं आता कि ख़ुद को बचाए रखने के लिए भीतर ज़हर पालना ज़रूरी क्यों होता है? हो सकता है, कोई विचार आवे ही नहीं. मैं ही ज़बरन बोले जा रहा होउं?

उर्दू से लिप्यंतर बहुत ही प्यारे शायर फ़ज़ल ताबिश ने किया था -


मेरी मां अब मिट्टी के ढेर के नीचे सोती है
उसके जुमले, उसकी बातों,
जब वह जि़ंदा थी, कितना बरहम (ग़ुस्सा) करती थी
मेरी रोशन तबई (उदारता), उसकी जहालत
हम दोनों के बीच एक दीवार थी जैसे

'रात को ख़ुशबू का झोंका आए, जि़क्र न करना
पीरों की सवारी जाती है'
'दिन में बगूलों की ज़द में मत आना
साये का असर हो जाता है'
'बारिश-पानी में घर से बाहर जाना तो चौकस रहना
बिजली गिर पड़ती है- तू पहलौटी का बेटा है'

जब तू मेरे पेट में था, मैंने एक सपना देखा था-
तेरी उम्र बड़ी लंबी है
लोग मोहब्बत करके भी तुझसे डरते रहेंगे

मेरी मां अब ढेरों मन मिट्टी के नीचे सोती है
सांप से मैं बेहद ख़ाहिफ़ हूं
मां की बातों से घबराकर मैंने अपना सारा ज़हर उगल डाला है
लेकिन जब से सबको मालूम हुआ है मेरे अंदर कोई ज़हर नहीं है
अक्सर लोग मुझे अहमक कहते हैं।
***

Tuesday, April 22, 2008

मैंने हिटलर को मारा था

अभी कुछ दिनों पहले मंगलेश डबराल जी से बात हो रही थी, तो अचानक पोलिश कवि एडम ज़गायेव्स्की का जि़क्र हो आया। तब से ज़गायेव्स्की ‍की कविताएं ज़ेहन में आ रही थीं। दरअसल, मंगलेश जी हर साल नीदरलैंड में होने वाले रॉटरडम कविता महोत्सव में इस साल भारत की ओर से जाने वाले हैं। ज़गायेव्स्की वहां पोलैंड का प्रतिनिधित्व करेंगे। मैंने उन्हें बताया कि ज़गायेव्स्की मेरे प्रिय कवि हैं। उन्होंने भी यही बात कही. और तब हमने टेलीफोन पर ही इस कविता को याद किया. यह ज़गायेव्स्की के शुरुआती दिनों की कविता है, जब वह बहुत तीखे तेवर वाले कवि थे। वह अब दर्शन की ओर मुड़ गए हैं।

ख़ैर, यह कविता पढ़ें। इसके कई पाठ हैं। यह साधारण को असाधारण तरीक़े से व्यक्त करती है. बुराई को समाप्त करने के पॉपुलर तरीक़े को ख़ारिज करती हुई. और ऐसे समय में तो इसे पढ़ना और भी ज़रूरी है, जब सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यता पर हिटलर से ज़्यादा बारीक हमले हो रहे हों. जब तानाशाह और अत्याचारी के पास अपनी कोई शक्ल न हो और वह हर पड़ोसी की शक्ल में आपके सामने हो, अभेद्य कुटिल मुस्कान के साथ स्वागत करता हुआ. व्यक्ति और प्रवृत्ति के बीच की कुटिलताओं का फ़र्क़ बताता हुआ.
आप पढ़ें और इसका विश्लेषण ख़ुद ही करें। यह ज़गायेव्स्की के कविता संग्रह 'सेलेक्टेड पोएम्स' से ली गई है.

मैंने हिटलर को मारा था

अब तो काफ़ी समय गुज़र गया : मैं अब बूढ़ा हो गया हूं। मुझे बता देना चाहिए कि 1937 की गर्मियों में हेस्से नाम के छोटे से क़स्बे में क्या हुआ था। मैंने हिटलर का क़त्ल कर दिया था.

मैं एक डच हूं, बुकबाइंडर, कुछ बरसों से रिटायर। तीस की उम्र में मैं उस समय की त्रासद यूरोपीय राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखता था। लेकिन मेरी पत्नी यहूदी थी और राजनीति में मेरी दिलचस्पी बहुत अकादमिक कि़स्म की नहीं थी। मैंने तय किया कि हिटलर का सफ़ाया मैं ही करूंगा, किसी निशानची के सधे निशाने के साथ, उसी तरह जैसे किसी किताब को किया जाता है बाइंड। और मैंने किया भी।

मुझे पता था कि हिटलर गर्मियों में अपने एक छोटे-से झुंड के साथ तफ़रीह करना पसंद करता है, ख़ासकर बिना सुरक्षाकर्मियों के, और फिर वह छोटे-छोटे गांवों में रुकता है, ख़ासकर पेड़ों की छांव में बने खुले रेस्तराओं में। ज़्यादा गहराई में क्या जाना। मैं सिर्फ़ इतना कहूंगा कि मैंने उसे गोली मार दी और वहां से भागने में कामयाब रहा।

वह उमस-भरा रविवार था, तूफ़ान आधे रास्ते में था और मधुमक्खियां लड़खड़ाते भटक रही थीं, जैसे उन्होंने पी रखी हो.

विशाल पेड़ों के नीचे ढंका-तुपा था रेस्तरां। ज़मीन को गिट्टियों-कंकड़ों से ढांप रखा गया था।

लगभग अंधेरा हो चुका था, और माहौल इतना उनींदा और बोझिल था कि ट्रिगर दबाने में भी काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी। शराब की एक बोतल लुढ़क गई थी और सफ़ेद काग़ज़ के मेज़पोश पर ख़ून का लाल धब्बा फैल रहा था।

उसके बाद मैं अपनी छोटी-सी कार में किसी हैवान की तरह भागा। हालांकि मेरे पीछे कोई नहीं पड़ा था। अब तक तूफ़ान आ चुका था, तेज़ बरसात होने लगी।

रास्ते में पड़ी कंटीली झाडि़यों में मैंने अपनी बंदूक़ फेंक दी। मैंने दो बगुलों को भी मारके बहा दिया, जो छोटे-छोटे क़दमों से भाग रहे थे, अजीब तरीक़े से। ज़्यादा तफ़्सील में क्यों जाना?

मैं विजयी होकर घर लौटा। मैंने विग को फाड़कर फेंक दिया, अपने कपड़ों को जला दिया, अपनी कार धो डाली।

और यह सब कुछ बिना मतलब के, क्योंकि अगली सुबह कोई दूसरा, हूबहू उसके जैसा, नखशिख वैसा ही, उसकी जगह बैठ गया, जो शायद उससे भी ज़्यादा क्रूर था, जिसे मैं मार आया था।

अख़बारों ने कभी उस क़त्ल का जि़क्र तक नहीं किया। एक आदमी साफ़ हो गया था, दूसरा प्रकट हो गया था।

उस दिन बादल पूरी तरह काले थे, खांड की तरह चिपचिपे।
***

Thursday, April 17, 2008

शायरी अपने कमरे में सो जाएगी : ज़ीशान साहिल की कुछ नज़्में







पाकिस्तान के मशहूर शायर ज़ीशान साहिल के इंतक़ाल की ख़बर कल ही मैंने वैतागवाड़ी पर दी थी. ज़ीशान विश्व कविता के अज़ीम शायर थे. ज़ीशान के अंग्रेज़ी में अनूदित संग्रह मेरे पास हैं, लेकिन उर्दू में नहीं. कल सरहद पार के दोस्तों से उनकी कई कविताएं स्कैन करके मंगाईं और उनमें से कुछ का लिप्यंतरण भोपाल के अपने शायर दोस्त जीम अफ़लाक कामिल से करवाया। उर्दू से हिंदी करने पर मूल कविता की रंगत ज़रा-भी नहीं बदली है। 
ज़ीशान पोलियो के शिकार थे और काइफोस्कोलियोसिस नामक रोग से पीडि़त थे. इस रोग के कारण कूबड़ निकल आती है. इसीलिए ज़ीशान ने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा हिस्सा व्हील चेयर पर बिताया। 'ऐरीना' उनका पहला संग्रह था, जो 1985 में आया था. उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा था - मैं पेड़ों, हवा, घूमने और सपने देखने से मुहब्बत करता हूं। मुझे फूलों, रंगों और लफ़्ज़ों से प्यार है, लेकिन मुझे पानी और आसमान सबसे ज़्यादा पसंद हैं। मैं ठहराव और अकेलेपन से बहुत घबराता हूं।' क़ुदरत ने ज़ीशान को ठहराव और अकेलापन ही दिया था। उसकी एक कविता है नीचे 'जहाज़'। फ़हमीदा रियाज़ ने जब उस नज़्म को पढ़ा, तो 'डान' में लिखा- 'ज़ीशान की नज़्मों वह ताक़त है, जो बेजान चीज़ों को भी जि़ंदा कर देती है।' उस शायर को पढ़ते हैं, जो अपनी वसीयत में हमारे लिए इन्हीं ताक़तवर शब्दों को छोड़ गया है.

देखते-देखते
सोचते-सोचते
दिन गुज़र जाएगा
देखते-देखते
रात हो जाएगी
शायरी अपने कमरे में
सो जाएगी
जिंदगी अपने रस्ते पे
खो जाएगी.

पहली बार
पहली बार
सितारा बनना
दूसरी बार बिखर जाना

पहली बार
ठहरना दिल में
दूसरी बार गुज़र जाना

पहली बार
उसे ख़त लिखना
दूसरी बार जला देना

पहली बार
मोहब्बत करना
दूसरी बार भुला देना.

जहाज़
हमेशा हैरान कर देने वाली
एक लड़की को लेकर आने वाला जहाज़

उसे अपने अंदर समो के
कितनी ख़ुशी होती है जहाज़ को
वो लफ़्ज़ों में बयान नहीं कर सकता
एयरपोर्ट से बाहर जाकर
शहर में खो जाएगी यह लड़की
सोचता है जहाज़ और बार-बार
आसमान के चक्कर लगाने लगता है
ज़मीन को छूने से पहले
बादलों में छुपने की कोशिश करता है

अगर मैं दोबारा उसके घर के ऊपर से गुज़रा
तो क्या पहचान पाएगी मुझे?
सोचता है जहाज़ और आदमी की तरह दुखी होने लगता है
आंसू नहीं निकल सकते उसके,
अपने परों को आंखों पर नहीं रख सकता

साइंस कहती है
मशीन होता है जहाज़
मोहब्बत नहीं कर सकता
सुनता है जहाज़
और बेक़रार होकर फिर से उड़ जाता है.

यह आसमान है
यह आसमान है और ये मेरे आंसू
मैं आसमान को देखता हूं और नज़्म लिखता हूं
मैं आसमान को देखता हूं और मोहब्बत करता हूं
मैं आसमान को देखता हूं और उदास नहीं होता
आसमान मेरे आंसुओं को हवा से ख़ुश्क नहीं करता
आसमान मेरे आंसुओं को छोटे-छोटे बादल नहीं बनाता
आसमान मेरे आंसू सितारों तक नहीं ले जाता
मैं अपने आंसुओं से नरगिस के फूल बनाऊंगा
मैं अपने आंसुओं से एक सीढ़ी बनाऊंगा
मैं हमेशा के लिए आसमान को अपने एक आंसू में बंद कर लूंगा.

आप क्या करते हैं?
आप क्या करते हैं?
मैं दरख़्त लगाता हूं
हर रात एक नया दरख़्त
सुबह होने तक आसमान से जा लगता है
मेरा दरख़्त


अब तक तो जंगल बन गया होगा?
हां कई जंगल
सबके सब आसमान से मिले हुए
लेकिन किसी में धूप नहीं होती
और जानवर? और परिंदे?
वो क्या करते हैं?
सब हैं, बैठे रहते हैं
एक ही दरख़्त के नीचे
जो मैंने सबसे पहले लगाया था

और आप कहां रहते हैं?
मैं उसी दरख़्त के अंदर.

काली चिडिय़ा
पिंजरा ख़ाली था
और तुम्हारी खिड़की में रखा हुआ गुलदान
फूलों से भर चुका था

किताबों की दुकान में
नज़्मों की नई किताब आ चुकी थी
और स्टेशन पर ट्रेन
कहीं जाने के लिए तैयार खड़ी थी

पिंजरा ख़ाली था
और काली चिडि़या
ट्रेन के आगे-आगे उड़ रही थी

एक सुरंग से आगे निकलते ही
इंजन ने चीख़ मारी
मैंने खिड़की से बाहर देखा
ख़्वाब मेरी आंखों में घर बना चुके थे
और पिंजरा ख़ाली था।
****

Wednesday, April 16, 2008

कवि मरता नहीं, वह अपना जीना स्थगित कर देता है...

बहुत शुक्रिया सभी मित्रों का. जो यहां आए, और इन कविताओं के साथ थोड़ा वक़्त गुज़ारा. जगदीप भाई, आप लोगों के क़ाफि़ले में आने की प्रेरणा आप लोगों से ही मिली. शेषनागजी, बहुत बरसों के बाद आपको देखकर अच्‍छा लगा.
प्रत्यक्षा, अशोक जी, अल्‍पना जी और उड़न तश्‍तरी जी का आभार. यक़ीनन, हौसला बढ़ता है. कविता लिखना अकेले होते जाना है, वो भी ऐसे भयानक समय में, जब भाषा को इतना चबा-चबाकर बोला जा रहा है कि वह पराई लगने लगती है. भाषा के बीच चल रही तमाम गलाज़तों के बीच एक कवि भाषा में ही ज़रा-सा अटका हुआ बचा रहता है. जैसे शमशेर की पीली शाम में एक पत्ता सांध्‍य तारक-सा अतल में अटका होता है. जैसे आंख की कोर पर एक आंसू ताउम्र अटका हुआ-सा. किनारे पर अटकी एक सूख रही नदी. नदी जिस-सा बन जाने की इच्छा हम सबकी होती है.
जोशिम और अतुल का भी आभार. जैसा कि वृंदावनी ने लिखा, पेंटिंग यक़ीनन हज़ार बांहों वाली है. पोस्ट करते समय मैं क्रेडिट देना भूल गया. यह एक मित्र कलाकार सिद्धार्थ की पेंटिंग है. रविकुमार जी, आपने मेल करने को कहा है, पर आपका आईडी नहीं है मेरे पास. और अनुवादों के लिए शुक्रिया. अरे हां, अबू ख़ां की बकरी को अच्छा याद दिलाया आपने. मेरी स्मृति से निकल गई थी वह कविता. दुर्भाग्य से कोई प्रति नहीं है उस कविता की मेरे पास. यह नौ-दस साल पहले छपी थी, जब शुरुआत की थी मैंने. कुछ दिनों पहले नागपुर से कवि बसंत त्रिपाठी भी वह कविता मांग रहे थे. एक पुरानी कविता स्मृति का इम्तेहान लेने के लिए ही आती होगी. इसी तरह बैंडिट क्वीन पर लिखी एक कविता भी उस समय बहुत पसंद की गई थी. एक पुरस्कार भी मिला था उस पर. लेकिन उसकी भी कोई प्रति नहीं. न छपी हुई, न रफ़ लिखी. पिछले छह-सात बरसों में इतने शहरों में इतनी बार रहा हूं कि बहुत कुछ खो बैठा हूं. एक शायर अपने खोई और छूटी हुई चीज़ों में ही रहता है हमेशा.
जैसे पाकिस्तान के शायर ज़ीशान साहिल अपनी खोई हुई स्‍पेस को तलाशते रहे; और दो दिन पहले अचानक इस धरती को छोड़ दिया. कल ही पता चला. कराची के एक अस्पताल में सांस लेने में दिक़्क़त होने पर भरती हुए और कुछ घंटों में कूच कर गए. यह पूरे बर्रे-सग़ीर की शायरी को लगा ऐसा झटका है, जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं. वह कितना अज़ीज़ और आला दर्जे का शायर था, इस ब्लॉग पर मेरी पहली पोस्ट से पता चल जाएगा. कविताओं की अपनी डायरी में मैंने पहले सफ़े पर उसकी नज़्म लिखी है, उसी तरह ब्लॉग पर पहली नज़्म उसकी रखना चाहता था मैं.
ज़ीशान से जब मैंने बात की थी, तो मक़सद था पहल के लिए फोन पर उनका एक लंबा इंटरव्यू करना. उन्होंने कहा था, सवाल भेज दो, तब तक थोड़ी संभल जाएगी तबियत. उनके लिए कई सवाल लिखे, पर बिना जवाब दिए गए चले गए वह. एक शायर अपने पीछे कितने अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है....
पिछले दिनों मृत्यु सूचना के रूप में बहुत तेज़ी से आई है मुझ तक. कुछ महीनों पहले मुंबई में कवि भुजंग मेश्राम नहीं रहे. मराठी आदिवासी कविता को उन्होंने एक नया स्वर दिया था. एक पका हुआ स्वर. 45 के आसपास था वह. पहल में चंद्रक्रांत पाटील ने उसे याद किया है. ऋतुराज को जब पहल सम्मान मिला, तो कार्यक्रम की सदारत ज्ञानरंजन जी ने भुजंग से ही कराई थी. एक वरिष्ठ कवि का सम्मान एक युवा कवि के हाथ से.
भुजंग के कुछ ही दिनों बाद मुंबई में ही मराठी कवि अरुण काळे का निधन. भुजंग और अरुण दोनों मराठी कविता के पाये थे. उखड़ गए. नाम्‍या ढसाळ की परंपरा के शायर. जिनके लिए कविता कान में उंगली डालकर नाक से सूंघने का बायस नहीं थी. पिछले पखवाड़े मराठी के ही महान कथाकार बाबुराव बागुल का भी निधन हो गया. 80 के आसपास थे. हिंदी वाले दलित साहित्य के नाम पर दया पवार और लक्ष्‍मण गायकवाड़ को पढ़कर धन्य होते हैं, पर शुरुआत तो बागुल से हुई थी. उनको तो हिंदी में आने ही नहीं दिया गया. भाषा की राजनीति बहुत सारे स्तरों पर काम करती है. भाषा के मैदान में एक लेखक को मारना सबसे सरल होता है. बागुल यानी हमारे आबा ने माटुंगा की रेलवे कॉलोनी से मज़दूरी शुरू की थी. वह मज़दूरी ही करते रहे हमेशा. नौ साल पहले हम उनसे मिलने नासिक गए थे- हम यानी भुजंग, संजय भिसे और मैं. अरुण काळे भी वहीं मिला था पहली बार. गांव के एक छोटे-से झोंपड़नुमा घर में रह रहे आबा के पास बिजली कनेक्शन नहीं था. शायद बिल नहीं भरे जाने के कारण काट दी गई थी. शाम होने पर मोमबत्ती और लालटेन से रोशनी मांगनी पड़ी. पूरी उम्र आबा को आंख और हाड़ फोड़ने पड़े, परिवार का पेट भरने लायक़ कमा लें, इसके लिए, साथी लेखकों और संस्कृतिपुरुषों ने कोई क़सर नहीं छोड़ी थी इस बात में कि आबा टूट कर बिखर जाए. पर आबा कभी नहीं टूटा. अपना हल उसने अपने कांधे के ज़ोर से ही खींचा. उसी आबा को उसी महाराष्ट्र सरकार ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी. बंदूक़ें दग़ रही थीं. नासिक की हर सड़क पर आबा के बड़े-बड़े कटआउट्स लगे थे, पोस्‍टर और होर्डिंग थीं. ऐसा लगा, महाराष्ट्र सरकार आबा की मौत का जश्न मना रही हो. व्यवस्था के लिए अत्यंत ख़तरनाक एक लेखक की मौत का जश्न. वह साहसी थे, इसीलिए सुंदर भी. कुछ मनुष्यों, कुछ स्मृतियों की बहादुरी पहले देखनी चाहिए, उनकी सुंदरता बाद में.
आबा, भुजंग और काळे पर जल्द ही और कुछ. ये सब रुलाते रहते हैं. उनमें ज़ीशान भी शामिल हो गया अब.
ज़ीशान एक साधारण आदमी का नाम नहीं था. उसकी तस्वीरें देखिए यहां पर. हां, वह सिर्फ़ 47 का था... http://www.t2f.biz/zeeshan/index.html
आज महान अभिनेता चार्ली चैपलिन का जन्मदिन भी है. ज़ीशान और चैपलिन के सरोकार भी एक-से थे. दोनों पर कुछ पोस्ट्स जल्‍द ही. अभी तो मैं अपने अख़बार में ज़ीशान पर एक पूरा पेज निकालने की तैयारी कर रहा हूं...

Tuesday, April 15, 2008

कुछ चिल्लर कविताएं...





ठगी


वह आदमी कल शिद्दत से याद आया
जिसकी हर बात पर मैं भरोसा कर लेता था
उसने मुस्कराकर कहा
गंजे सिर पर बाल उग सकते हैं
मैंने उसे प्रयोग करने का ख़र्च नज़र किया
( मैं तब से वैज्ञानिक कि़स्म के लोगों से ख़ाइफ़ हूं)

उसने मुहब्बत के किसी मौक़े पर मुझे एक गिलास पानी पिलाया
और उस श्रम का कि़स्सा सुनाया निस्पृहता से
जो उसने वह कुआं खोदने में किया था
जिसमें सैकड़ों गिलास पसीना बह गया था

एक रात वह मेरे घर पहुंचा
और बीवी की बीमारी, बच्चों की स्कूल फीस
महीनों से एक ही कपड़ा पहनने की मजबूरी
और ज़्यादातर सुम रहने वाली एक लड़की की यादों को रोता रहा
वह साथ लाई शराब के कुछ गिलास छकना चाहता था
और बार-बार पूछता
भाभीजी घर पर तो नहीं हैं न

वह जब-जब मेरे दफ़्तर आता
तब-तब मेरा बॉस मुझे बुलाकर पूछता उसके बारे में
उसके हुलिए में पता नहीं क्या था
कि समझदार कि़स्म के लोग उससे दूर हो जाते थे
और मुझे भी दूरियों के फ़ायदे बताते थे
जो लोग उससे पल भर भी बात करते
उसे शातिर ठग कहते

मुझे वह उस बौड़म से ज़्यादा नहीं लगता
जो मासूमियत को बेवक़ूफ़ी समझता हो
जिसे भान नहीं
मासूमियत इसलिए जि़ंदा है
कि ठगी भूखों न मर जाए
***

महज़ रिवायत(जॉर्ज माइकल के गीतों के लिए)

तुम्हारे साथ कभी नाच नहीं सकता अब
मेरे पैरों में थकान है, थिरकन नहीं
सबसे आसान है स्वांग करना
उसको पकड़ पाना सबसे मुश्किल
कितना बौड़म हूं
यह भी नहीं जानता
आग पर बर्फ़ रखने की कोई क्षमा नहीं
तवे पर छन्न की
छल के बदले क्या मिलता है
आंख चुराना सबसे बड़ी चोरी है

जानने का अवसर सिर्फ़ एक बार आता है
बाक़ी मुलाक़ातें तो महज़ रिवायत हैं
***

अलोना

लिखा जाए
लिखा जाए
इस तरह लिखा जाए
बहुत हो चुका मीठा-मीठा
जो मीठा है उसको नीम लिखा जाए

झूठ एक दर्शन है
किताबों में फिल्मों में कैसेट में सीडी में सिगरेट पान बीड़ी में
चिनाब में दोआब में तांबई शराब में मेरे समय के हिसाब में

जिन दिनों मैं जिया
उसे साफ़-साफ़
बहुत साफ़-साफ़
ख़राब लिखा जाए

चिह्न नहीं बिंब नहीं कोई लघु प्रश्न नहीं
जो कुछ है- चकाचौंध सब कुछ विशाल है

जिसे कहा गया सलोना
उसे रखो जीभ पर
क्या ग़लत होगा उसे
अलोना लिखा जाए
***

(पेंटिंग- सिद्धार्थ)

Friday, April 4, 2008

आज महान गायक कुंदनलाल सहगल का जन्‍मदिन है...

सहगल एक तलाश का नाम है- अपने भीतर किसी चीज़ की तलाश। जैसे कस्तूरी की तलाश करता है मृग, वैसी ही बेचैनी। सहगल का वक्त देख लें। घड़ी में तूफ़ान आया लगता है। रात यहां हैं, सुबह वहां हैं, दिन में कहां होंगे, किसे पता है। भटकन है। फिसलन है। कभी जम्मू में हैं, कभी जालंधर, शिमला, मुरादाबाद, कानपुर, कलकत्ता, मुंबई, पुणे। सहगल दौड़ रहे हैं। चीज़ें हाथ से फिसल रही हैं। दर्द का दरिया ठाठें मार रहा है। सुर गले में कांटे पैदा कर रहे हैं। बड़ी ख़लिश है। इस तपिश को किस बुख़ार का नाम दिया जाए? उस शख़्स के दुख को समझा जाए, जिसे अपनी तलाश का इल्म नहीं। जिसे पता नहीं कि दिल में बेचैनी का बगूला आखि़र क्यों उठता है? दर्द कहां से आता है? पीर क्यों परबत-सी हो जाती है? ग़म की गंगा किस आकाश से आती है? दिल का हुड़दंग अंत में सितार के तार में सुरों से बंध जाता है। चुभन हारमोनियम के बटन में पनाह पाती है। संगीत के महादेव! खोलो अपनी जटाएं। थाम लो ग़म की इस गंगा को, जो सारे बंध तोड़ती हज़ारों मील ऊंचे आसमान से गिर रही है- लटपटाती हुई, ख़ब्तुलहवास! कुंदन, आ जाओ और थाम लो दुखों को। देखो, तुम्हारे जाने को बाद से वीरान है मौसीक़ी का मयकदा, ख़ुमो-सागर उदास है...

उन्हें हिंदी सिनेमा का पहला सुपरस्टार कहा गया। पाकिस्तानी शायर अफ़ज़ाल अहमद सैयद से शब्द उधार लें, तो कह सकते हैं, जैसे काग़ज़ मरा‍कशियों ने ईजाद किया था, हुरूफ़ फिनिशियों ने, सुर गंधर्वों ने, उसी तरह सिनेमा का संगीत सहगल ने ईजाद किया। दुनिया में कई रहस्य हैं। चुनौती देते। चुनौती सहगल भी दे गए हैं। फ़क़ीरों-सा बैराग, साधुओं-सी उदारता, मौनियों-सी आवाज़, हज़ार भाषाओं का इल्म रखने वाली आंखें, रात के पिछले पहर गूंजने वाली सिसकी जैसी ख़ामोशी, और पुराने वक़्तों के रिकॉर्ड की तरह पूरे माहौल में हाहाकार मचाती एक सरसराहट... बता दो एक बार, ये सब क्या है? वह कौन-सी गंगोत्री है, जहां से निकल कर आती है सहगल की आवाज़? पता कर लो, कहां से आता है सहगल का दर्द, जो सीने में हूक, आंखों में नमी और कंठ में कांटे दे जाता है? क्यों एक रुलाहट आंखों पर दस्तक देती है और बिना कुछ कहे तकती हुई-सी लौट जाती है? यह सुबह या दुपहरी की नहीं, सांझ के झुटपुटे की आवाज़ है, जिसका असर रात के साथ गहरा होता जाता है। अगर आप दिल से कमज़ोर हैं, आधी रात को सहगल मत सुनिए। उन्हें सुनना भाषा में तमीज़ को जीना है। आंख में आंसू का सम्मान करना है। दुख जो दिल के क़गार पर रहता है, उसे बीचो-बीच लाकर महल में जगह देनी है। दुख को जियो, तो जीने का शऊर आ जाता है।

सहगल चमचमाती हुई कामयाबी का नाम नहीं है, राख और धुएं का नाम है। बर्बादी का जश्न है, जो सूखते हुए पत्ते को नम हो जाने का मंत्र देता है। वह तपती हुई रेत है, जिस पर तलवे रखने से मज़बूती हासिल होती है। वह क़तरा-क़तरा अपनी मौत में घुसता है और अपनी अंजुरी में भरकर सूर्य को सुरों का अर्घ्य देता है। वह अपना घर जलाता है और सितारों को रोशनी का दान देता है। वह शरत् का देवदास है- असली देवदास, जिसमें बचाने के लिए, ख़त्म हो जाने का साहस है। देवदास हर दिल में रहता है। पारो हर लड़की में रहती है। सहगल हर नब्ज़ में बहता है। हर कंठ में कांटों की शक्ल में रहता है, हर उस हथेली में चुभन बनकर बसता है, जो किसी पुराने स्पर्श की याद में बिसूर रही होती है।

सहगल के बारे में कुछ खास बातें
1- सहगल की उदारता के कई कि़स्से मिलते हैं। कहते हैं कि न्यू थिएटर्स के ऑफिस से उनकी सैलरी सीधे उनके घर पहुंचाई जाती थी, क्योंकि अगर उनके हाथ में पैसे होते, तो आधा वह शराब में उड़ा देते, बाक़ी ज़रूरतमंदों में बांट देते। एक बार उन्होंने पुणे में एक विधवा को हीरे की अंगूठी दे दी थी।

2- सहगल बिना शराब पिए नहीं गाते थे। 'शाहजहां' के दौरान नौशाद ने उनसे बिना शराब पिए गवाया, और उसके बाद सहगल की जि़द पर वही गाना शराब पिलाकर गवाया। बिना पिए वह ज़्यादा अच्छा गा रहे थे। उन्होंने नौशाद से कहा, 'आप मेरी जि़ंदगी में पहले क्यों नहीं आए? अब तो बहुत देर हो गई।

3- सहगल को खाना बनाने का बहुत शौक़ था। मुग़लई मीट डिश वह बहुत चाव से बनाते थे और स्टूडियो में ले जाकर साथियों को भी खिलाते थे। यही नहीं, आवाज़ की चिंता किए बग़ैर वह अचार, पकोड़ा और तैलीय चीज़ें भी ख़ूब खाते थे। सिगरेट के भी ज़बर्दस्त शौक़ीन थे।

4- सहगल ने ग़ालिब की क़रीब बीस ग़ज़लों को अपनी आवाज़ का सोज़ दिया। ग़लिब से इसी मुहब्बत के कारण उन्होंने एक बार उनके मज़ार की मरम्मत करवाई थी।

5- सहगल पहले गायक थे, जिन्होंने गानों पर रॉयल्टी शुरू की। उस वक़्त प्रचार और प्रसार की दिक़क़्तों के बावजूद श्रीलंका, ईरान, इराक़, इंडोनेशिया, अफ़ग़ानिस्तान और फिजी में सुने जाते थे। आज भी 18 जनवरी को कई देशों में सहगल की याद में संगीत जलसे होते हैं।

6- वह विग लगाकर एक्टिंग करते थे। अभिनेत्री कानन देवी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, 'साथी की शूटिंग के दौरान हवा के झोंके से उनकी विग उड़ गई और उनका गंजा सिर दिखने लगा। लेकिन सहगल अपनी धुन में मगन शॉट देते रहे। इस पर दर्शक हंस पड़े। सहगल झेंपने की जगह लोगों के ठहाकों में शामिल हो गए।

7- सहगल की क़द्र भारत से ज़्यादा पाकिस्तान में नज़र आती है। वहां जि़ला स्तर पर सहगल यादगार कमेटियां बनी हैं। सहगल की बरसी पर आम प्रशंसा बाक़ायदा लंगर लगाते हैं।

8- लता मंगेशकर सहगल की बड़ी भक्त हैं। वह चाहती थीं कि सहगल की कोई निशानी उनके पास हो। वह उनकी स्केल चेंजर हारमोनियम अपने पास रखना चाहती थीं, पर सहगल की बेटी ने उसे अपने पास रखते हुए सहगल की रतन जड़ी अंगूठी लता को दी। लता के पास आज भी वह निशानी है। कहते हैं कि कमउम्र में लता ने सहगल की एक फिल्म देखने के बाद उनसे शादी करने का ख्‍याल ज़ाहिर किया

9- रेडियो सीलोन पर हर सुबह 7:57 बजे सहगल के गाने चलते थे। जालंधर के पुश्तैनी मकान में जिस वक्त सहगल की मौत हुई थी, उस वक्त सुबह के 7:57 ही बजे थे। जिस्म चला गया था, फि़ज़ा में तैरती उनकी आवाज़ बाक़ी रह गई थी।

(नवरंग, दैनिक भास्कर 18 जनवरी 2007 से)

Thursday, April 3, 2008

आज सजन मोहे अंग लगा लो...


फिल्म प्यासा का एक गीत है, जिसमें एक जोगन सड़क किनारे खड़ी गा रही है- आज सजन मोहे अंग लगा लो, जनम सफल हो जाए...। इसे गीता दत्त ने गाया था। कलाकार जो करता है, जाने-अनजाने उसके जीवन से भी जुड़ जाता है। यह गीत, जो कीर्तन की तर्ज़ पर बना था, गीता दत्त की जिंदगी से इस क़दर चस्पा हो गया कि वह लाख छुड़ाने पर भी नहीं छुड़ा पाईं। इस गीत में सजन से गुहार है कि वह आए और उससे प्रेम करे। इस गीत में ईश्वर से गुहार है। उससे गुहार है, जो प्रेमी है और ईश्वर भी है। इसमें नश्वर जीवन के सफल हो जाने की कामना है, जो सिर्फ़ प्रेम के मिलने पर ही सफल हो सकता है। इसमें अंग लगा लेने की उत्कंठ इच्छा है, जो प्रेम का उत्थान बिंदु है। यह मीरा का प्रेम है, जिसके प्रेमी और ईश्वर दोनों एक हैं। प्रेमी से किया गया प्रेम और ईश्वर से किया गया प्रेम जब एक हो जाता है, तो वह अद्वितीय आध्यात्मिक ऊंचाई पा जाता है। प्रेम की उत्तेजना और भक्ति की पवित्रता एक हो जाती हैं। ऐसा सिर्फ़ गीता दत्त की आवाज़ में ही संभव हो पाता है। उनकी आवाज़ कांपती है। इस कंपकंपाहट को एक विरहिणी के रुदन में सुनिए, जो इतना रो रही है कि उसके कानों के कुंडल उसके आंसू के नमक और तपिश से सोने की भांति दमक रहे हैं। गीता दत्त की आवाज़ एक गीले गाल का नमक है, जिसे होंठों से नहीं, पलकों से चूमना होता है। जिस आवाज़ को कानों में नहीं, आंखों में पहनना होता है। जिस प्रेम को समझने के लिए सिर्फ़ प्रेम कर लेना ही काफ़ी नहीं होता, लकड़ी के लट्ठे की तरह प्रेम के ऊंचे प्रपात से गिरकर भी साबुत बहते रहना होता है।

गीता दत्त एक विरहिणी थी। किसी के दूर होने से तड़पती हुई। किसी के इंतज़ार में अपने होश का सौदा करती। अपनी नक़्क़ाशीदार आवाज़ को बेरहमी से खुरचती हुई। उससे छल करती हुई। कहा गया है कि उससे पहले वह एक ठंडी हवा थी, काली घटा थी। जब साज़ छेड़े गए, तो वह आ ही गई झूम के थी। बहुत कम उम्र में दो भाई के लिए एसडी बर्मन ने उनसे गवाया था कि मेरा सुंदर सपना बीत गया...। सपना सुंदर ही था। उम्र के एक मोड़ पर आने वाले सारे सपने सुंदर होते हैं। प्रेम एक कोंपल की तरह ताज़ा हरा होता है, जिसमें सुकून पहुंचाने वाली ठंडक होती है। बाज़ी के सैट पर गीता की मुलाक़ात गुरुदत्त से हुई और घरवालों के लाख विरोध के बावजूद गीता ने गुरु से शादी की। कुछ समय तक तो सबकुछ ठीक चला, फिर गुरु के जीवन में वहीदा आईं और गीता दत्त दूर होती चली गईं। जाने गीता ने क्या कही, जाने गुरु ने क्या सुनी, पर बात कुछ बनी नहीं। गुरु के साथ जो कम वक़्त गुज़ारा था, वह गीता के लिए एक सुंदर सपना ही था, जो पहले पहर ही बीत गया। उसके बाद गीता विरह की अगन को सीने से लगाए अपने अकेलेपन की गुफा में आंसुओं का नमक और शराब का रक्त पीते हुए ख़र्च हो गईं। वह लगातार इंतज़ार करती रहीं कि गुरु लौटकर आएंगे- उन्हें फिर अंग लगाएंगे, और उनका जनम सफल हो जाएगा। इसीलिए वह गाती रहीं, अपनी ठेठ बंगाली आवाज़ में, बाऊल के मीटर पर, प्यार, इंतज़ार, रंज, गुबार, याद और बुख़ार से पीडि़त बहार के गीत।

जो विरह को सहन करती है, उसके भीतर आग होती है। वह लड़ लेती है। जब कोई उसके विरह और संन्यास के ताप का अपमान करता है, तो वह भभक उठती है। गीता तड़पी और भभकी। गुरु को लगा कि यह हर वक़्त झगड़ा करती है। विरह को समझना बस के बाहर का होता है। जब कोई स्त्री बहती हुई आंखों से न जाओ सैंया, छुड़ा के बंहियां कहती है, तो जाते हुए क़दमों का फ़र्ज़ होता है कि आंखों की उस हिचकी की इज़्ज़त में बग़ावत कर दें और जाने के फ़ैसले को दरकिनार कर दें। पर जब क़दम ऐसा नहीं करते और बंहियां छुड़ाकर चले जाते हैं, तो किसी और का नहीं, प्रेम, तड़प, विरह और ताप का ही अपमान होता है। इस अपमान को कोई पुरुष कभी नहीं समझ सकता। इसे स्त्री ही जी सकती है, समझ सकती है। गीता दत्त इसी अपमान को झेलती रहीं, पर बची हुई उम्र में गाती रहीं। दर्द और आंसू के गीत। जब उनकी आवाज़ लचकती, पश्चिमी धुनों पर पतंग की तरह लहराती, जश्न की हांक लगाती किसी कोने से निकल केंद्र में आ जाती, तब भी एक दर्द उनकी आवाज़ की सीलन में पपड़ी-दर-पपड़ी उधड़ता रहता। ओपी नैयर ने उनसे तेज़ गाने गवाए, वे सफल भी हुए, पर गीता की आवाज़ का इंतज़ार, रुंधे हुए गले का नमक, लगातार गीली आंखें और सबकुछ पाकर सबकुछ खो बैठने की कुंठा-क्रोध कभी ओझल नहीं हो पाए।

काग़ज़ के फूल में रोशनी की एक हल्की-सी किरण है, जिसके बदन पर ग़र्द उड़ रही है। कैमरामैन वीके मूर्ति को वह ग़र्द फिल्माने में ख़ासी मशक़्क़त करनी पड़ी थी, पर गीता के शरीर पर वह ग़र्द त्वचा की तरह तहों में थी। कोई बदल गया था। किसी के वादे तेज़ हवा में काग़ज़ के पुरजों की तरह बिखर गए थे। और इसमें किसी आदमज़ाद का नहीं, वक़्त का दोष था। वह गा रही थीं- वक़्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे ना तुम, हम न रहे ना हम। जब कोई बदलकर दूर चला जाता है, इंतज़ार की आंखें थक जाती हैं, जब कोई बिजली प्यार की दुनिया को राख कर जाती है, तो न जिया जाता है और न मौत आती है। पहले प्यार का इंतज़ार होता है, फिर मौत का इंतज़ार। जब तक गुरु जीते रहे, गीता उनका इंतज़ार करती रही। और जब वह चले गए, तो मौत का। वह भी एक दिन आ गई, लेकिन वह सिर्फ़ उस गीता को ले जा पाई, जो पहले ही टूटे हुए दिल की आग में राख बन चुकी थी। उसे नहीं, जो नमक बनकर हम सबकी आंखों में बस चुकी है।
नवरंग, दैनिक भास्कर में 6 नवंबर को प्रकाशित.