Thursday, April 1, 2010

अलसाहट के बीच दस साल पुरानी तस्‍वीर

'मेरे मन टूट एक बार सही तरह, अच्‍छी तरह टूट मत झूठमूठ ऊब मत रूठ, मत डूब सिर्फ़ टूट'

रघुवीर कह गए थे. मन टूटा हुआ है, जबकि चाह थी कि ये दिन टूटें. इन दिनों को घुटने पर रखकर ऐसा झटका मारा जाए कि टूटकर दो टुकड़े हो जाएं. दिन नहीं टूट रहे. घुटना टूट रहा है. मन मेल्‍या पहले से टूटा हुआ है. या तो करने-कहने को कुछ बचा ही नहीं है या जो बचा है, उसे कहना-करना नहीं है. कैसी ट्रैजडी ही नीच!

दस साल पुरानी एक तस्‍वीर मिली है, दो दिन से दिल इसे ही घूरे जा रहा है. क्‍या पता, घूरे पर जा रहा है? अप्रैल 2000 है, नासिक का नज़ारा है, पीछे गोदावरी में डुबकियां लग रही हैं और तस्‍वीर के बाहर मन से कहा जा रहा है- मत डूब सिर्फ़ टूट.



Tuesday, February 9, 2010

पुरानी, बहुत पुरानी, मेरी स्मृति से पुरानी नहीं पर



ठीक-ठीक याद नहीं है कि यह तस्वीर किस वर्ष की है, शायद 98 या 99; पर इस मुलाक़ात की यादें हैं. मुंबई में कवि अनूप सेठी का घर है, कुमार वीरेंद्र, संजय भिसे और गुरुदत्त पांडेय की कविताएं हैं, राकेश शर्मा जी की छेड़छाड़ है, रमन‍ मिश्र-शैलेश के ठहाके हैं, अनूप जी की तस्वीरें हैं और आलोचकद्वय शिवकुमार मिश्र-अजय तिवारी के ‘युवा कवियों के लिए मशविरे’ हैं.

यानी यह चित्र है. रुका हुआ- स्टिल. पर निगाह-भर भी देखता हूं, तो चल-चित्र बन जाती है. ऐसे ही झटकों में मैं मुंबई पहुंच जाता हूं.

अब कितनों से कितने बरस हुए, बात न हो पाई.

अनुनाद पर अनूप सेठी जी के कमेंट ने उन्हीं की खींची इस तस्वीर की याद दिला दी, जो उन्होंने 16 अगस्त 2006 को एक मेल में भेजी थी. याद करते हुए. याद दिलाते हुए.

तस्वीर में सबसे बाएं बैठे मित्र का नाम भूल गया, उसके बाद इच्छाशंकर, मैं, गुरुदत्त, राकेश शर्मा, शिवकुमार मिश्र, रमन मिश्र (नीचे), अजय तिवारी, शैलेश सिंह (नीचे), संजय भिसे, ब्रजेश कुमार और कुमार वीरेंद्र (नीचे). क्लिक करके बड़ा कर लें, तो शायद बेहतर साफ़ दिखे.


Tuesday, January 12, 2010

मध्‍य-वर्ग का मर्म-गीत

यह श्री गुरु गोबिंद सिंह हिंदी प्राइमरी स्‍कूल में पढ़ाई जाने वाली राइम्‍स में से है
अम्‍मा-बाबा-दादी टाइप के संबोधनों वाले बूढ़ों के ज़माने के कांपते गीतों में से
किसी की मौज या शग़ल है ताल-बेताल-क़दमताल
ओह, देखो-देखो, अब भी वही सिंदूर तिलकित भाल
या पूरे इतिहास को दिखा दे ताक़त के खेल की ताक़त है
पूरब के मेटा-फि़जि़क्‍स का मोटा फ़ार्मूला है - के एक दिन तय है सबका मरना
मेरा कर्मा... कर्मा... कर्मा... तू... मेरा धर्मा... धर्मा... धर्मा
ऊप्‍स! तीनों में से कोई फ़ुक्‍कट में नहीं मरा, काम करते-करते मरा,
जिनके लिए शहीद जैसा कोई शब्‍द क्‍यों नहीं, ऐसा प्‍लकार्ड लिए अभी गुज़रे थे स्‍वामी वर्ग-चैतन्‍य कीर्ति-आकांक्षी 1008
भुजंग की तरह मैं भी पूछ बैठा - शिवाकाशी का बचपना क्‍यों नहीं जाता...
आईक्‍यू जितना कम होगा, कविता उतनी अच्‍छी होगी; जीवन भी
मैं कहता हूं, जहां रहना है वहां से संन्‍यास ले लीजिए; इसमें डुप्‍लेक्‍स रिहाइश का मज़ा है :-)
नको बाबा
कक्षा 1ली वर्ग अ और वर्ग ब का संघर्ष नहीं, बहुत जटिल है जितना कि विचित्र मेरा वर्ग-मानचित्र है
जो है उसे वैसे ही पेश करना रिवायतों के खि़लाफ़ है
तो जैसे मैं घर की बरमूडा और टी-शर्ट पहने ही दफ़्तर आ गया
उसी तरह इस पेशकश में पेश्‍ट करता हूं
ग़ौर से पढि़ए, यह मेरे मध्‍य-वर्ग का मर्म-गीत है :
राजा मरा लड़ाई में
रानी मरी कड़ाही में
बच्‍चे मरे पढ़ाई में...


(अगस्‍त 2009 में लिखी गई  कविता. इधर, प्रतिलिपि के ताज़ा अंक में चेस्‍वाव मिवोश की एक कविता पर कुछ लिखा है. यहां पढ़ सकते हैं.)