Wednesday, December 21, 2011

आषाढ़ पानी का घूंट है






तुम्‍हारी परछाईं पर गिरती रहीं बारिश की बूंदें

मेरी देह बजती रही जैसे तुम्‍हारे मकान की टीन
अडोल है मन की बीन

झरती बूंदों का घूंघट था तुम्‍हारे और मेरे बीच
तुम्‍हारा निचला होंठ पल-भर को थरथराया था

तुमने पेड़ पर निशान बनाया
फिर ठीक वहीं एक चोट दाग़ी
प्रेम में निशानचियों का हुनर पैबस्‍त था

तुमने कहा प्रेम करना अभ्‍यास है
मैंने सारी शिकायतें अरब सागर में बहा दीं

धरती को हिचकी आती है
जल से भरा लोटा है आकाश
वह एक-एक कर सारे नाम लेती है
मुझे भूल जाती है
मैं इतना पास था कि कोई यक़ीन ही नहीं कर सकता
जो इतना पास हो वह भी याद कर सकता है

स्‍वांग किसी अंग का नाम नहीं

आषाढ़ पानी का घूंट है
छाती में उगा ठसका है पूस.



Tuesday, October 11, 2011

शाम से आंख में नमी-सी है





ईश्वर के उपवन के सबसे सुंदर पक्षी ने जगजीत के गले को अपने सबसे मुलायम पंख से छुआ था। कश्मीरी कारीगरों की रेशमकला के कई किस्से इतिहास में मिलते हैं। उस कलाकारी को देख जहांगीर ने उसे ईश्वरीय हाथों की बुनावट कही थी। अगर उस कला का आवाज़ में अनुवाद किया जाए, तो निश्चित ही वह जगजीत सिंह की आवाज़ होगी। 

कई गायकों को आप अकेले में सुनते हैं, लेकिन जगजीत आपको भीड़ के बीच भी अकेला कर देते हैं। सत्तर के दशक में महानगरीय आपाधापियों ने जब व्यक्ति के आत्म पर गहरी चोट करना शुरू कर दिया था, उसी दौरान उनकी आवाज़ रेशमी सुकून की तरह हमने अपने कानों में पहनी थी। मुंबई की ठसाठस भरी लोकल ट्रेन में जब कोई मोबाइल या आईपॉड का ईयरफोन कानों में खोंस उन्हें सुन रहा होता है, तो जगजीत उसे उस भीड़ से बाहर ले जाते हैं, एक नितांत निजी आत्म के क्षेत्र में खड़ा करते हैं। जिस अवस्था को आप घंटों की विपश्यना से प्राप्त करते हैं, उसी अवस्था को जगजीत अपनी आवाज़ में बुनी एक ग़ज़ल से उपलब्ध करा देते हैं। यह उनकी आवाज़ का वैभव है, जो एक साथ प्रेम, पीड़ा, उम्मीद, प्रतीक्षा और यक़ीन की अटल मीनारें आपके भीतर खड़ा करता है। जाने कितने होंगे, जिन्होंने प्रेम के अपने अनुभवों को जगजीत की आवाज़ में व्यक्त होते पाया होगा। महानतम प्रेमी मजनूं अगर अपनी दीवानगी को गाकर व्यक्त करता, तो वह जगजीत की ही आवाज़ होती।  जैसे महानतम शायर ग़ालिब जगजीत की आवाज़ में फबे। 


वह एक विनम्र और सकुचाई हुई आवाज़ थी। प्रेम से ज़्यादा संकोची कुछ नहीं होता। उसकी सांद्रता होंठों की बुदबुदाहट से ज़ाहिर होती है, चीख़ने से नहीं। जगजीत की आवाज़ में वह दर्द है, जो दबे पांव आता है, शोर नहीं करता और आपसे ख़ुद पर उस एतबार की मांग करता है, जो यह बता सके कि आपका रुदन बेआवाज़ होगा। वह होंठों के आधे खुलने पर निकली अनमनी-सी आवाज़ है, जो सबसे पहले मन को ही बांधती है। मन का पौधा शांति में उगता है। जगजीत की आवाज़ शांति की सिंचाई है। वह शास्त्रीयताओं के तने पर सुगमता की क़लम लगाते हैं और दिल को छू जाने वाली मख़मली सरलता और तरलता का गुलाब उगाते हैं।

वह विवशता के गायक हैं। उस विवशता के गायक, जिसमें यह हुनर है कि वह पराए दर्द को अपना बना ले। उसी तरह जैसे फुटपाथ पर बैठ अकेली रोती हुई स्त्री को हम कातरता से देखते हैं, घर लौटते हैं, तो पाते हैं कि हमारी विवशता के भी हाथ होते हैं, और उसने अपने हाथों में उस स्त्री का चेहरा थाम रखा है। वह स्त्री वहीं छूट गई है, लेकिन उसका रुदन हमारे साथ चला आया है। हमारे अकेलेपन में वह हमारे होने को परिभाषित करता है। जगजीत की आवाज़ उसी तरह हमारे होने की परिभाषा है।

कलाकार ईश्वर की सबसे प्यारी संतान होता है। हे ईश्वर! तुम जब भी अपनी बनाई दुनिया के तमाम दंद-फंद से कुछ पलों के लिए अलग होकर अकेले होना चाहते होगे, अपने आत्म के सबसे क़रीब बैठना चाहते होगे, मुझे यक़ीन है, उस समय तुम जगजीत सिंह को सुनते होगे। ईश्वर! अपनी आत्मा पर लगी हुई हर खुरच को तुम जगजीत की आवाज़ के मख़मल से पोंछा करते होगे। मुझे यक़ीन है।

(11 अक्‍टूबर को दैनिक भास्‍कर में प्रका‍शित)

Sunday, October 2, 2011

समकोण : एक नई कविता





आना इमेस, स्‍पैनिश फोटोग्राफर की एक छवि, अनवर्सो


मैं अवलंब था तुम्‍हारा ऐसे ही खड़ा होता तुम पर जैसे समकोण
तुम जगह थी छूट जाए जो तो अधर का अभिशाप है
मेरी मृत्‍यु के बाद भी बने रहना मेरे जीवन में
बही हुई मेरी अस्थियों में स्‍मृतिपुष्‍पों की तरह उगना और नदियों के पानी को सुव‍ासित कर देना
खंभे के नीचे बिछी घास में पाषाणयुगीन अंधड़ों से बनी झुक अब भी बची है जैसे
मोत्‍सार्ट की सिंफनी आइंस्‍टीन की खोज की तरह
सेब तोड़ने बढ़े आदम की देह की उचक की तरह न्‍यूटन के गिरते सेब की तरह
जिस सितारे से प्रेम किया था वर:मिहिर ने और आकलन के कलह में
उसके वास्‍ते एक सटीक नाम न खोज पाया था उसकी तरह
चले जाने के बाद भी चलते ही जाना
ईश्‍वर ने तुम्‍हें मेरी पसलियों से बनाया था
तुम जब भी खिसियाती थीं अवलंबित तुम पर इस आत्‍मा को नोंचती थीं
इस पर तुम्‍हारे नाख़ूनों की खुरच के लंबवत निशान हैं
मेरी आंखों के भीतर रहती हैं तुम्‍हारे साथ बीतीं अनगिन रातें
एक दिन तुमने मुझे ढूंढ़ा ताकि मैं लापता हो जाऊं
तुम वेग हो गांगेय और मैं भी
उतना ही जटिल हूं जितना शिव की जटा
तुम्‍हें थामा, रोपा और धार के पौधे की तरह अपने मस्‍तक पर उगाया
जितना प्रहारोगी मुझे उतना ही खोओगी वेग तुम अपना
बूंद-बूंद धारा-धारा विखंडित हो विसर्जित होगी तुम मुझमें
कितना भी सहेजूं एक दिन तुम्‍हें मैदानों की तरफ़ जाना ही था
जब तक नहीं जाना था तुम्‍हें तुम्‍हारी ओर बहा था महानद की तरह
जैसे ही जाना तुरत कतराया
अबोध दिवसों में ही क्‍यों होता है आनंद का अतुल्‍य खुशी का भंडार
एक दिन एक काग़ज़ पर लिखा -- जान चुका
आईने में उसका प्रतिबिंब बना  -- चुक जाना.



Wednesday, September 21, 2011

स्त्री की शक्ल में इच्छा का रेखांकन






भाषा त्‍वचा है; मैं अपनी भाषा को दूसरी भाषा से रगड़ता हूं. जैसे कि मेरे पास उंगलियों की जगह शब्‍द हों, या शब्‍दों की पोर पर उंगलियां रहती हों. मेरी भाषा इच्‍छाओं से कंपकंपाती है.
*
तस्‍वीर हमेशा अदृश्‍य होती है; वह कभी वह नहीं होती, जो हम देखते हैं.
-- रोलां बार्थ


‘इन द सिटी ऑफ़ सिल्विया’ में भाषा तस्‍वीर बन जाती है, जो कि अदृश्‍य है, इसीलिए उसमें संवादों की कोई जगह नहीं. और सामने जो तस्‍वीरें चल रही हैं, वे भाषा की तरह इच्‍छाओं से कंपकंपा रही हैं. उनमें इच्‍छाओं की अनित्‍य स्‍मृति है. अनित्‍य इसलिए कि इसमें नित्‍य का वर्तमान नहीं. विलक्षण प्राप्तिहीनता का इतिहास है. खोये हुए का खोया हुआ टाइम वार्प है. और दोनों को ही पा लेने की आकांक्षा का तल्‍लीन रेखांकन है. रेखांकन में स्त्रियां हैं. अगर इच्‍छा का रेखांकन किया जाए, तो वह किसी स्‍त्री का चेहरा ले लेती है. 

नायक जिसका कोई नाम नहीं है, वह रेखांकन करता है. वह किसी एक शहर में आया है. शायद स्‍ट्रासबुर्ग. शुरुआत के दृश्‍य शुरुआत में ही समझ नहीं आते, वे आगे चलकर स्‍पष्‍ट होते हैं कि नायक छह साल पहले भी यहां आया था, तब उसे सिल्विया नाम की लड़की मिली थी. शायद बहुत कम समय के लिए. शायद एक झलक ही देखी थी. शायद गली के किनारे खड़े होकर उसने उस लड़की से कोई पता पूछा था और शायद नाम भी. शायद ऐसा इस फिल्‍म में हुआ ही नहीं था; फिल्‍म से पहले की किसी फिल्‍म में ऐसा हुआ था. लेकिन आज छह साल बाद वह उस लड़की को खोज रहा है. वह होटल के कमरे में चित्र बनाता है और स्‍मृति का इम्‍तहान लेता है कि वह लड़की ऐसी ही थी; और हर बार चित्र बर्बाद होता है. कमरे से बाहर आकर वह फुटपाथ पर एक कैफ़े में बैठता है. वहां ढेर सारे लोग हैं, उन्‍हें बार-बारी से, हरेक को देर तक, देखता है. ज़्यादातर लड़कियों को. शायद उनमें से कोई सिल्विया हो. शायद वे सब ही सिल्विया हों. वह वहां भी चित्र बनाता है. लोग आपस में बातें कर रहे हैं, पर कोई कुछ नहीं बोल रहा. हर तरफ़ चुप्‍पी है. सिर्फ़ रेखांकन बोल रहा है, टेबल पर अचानक गिर पड़ी कॉफ़ी बोल रही है, बीच-बीच में एक दक्षिण एशियाई फूल वाला बोल रहा है, गले में घडि़यां और ज़ंजीरें टांग कर बेचता एक अफ्रीकी बार-बार आता है और घड़ी ख़रीद लेने का प्रस्‍ताव करता है, एक पूर्वी यूरोपियन संगीतकार है, जो धुनों पर खेल रहा है; ये सारे लोग बोल रहे हैं, लेकिन ये सब शहर की आवाज़ में बोल रहे हैं, किसी व्‍यक्ति की आवाज़ में नहीं. यहीं से यह फिल्‍म व्‍यक्तियों की फिल्‍म होने से स्‍वयं को निरस्‍त कर देती है. 

वहां किसी का इंतज़ार करते बैठे नायक को अचानक दुकान की कांच में एक लड़की का चेहरा दिखता है और उसे जैसे यक़ीन हो जाता है कि वही सिल्विया है. वह उसका पीछा करने लगता है. इस गली, उस गली, इस सडक, उस सड़क. वह उसके पीछे-पीछे है, उस तक पहुंचने-पहुंचने को है कि ठिठक जाता है, शायद उसके भीतर का संदेह उठ गया है, पर फिर पीछे लग जाता है. पहले उस लड़की को पता नहीं चलता, पर जैसे ही पता चलता है, उसकी रफ़्तार में तेज़ी, अनिष्‍ट की आशंका और बच निकलने की साहस-भरी बेचैनी आ जाती है. वह ग़च्‍चा देना चाहती है. किसी दुकान में छुप जाती है, लेकिन नायक बाहर इंतज़ार कर रहा है. निकलने के बाद, थोड़ी देर तक और पीछा होते जानने के बाद वह एक ट्राम में चढ़ जाती है. नायक भी. उसके नज़दीक जाकर खड़ा हो जाता है. वह सहमी हुई है. वह उसे थोड़ा सहज करते हुए पूछता है, क्‍या तुम्‍ही सिल्विया हो. वह इंकार करती है कि वह किसी सिल्विया को नहीं जानती. वह बार-बार पूछता है. बताता है कि छह साल पहले मिली थी, पर वह लड़की, जो अब थोड़ा सहज हो गई है, हंसकर इंकार कर देती है. अपने स्‍टॉप पर उतरकर लड़की पीछे मुड़ती है और हाथ हिलाकर मुस्‍कराकर उसे बाय करती है. 

यहां एक पल को यह लगता है कि वही लड़की सिल्विया थी, जो अब मुस्‍करा रही है, मिल जाने पर भी जा रही है. पर ऐसा कुछ भी स्‍पष्‍ट नहीं. नायक वापस होटल लौट आता है और अगले दिन फिर सिल्विया की खोज में भटकने लगता है. 

2007 में आई यह फिल्‍म है स्‍पैनिश फि़ल्‍मकार ख़ोसे लुई गेरीन की. गेरीन उन लोगों में से हैं, जो कभी परंपरागत प्‍लॉट, नैरेटिव्‍स, कहानी और चित्रांकन पर यक़ीन नहीं करते. वह अनुभूतियों, तर्कों, विधाओं और तकनीकों को बेहद ख़ूबसूरती से आपस में मिश्रित कर देते हैं और नाज़ुक दृश्‍य–बंध की रचना करते हैं. इसी फि़ल्‍म में वह जितना अवां-गार्द होते हैं, उतना ही पुरातन भी. परिमार्जित पुरातन अवां-गार्द की शहतीर होता है. गेरीन के पास भी है. जब सिनेमा की शुरुआत हुई थी, तो जिस तरह उत्‍साही अमेच्‍योर्स कैमरे से शहरों, जगहों की चलती-चुप तस्‍वीरें लिया करते थे, इसे देखकर उनकी याद हो आती है. 

गल्‍पेतर औज़ारों से गल्‍प की रचना की चुनौती उन्‍हें तमाम प्रोवोकेटिव-मेलोड्रामाटिक यूरोपीय निर्देशकों से अलग कर देती है. फि़ल्‍म एक शहर का विज़ुअल स्‍टेटमेंट है, आसानी से गले के नीचे नहीं उतरती, हमारा दर्शक दस मिनट में कुर्सी छोड़ सकता है, लेकिन कलाकृतियां दर्शकों के उठने-बैठने से महान नहीं बनतीं. स्‍वाभाविक है कि गेरीन की फि़ल्‍में व्‍यावसायिक सफलता नहीं पातीं. और उसकी ऐसी कोई आकांक्षा भी नहीं दिखती. इसीलिए वह बिना किसी स्‍क्रीनप्‍ले के फि़लमें बनाया करते हैं. उनका मानना है कि स्‍क्रीनप्‍ले फि़ल्‍मकार का हाथ बांध देने वाली रस्‍सी होती है. 

एक इंटरव्‍यू में गेरीन बताते हैं कि इस फि़ल्‍म के लिए वह सात साल तक तैयारी करते रहे. उस दौरान वह कई बार स्‍ट्रॉसबुर्ग गए, उनमें विचार था कि एक चित्रकार-फि़ल्‍मकार एक लड़की को खोज रहा है, जिसे वह 22 साल पहले जानता था, वह एक नर्स थी. इसके लिए उन्‍होंने शहर की तस्‍वीरें खींचनी शुरू कीं, अस्‍पतालों, बस-अड्डों के पास चलती हुई महिलाओं की पीछे से तस्‍वीरें लीं और उन तस्‍वीरों को आधार बनाकर उन्‍होंने फि़ल्‍म पर काम शुरू किया. इन सारी तस्‍वीरों को इकट्ठा कर उन्‍होंने एक डॉक्‍यमेंटरी बनाई ‘ऊनास फोतोस एन ला थिउदाद दे सिल्विया’ यानी सिल्विया के शहर की कुछ तस्‍वीरें. वह अपनी डॉक्‍यूमेंट्रीज़ के लिए ख़ासा जाने जाते हैं और यही कारण है कि उनकी फ़ीचर फि़ल्‍मों में डॉक्‍यूमेंटरी का ख़ास पुट होता है. अमूमन उनकी फि़ल्‍मों को ‘नॉन-फि़क्‍शन’ कहा जाता है. अगले बरसों में यह ‘इन द सिटी ऑफ़ सिल्विया’ में तब्‍दील हुई, तो इसमें कुछ बदलाव भी कर दिए. 

गेरीन के यहां फ़ैक्‍ट और फि़क्‍शन ब्‍लर हो जाते हैं और न्‍यौता देती काल्‍पनिकता दर्शक को अपनी अनुभूतियों का कायांतरण करने को प्रेरित करती हैं. यह बचपन के उस परीक्षात्‍मक खेल की तरह है, जिसमें आपके सामने पेड़ों-झुरमुटों के बीच चट्टान पर साफ़ा बांधे, सिर और बांसुरी झुकाए एक लड़़के का चित्र रख दिया जाता है और उसके आधार पर आपको एक कहानी गढ़ने के लिए कहा जाता है. सिर झुकाकर न जाने किसका इंतज़ार करते उस लड़के का अनुवाद किसी के चले जाने के दुख और अवसाद में सिर झुकाए लड़के में हो जाता है या बिलकुल एक तीसरी ही गुप्‍त लिपि बन जाता है वह, पर चित्र इतना ख़ूबसूरत दिखता है कि उसे सिर्फ़ एक कहानी में रिड्यूस कर देने से मन की इच्‍छा नहीं भरती. बार-बार अलग-अलग कहानी में जाया जाता है. जो उपस्थित है, कल्‍पना उसे नकार देती है, और जो अनुपस्थित है, वहां प्रवेश कर लेते ही उसका उपस्थित हो जाना घटित हो जाता है. इस तरह उसे भी एक नकार मिलती है. उपस्थित और अनुपस्थित का यह खेल चलता रहता है. अपनी भाषा के बौना रह जाने और उसे दूसरे की त्‍वचा से रगड़कर उसमें घुल जाने की अव्‍यक्‍त वाणी है यह. एक परित्‍यक्‍त इच्‍छा, जो देहरी पर बैठकर अपनी उपस्थिति का बलवान अहसास कराती है. 

‘अ लवर्स डिसकोर्स’ में बार्थ ने कहा था- ‘मैं दूसरे की अनुपस्थिति को दुनिया में अपनी उ‍पस्थिति का जिम्‍मेदार मानता हूं. मैं इस दुनिया से हटना चाहता हूं, लेकिन उसके लिए दूसरे के लौट आने का इंतज़ार करता हूं. वह आएगा और मुझे ले जाएगा.’ 

सिल्विया की यह कहानी बार्थ की इन्‍हीं पंक्तियों के ‘उपस्थित मैं, दुनिया, इंतज़ार और अनुपस्थित दूसरे’ को तस्‍वीरों और मौन में पकड़ने की कोशिश जान पड़ती है. नायक उपस्थित है, उसकी दुनिया बार्थ की दुनिया नहीं, यह एक प्रायश्चित की दुनिया है. देर से समझ में आया प्रेम जब अपने अंकुरण के इतिहास का आभास देता है, तो प्रेम दुनियावी शक्‍ल में नहीं आता, वह हाथ से निकल गई एक इच्‍छा और उसे पा न सकने के अवसाद भरे प्रायश्चित में आता है. नायक के इस अजीबोगरीब दुनिया में होने का कारण क्‍या है- सिल्विया का अनुपस्थित होना. अगर वह पहले से उपस्थित होती, तो नायक इस दुनिया में पहुंचता ही नहीं. अब वह उसका इंतज़ार कर रहा है- बेचैन तलाश के पहियों पर गतिमान इंतज़ार. वृत्‍ताकार इंतज़ार जिसमें आरंभ और अंत मिश्रित हो जाते हैं. अगर यह अनुपस्थित दूसरा यानी सिल्विया मिल जाती है, तो नायक इस प्रेम-प्रायश्चित की दुनिया से बाहर निकल जाएगा. सो, उसके बाहर निकलने की जिम्‍मेदारी भी उसी अनुपस्थित दूसरे पर है. यहां छूकर चले गए प्रेम का आफ्टर टेस्‍ट है. तलाश कई किस्‍मों की होती है. एक तो उस चीज़ की तलाश होती है, जो आपके पास थी, लेकिन अब खो गई है. दूसरी तलाश उस चीज़ की होती है, जो आपके पास कभी नहीं थी, लेकिन आप उसे पाना चाहते हैं. पहले में आपके पास अपनी तलाश व चीज़ का एक रेखांकन होता है, दूसरी तलाश में रास्‍तों का रेखांकन हो सकता है, चीज़ का बहुधा नहीं होता. वह अपने अमूर्तन में आपकी तलाश को अग्नि-सा भड़काती जाती है. 

नायक की तलाश ये दोनों नहीं हैं, बल्कि वह इसीलिए अद्वितीय हो जाती है, क्‍योंकि उसकी तलाश में इन दोनों तलाशों का मिश्रण है. उसे सिल्विया मिली थी, परंतु उस समय प्रेम नहीं हुआ था. जब प्रेम जैसा कुछ हुआ, तो सिल्विया नहीं थी. तब तक यह भ्रम भी भीतर बैठ गया कि क्‍या सिल्विया कभी थी भी? जो चीज़ थी और नहीं भी थी, उसकी तलाश का रास्‍ता क्‍या होगा? रेखांकन तो है, लेकिन वह इच्‍छा का है, इच्छित का नहीं, तो रेखांकन असल है? एक मोहक भ्रम, एक मासूम-सी माया इस फिल्‍म की कविता का रचाव बनाती है. प्रेम का वह‍ क्षण, जिसमें उसका अंकुरण होता है, उसे कब पकड़ा जा सकता है? अंकुरण तो एक ही क्षण में होता है, बाक़ी सारे क्षण तो पश्‍चात-कथाएं होती हैं. क्‍या वह एक क्षण सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण नहीं है? किंतु उसके आने, खो जाने के बारे में कितनी बार पता चल पाता है? सिल्विया कोई लड़की नहीं थी, उस ‘ठीक एक क्षण’ का इम्‍पर्सोनेटेड रूप है, जिसमें प्रेम अंकुरित होता है, और जिसके बारे में हमें बहुत बाद में पता चलता है. यह फिल्‍म बहुत बारीक स्‍तर पर जाकर समय के हाथ से छूट जाने की कहानी बन जाती है. 

उन्‍हें अपने दर्शक की बिल्‍कुल चिंता नहीं होती, इसीलिए दर्शक उनके साथ हो जाता है. यह बात बार-बार रेखांकित की जाती है कि इस फिल्‍म में संवाद न के बराबर हैं. ट्राम के दृश्‍य के अलावा कहीं कोई संवाद नहीं, लेकिन एक संगीत लगातार इसके भीतर गूंजता रहता है. महान फिल्‍मकारों की माकूल अनुपस्थिति इस फिल्‍म के उपस्थित होने की जिम्‍मेदार बन जाती है. जैसे यासुजिरो ओजू अपनी गति-संरचना के साथ इसमें आते हैं, बिल्‍कुल अनुपस्थि‍त होकर. ओजू की फिल्‍में इस बात का सुंदर उदाहरण होती थीं कि जब आ‍कृतियों का लोप हो जाता है, तो परिवेश उभरने लगता है. बहुत कम फिल्‍मकार होते हैं, जो अपनी कृतियों में अपने लिए एक निश्चित रफ्तार का प्रस्‍ताव करते हैं और उसे आखिरी फ्रेम तक निबाह भी ले जाते हैं. इसे साधारण शब्‍दों में कहा जाए, तो यूं कि वे अपनी कार लगातार 60 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पर ले जाते हैं, न पांच किलोमीटर कम, न पांच ज्‍यादा. दो घंटे तक लगातार इसी रफ्तार को मेंटेन रखना लगभग असंभव काम होता है. पर कला में इसे संभव कर दिखाया जाता है. ओजू और ब्रेसां जैसे फिल्‍मकारों ने किया है. 

सिल्विया की गति-संरचना ओजू को एक श्रद्धांजलि भी है. ओजू एक व्‍यक्ति की कहानी को एक पूरे समूह, फिर समाज की कहानी में तब्‍दील कर देने के हुनरमंद थे. सिल्विया की कहानी पहले एक चित्रकार, फिर एक लड़की की कहानी बनती है, लेकिन आकृतियों का जल्‍द ही लोप हो जाता है, तस्‍वीर में शहर बसने-बढ़ने लगता है. इसकी संवादहीनता का अर्थ मौन नहीं है. पूरी फिल्‍म में शहर बोलता है, जंज़ीर और लटकती घडियां बोलती हैं, ट्राम बोलती है, पदचाप बोलती है, खड़ंजा बोलता है, कोला के केन पर पड़ी जोरदार लात से निकली आवाज़ बोलती है, किसी की प्रतीक्षा करती वायलिन बोलती है, आसपास की कारें बोलती हैं. ये सब आवाज़ें पहले एक शहर की आवाज़ बन जाती हैं, फिर पता चलता है कि यह तो दरअसल नायक के भीतर से निकल रही आवाज़ थी. फिर यह भी आभास होता है कि पूरा शहर ही नायक के भीतर से निकल रहा है. एक अप्राप्‍य स्‍त्री की अनुपस्थिति में पूरा एक शहर उपस्थित हो जाता है. 

और आखिर शहर उपस्थित क्‍यों हो जाता है? सिल्विया खो सकती है, तो भला शहर क्‍यों नहीं खो सकता? यह सिल्विया का ही तो शहर है. पर या तो सिल्विया रहेगी, या शहर. यही तो प्रेम का जादू होता है. वह अपनी सुंदरता और दैनंदिनी में मौजूद है. यह मौजूदगी ही बताती है कि सिल्विया नहीं है. शहर और दुनिया की सारी आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, इसीलिए तो अंदर की कोई आवाज नहीं आ रही. और इसीलिए तो इस आवाज में इजाफा करती मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रही. 

चित्र का एक अर्थ दृश्‍य से मुक्ति भी है. मुक्ति का एक अर्थ विस्‍तार भी है. आवाज का एक अर्थ ध्‍वनि से मुक्ति भी है. मुक्ति का एक अर्थ गहरा धंसा मौन भी है. समय का एक अर्थ काल से मुक्ति भी है. मुक्ति का एक अर्थ असीमित संकुचन भी है. प्रेम का एक अर्थ इच्‍छा से मुक्ति भी है. मुक्ति का एक अर्थ यात्रा भी है, क्‍योंकि लक्ष्‍य हमेशा भ्रम होते हैं. सच तो यह है कि यात्राएं ही इतिहास में लक्ष्‍य का स्‍थानापन्‍न बन जाती हैं.



Saturday, September 10, 2011

आखेट और आचमन






Photo : Ana Aden, Swedish photographer
देह का स्वभाव है तने रहना। आत्मा का स्वभाव है झुके रहना। देह जर्जर होती है, तो झुक जाती है। आत्मा कलुषित होती है, तो तन जाती है। बांह में जितनी मछलियां होंगी, देह उतनी तनती जाएगी। आत्मा में जितनी तरंगें होंगी, वह उतना ही झुकती जाएगी। जीवन का सर्वश्रेष्ठ क्षण किसी के आगे तनने से नहीं आता, बल्कि तब आता है, जब आत्मा अनायास ही किसी के आगे झुक जाती है और सर्वश्रेष्ठ झुकना वह होता है, जब झुकते समय आपके मन के भीतर इस झुकने के खिलाफ कोई संघर्ष न चल रहा हो। इतना झुको कि उठ जाओ। इतना उठो कि हिमालय छोटा पड़ जाए। गांधी झुके हुए थे। इसीलिए उठे हुए थे। हिटलर तना रहा। इसीलिए गिर गया।  साधु तने, तो उनके क्रोध से विपदाएं आईं। सम्राट झुके, तो उनकी करुणा से शांति आई। 

कहते हैं, आसमान, धरती से प्रेम करता है। धरती उसे छूने के लिए नहीं उठती, बल्कि आसमान झुकता है। तभी क्षितिज बनता है। आत्मा का झुकना आभासी झुकना है। और तन जाना आभास की नक़ल में किया गया अभ्यास है। ख़ुद को छलना छलनी की तरह है, छेदों से सब-कुछ रिस जाता है, चू जाता है, हथेली में कुछ भी शेष नहीं रह जाता।

प्रेम उनके पास कभी नहीं आता, जिनमें झुकने का शऊर न हो। देने वाला झुकता है, मांगने वाला तना रहता है। प्रेम कभी मांगने का विषय ही नहीं रहा। जिसने मांगा, उसने प्रेम को खो दिया। जिसने दिया, उसने जी लिया। देना भाव है। मांगना विचार है। भाव मूल है। विचार पत्तियां हैं। मूल धरती के नीचे बढ़ता जाता है। पत्तियां कुछ दिन हरी रहती हैं और पीली पड़कर गिर जाती हैं। जो ये सोचते हैं कि जीवन में छांव पत्तियों जैसे विचारों के कारण आती है, वे ग़लत हैं। छांव तो रोशनी के कारण आती है। रोशनी न हो, तो आड़ न हो। और आड़ न हो, तो छांव न हो। यानी छांव के मूल में रोशनी है। यानी छांव मूल से आती है, पत्तियों से नहीं।

प्रेम अगर जीवन की छांव है, तो वह विचार से नहीं आता। वह भाव से ही आता है। भाव मूल है, तो दुनिया का कोई भी मूल, कोई भी जड़ आसमान की तरफ़ उठकर अपना विकास नहीं करती, बल्कि जमीन की ओर झुककर, और गहरे खुभकर अपना विकास पाती है। 'मैं तुमसे प्रेम करता हूं', यह मेरा भाव या अनुभूति है। 'मैं तुमसे प्रेम क्यों करता हूं', यह मेरा विचार होगा। 'क्यों' लगते ही तर्क आएगा। जीवन की सबसे बड़ी विपदा यह है कि आपको बार-बार अपनी अनुभूतियों को तर्कों में तब्दील करना होता है।

विचार आक्रांता होते हैं। तर्क आक्रामक होते हैं। वे झपटकर आप पर कब्जा करते हैं। भाव में विनम्रता होती है। वह खुद अपने में इतना झुका होता है कि उसके सामने झुक जाना पड़ता है। हम भाव को स्वीकार करते हैं और उसे विचार में तब्दील कर देते हैं। मादाम बावेरी प्रेम की अपनी इच्छा के भाव से डोली थी और जीवन के जिन क्षणों में वह कारुणिक अडोल हो गई, वे प्रेम की इच्छा के प्रेम के विचार में तब्दील हो जाने के क्षण थे। जब हम पर प्रेम का विचार तारी होता है, तब हम प्रेम पाना चाहते हैं। जब हममें प्रेम का भाव बलवान होता है, हम प्रेम देते हैं, पाने की इच्छा रखे बिना। जब आप अपने प्रेमी का विश्लेषण करने लगते हैं, तो आप विचार की भुलभुलैया में खो जाते हैं। प्रेम करना है, तो अपने प्रेमी को पहचानना बंद कर दो। उसका विश्लेषण करना बंद कर दो। जब उसे पहचानना बंद कर दोगे, तो उसका हर रूप वही होगा, जो आपने अपने भीतर बना रखा है।

मर्लिन मुनरो ने बहुत तड़पकर कहा था, 'अगर तुम मेरे सबसे बुरे रूप को नहीं स्वीकार सकते, तो तुम मेरे सबसे अच्छे रूप के योग्य नहीं।'  पहचानना शुरू करोगे, तो हर रूप बुरा रूप लगने लगेगा, क्योंकि अ-पहचान का भाव आते ही संदेह आ जाएगा। सूफि़यों ने अपनी आराधना को कभी भक्ति का नाम नहीं दिया, बल्कि इश्‍क़ नाम दिया। इश्‍क़, क्योंकि उन्होंने अपने प्रेमी को पहचानने, जान लेने, बूझ लेने पर ज़ोर नहीं दिया था। जो ख़ुद को जानना बंद कर देता है, प्रेम उसके पास आता है। जो प्रेमी को पहचानने की कोशिशों को बंद कर देता है, प्रेम उसके पास टिका रहता है। पहचानने की कोशिश ही स्वामित्व का बोध पैदा करती है। जहां स्वामित्व का बोध आया, प्रेम नक़ली हो गया, क्योंकि प्रेम तो तमाम मालकियतों के खिलाफ़ अभियान है। मालकियत ख़त्म हो गई, तभी तो बुल्ला अकेला नहीं नाचा था। ख़ुद नाचा था, तो अपने भीतर अपने साई को लेकर भी नाचा था। मालकियत होती, तो साई उसके भीतर न आता।

बुद्ध ने दुनिया को विचार नहीं दिए थे, भाव दिए थे।  उन्होंने अधिकतम सवालों के जवाब दिए और कुछ प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ दिया। भाव कुछ प्रश्नों का आचमन उनके अनुत्तर से करता है। तर्क हर प्रश्न का आखेट उसके उत्तर से करता है। प्रेम आखेट से कोसों दूर होता है, जबकि आचमन उसका सबसे क़रीबी पड़ोसी है। आखेट तनने की क्रिया है। आचमन झुकने की संज्ञा है।



(दैनिक भास्‍कर में 10 सितंबर 2011 को प्रकाशित)

Thursday, August 4, 2011

नूर का परदा






हांगकांग के निर्देशक वांग कार वाई की फिल्म 'चुंगकिंग एक्सप्रेस' के एक दृश्य में नायक सुबह-सवेरे जोशीली जॉगिंग करते हुए ख़ुद से कहता है- 'कई बार हमें प्रेम में दुर्भाग्य मिलता है। जब यह दुर्भाग्य मुझ पर छाता है, तो मैं जॉगिंग करने लगता हूं। इससे शरीर का सारा जल पसीने के रूप में निकल जाता है, आंसुओं के लिए बचता ही नहीं।'  

इसी फिल्म के एक दूसरे दृश्य में नायिका जो हमेशा सफेद विग, लंबा रेनकोट और सनग्लास पहने नज़र आती है, कहती है- 'जाने क्यों इन दिनों मैं बहुत सतर्क रहने लगी हूं। जब मैं रेनकोट पहनती हूं, तो सनग्लास भी लगा लेती हूं। जाने कब बारिश शुरू हो जाए या जाने कब धूप निकल आए।'

ये दोनों ही किरदार ख़ुद को पानी से बचा ले जाना चाहते हैं। कुछ लोगों को नदियों-समंदर के पानी से डर लगता है, वे तैर नहीं पाते। कुछ लोग जीवन और प्रेम के जल में डूबे हुए होते हैं, वे आंख के पानी से डरते हैं। नायक नहीं चाहता कि उसकी आंख से पानी की एक बूंद गिरे और नायिका नहीं चाहती कि आसमान से गिरने वाला कोई भी पानी उसके शरीर पर पड़े। वह सनग्लास लगाती है, ताकि अगर आंख में पानी हो, तो भी वह किसी को न दिखे। दोनों ही पानी से दूर भागते हैं।

रोना एक क्रिया से ज़्यादा स्मृति है। रोने से वही डरते हैं, जो बहुत रो चुके होते हैं। रोने की स्मृति उन्हें अगली बार रोने से रोकती है। जीवन की अनिश्चितता से बड़ा और कोई कारण नहीं होता, जो रुला सके। और इससे बड़ा दुख और कोई नहीं हो सकता कि जब आप रो रहे हों, तो कोई आपके उस रुदन का मखौल कर सुख पाए।

आंख का पानी क्या होता है? लोग कहते हैं, एक लाज होता है, जो कुछ बुरा करने से पहले आंखों पर छा जाता है। जिनकी आंख का पानी सूख जाता है, वे बिना सोचे-समझे, कुछ भी बुरा कर सकते हैं। कुछ कहते हैं, ये भावनाओं का विगलित रूप होता है। जब वे शब्दों और मुद्राओं में अभिव्यक्त नहीं हो पातीं, तो द्रव में बदल जाती हैं।

जब हम रोने से बचना चाहते हैं, तो दरअसल अपनी अभिव्यक्ति पर रोक लगा रहे होते हैं। अभिव्यक्ति हमेशा एक प्रवाह की तरह होती है। नदियां किसी तल पर प्रचंड वेग से चलती हैं और कहीं एकदम मंथर हो जाती हैं। मंथर होना भी प्रवाह है, लेकिन अगर सबसे स्थिर मंथरता पर रोक लगा दी जाए, तो वह घात होता है।

पूरे जीवन में हम जितना दूसरों से घात नहीं करते, उससे ज़्यादा ख़ुद से करते हैं। हम जितनी बार अपनी अभिव्यक्ति के प्रवाह पर रोक लगाते हैं, उतनी बार हम अपनी ऊर्जा का क्षय करते हैं। अपने भीतर के अंधकार को बढ़ा देते हैं।

रोना रोशनी देता है। आंख में बसा हुआ पानी नूर का एक परदा होता है, जो आपके आगे फैले अंधेरे को दूर कर देता है। जब कोई रोता है, तो वह अपने भीतर प्रकाश का आवाह्न करता है। वैदिक काल में ऋषि सूर्य का आवाह्न करते हुए मंत्र पढ़ते थे। विज्ञान ने भले यह सुलझा लिया हो कि सूर्य को देखोगे, तो न केवल आंखें चौंधियां जाएंगी, बल्कि वे गीली भी हो जाएंगी। लेकिन यह हमेशा रहस्य रहेगा कि ऋषि सूर्य का आवाह्न गीली आंखों से ही क्यों करते थे? 

शायद वे जानते थे कि आंख का आंसू जल नहीं होता, वह तो प्रकाश का जलीभूत रूप होता है। दृष्टि आंसुओं का संपुंजन होती है। इसीलिए जब आंख की परत सूखने लगती है, तो दृष्टि प्रभावित होती है। महान अंधत्व भी आंसुओं से भरे होते हैं, लेकिन तब आंसुओं से बनी दृष्टि अपना घर बदल लेती है।

जब मैं उस फिल्म के नायक-नायिका के बारे में सोचता हूं, तो पाता हूं, कि वे प्रेम में इस क़दर चोट खाए हुए हैं कि प्रेम से नज़रें चुरा रहे हैं। प्रेम ऐसी देह है, जिसका गंगाभिषेक नहीं होता, उसे आंसुओं से ही नहलाना पड़ता है। प्रेम एक महान दुख है, जिसे आंख पर चढ़े नूर के इस परदे से ही देखा जा सकता है। यह ऐसा दुख है, जिससे आंख चुराना सबसे बड़ी चोरी है।


(दैनिक भास्‍कर में 3 अगस्‍त 2011 को प्रकाशित)

Tuesday, August 2, 2011

आखि़री औषधि





तुम टूटी हुई आई थी मेरे पास
अपनी टूटन को छिपाती हुई.

एक दिन तुम्‍हारे एक टुकड़े में कहीं दर्द हुआ और तुमने कुछ घाव मुझे दिखाए.
कुछ मरहम थे मेरे पास. छोटी-छोटी गोलियां. हरी नीली लाल पीली.
चिंदियां थीं कुछ, जिन्‍हें मैं पट्टी की तरह बांध देता था घाव पर.
अपनी आत्‍मा का हर दराज़ टटोला मैंने
बहुत सारा प्‍यार था. बहुत सारी हंसी. शरारतें थीं जाड़ों की रज़ाइयों जैसी. हमारी गुदगुदियों से उचक लहर-लहर जाती.
मैंने ज़मीन पर बिछा दिया अपने भीतर का सारा जल
और तुमसे कहा-
ऐसे ही खिलो इस पर, जैसे खिलती है कुमुदिनी पोखर पर.

मैं होंठों का यात्री. अपने होंठों से तुम्‍हारी देह पर चलता रहा.
बरसों से बंद तुम्‍हारे मन के दरवाज़ों पर रोग़न किया मैंने क़ब्‍ज़ों में लगी ज़ंग को होंठों से पोंछ दिया
सकुचाई तुम्‍हारी आत्‍मा के लिए नई-नई झालरें सिलीं टांक दिया उन्‍हें पंखों की जगह
यह क्षण की यात्रा थी सदियों पुराने दीर्घ उस क्षण की जो अभी तक बीत न सका
राह में आने वाले घावों को, टूटन को, खुरचन को, तिड़कन को, दरारों को अपने होंठों से सहलाता रहा मैं.

हर सहलाहट बनी तुम्‍हारे होंठों की मुस्‍कराहट.

तुम बिखरी हुई आई थी.
मैंने तुम्‍हें रूप दिया.
बदले में तुमने मुझे तोड़ दिया.
बार-बार कहा मैंने कि देखो, मैं टूट रहा
तुम मानती रही इस बात को
ऐसा कुछ भी नहीं किया फिर भी कि मैं जुड़ सकूं ज़रा भी
मुझ पर करती ही रही घनहथौड़ों से प्रहार
इतने कि हाथ में छाले पड़ गए तुम्‍हारे.

जब चूर-चूर हो जाऊं
मुझे उबटन बना लेना
उसका लेप लगा लेना
अपने हाथ के छालों पर.



Monday, June 13, 2011

कुछ कांच हैं, कोई आईना...






Iwona Siwek Front. Krakow. Poland.
कुछ इंसान कांच की तरह होते हैं। उनके सामने खड़े हो जाएं, तो उनके पार का सब कुछ दिखाई देता है। पारदर्शिता का चरम है यह।

और कुछ लोग आईने की तरह होते हैं। उनके सामने खड़े हों, तो पार का कुछ नहीं दिखता। जो दिखता है, वह आपका ही प्रतिबिंब होता है।

दोनों का मूल तत्व कांच ही होता है, लेकिन वे अपने व्यक्तित्व के साथ कुछ ऐसे प्रयोग कर लेते हैं, कि उनका व्यवहार बदल जाता है। हम अक्सर उन लोगों का खोज रहे होते हैं, जिनके पार का सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा हो। हम अपनी छवि से सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं, आईने में खुद को देखना पसंद भी करते हैं, लेकिन बोलता हुआ आईना तकलीफदेह स्थितियों में डाल देता है। इसलिए संभव है कि ज्यादातर लोग उन लोगों से दूर भागते हैं, जो उनके लिए आईने जैसा काम करते हों। 

दोनों श्रेणियों में से श्रेष्ठ कौन है, यह सब तो देखने वाले की मन:स्थिति और उद्देश्य के हिसाब से बदलता रहता है।  एक ऐसा व्यक्ति, जो आपकी नज़र को दूर तक यात्रा करने का मौक़ा दे और दूसरा व्यक्ति जो आपकी नजरों को परावर्तित कर दे, उसे वापस आप ही तक भेज दे!

जीवन में कुछ स्थितियां ऐसी आती हैं, जब आपको आईने जैसे लोग पसंद आते हैं। वह महत्वपूर्ण समय अपनी खोज का होता है। कुछ कहानियों में या प्रेरक प्रसंगों में पढ़ा है कि फलां व्यक्ति ने मुझे बताया कि मैं क्या चीज़ हूं, अगर वह नहीं होता, तो मुझे कभी पता ही नहीं चलता कि मेरे भीतर कितनी संभावनाएं थीं। यानी किसी एक व्यक्ति ने उनके जीवन में आईने का काम किया। आपको अपने जीवन में ऐसे ज्यादा लोग नहीं मिल सकते। पर जब भी मिलेंगे, वे आपको ख़ुद को पहचानने में मददगार साबित होंगे।

कांच की तरह पारदर्शी लोग आपको हर जगह मिलेंगे। दरअसल, उनका होना भी आपके लिए बहुत जरूरी है, क्योंकि जैसे, आईने आपको बताते हैं कि आप क्या हैं, उसी तरह कांच आपको बताते हैं कि दुनिया क्या है। जब आप उनके सामने खड़े होते हैं, तो उनके पार एक पूरी दुनिया दिख रही होती है। उसमें अच्छा-बुरा, सही-गलत सब होता है। वे एक दृश्य बनाते हैं। उस दृश्य में उसका पूरा अब तक का सफर होता है, जीवन के वे हर पहलू होते हैं, जिन्हें आप उसके ज़रिए देख रहे होते हैं।

जिंदगी सवालों की आकाशगंगा है, लेकिन दो ही सवाल ऐसे होते हैं, जिनके भीतर हर जवाब की चाभी छुपी होती है। पहला सवाल है- मैं क्या हूं? और दूसरा सवाल है- जो मैं नहीं हूं, वह क्या है? यानी मेरे इतर जो भी कुछ मेरी दृष्टि के दायरे में आ रहा है, वह सब क्या है? पहले सवाल का जवाब आपको आईने जैसा व्यक्ति देगा। दूसरे सवाल का जवाब आपको कांच जैसे व्यक्ति के पार देखने पर पता चलेगा। हालांकि पार के उस दृश्य में आपको जो भी दिख रहा होगा, उसे पढऩे की क़ूवत आपको आईने जैसे व्यक्ति से ही मिलेगी।

यानी दूसरे जवाब को पाने का रास्ता भी वही बताएगा, जिसने आपको पहले का जवाब दिया है। बस, दृश्य कोई और उपस्थित करेगा। अगर आपको पहले सवाल का जवाब नहीं पता, तो दूसरे का जवाब कभी नहीं पता चलेगा। आप अंधकार को तभी पहचान सकते हैं, जब आपने प्रकाश का अनुभव किया हो। वरना सारी दुनिया तो एक जैसी ही है। हमारी प्रवृत्ति होती है कि हम पहले सवाल से भागते हैं और दूसरे सवाल का जवाब तुरंत पा लेना चाहते हैं। दूसरे सवाल का जवाब आपको भौतिक जगत में तुरंत बड़ी सफलता दे देता है, इसीलिए अगर उसकी ओर आकर्षण ज्यादा हो, तो स्वाभाविक ही है। अगर कोई हमें यह अहसास करा दे कि हम क्या हैं, तो हम उससे विमुख होने लगते हैं। इसीलिए हम आईनों से दूर भागते हैं और पारदर्शी कांच के पार देख लेने का हुनर तुरंत अपने भीतर पैदा कर लेना चाहते हैं। खुद को समझने और जिंदगी को समझने की राह में इससे बड़ी भूल कोई और हो सकती है क्या? अब आप ही बताइए।

(2 अप्रैल 2011 को दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित.)



Sunday, May 22, 2011

गालेआनो के आईनों से






दो-तीन दिनों से मैं एदुआर्दो गालेआनो की नई किताब 'मिरर्स' पढ़ रहा हूं. इसके लिए मुझे अपने दोस्‍त विनीत तिवारी का शुक्रिया कहना चाहिए. इससे पहले गालेआनो की 'ओपन वीन्‍स' और 'डेज़ एंड नाइट्स ऑफ लव एंड वार' पढ़ चुका हूं. गैल्‍यानो रचनात्‍मक गद्य की मीनार हैं. वह कालयात्री भी हैं. इतिहास को वर्तमान से और वर्तमान को इतिहास से देखते हैं. इससे दोनों के नए अर्थ उरियां होते हैं. 'मिरर्स' में वह अपने पूरे वैभव पर हैं. 365 पेज में छोटी-छोटी 600 कहानियां हैं, जो सृष्टि की उत्‍पत्ति से लेकर इक्‍कीसवीं सदी के शुरुआती बरसों की गुमशुदगियों तक को बयान करती हैं. कहानी-दर-कहानी समय नाम की दाई की काया को वह नापते हैं और इतिहास-लेखन की अद्भुत कला से झांकते हैं. इस किताब के कुछ अंश नीचे प्रस्‍तुत हैं. बिना अनुमति लिए अनुवाद करना व छापना नैतिकता के विरुद्ध है, लेकिन इस किताब की सुंदरता यहां अनैतिक होने पर विवश कर रही है. गालेआनो और उनके प्रकाशकों से क्षमा भी, उनका आभार भी. अगर आपने यह किताब न पढ़ी हो, तो ज़रूर पढ़ें.  


***

आईने बेशुमार इंसानों से भरे हुए हैं 
जो अदृश्‍य हैं वे झांककर हमें देखते हैं 
हमें याद करते हैं विस्‍मृत लोग 
जब हम खु़द को देखते हैं, उन्‍हें देखते हैं 
जब हम पीठ फेर मुड़ जाते हैं, क्‍या वे भी फिरा लेते हैं पीठ ?

***

इच्‍छा का जन्‍म 

जिंदगी अकेली थी. उसके पास न कोई नाम था, न कोई स्‍मृति. हाथ थे उसके पास, लेकिन छूने के लिए कोई नहीं था. उस के पास जु़बान भी थी, लेकिन बातें करने लिए कोई न था. जिंदगी इकलौती थी और इकलौता कुछ नहीं था. 

तब इच्‍छा ने अपने धनुष की प्रत्‍यंचा खींची. उससे निकले तीर ने जिंदगी को ठीक बीच से काट दिया, और जिंदगी दो में बदल गई. 

जब उन दोनों की नज़रें मिलीं, वे ज़ोर से हंसे. जब उन्‍होंने एक-दूसरे को छुआ, वे फिर से हंसे.


लिखाई का जन्‍म 

इराक़ तब तक इराक़ नहीं बना था, जब वहां पहली बार लिखे गए शब्‍दों का जन्‍म हुआ था.

शब्‍द चिडि़यों की क़तार की तरह दिखते थे. उस्‍ताद हाथों ने नुकीली लकडि़यों से मिट्टी में उकेर-उकेरकर उन्‍हें लिखा था . 

आग नाश करती है और रक्षा भी, जीवन देती है और लेती भी, जैसा कि हमारे देवता करते हैं, जैसा कि हम ख़ुद करते हैं. आग ने मिट्टी को तपा दिया और शब्‍दों को बचा लिया. आग का आभार कि इस दोआबे में ये शिलाखंड अब भी हमें वे सारी कहानियां सुनाते हैं, जो हज़ारों साल पहले सुनाया करते थे. 

हमारे समयों में जॉर्ज डब्‍ल्‍यू. बुश को शायद यह भरोसा हो गया कि लेखन की खोज टैक्‍सस में हुई थी, अपने होहराते उल्‍लास में दंड देने की ठानी और इराक़ को मिटाने के लिए उस पर हमला बोल दिया. हज़ारों हज़ार शिकार हुए और ऐसा नहीं था कि हर शिकार गोश्‍तो-ख़ूं से ही बना हो. उसमें बेशुमार स्‍मृतियों की भी हत्‍या कर दी गई. 

बेशुमार शिलाखंडों के भीतर जीवित धड़कता हुआ इतिहास चुरा लिया गया या बमों को नज़र कर दिया गया. 

एक शिलाखंड कहता था : 

हम कुछ नहीं सिवाय मिट्टी के 
हम जो कुछ भी करते हैं उसका मोल हवा से ज़्यादा कुछ नहीं.  


मिट्टी का जन्‍म 

पुराने ज़माने में सुमेरियनों का विश्‍वास था कि पूरी दुनिया दो नदियों के बीच की ज़मीन है और दो स्‍वर्गों के बीच बसी है. 

ऊपर के स्‍वर्ग में शासन करने वाले देवता रहते थे.

नीचे के स्‍वर्ग में कर्मचारी देवता रहते थे. 

सब कुछ ऐसा ही चलता रहा, पर एक दिन नीचे वाले देवता हमेशा काम करते रहने से क्‍लांत हो गए और इस तरह इतिहास में पहली बार हड़ताल का जन्‍म हुआ. 

अफ़रातफ़री मच गई. 

लोगों को भुखमरी से बचाने के लिए ऊपर के देवताओं ने मिट्टी से स्त्रियों और पुरुषों को बनाया और उन्‍हें काम पर लगा दिया. ये स्‍त्री-पुरुष तिगरिस और यूफ्रेट्स के तट पर पैदा हुए थे. 

उसी मिट्टी से वे किताबें भी बनाई गईं, जो उन लोगों की कहानियां कहती हैं. 

वे किताबें बताती हैं कि मरना वापस मिट्टी हो जाना होता है. 

Marian Siwek 1936-2007. Polish artist. Krakow.

अमर हो जाने की चाहत वाला राजा

समय हमारी दाई है और वही हमारी संहारक भी. कल उसने अपने स्‍तनों से हमें दूध पिलाया था और कल वह हमें खा जाएगी. 

तो ऐसा होता ही रहता है. और हम जानते भी हैं यह सब. 

पर क्‍या सच में जानते भी हैं ?

दुनिया में पहली बार जो किताब जन्‍मी थी, वह हमें राजा गिलगमेश की कहानी सुनाती है, जिसने मरने से इंकार कर दिया था. 

यह महाकथा जो पांच हज़ार बरसों से मुंहज़बानी सफ़र कर रही है, उसे लिख डालने का काम किया था सुमेरियनों ने, अकादियनों ने, बेबीलोनियाइयों ने और असीरियाइयों ने. 

यूफ्रेट्स के किनारों का राजा गिलगमेश एक स्‍वर्गिक देवी और एक पुरुष के मिलन से हुआ था. ईश्‍वरीय इच्‍छाएं मानवीय नियतियां बन जाती हैं. देवी मां से उसने अलौकिक शक्ति और सुंदरता पाई थी, पुरुष पिता से मृत्‍यु.

नश्‍वर होने का अर्थ उसे तब तक पता नहीं था, जब तक उसने अपने दोस्‍त एनकिदु को मृत्‍युशैया पर न देख लिया. 

गिलगमेश और एनकिदु ने ख़ुशियों को अचंभे की तरह एक साथ जिया था. साथ-साथ ही दोनों देव-वन में भी घुस गए थे, जहां उन्‍होंने उस पहरेदार को हरा दिया था, जिसकी भुजाओं का बल देख पर्वत तक कांप उठते थे. साथ-साथ ही दोनों ने स्‍वर्ग के बैल को भी पराजित किया था, जिसकी एक हुंकार से ज़मीन में विशाल गड्ढा हो जाता था और जिसमें सैकड़ों लोग दफ़न हो जाते थे. 

एनकिदु की मृत्‍यु ने गिलगमेश को तोड़कर रख दिया और आतंकित कर दिया. उसने पाया कि उसका जांबाज़ जिगरी दोस्‍त तो मिट्टी का बना हुआ था और वह ख़ुद भी मिट्टी से ही बना है. 

तो वह एक अनंत जीवन की तलाश में निकल पड़ा. अमरता की चाहत रखने वाला यह राजा अनगिनत रेगिस्‍तानों और चारागाहों से गुज़रा, 

उसने रोशनी और अंधेरों को पार किया, 
उसने विशाल नदियों को तैर डाला
एक दिन वह स्‍वर्ग के उपवन में पहुंचा 
एक नक़ाबपोश अप्‍सरा जो अपने भीतर सारे रहस्‍य छुपाए रखती थी, ने उसे शराब परोसी,
वह समंदर के परली ओर पहुंच गया 
उसने वह आर्क खोज लिया जो बाढ़ से बच गया था 
उसे वह पौधा भी मिल गया जो बुढ़ापे को तरुणाई में बदल देता है 
वह उत्‍तरी सितारों के दिखाए पथ पर चला और दक्षिणी सितारों के पथ पर भी 
उसने वह द्वार खोलकर देखा जिससे सूरज इस दुनिया में आता था और उस द्वार को बंद करके देखा जिससे सूरज जाता था 

और वह तब तक अमर बना रहा 
जब तक कि एक दिन वह मर नहीं गया. 


आंसुओं का जन्‍म 

जब मिस्र, मिस्र नहीं था, तब सूरज ने आकाश की उत्‍पत्ति की और उन चिडियों की भी, जो उस आकाश को पार करते उड़ें. उसने नील नदी बनाई और उसमें तैरने के लिए मछलियां भी. और पौधों और जानवरों में जान भरकर उसने उस नदी के काले तटों को हरे में बदल दिया. 

तब जीवन की उत्‍पत्ति करने वाला सूरज थोड़ी देर सुस्‍ताने बैठ गया और अपने इन कामों के बारे में विचार करने लगा. 

इस नवजात विश्‍व की गहरी सांसों को उसने अपने ऊपर महसूस किया और उसकी पहली-पहली आवाज़ें सुनीं. 

अतिशय सुंदरता भयानक ठेस भी पहुंचाती है. 
सूरज के आंसू ज़मीन पर गिरे और उनसे कीचड़ बना. 
और उस कीचड़ से मनुष्‍यों की उत्‍पत्ति हुई.

PS


श्रम के विभाजन का जन्‍म 

कहते हैं कि राजा मनु ने भारतीय जातियों पर पवित्र प्रतिष्‍ठाएं नाजि़ल की थीं.

उनके मुंह से ब्राह्मणों की उत्‍पत्ति हुई, भुजाओं से राजाओं और योद्धाओं की (क्षत्रिय). जांघों से व्‍यापारियों की (वैश्‍य). उनके पैरों से मज़दूरों व कारीगरों की (शूद्र).

और इस आधार पर उस सामाजिक पिरामिड का निर्माण हुआ, जिसकी भारत में तीन हज़ार से ज़्यादा कथा-मंजि़लें हैं.

हर कोई वहीं पैदा होता है, जहां उसे पैदा होना चाहिए. वही करता है, जो उसे करना चाहिए. पालने में ही क़ब्र बनी होती है, जन्‍म से नियति बन जाती है, हमारी जिंदगी पिछले जन्‍मों का कर्म है या फल, और हमारे वंश हमारी भूमिका व जगहें तय करते हैं.

व्‍यवस्‍था में गड़बड़ी न फैले, इसके लिए मनु ने आदेश किया: अगर निचली जाति का कोई व्‍यक्ति पवित्र किताबों की ऋचाओं को सुनेगा, तो उसके कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया जाएगा, और अगर वह उन्‍हें पढ़ेगा, तो उसकी जीभ काट ली जाएगी. ऐसे उपदेशों का अब ज़्यादा चलन नहीं रहा, लेकिन अब भी जब कोई अपनी जगह छोड़ता है, प्रेम में, श्रम में, तो ख़तरा रहता है कि उसे मौत मिल जाए या मौत से भी बदतर जीवन.

हर पांच में से एक भारतीय जाति-बाहर है और निचले से भी निचले पर है. उन्‍हें अछूत कहा जाता है, क्‍योंकि वे छूत फैला देते हैं: वे गए से भी गुज़रे हुए हैं, वे दूसरों से बोल नहीं सकते, दूसरों की बनाई सड़कों पर चल नहीं सकते, और उनके गिलास व बर्तनों को छू नहीं सकते. क़ानून उनकी रक्षा करता है और यथार्थ उन्‍हें बहिष्‍कृत. कोई भी उनके पुरुषों का अपमान कर सकता है और कोई भी उनकी स्त्रियों से बलात्‍कार कर सकता है, सिर्फ़ यही एक ऐसा मौक़ा होता है, जब वे अछूत, छूने लायक़ बन जाते हैं.

2004 के अंत में जब सुनामी की लहरों ने भारतीय तटों पर तबाही मचा दी थी, वे कचरा बीन रहे थे, शव उठा रहे थे.

हमेशा की तरह. 



Thursday, May 19, 2011

नेह-नृत्य






जब कोई नाचता है, तो उसके भीतर क्या नाचता है? बुल्ला कहता था, उसकी देह कभी नहीं नाचती, नाचती तो रूह है। जैसे पृथ्वी के भीतर समंदर नाच पड़े, तो पृथ्वी भी तो नाचती हुई ही जान पड़ेगी। सो भीतर का नाच ही बाहर का नाच होता है। शकीरा को नाचते हुए देखें, तो लगता है कि मुर्शद को मनाने वाला बुल्ला नाच रहा है, शम्स के सामने रूमी नाच रहा है, स्कार्फ हिलाकर जीवन के तमाम अबूझ का अभिवादन करती इज़ाडोरा डंकन नाच रही है, थोड़ा-सा तुम नाच रही हो, थोड़ा-सा मैं नाच रहा हूं। एक देह में कितने सारे लोग लोग नाच रहे हैं। यह देह का नहीं, नेह का नृत्य है। नाचती देह है, नचाता नेह है।


दुनिया के सारे नेह को इकठ्ठा  किया जाए, एक जगह रख दिया जाए, तो वह उतना ही होगा, जितना एक व्यक्ति के भीतर होता है। यानी एक के भीतर का नेह, सारी दुनिया में समाए नेह जितना होता है। इसीलिए उसके नेह से हम इतनी जल्दी जुड़ जाते हैं। नेह में क्षिप्त होकर किया गया नृत्य इसीलिए कदमों को ताल की सौगात देने से रोक नहीं पाता। संभव है कि यह किसी व्यक्ति के लिए किया गया नेह न हो, बल्कि अ-व्यक्ति के लिए हो। जो व्यक्त है, वह व्यक्ति है। अ-व्यक्त भी बहुधा व्यक्ति ही है। नृत्य का नेह अ-व्यक्त के व्यक्ति बन जाने का नेह है। बुल्ला को तब तक यह पता नहीं था कि उसके भीतर का अ-व्यक्त क्या है, जब तक कि उसने नृत्य न किया। वह नाचा, इसीलिए वह अपने भीतर छिपे हुए खुद को जान पाया।


आप कितना भी प्रेम में डूबे हुए हों, हर समय आपके भीतर एक शख्स ऐसा रहता है, जिसे आप नहीं जानते। आप न तो खुद के सामने और न ही किसी और के सामने, उसे व्यक्त कर पाते हैं। उसके सामने भी नहीं, जो पूरी तरह व्यक्त और व्यक्ति बनकर आपके जीवन में बैठा हुआ है। यही अ-व्यक्ति प्रेम को बढ़ाते रहने का काम करता है। आप एक व्यक्ति से प्रेम कर रहे होते हैं, उसी के साथ-साथ एक अ-व्यक्ति से भी प्रेम कर रहे होते हैं। 


'इश्क दी नवियों नवी बहारमें बुल्ला कहता है कि हीर को रांझा मिल गया, फिर भी हीर खोई-खोई रहती है, वह रांझा को अपने भीतर खोजती रहती है। उसे सुध ही नहीं है कि रांझा उसके ठीक पास है। अगर व्यक्ति रांझा ठीक पास है, तो हीर किसमें खोई हुई है? कीनन, रांझा के अ-व्यक्ति में। यानी वह रांझा के उस हिस्से में खोई हुई है, जो अभी तक हीर की देह पर, आत्मा पर व्यक्त नहीं हुआ है। यानी रांझा या प्रेम की महा-कल्पना, जो रांझा की हकीकत से कहीं आगे हैं, उससे कहीं विशाल है। शाम के समय पडऩे वाली परछाईं की तरह, जिसमें वस्तु तो बहुत छोटी होती है, लेकिन जब रोशनी के बीच आती है, तो वस्तु के आकार से कई गुना लंबी परछाईं बना देती है। इसमें ज़ोर रोशनी पर है। भीतर की रोशनी अ-व्यक्त की एक विशालकाय परछाईं का निर्माण करती है।


तो हीर एक साथ दो से प्रेम करती जान पड़ती है- अपने जीवन में रांझा की व्यक्त उपस्थिति से और अपने मन में रांझा की अ-व्यक्त उपस्थिति से भी। यही अ-व्यक्त उपस्थिति ही प्रेम की उसकी प्यास और तलाश है। यह उसके जीवन से प्रेम को कभी समाप्त नहीं होने देगी। यह मन ही मन किया गया प्रेम हीर को नचाता है। यही बुल्ला को नचा देता है। यही रूमी को, मीरा को, यही माइकल जैक्सन, शकीरा और डंकन को भी। अ-व्यक्त से प्रेम के बिना कोई नृत्य संभव ही नहीं। इन सबमें अ-व्यक्त प्रेम, नेह के झरने की तरह रहता होगा।


 माइकल की डायरी का एक हिस्सा याद आता है- 'महाचेतना हमेशा सृजन के ज़रिए $खुद को अभिव्यक्त करती है। यह दुनिया विधाता का नृत्य है। नर्तक आते हैं, चले जाते हैं, लेकिन नृत्य हमेशा रहता है। जब मैं नाचता हूं, तो लगता है, कोई बहुत पवित्र चीज़ मुझे छूकर गुजरी है। मेरी आत्मा बहुत हल्की हो जाती है। लगता है, मैं ही चांद और सितारे हूं। मैं ही मुहब्बत हूं, मैं ही महबूब हूं। मैं ही मालिक हूं, मैं ही गुलाम हूं। मैं ही ज्ञान हूं और ज्ञानी भी मैं ही हूं। मैं नाचता जाता हूं और एक समय सृष्टि का शाश्वत नृत्य बन जाता हूं। सर्जक और सृष्टि आनंद के ऐक्य में विलुप्त हो जाते हैं। तब भी जो बचता है, वह सिर्फ नृत्य होता है।


यही नृत्य है, तो प्रेम भी यही है। यह जो नृत्य है, वही देह के भीतर नेह बनकर रहता है। प्रेम व्यक्त से ज्यादा अ-व्यक्त में वास करता है। इसीलिए तो आप कभी नहीं बता पाते कि प्रेम है, तो कितना है? बस, बहुत है। बहुत मतलब बहुत।



Tuesday, May 3, 2011

प्रेम, कविता और शोपां





शोपां पियानो
18 जनवरी 2010
मोत्सार्ट के संगीत के बारे में कई विद्वानों का कहना है कि यह बहुत सोच-समझकर रचा गया संगीत है, दिमाग की सारी जटिलताओं को रूपायित करता हुआ; वहीं बीथोफन के संगीत के बारे में राय अलग है- कहा जाता है, वह संगीत बीथोफन के दिल से निकलता है और सीधे सुनने वालों के दिलों में समा जाता है। मुझे लगता है- बीथोफन का दिल जब आखिरी बार धड़का होगा, तब उसने थोड़ा-सा रक्त बरसों बाद आने वाले शोपां के दिल को नज़र किया होगा। शोपां को, देर रात, देर तक सुनने के बाद ऐसा ही महसूस होता है।

रूबीन्स्टीन का पियानो, शोपां का नॉक्टर्न। अगर श्रीकृष्ण ने बांसुरी के वेस्टर्न नोट्स बनाए होते, तो वे शोपां के नॉक्टर्न की तरह ही होते। (यह ख्याल ही कितना एब्सर्ड है कि बांसुरी को पियानो के नोट्स पर बजाया जाए।) 

नॉक्टर्न यानी रात के समय बजने वाला संगीत। अंधेरे में डूबा हुआ एक बगीचा। पत्तों की आवाज़ से हवा के चलने को महसूस करना। ज़मीन पर तारों की परछाईं देखना और आसमान में जो आकृतियां बनी हों, उन्हें ज़मीन पर उगे पेड़-बूटों की परछाईं की तरह महसूस करना। जब पैदल चलना, तो पत्तों की खदड़-खदड़ आवाज़ आना। कोई भी आवाज़ आने से पहले खुद को श्श्श्श् कहकर चुप करा देती है। वहीं बगीचे में थोड़ी सी गुंजाइश खोज लेना कि एक समंदर भी बन जाए। उसकी आवाज़ के भीतर उतरना। उसमें मिली एक-एक नदी को रेशे-रेशे की तरह अलग करना। उन्हें पहचाने बिना उन्हें फिर एक-दूसरे में मिला देना। वहीं एक टापू बना लेना और उसमें अकेले होने के विरुद्ध आवाज़ का एक बूटा रोपना। 

ये शोपां है।
मैं तुम्हारे पास हूं। तुम्हारी हथेली में उगली फंसाए।
तुम सबके पास हो।
पर मैं सबके पास नहीं
सिर्फ तुम्हारे पास हूं।
यही शोपां है।

वह बीजगणित के ‘माना कि एक्स बराबर वाय' को नकार देता है और बताता है कि अनुभूति और संगीत का कोई सिद्धांत नहीं होता। जो संगीत में भी सिद्धांतों और व्याकरणों का पालन करते हैं, वे दरअसल, किसी भी नए से घबराते हैं, वे पुराने से भी आतंकित हैं, वे मेड़ों से बंधे खेत में अनंत की खोज करते हैं।

नियमों को तोडऩा बहुधा एक नया नियम बन जाया करता है।

शोपां इससे दूर रहना सिखाता है।

‘मैंने अपने लिए नए नियम बनाए' यह कहने से बेहतर है यह कहना, ‘मैंने नियमों को ध्वस्त कर दिया और खुद को भी नियमों से आज़ाद रखा।'

शोपां अराजक नहीं है। बहुत अनुशासित और मापा हुआ है, फिर भी उसमें वह बनैलापन है, जो आपको उसके अनुशासन पर यकीन नहीं करने देता। 

दो परस्पर विरोधी चीज़ों को साध लेने वाले कलाकार हमेशा मुझे आकर्षित करते हैं।

कई बार मुझे लगता है कि यह दक्षिणोत्तर जैसी किसी नई दिशा की तलाश कर लेने जैसा है।

दो सौ साल पहले उसे पोलैंड से भागना पड़ा था। वह पेरिस में रहा। सारा संगीत उसने वहीं रचा। पर उसका दिल लगातार पोलैंड के लिए धड़कता। उसने कहा कि जब मैं मर जाऊं, तो मेरे दिल को मेरे शरीर से निकाल लेना और उसे पोलैंड में दफनाना। 39 साल की उम्र में जब वह मरा, तो उसकी इच्छा का सम्मान किया गया। उसका शरीर पेरिस में दफनाया गया, लेकिन उसका दिल निकालकर पोलैंड ले जाया गया। वह वहां दफन हुआ।

उस दिल से ऐसा संगीत न निकलता, तो कैसा निकलता? वह इस ख्याल को भी कितने म्यूज़िकल तरीके से खारिज करता है कि वह तब तक ही सुना जाएगा, जब तक वह गूंज रहा है।





21 जनवरी 2010
शोपां को सुनना सिर्फ शोपां को सुनना होता है। मोत्जार्ट को आप दूर बैठकर सुन सकते हैं, बीथोफन को सुनते हुए आप खुद ही धीरे-धीरे हर किस्म की ध्वनि से दूर होते जाते हैं। शोपां को मैं दूर से नहीं सुन पाता। उसमें इतनी बारीकियां हैं, इतनी छोटी-छोटी हरकतें हैं कि उसकी आवाज़ के पास अपने कान ले जाने होते हैं। इसीलिए मैं उसके लिए हेडफोन लगाता हूं। मैं उसका हर स्वर कानों से सुनना चाहता हूं। पहले कान सुनें, फिर वे तरंगें देह और आत्मा से लिपटें। संगीत अंग से भी ग्रहण होता है और अनंग से भी। 

शिव ने कामदेव को भस्म कर अनंग बना दिया था- वह विदेह हो गया था। फिर भी पार्वती जब भी संगीत बजाती थीं, वे दोनों महसूस करते थे कि अनंग कहीं पास ही है। देह खोने के बाद भी अनंग ने अपना व्यवहार नहीं खोया था। वह कैलाश के आसपास ही भटकता था। इसीलिए पार्वती को उस पर रहम आया था और वह शिव से आग्रह करती रहीं कि वह कामदेव के अनंग-शाप को वापस ले लें। पर शिव कहते, वह अनंग है, इसीलिए मनोज है। इसीलिए वह हर अंग का ओज है। वह विदेह है, इसीलिए हर देह से संयुक्त है।
कई बार मुझे लगता है कि पुराणों में जरूर कोई कथा ऐसी भी होगी, जिसमें संगीत को सशरीर उपस्थिति कहा गया होगा। और किसी शाप में उसने भी अपना रूप खो दिया होगा। जैसे कामदेव ने खोया, जैसे दक्ष ने खोया, जैसे शारंग ने खोया, जैसे आठों चिरंजीवियों ने खो दिया। हालांकि मैं अभी तक ऐसी किसी कथा तक नहीं पहुंच पाया हूं।

संगीत भी अनंग है, इसीलिए हर अंग में उसकी व्याप्ति है। पर मैं उसकी व्याप्ति को दिशा देना चाहता हूं। क्यों? मैं उसे एक मार्ग दिखाना चाहता हूं कि तुम यहां से प्रविष्ट हो और यहां जाओ। संगीत कभी आज्ञा नहीं मानता। और ग्राहक यानी उसे ग्रहण करने वाला अपनी पद्धति से बाहर नहीं निकलता।

इतालवी में प्रेम की एक परिकल्पना है, जिसे 'फीनो अमोरे' कहा जाता है यानी संपूर्ण प्रेम। यह दान्ते अलीगियेरी की रचनाओं से आया। ऐसा प्रेम, जिसमें शरीर का कोई अर्थ नहीं होता, अभिव्यक्ति और स्मृति का भी कोई अर्थ नहीं होता। आप जिससे प्रेम करते हैं, संभव है कि उसे आपने कभी देखा भी न हो, उससे कुरबत तो दूर की चीज़ है। न उससे बातें की हों, न ही कोई व्यवहार। पर उससे प्रेम करते हों। वह एक उपस्थिति हो, किंतु आपके भीतर। यह सिर्फ मन में किया जाने वाला प्रेम है। बाहर उसकी अभिव्यक्ति कैसे भी संभव है, लेकिन इसकी मौजूदगी केवल आपके भीतर है। यह प्रेम को भक्ति भी बना देता है। अपने यहां मीरा के रूप में ऐसे प्रेम का उदाहरण है।

संगीत से किया जाने वाला प्रेम फीनो अमोरे ही होता होगा। यह सिर्फ आपके भीतर रहता है। आप संगीत की देह को नहीं छू पाते, लेकिन वह आपकी आत्मा और देह को छूता रहता है। शोपां इसी तरह एक अनुपस्थित उपस्थिति में आता है। बहुत बारीक स्वरों, हल्की बुनावटों, छोटे-छोटे वाल्ट्ज और मादक नाक्टर्न्‍स में। उसे लोग 'पियानो का कवि' कहते हैं। बहुत ज्यादा चीजों का इस्तेमाल नहीं करता। प्रेम भी शायद ऐसा ही होता है। बजने के लिए ज्यादा साजों का प्रयोग नहीं करता। एक अकेली तान से ही बड़ा ऑर्केस्ट्रा खड़ा कर देता है। अकेली तान वाला ऑर्केस्ट्रा। उसी तरह कविता को भी दूरी से नहीं समझा जा सकता। आपको उसे समझने के लिए, उसके बहुत करीब, झुककर, निहुरकर जाना होता है। उसमें भी अकेली तान से बड़ा ऑर्केस्ट्रा बनता है। शोपां के पास भी इसी तरह जाना होता है। झुककर, निहुरकर, बहुत करीब। प्रेम, कविता और शोपां- तीनों एक ही गोत्र से निकले होंगे।

(मेरी डायरी के हिस्‍से. पहला हिस्‍सा कथादेश अक्‍टूबर '10 में 
और दूसरा हिस्‍सा दैनिक भास्‍कर में 3 मई '11 को प्रकाशित.) 



Sunday, April 24, 2011

दर्द के सुर में सबसे मधुर गीत





वह एक कांपती हुई आवाज़ थी. झरना नहीं, उससे फूटकर अलग हुई एक पतली-सी धार थी, जिसकी पोशाक मख़मल की थी. वह आवाज़ अवध की तहज़ीब थी. वैसी ही मिठास, वैसा ही नफ़ासत भरा दर्द. कई दुख छत पर खड़े होकर हल्‍ला करते हैं, कुछ दुख सिगड़ी में रखे अंगारे की तरह तपते रहते हैं. जो पास आता है, उसे जलाते नहीं, जिंदगी जी सकने लायक़ तपिश देते हैं. तलत महमूद का दर्द शालीन है. वह ख़ामोशी से आंखों से निकलकर दूर होता आंसू है. वह आपके घावों को सहलाता है और कहता है, 'महसूस करो, दर्द का स्‍वाद मीठा होता है.' (हैं सबसे मधुर वो गीत, जिन्‍हें हम दर्द के सुर में गाते हैं.) यही वह तपन है, जिसने तलत को तपन कुमार सिन्‍हा नाम भी दिया था. 

विरह से बड़ा कोई राग नहीं होता. सुर के सारे सोते इसी से फूटते हैं. एक हंसती हुई धुन आपके पैरों को थिरका सकती है. एक पनीली धुन आपके दिल के भीतर घुसती है और दिल के पैरहन की सारी सलवटों को साफ़ करती है-- रेशम के बुहारन से. संगीत के शब्‍दकोश को पलटकर खंगाल लें, वहां रेशम का अर्थ तलत लिखा हुआ मिलेगा. इस आवाज़ को खींचकर आप गगनचुंबी इमारत नहीं बना सकते, इस आवाज़ में आप हाई-पिच सुरंग भी नहीं सेंध सकते. उनकी आवाज़ पगडंडी है- पतली, तमाम हरियालियों के बीच रास्‍ते का आभास देती हल्‍की-सी लकीर. यह लकीर दुनिया के तमाम राजमार्गों से ज़्यादा भव्‍य है. अगर आप तलत को दिल से सुनते हैं, तो गर्व आपकी आंखों का सुरमा होगा. 

तलत का दर्द इंतज़ार का दर्द है. आपका कोई आपसे दूर है. आपका दिल मार डूबा जा रहा है. तलत को सुनिए. वह इलाज हैं. वही दर्द हैं. वही दवा हैं. शामे ग़म की क़सम खाइए और वे गीत ढूंढ़ लाइए, जिनके लिए आंखों के दिए जलते हैं. वह आपको दुनिया के भीड़-भड़क्‍के से निकाल ले जाएंगे, उस जगह जहां कोई न हो. जहां दर्द तलत बन जाता है, इश्‍क़ तो है ही तलत. जहां ख़ामोशी एक ग़ज़ल का क़ाफि़या बन जाती है, इंतज़ार उसकी बहर. तलत की आवाज़ हमारे भीतर के इसी इंतज़ार को हौसला देती है. 

(24 फरवरी 2007 को दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित)



Sunday, April 17, 2011

ग़म की बारिश, नम-सी बारिश





वह भयानक रात थी, जब उसकी आंखें नशे से डोल रही थीं और वह रिसीवर पर बाक़ायदा चीख़ रहा था, 'हलो... गीतू... मैं गुरु... मैं बहुत अकेला हूं... प्‍लीज़, आज मेरे पास आ जाओ... आई नीड यू गीता...'. वह गि‍ड़गिड़ा रहा था. बरसों से एक डाह में जल रही गीता दत्‍त खि‍लखिलाईं और ज़हर बुझे तीरों से उस ख़रगोश को बींधकर रख दिया, 'आई स्टिल लव यू गुरु... पर तुम मेरे लिए नहीं, उस वहीदा के लिए तड़प रहे हो. उसे मद्रास फोन कर लो, शायद वह आ जाए. मैं नहीं आने वाली... किस मुंह से तुम मुझे बुला रहे हो...'

गीता नहीं आई. वहीदा दूर हो ही गई थी. काग़ज़ के फूल ख़ुशबू नहीं दे पाए थे. गुरुदत्‍त कई रातों से दुख के तंदूर में भुन रहे थे, कभी इस करवट, कभी उस करवट. उस रात अपनी पसंदीदा स्‍कॉच में उन्‍होंने नींद की बीसियों गोलियां मिला लीं. उससे पहले कभी राज कपूर को फोन करते, कभी देव आनंद को. दोनों ने आने से इंकार कर दिया. वह सिर्फ़ एक रात के लिए अपना अकेलापन किसी की गोद में रखकर देर तक रोना चाहते थे. देव के साथ 'प्रभात' के शुरुआती दिनों को याद करना चा‍हते थे. राज के साथ बंबई के समंदर के साथ की गई शैतानियों को सिमर भीतर से गीला होना चाहते थे. गीता से कहना चाहते थे कि उन्‍होंने उससे बेइंतहा प्‍यार किया है. वहीदा को बताना चाहते थे कि तुम मेरी कलाकृति हो और कलाकार को अपने सिर से ज़्यादा प्‍यारी होती है अपनी कलाकृति. उनकी इस तड़प को सनक माना गया. सबने अपने-अपने तरीक़े से इंकार कर दिया. 

गुरु ने बाहोश गोलियां खाईं और बेहोशी में जिस्‍म को छोड़ दिया. रूह आगे-आगे भागती रही (जैसे 'काग़ज़ के फूल' का आखिरी सीन), जिस्‍म वहीं पड़ा दुनियादार लोगों का इंतज़ार करता रहा. उस वक़्त उनका फोन लगातार बज रहा था. गीता दत्‍त उन्‍हें कॉल कर रही थीं कि हां गुरु, मैं अभी आ रही हूं... मद्रास से वहीदा रहमान ठीक उसी समय बहुत परेशान होकर लाइटनिंग कॉल बुक करा रही थीं- मि. गुरुदत्‍त पादुकोण के नाम. देव आनंद और राज कपूर भी आंखें मींचते हुए उन्‍हें कॉल करना चाह रहे थे. पौ फट चुकी थी. गुरु के चेहरे पर यक़ीन था- ख़ुद के मर जाने का यक़ीन. इस बात का यक़ीन कि कोई नहीं आएगा अब... बिछ़ड़े सभी बारी बारी. यह यक़ीन बहुत निर्णायक होता है. मरने में बहुत मदद करता है. इसी यक़ीन ने गुरुदत्‍त की लाश के होंठों को एक मुस्‍कान सौगात की. गुरु व्‍यंग्‍य भरी मुस्‍कान के साथ मरे थे- तिरछी मुस्‍कान. सबने जागने में देर कर दी थी. उस रात की सुबह बहुत रुक कर आई. कुछ घंटों के बाद पूरी दुनिया उनके दरवाज़े पर जमा थी और गुरुदत्‍त की रूह दरवाज़े पर दोनों हाथ फैलाए मद्धम-सी आवाज़ में गा रही थी- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्‍या है... रोशनी उस रूह के पीछे से आ रही थी. आगे तो सब कुछ अंधेरा था. 

अंधेरा उसे बहुत प्‍यारा था. वह श्‍वेत-श्‍याम का जादूगर था. जितना श्‍वेत में खिलता था, उससे कहीं ज़्यादा श्‍याम में. वह अंधेरे में हिलती हुई एक परछाईं था. कोई उसे साफ़-साफ़ नहीं देख पाया. न गीता, न वहीदा और न ही ढाई घंटे के लिए हॉल में आने वाले दर्शक, जिनके अंधकार को रोशनी से भरने के लिए वह बरसों अपनी स्‍कॉच में अपने दिल के तमाम गलियारों में छाए अंधेरों का अर्क मिलाकर पीता रहा. उस अर्क को आंसू बनाकर बहाता रहा. 

उसे आंसू बहुत प्रिय था. गुरुदत्‍त उस बूंद का नाम था, जो आंसू की कोख से निकलता है और एक बारिश में बदल जाता है. वह ग़म की बारिश था. वह नम-सी बारिश था. वह गालों को छूकर किसी अतल में जा धंसा एक अनाम-सा आंसू था. जिंदगी में हम कई लोगों को छूते हैं. कइयों से गले मिल लेते हैं, लेकिन कोई एक छुअन ऐसी होती है, जो बाक़ी तमाम स्‍पर्शों को हीन बताती है और अपनी अद्वितीयता में ताक़त देती है. हम सिर्फ़ उस छुअन को याद कर पूरी उम्र निकाल देते हैं. ताउम्र हमारी पूंजी सिर्फ़ एक निगाह होती है जो दिल में बस जाती है, साये की तरह बदन को लपेटती है, जो वक़्त की धूप को अपनी छांह से चुनौती देती है, अपनी ठंडक में पुचकारती है, तपिश को बर्फ़ का दान देती है और जलती आंखों को नम फ़ाहे. ताउम्र हम सिर्फ़ एक मुस्‍कान को याद रखते हैं, जो किसी फुनगी की तरह उमगती है. हम सिर्फ़ एक हुलस में जीते हैं, जो फ़सल के बीचोबीच चुनरी लहराकर लहलहाती है. 

हम एक सच पर पूरी दुनिया वार देते हैं, एक झूठ पर ख़ुद को क़त्‍ल कर देते हैं. गुरुदत्‍त भी एक छुअन में जिये. वहीदा की उस निगाह में उन्‍होंने अपना घर बना लिया, जो पहली बार हैदराबाद में उन पर आ टिकी थी. उस आंसू में रहे, जो बंगाल के शरत और नॉर्वे के नट हैमसन को पढ़कर उनकी आंखों से निकले. उस भटकन में रहते थे, जो मुंबई के नंगी रातों में सड़क पर फिसली हुई होती है. 

कश्‍मीर की डल झील में डोलते हुए शिकारे में जब वहीदा ने उनके माथे पर चुंबन की रोली लगाई, तो उनकी आंखें छलछला गईं. उन्‍होंने कहा, गीता मुझे छोड़ गई है. तुम मत छोड़ना कभी. और वहीदा ने कुछ ही दिनों बाद उनका साथ छोड़ दिया. बिना पूरा सच बताए. गुरु को झूठ का यक़ीन नहीं था और सच का अंदेशा भी नहीं. वहीदा कैरियर के लिए बाहर की फिल्‍में साइन करने लगीं. फिल्‍म इंडस्‍ट्री भी इसी दुनिया की तरह क़दम-क़दम पर चालाक लोमड़ों से भरी पड़ी है. गुरु ने, उनके दोस्‍त अबरार अल्‍वी ने बार-बार समझाया कि तुम्‍हारी ज़रूरत गुरु को है. वहीदा ने अपने कैरियर और सपने गिनाए. उस दिन गुरु फिर टूटे. ऐसा टूटे कि फिर कभी जुड़ नहीं पाए. उनके माथे पर पड़ा आखिरी चुंबन चालबाज़ निकला. उसने माथे पर पड़ने वाली लकीरों को कई गुना बढ़ा दिया. 

गुरुदत्‍त की लगभग हर चिट्ठी माफ़ी से भरी होती. एक ख़रगोश जो अपनी नींद में बाड़े तोड़ निकल भागता हो, और अपनी जाग में लौटने पर कंटीली बाड़ों से माफि़यां मांगता हो. वह एक तड़पा हुआ दिल था. प्‍यार की तलाश में मारा-मारा फिरता. पानी के छींटों पर बैठकर दूर-दूर तक उड़ता.  दिल का कांच टूटने पर बनी किरचों पर लहू के क़तरों की तरह चस्‍पा रहता. वह दुनिया से सिर्फ़ एक चीज़ मांग रहा था- आओ, मुझे थोड़ा-सा समझो, थोड़ा-सा संभालो. दुनिया कह रही थी कि यह सनक का सुल्‍तान है. इसे कुछ मत दो. सिर्फ़ हंस दो. जबकि गुरुदत्‍त को उन रंगों से भी परहेज़ था जिन्‍हें हंसी के रंग कहते हैं. गुरुदत्‍त के आसपास की दुनिया उसे समझ नहीं पाई, वह जो चाहता था, नहीं दे पाई. एक दिन गुरु ने दुनिया की फ़ेहरिस्‍त से अपना नाम ख़ारिज कर लिया. 

(9 जुलाई 2007 को दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित.)



Friday, March 18, 2011

पानी की आत्मा





भारतीय दर्शन मानता है कि मनुष्य का शरीर पांच तत्वों से बना है- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। लेकिन आत्मा किस तत्व से बनी है, इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलता। आत्मा को जीव और परम के बीच की कड़ी माना गया है। इस लिहाज से यह खुद एक तत्व है, लेकिन देह को बनाने वाले पांच तत्वों में से आत्मा का स्वभाव किसी से सबसे ज्यादा मिलता-जुलता है, तो वह पानी है। पानी के भीतर हवा है, अग्नि है, भू है, और उसमें झांककर देखें, तो आसमान भी है। आसमान अनंत है, पानी के भीतर भी अनंत का गुण है। आत्मा भी अनंत का पर्याय है। पानी की तरह आत्मा भी तरलता के रियाज़ में रहती है। जीवन में जब कभी आत्मा की सक्रिय उपस्थिति का अहसास होता है, वे ज्यादातर पानीदार क्षण होते हैं। जब जीवन रेगिस्तान की तरह सूखा होता है, तब भी उसके कणों में पानी के अनेक संस्मरण होते हैं।

जीवविज्ञान कहता है कि देह के भीतर सत्तर फीसदी पानी है। अध्यात्म बताता है कि देह के भीतर आत्मा रहती है। पानी अपने साधारण स्वभाव में तरल, शीतल और प्यास को बुझाने वाला होता है। आत्मा अपनी जागृतावस्था में हमें तरल बनाती है, मासूमियत का उत्पादन हमारी आत्मा के भीतर से ही होता है, जैसे पानी वनस्पतियों को विकास के ज़रूरी तत्व देता है। जीवन के जिन क्षणों में हम चेतन होते हैं, कामकाजी दिमाग को परे कर आत्मा की आवाज़ सुनते हैं, उन क्षणों में लिए गए फैसले हमें पानी की तरह शीतल क्यों लगते हैं?

पूरी दुनिया पानी के संकट से जूझ रही है। आने वाले बरसों में यह संकट बढ़ता ही जाएगा। पानी आत्मा है। तो क्या यह संकट हमारी आत्माओं का भी संकट है? क्या जल-संकट का यह युग 'आत्मा के संकट' का भी युग है? जमीन पर पानी कम हो रहा है, तो क्या देह के भीतर आत्मा भी संकुचित हो रही है? चारों तरफ जो भी कुछ चल रहा है, इस सिरे से लेकर उस सिरे तक धरती, मनुष्यता और आत्मा का जो भावनात्मक दोहन हो रहा है, उसके बीच आत्मा अगर बहुत सकुचाई हुई महसूस करेगी, तो उसकी खुली हुई आवाज को कोई कैसे सुन सकेगा? जापान से लेकर हैती तक प्रकृति रोष में है। क्या यह हमारे भीतर की सकुचाई हुई आत्मा की नाराजगी नहीं है? हम जितनी बार चीजों को नजरअंदाज करते हैं, उतनी बार अपनी आत्मा को संकुचन की एक संकरी गली में धकिया रहे होते हैं।

धर्मग्रंथ कहते हैं कि जब धरती पर पाप बढ़ जाता है, तो भयंकर प्रलय होती है। बड़ी प्रलय पानी से जुड़ी हुई है। पानी के बेशुमार बढ़ जाने या बेशुमार घट जाने से आई हुई प्रलय। तो क्या प्रलय का वक्त वह होता है, जब हमारी आत्मा नष्ट हो जाती है? वह सकुचाकर भीतर ही भीतर सूख जाती है?

बाइबल में एक जगह जीसस ने मनुष्यों को इस धरती का नमक कहा है। मुरझाए हुए पानियों से कैसा नमक बनेगा? जैसे इंसान हम बन रहे हैं। कैसे बन रहे हैं, इसका उदाहरण देने की जरूरत नहीं। और ऐसा भी नहीं है कि हम एक बेहद अंधेरे निराश समय में रह रहे हैं। जो मछलियां कम पानी में ही रहती आई हैं, उन्हें कभी समंदर की मछलियों से शिकायत नहीं होती। लेकिन समंदर की मछलियां अगर कम पानी में आ जाएं, तो उन्हें इसका अहसास हो जाता है। मनुष्यता ने दोनों दौर देखे हैं। बेइंतहा खुशी और बेतहाशा निराशाओं के दौर। ज्यादा पानी की मछलियों के लिए यह कम पानी का दौर हो सकता है।

ऐसे कई लोग होंगे, जिन्हें इस युग और इसके चारित्रिक मानचित्र से कोई शिकायत न होगी, उन्हें सबकुछ सहज और अच्छा लग रहा होगा, लेकिन यह कम पानी के मछलियों की मन:स्थिति है। अगर आपने दुनिया को आज के मुकाबले पहले और सुंदर पाया है, तो आप जान जाएंगे कि ज्यादा पानी की मछली कम पानी में पहुंच गई है। ऐसे में पानी बढ़ाना ही सबसे बड़ी चुनौती है। पानी आत्मा है। यानी आत्मा के संकुचन को समाप्त कर वह स्थिति बनाना, जिसमें वह खुलकर अपनी ही आवाज में बोल सके।

(यह लेख कवि प्रेम शंकर शुक्ल के लिए, जिनकी पानी पर लिखी कवितायेँ ज़ेहन में तैरती रहती हैं.
दैनिक भास्कर से.)

Tuesday, March 1, 2011

उसका एक दिन






डिंपा की मां सिर्फ़ छह महीने नौकरी कर पाई। छोड़कर घर बैठना पड़ा। अस्पताल में बताने तक नहीं जा पाई कि क्या हो गया है और क्यों उसे नौकरी छोडऩी पड़ रही है।

लंबे समय के बाद उसके जीवन में ऐसी दोपहर आई थी। जब से वह जॉब करने लगी थी, उसकी दोपहर घर में नहीं होती थी। अस्पताल में ड्यूटी पालियों में होती थी, लेकिन उसे एक घंटे ट्रेन का सफर करना होता है और घर में छोटा बच्चा है, यह कहकर उसने मोहलत ले ली थी कि वह सिर्फ दिन में ही काम कर पाएगी। संडे घर में रहती थी। डिंपा के बाप से ज़्यादातर शाम या सुबह ही मुलाकात हो पाती थी। बहुत दिनों से वह कुछ नहीं बोल रहा था, पर एक दिन डिंपा के बाप ने सुबह उसे लोकल नहीं पकडऩे दी। 

वे ऐसे दिन थे, जब डिंपा की मां कहीं से काली नहीं थी। उसका साहिब घंटों उससे बात करता और उसका रंग नीला हो जाता। छुअन के कुछ लम्हों में वह आईने में देखती, तो गुलाबी टपक रही होती। निश्चित ही वे सफेद दिन थे, जब हर वजूद पर बर्फ पड़ी हुई थी। उससे फैल रही हल्की ठंड थी। धूप थोड़ी देर से आई थी। वह बरामदे में गीले कपड़े डाल रही थी। चिडिय़ां खूब बोल रही थीं। वह डिंपा को बुलाकर चिडिय़ों को शोर करता दिखा रही थी। कभी एक चिडिय़ा उड़कर कुर्सी के पास आ जाती, तो अचानक कई सारी चिडिय़ां उड़कर ऊपर की ओर जातीं। डिंपा उन्हें देख चिल्ला रहा था- चिऊताई... चिऊताई... ये माझ्या घरात... चिऊताई... चिऊताई... ये तुला मी तांदूळ देईन.... 

तभी धड़धड़ाता हुआ डेविड आया। आते ही सनक गया।
'तू दिन में खाना कहां खाती है?'
'अस्पताल में। डब्बा लेकर जाती हूं न मैं।'
'अस्पताल में किसके साथ?'
'अरे, स्टाफ रहता है साथ में। कैंटीन है।'
'नहीं, कस्बेकर के साथ खाती है तू।'
'वो तो एक ही दिन खाया था। उसका डब्बा नहीं आया था घर से, इसलिए मैंने पूछ लिया कि खाओगे क्या? बोला हां, तो उधर ही बैठकर खा लिया।'
'एक ही दिन? रोज़ खाती है तू उसके साथ। तेर्को क्या लगता है, मेर्को कुछ भी मालूम नहीं पड़ेगा क्या?'

और उसके बाद दोनों में फिर हो गई। ऐसे माहौल में संवादों का कोई महत्व नहीं होता। किसी भी भाषा में कहे जाएं, सबका असर एक-सा पड़ता दिखता है। दोनों की ज़ुबान लाल मिर्च की नोंक जैसी हो गईं। उस दिन जो लड़ाई हुई कि बाप रे बाप! अक्खी कॉलोनी सहम गई। उनके घर की दीवारें उड़ गईं। दरवाज़े टूटकर बिखर गए। दीवार पर लगा पलस्तर पपडिय़ों में तब्दील होकर फर्श पर झरने लगा। पहले चूना फैला, फिर मिट्टी और उसके बाद बहुत तेज़ हवा आई, जिसमें पहले उनकी छत उड़ी, फिर फर्श पर पड़ी मिट्टी और उसके बाद पूरी फर्श ही उड़ गई। वह ज़मीन इतनी बेतरतीब और नालायक़ लग रही थी कि वहां अरसे से कुछ रहा ही न हो। लादियों पर बने गुलाबी फूल सूख गए। एक-एक पंखुड़ी बहकर पूरी कॉलोनी में फैल गई। खिड़कियों के पल्ले पहले ज़ोर-से टकराए, फिर ऐसे लड़े जैसे किसी ने पीछे से गरदन पकड़ उन्हें भिड़ा दिया हो। फिर अचानक खिड़की उछलकर दूर जा गिरी। दरवाज़े खौफ में दीवारों और चौखटों का साथ छोड़ भागे। चार-आठ दीवारों के पीछे जो कुछ बंद था, दीवारों के हट जाने के कारण एक अजीब-सी नंगई में आ गया। 

जैसे पानी के फव्वारे उछलते हैं और आसमान को छूने की जि़द करते हैं, गालियां निकल रही थीं और आसमान की ओर बड़े फूहड़ तरीके से दौड़ रही थीं। हर गाली, पिछली से आगे निकलने की होड़ में थी। 

एक बार फिर डिंपा की मां पस्त होकर ज़मीन पर पड़ी थी। डेविड के हाथ में कैंची थी। वह उसे डिंपा की मां की आंख में भोंक देना चाहता था। उसके पेट में डाल देना चाहता था। उससे उसके शरीर के खास अंगों को चीर कर दो फांक कर देना चाहता था। डिंपा की मां बार-बार बच रही थी। डेविड ने उसके कमर तक लहराते बालों के बीच कैंची खुभो दी और झटके से बाहर खींची। एक बड़ा-सा गुच्छा ज़मीन पर बिखर गया। डेविड की कैंची चलती रही। ज़मीन बालों से पट गई। डिंपा की मां के बाल कट गए। इतने छोटे कि वह खुद भी आईने में अपना चेहरा देखे, तो न पहचान पाए। कहीं से छोटे, कहीं से बड़े। कहीं सिर की चमड़ी झलकती, तो कहीं कानों तक लटकती लट झूल रही होती। जैसे तूफान के बाद दांतों में धूल का आभास होता है, आंखों में किरकिर कुछ बजता रहता है, कानों की लौ मिट्टी में सराबोर होती है, और उंगलियां आपस में रगड़ो, तो कणों की खरखराहट रूह को खरोंच जाती है, वैसे ही डिंपा की मां के पूरे शरीर में होने लगा। उसे लगा, वह बाल-झड़े खजुआ कुत्ते की तरह हो गई है, जिसके शरीर के बचे-खुचे बाल दूसरे कुत्तों के साथ लड़ाई के कारण जगह-जगह से नुंच गए हैं। उसके पीछे से ज़ख्म झांक रहे हैं और उन पर मक्खियों ने बुरी तरह हमला कर दिया है। उसके शरीर में इतनी भी ताकत नहीं बची कि पूंछ हिलाकर मक्खियों को भगा सके।

उस घर में दीवारें नहीं बची थीं। दरवाज़े, खिड़कियां नहीं बचे थे। छत और फर्श भी नहीं थीं। सोफे, पलंग, मटके, टेबल, गिलास और थाली की आड़ में ही जाना था। डिंपा की मां उठ नहीं पा रही थी। उसने महसूस किया, उसका पेटीकोट गीला हो चुका था। गीलेपन ने उसके दर्द को और बढ़ा दिया। उसे लगा, न केवल दीवार-दरवाज़े, बल्कि शरीर का हर कपड़ा उड़कर दूर जा गिरा है। पूरी कॉलोनी उसी को घूरे जा रही है। वह अपने कटे हुए बालों की आड़ लेकर छुपने की कोशिश करने लगी। वह घुटने दबाकर अपना जिस्म मोड़ रही थी, जैसे गोलकर सिर और घुटने के बीच सरका देगी। उसका पूरा शरीर कांप रहा था। बचपन में उसने एक मरती हुई गौरैया पर मग्गे से पानी डाल दिया था। वह ऐसे ही कांप रही थी उस वक्त। गौरैया की आंख से चींटियों की पूरी कतार बाहर निकल रही थी। हमारी आंखों में भी चींटियां रहती हैं। जब हम गीले होकर मर जाते हैं, तो चींटियां हमारी आंखों से निकल कर चली जाती हैं, किन्हीं और आंखों की तलाश में। डिंपा की मां की आंखों में खुजली होने लगी। उसे ज़मीन पर कतार बांधकर चलती चींटियां साफ दिख रही थीं।

डेविड की कैंची दूर छिटकी पड़ी थी। वह आसपास कहीं नहीं था। डिंपा की मां के नथुनों में उसकी बदबू बसी हुई थी। दरवाज़े पर जहां तोरण टंगे हुए थे, वे वहां नहीं थे। वहां गालियां किसी धागे में गूंथकर टंगी हुई थीं। डेविड ने सिलबट्टे के बीच रखकर डिंपा की मां को पीस दिया था। उससे जो रस निकला था, उसकी अल्पना बनाकर उसने द्वार की सजावट की थी। जो रस बच गया था, उसे कॉलोनी की तरह उलीच दिया था। 

पीछे दूसरे कमरे के दरवाज़े के पास खड़ा डिंपा रो रहा था। वह बुरी तरह डरा हुआ था। वह किसी श्मशान में पड़ी थी। आसपास दुखी पिशाचिनियों की सिसकियां थीं बस, जो कानों तक आने से पहले मद्धम हो जाती थीं। 

(कहानी साहिब है रंगरेज़ से)