भारतीय दर्शन मानता है कि मनुष्य का शरीर पांच तत्वों से बना है- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। लेकिन आत्मा किस तत्व से बनी है, इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलता। आत्मा को जीव और परम के बीच की कड़ी माना गया है। इस लिहाज से यह खुद एक तत्व है, लेकिन देह को बनाने वाले पांच तत्वों में से आत्मा का स्वभाव किसी से सबसे ज्यादा मिलता-जुलता है, तो वह पानी है। पानी के भीतर हवा है, अग्नि है, भू है, और उसमें झांककर देखें, तो आसमान भी है। आसमान अनंत है, पानी के भीतर भी अनंत का गुण है। आत्मा भी अनंत का पर्याय है। पानी की तरह आत्मा भी तरलता के रियाज़ में रहती है। जीवन में जब कभी आत्मा की सक्रिय उपस्थिति का अहसास होता है, वे ज्यादातर पानीदार क्षण होते हैं। जब जीवन रेगिस्तान की तरह सूखा होता है, तब भी उसके कणों में पानी के अनेक संस्मरण होते हैं।
जीवविज्ञान कहता है कि देह के भीतर सत्तर फीसदी पानी है। अध्यात्म बताता है कि देह के भीतर आत्मा रहती है। पानी अपने साधारण स्वभाव में तरल, शीतल और प्यास को बुझाने वाला होता है। आत्मा अपनी जागृतावस्था में हमें तरल बनाती है, मासूमियत का उत्पादन हमारी आत्मा के भीतर से ही होता है, जैसे पानी वनस्पतियों को विकास के ज़रूरी तत्व देता है। जीवन के जिन क्षणों में हम चेतन होते हैं, कामकाजी दिमाग को परे कर आत्मा की आवाज़ सुनते हैं, उन क्षणों में लिए गए फैसले हमें पानी की तरह शीतल क्यों लगते हैं?
पूरी दुनिया पानी के संकट से जूझ रही है। आने वाले बरसों में यह संकट बढ़ता ही जाएगा। पानी आत्मा है। तो क्या यह संकट हमारी आत्माओं का भी संकट है? क्या जल-संकट का यह युग 'आत्मा के संकट' का भी युग है? जमीन पर पानी कम हो रहा है, तो क्या देह के भीतर आत्मा भी संकुचित हो रही है? चारों तरफ जो भी कुछ चल रहा है, इस सिरे से लेकर उस सिरे तक धरती, मनुष्यता और आत्मा का जो भावनात्मक दोहन हो रहा है, उसके बीच आत्मा अगर बहुत सकुचाई हुई महसूस करेगी, तो उसकी खुली हुई आवाज को कोई कैसे सुन सकेगा? जापान से लेकर हैती तक प्रकृति रोष में है। क्या यह हमारे भीतर की सकुचाई हुई आत्मा की नाराजगी नहीं है? हम जितनी बार चीजों को नजरअंदाज करते हैं, उतनी बार अपनी आत्मा को संकुचन की एक संकरी गली में धकिया रहे होते हैं।
धर्मग्रंथ कहते हैं कि जब धरती पर पाप बढ़ जाता है, तो भयंकर प्रलय होती है। बड़ी प्रलय पानी से जुड़ी हुई है। पानी के बेशुमार बढ़ जाने या बेशुमार घट जाने से आई हुई प्रलय। तो क्या प्रलय का वक्त वह होता है, जब हमारी आत्मा नष्ट हो जाती है? वह सकुचाकर भीतर ही भीतर सूख जाती है?
बाइबल में एक जगह जीसस ने मनुष्यों को इस धरती का नमक कहा है। मुरझाए हुए पानियों से कैसा नमक बनेगा? जैसे इंसान हम बन रहे हैं। कैसे बन रहे हैं, इसका उदाहरण देने की जरूरत नहीं। और ऐसा भी नहीं है कि हम एक बेहद अंधेरे निराश समय में रह रहे हैं। जो मछलियां कम पानी में ही रहती आई हैं, उन्हें कभी समंदर की मछलियों से शिकायत नहीं होती। लेकिन समंदर की मछलियां अगर कम पानी में आ जाएं, तो उन्हें इसका अहसास हो जाता है। मनुष्यता ने दोनों दौर देखे हैं। बेइंतहा खुशी और बेतहाशा निराशाओं के दौर। ज्यादा पानी की मछलियों के लिए यह कम पानी का दौर हो सकता है।
ऐसे कई लोग होंगे, जिन्हें इस युग और इसके चारित्रिक मानचित्र से कोई शिकायत न होगी, उन्हें सबकुछ सहज और अच्छा लग रहा होगा, लेकिन यह कम पानी के मछलियों की मन:स्थिति है। अगर आपने दुनिया को आज के मुकाबले पहले और सुंदर पाया है, तो आप जान जाएंगे कि ज्यादा पानी की मछली कम पानी में पहुंच गई है। ऐसे में पानी बढ़ाना ही सबसे बड़ी चुनौती है। पानी आत्मा है। यानी आत्मा के संकुचन को समाप्त कर वह स्थिति बनाना, जिसमें वह खुलकर अपनी ही आवाज में बोल सके।
(यह लेख कवि प्रेम शंकर शुक्ल के लिए, जिनकी पानी पर लिखी कवितायेँ ज़ेहन में तैरती रहती हैं.
दैनिक भास्कर से.)