वाराणसी, राम कुमार. |
'मेघदूतम' में कालिदास, उज्जैन को स्वर्ग से टूटकर गिरा एक टुकड़ा कहते हैं. जब मेघदूत इस शहर की छत से गुज़रता है, तो बस, इसे निहारता रहता है, इसकी और इसके लोगों की तारीफ़ में कई पन्ने लिखे हैं उन्होंने. यक्ष अपनी स्त्री के प्रेम में है, विछोह में है, उसी तरह जल से भरे उस मेघ को अगर पूरे काव्य में किसी से प्रेम हुआ जान पड़ता है, तो उज्जैन से ही हुआ होगा. वह इतनी प्रेमिल आंखों से इस शहर को निहारता है.
कई बार मैं सोचता हूं कि जब मेघ, अलकापुरी पहुंच गया होगा, तो उसके बाद वह ख़ुद एक विचित्र कि़स्म के बिछोह से पीडि़त हुआ होगा-- उज्जैन का बिछोह. वह किसे दूत बनाएगा ? उज्जैन जैसे शहर, क्या अघोषित और अन-अभिव्यक्त प्रेम को अभिशप्त हैं ? महाकाल उज्जैन में रहते हैं, लेकिन बसेरा उनका कैलाश है, नगरी उनकी काशी है. अशोक अपने जीवन के महत्तम पाठ उज्जैन में पढ़ते हैं, लेकिन उनका अस्तित्व मगध में रहता है, राजगृह में टहलता है, कलिंग में वह शेखर हैं. महेंद्र और संघमित्रा, विदिशा चले गए हैं, श्रीलंका के खाते में हैं. वर:मिहिर का नाम ख़ुद उज्जैन हिचक से लेता है कि उन्हें शहर से नहीं, आसमान से प्रेम था. और वह बार-बार बग़दाद भाग जाना चाहते थे.
क्या अतुल्य भव्यता भी आपको द्वितीयक बनने को प्रशस्त करती है ? ऐसा होता है. सारी भव्यताएं एक दिन नेपथ्य में चली जाती हैं.
बहुत कम शहर ऐसे बचे हैं, जो एक साथ दो युगों में जीते हैं. पुराने मिथकीय शहर नष्ट हो चुके हैं. ट्रॉय कहीं नहीं है, कुन्स्तुनतूनिया अब अत्याधुनिक इस्ताम्बुल है, रोम अपने शव का म्यूकस है. पटना, नालंदा, कश्मीर अपने भव्य अतीत के वर्तमान चुटकुले या दर्द हैं. उज्जैन इसलिए भी विरल है कि वह अब भी एक अवधारणात्मक इतिहास की धूल में जि़ंदा है. कई सारे नगरों के साथ ऐसा नहीं हो पाता.
विक्रमोर्वशीयम में कालिदास ने कथा की पृष्ठभूमि प्रतिष्ठानपुर को बनाया है. विद्वानों में एकराय नहीं कि यह प्रतिष्ठानपुर है कौन-सी जगह? उन्होंने जैसा वर्णन किया है, उसके आधार पर कुछ लोग उसे प्रयाग पास स्थित एक छोटा-सा क़स्बा झूंसी मानते हैं. महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों में झूंसी कई बार आता है. लगभग चार बड़े राजवंशों के दौरान महत्वपूर्ण स्थान रहे प्रतिष्ठान के नाश की कथा भी कम दिलचस्प नहीं है. चौदहवीं सदी में यहां हड़बोंग नामक राजा का राज था. कहते हैं, अन्यायी था. एक बार एक पीर उसके राज्य में आए और राजा उनका यथोचित सम्मान न कर पाया, उल्टे अपमान कर बैठा. तब पीर ने क्रुद्ध होकर आसमान में चमकने वाले मिरिख सितारे को हुक्म दिया कि वह इस नगर पर वज्र की तरह गिरे. ग़लती राजा की थी, दंड पूरे नगर को मिला. नगर झुलस गया. बर्बाद हो गया. झुलसने के कारण उसका नाम झूंसी पड़ा.
अगर ऐसी कहानियों में सत्यता हो, तो सबसे बड़ी बात निकलकर आती है कि एक राजा की ग़लती के कारण सिर्फ़ नगर और उसके नागरिकों को ही दंड नहीं मिलता, बल्कि पूरा इतिहास दंडित हो जाता है. क्योंकि कोई भी नगर कभी भी सिर्फ़ वर्तमान नहीं होता. इस कथा में वह पीर शायद अतीत का प्रतीक है. जिन नगरों और राजाओं को अतीत का सम्मान करना नहीं आता, उन पर मिरिख, वज्र बनकर टूटता है. झूंसी को भी नहीं पता कि उसका झुलसना समय के एक विशाल वृक्ष का झुलसकर लुप्त हो जाना है.
शहरों से प्रेम अपने अस्तित्व से प्रेम की तरह है. बहुत सारे लोग बदन पर कपड़ों की जगह शहर ओढ़कर चलते हैं. वे भाषा नहीं बोलते, शहर बोलते हैं. तभी किसी को देखते ही आप पहचान जाते हैं कि यह बठिंडा का है. और किसी की बोली सुनते ही आप कह देते हैं कि यह भोपाली है. यह ऐसा समय है, जिसमें सबसे ज़्यादा क्राइसिस आइडेंटिटी की है. कुछ लोग अपनी आइडेंटिटी को खो चुके हैं. कुछ के पास है, लेकिन वे उस आइडेंटिटी से दूर भागते हैं. और कुछ अपनी आइडेंटिटी को त्यागकर दूसरी आइडेंटिटी ग्रहण कर लेना चाहते हैं. जैसे एक क़स्बाई, लगातार चाहता है कि उसकी आइडेंटिटी मुंबई-दिल्ली के साथ जुड़ जाए. जैसे मुंबई-दिल्ली में कई लोग लगातार चाहते हैं कि उनकी आइडेंटिटी न्यूयॉर्क-लंदन से जुड़ जाए.
इस तरह का संघर्ष अपने इतिहास के साथ संघर्ष है. यह अपने शरीर से अपनी परछाईं को हटा देने का संघर्ष है.
(27 अप्रैल को दैनिक भास्कर में प्रकाशित.)