Friday, March 18, 2011

पानी की आत्मा





भारतीय दर्शन मानता है कि मनुष्य का शरीर पांच तत्वों से बना है- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। लेकिन आत्मा किस तत्व से बनी है, इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलता। आत्मा को जीव और परम के बीच की कड़ी माना गया है। इस लिहाज से यह खुद एक तत्व है, लेकिन देह को बनाने वाले पांच तत्वों में से आत्मा का स्वभाव किसी से सबसे ज्यादा मिलता-जुलता है, तो वह पानी है। पानी के भीतर हवा है, अग्नि है, भू है, और उसमें झांककर देखें, तो आसमान भी है। आसमान अनंत है, पानी के भीतर भी अनंत का गुण है। आत्मा भी अनंत का पर्याय है। पानी की तरह आत्मा भी तरलता के रियाज़ में रहती है। जीवन में जब कभी आत्मा की सक्रिय उपस्थिति का अहसास होता है, वे ज्यादातर पानीदार क्षण होते हैं। जब जीवन रेगिस्तान की तरह सूखा होता है, तब भी उसके कणों में पानी के अनेक संस्मरण होते हैं।

जीवविज्ञान कहता है कि देह के भीतर सत्तर फीसदी पानी है। अध्यात्म बताता है कि देह के भीतर आत्मा रहती है। पानी अपने साधारण स्वभाव में तरल, शीतल और प्यास को बुझाने वाला होता है। आत्मा अपनी जागृतावस्था में हमें तरल बनाती है, मासूमियत का उत्पादन हमारी आत्मा के भीतर से ही होता है, जैसे पानी वनस्पतियों को विकास के ज़रूरी तत्व देता है। जीवन के जिन क्षणों में हम चेतन होते हैं, कामकाजी दिमाग को परे कर आत्मा की आवाज़ सुनते हैं, उन क्षणों में लिए गए फैसले हमें पानी की तरह शीतल क्यों लगते हैं?

पूरी दुनिया पानी के संकट से जूझ रही है। आने वाले बरसों में यह संकट बढ़ता ही जाएगा। पानी आत्मा है। तो क्या यह संकट हमारी आत्माओं का भी संकट है? क्या जल-संकट का यह युग 'आत्मा के संकट' का भी युग है? जमीन पर पानी कम हो रहा है, तो क्या देह के भीतर आत्मा भी संकुचित हो रही है? चारों तरफ जो भी कुछ चल रहा है, इस सिरे से लेकर उस सिरे तक धरती, मनुष्यता और आत्मा का जो भावनात्मक दोहन हो रहा है, उसके बीच आत्मा अगर बहुत सकुचाई हुई महसूस करेगी, तो उसकी खुली हुई आवाज को कोई कैसे सुन सकेगा? जापान से लेकर हैती तक प्रकृति रोष में है। क्या यह हमारे भीतर की सकुचाई हुई आत्मा की नाराजगी नहीं है? हम जितनी बार चीजों को नजरअंदाज करते हैं, उतनी बार अपनी आत्मा को संकुचन की एक संकरी गली में धकिया रहे होते हैं।

धर्मग्रंथ कहते हैं कि जब धरती पर पाप बढ़ जाता है, तो भयंकर प्रलय होती है। बड़ी प्रलय पानी से जुड़ी हुई है। पानी के बेशुमार बढ़ जाने या बेशुमार घट जाने से आई हुई प्रलय। तो क्या प्रलय का वक्त वह होता है, जब हमारी आत्मा नष्ट हो जाती है? वह सकुचाकर भीतर ही भीतर सूख जाती है?

बाइबल में एक जगह जीसस ने मनुष्यों को इस धरती का नमक कहा है। मुरझाए हुए पानियों से कैसा नमक बनेगा? जैसे इंसान हम बन रहे हैं। कैसे बन रहे हैं, इसका उदाहरण देने की जरूरत नहीं। और ऐसा भी नहीं है कि हम एक बेहद अंधेरे निराश समय में रह रहे हैं। जो मछलियां कम पानी में ही रहती आई हैं, उन्हें कभी समंदर की मछलियों से शिकायत नहीं होती। लेकिन समंदर की मछलियां अगर कम पानी में आ जाएं, तो उन्हें इसका अहसास हो जाता है। मनुष्यता ने दोनों दौर देखे हैं। बेइंतहा खुशी और बेतहाशा निराशाओं के दौर। ज्यादा पानी की मछलियों के लिए यह कम पानी का दौर हो सकता है।

ऐसे कई लोग होंगे, जिन्हें इस युग और इसके चारित्रिक मानचित्र से कोई शिकायत न होगी, उन्हें सबकुछ सहज और अच्छा लग रहा होगा, लेकिन यह कम पानी के मछलियों की मन:स्थिति है। अगर आपने दुनिया को आज के मुकाबले पहले और सुंदर पाया है, तो आप जान जाएंगे कि ज्यादा पानी की मछली कम पानी में पहुंच गई है। ऐसे में पानी बढ़ाना ही सबसे बड़ी चुनौती है। पानी आत्मा है। यानी आत्मा के संकुचन को समाप्त कर वह स्थिति बनाना, जिसमें वह खुलकर अपनी ही आवाज में बोल सके।

(यह लेख कवि प्रेम शंकर शुक्ल के लिए, जिनकी पानी पर लिखी कवितायेँ ज़ेहन में तैरती रहती हैं.
दैनिक भास्कर से.)

Tuesday, March 1, 2011

उसका एक दिन






डिंपा की मां सिर्फ़ छह महीने नौकरी कर पाई। छोड़कर घर बैठना पड़ा। अस्पताल में बताने तक नहीं जा पाई कि क्या हो गया है और क्यों उसे नौकरी छोडऩी पड़ रही है।

लंबे समय के बाद उसके जीवन में ऐसी दोपहर आई थी। जब से वह जॉब करने लगी थी, उसकी दोपहर घर में नहीं होती थी। अस्पताल में ड्यूटी पालियों में होती थी, लेकिन उसे एक घंटे ट्रेन का सफर करना होता है और घर में छोटा बच्चा है, यह कहकर उसने मोहलत ले ली थी कि वह सिर्फ दिन में ही काम कर पाएगी। संडे घर में रहती थी। डिंपा के बाप से ज़्यादातर शाम या सुबह ही मुलाकात हो पाती थी। बहुत दिनों से वह कुछ नहीं बोल रहा था, पर एक दिन डिंपा के बाप ने सुबह उसे लोकल नहीं पकडऩे दी। 

वे ऐसे दिन थे, जब डिंपा की मां कहीं से काली नहीं थी। उसका साहिब घंटों उससे बात करता और उसका रंग नीला हो जाता। छुअन के कुछ लम्हों में वह आईने में देखती, तो गुलाबी टपक रही होती। निश्चित ही वे सफेद दिन थे, जब हर वजूद पर बर्फ पड़ी हुई थी। उससे फैल रही हल्की ठंड थी। धूप थोड़ी देर से आई थी। वह बरामदे में गीले कपड़े डाल रही थी। चिडिय़ां खूब बोल रही थीं। वह डिंपा को बुलाकर चिडिय़ों को शोर करता दिखा रही थी। कभी एक चिडिय़ा उड़कर कुर्सी के पास आ जाती, तो अचानक कई सारी चिडिय़ां उड़कर ऊपर की ओर जातीं। डिंपा उन्हें देख चिल्ला रहा था- चिऊताई... चिऊताई... ये माझ्या घरात... चिऊताई... चिऊताई... ये तुला मी तांदूळ देईन.... 

तभी धड़धड़ाता हुआ डेविड आया। आते ही सनक गया।
'तू दिन में खाना कहां खाती है?'
'अस्पताल में। डब्बा लेकर जाती हूं न मैं।'
'अस्पताल में किसके साथ?'
'अरे, स्टाफ रहता है साथ में। कैंटीन है।'
'नहीं, कस्बेकर के साथ खाती है तू।'
'वो तो एक ही दिन खाया था। उसका डब्बा नहीं आया था घर से, इसलिए मैंने पूछ लिया कि खाओगे क्या? बोला हां, तो उधर ही बैठकर खा लिया।'
'एक ही दिन? रोज़ खाती है तू उसके साथ। तेर्को क्या लगता है, मेर्को कुछ भी मालूम नहीं पड़ेगा क्या?'

और उसके बाद दोनों में फिर हो गई। ऐसे माहौल में संवादों का कोई महत्व नहीं होता। किसी भी भाषा में कहे जाएं, सबका असर एक-सा पड़ता दिखता है। दोनों की ज़ुबान लाल मिर्च की नोंक जैसी हो गईं। उस दिन जो लड़ाई हुई कि बाप रे बाप! अक्खी कॉलोनी सहम गई। उनके घर की दीवारें उड़ गईं। दरवाज़े टूटकर बिखर गए। दीवार पर लगा पलस्तर पपडिय़ों में तब्दील होकर फर्श पर झरने लगा। पहले चूना फैला, फिर मिट्टी और उसके बाद बहुत तेज़ हवा आई, जिसमें पहले उनकी छत उड़ी, फिर फर्श पर पड़ी मिट्टी और उसके बाद पूरी फर्श ही उड़ गई। वह ज़मीन इतनी बेतरतीब और नालायक़ लग रही थी कि वहां अरसे से कुछ रहा ही न हो। लादियों पर बने गुलाबी फूल सूख गए। एक-एक पंखुड़ी बहकर पूरी कॉलोनी में फैल गई। खिड़कियों के पल्ले पहले ज़ोर-से टकराए, फिर ऐसे लड़े जैसे किसी ने पीछे से गरदन पकड़ उन्हें भिड़ा दिया हो। फिर अचानक खिड़की उछलकर दूर जा गिरी। दरवाज़े खौफ में दीवारों और चौखटों का साथ छोड़ भागे। चार-आठ दीवारों के पीछे जो कुछ बंद था, दीवारों के हट जाने के कारण एक अजीब-सी नंगई में आ गया। 

जैसे पानी के फव्वारे उछलते हैं और आसमान को छूने की जि़द करते हैं, गालियां निकल रही थीं और आसमान की ओर बड़े फूहड़ तरीके से दौड़ रही थीं। हर गाली, पिछली से आगे निकलने की होड़ में थी। 

एक बार फिर डिंपा की मां पस्त होकर ज़मीन पर पड़ी थी। डेविड के हाथ में कैंची थी। वह उसे डिंपा की मां की आंख में भोंक देना चाहता था। उसके पेट में डाल देना चाहता था। उससे उसके शरीर के खास अंगों को चीर कर दो फांक कर देना चाहता था। डिंपा की मां बार-बार बच रही थी। डेविड ने उसके कमर तक लहराते बालों के बीच कैंची खुभो दी और झटके से बाहर खींची। एक बड़ा-सा गुच्छा ज़मीन पर बिखर गया। डेविड की कैंची चलती रही। ज़मीन बालों से पट गई। डिंपा की मां के बाल कट गए। इतने छोटे कि वह खुद भी आईने में अपना चेहरा देखे, तो न पहचान पाए। कहीं से छोटे, कहीं से बड़े। कहीं सिर की चमड़ी झलकती, तो कहीं कानों तक लटकती लट झूल रही होती। जैसे तूफान के बाद दांतों में धूल का आभास होता है, आंखों में किरकिर कुछ बजता रहता है, कानों की लौ मिट्टी में सराबोर होती है, और उंगलियां आपस में रगड़ो, तो कणों की खरखराहट रूह को खरोंच जाती है, वैसे ही डिंपा की मां के पूरे शरीर में होने लगा। उसे लगा, वह बाल-झड़े खजुआ कुत्ते की तरह हो गई है, जिसके शरीर के बचे-खुचे बाल दूसरे कुत्तों के साथ लड़ाई के कारण जगह-जगह से नुंच गए हैं। उसके पीछे से ज़ख्म झांक रहे हैं और उन पर मक्खियों ने बुरी तरह हमला कर दिया है। उसके शरीर में इतनी भी ताकत नहीं बची कि पूंछ हिलाकर मक्खियों को भगा सके।

उस घर में दीवारें नहीं बची थीं। दरवाज़े, खिड़कियां नहीं बचे थे। छत और फर्श भी नहीं थीं। सोफे, पलंग, मटके, टेबल, गिलास और थाली की आड़ में ही जाना था। डिंपा की मां उठ नहीं पा रही थी। उसने महसूस किया, उसका पेटीकोट गीला हो चुका था। गीलेपन ने उसके दर्द को और बढ़ा दिया। उसे लगा, न केवल दीवार-दरवाज़े, बल्कि शरीर का हर कपड़ा उड़कर दूर जा गिरा है। पूरी कॉलोनी उसी को घूरे जा रही है। वह अपने कटे हुए बालों की आड़ लेकर छुपने की कोशिश करने लगी। वह घुटने दबाकर अपना जिस्म मोड़ रही थी, जैसे गोलकर सिर और घुटने के बीच सरका देगी। उसका पूरा शरीर कांप रहा था। बचपन में उसने एक मरती हुई गौरैया पर मग्गे से पानी डाल दिया था। वह ऐसे ही कांप रही थी उस वक्त। गौरैया की आंख से चींटियों की पूरी कतार बाहर निकल रही थी। हमारी आंखों में भी चींटियां रहती हैं। जब हम गीले होकर मर जाते हैं, तो चींटियां हमारी आंखों से निकल कर चली जाती हैं, किन्हीं और आंखों की तलाश में। डिंपा की मां की आंखों में खुजली होने लगी। उसे ज़मीन पर कतार बांधकर चलती चींटियां साफ दिख रही थीं।

डेविड की कैंची दूर छिटकी पड़ी थी। वह आसपास कहीं नहीं था। डिंपा की मां के नथुनों में उसकी बदबू बसी हुई थी। दरवाज़े पर जहां तोरण टंगे हुए थे, वे वहां नहीं थे। वहां गालियां किसी धागे में गूंथकर टंगी हुई थीं। डेविड ने सिलबट्टे के बीच रखकर डिंपा की मां को पीस दिया था। उससे जो रस निकला था, उसकी अल्पना बनाकर उसने द्वार की सजावट की थी। जो रस बच गया था, उसे कॉलोनी की तरह उलीच दिया था। 

पीछे दूसरे कमरे के दरवाज़े के पास खड़ा डिंपा रो रहा था। वह बुरी तरह डरा हुआ था। वह किसी श्मशान में पड़ी थी। आसपास दुखी पिशाचिनियों की सिसकियां थीं बस, जो कानों तक आने से पहले मद्धम हो जाती थीं। 

(कहानी साहिब है रंगरेज़ से)