Monday, April 28, 2008

कविता और मन बज़रिए एक छोटी-सी तहलील...

जापानी कवि शुंतारो तानिकावा ने कहीं लिखा है कि अकेले में भी कविता पढ़ते वक़्त मेरे हाथ कांपा करते हैं, तो ज्ञानरंजन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि जब मैं कमरे में बंद होकर कविताओं का ज़ोर-ज़ोर से पाठ करता हूं तो मुझे कहानी लिखने का मन करता है। कविता ऐसा क्या असर करती है कि सुनते-पढ़ते ही रचनात्मकता के बीज अंखुआने लगते हैं. हर किसी के साथ ये अनुभव अलग-अलग हो सकता है. युगोस्लाविया का एक साइकियाट्रिस्ट था. ख़ूब कविताएं लिखता था. कई संग्रह भी थे उसके पास. वह जब कविता पढ़ता था, तो उसका मन किसी की हत्या करने को करता था. कितनी भयानक है यह बात? और वह हत्या करता भी रहा. सीरियल किलर था. काफ़ी समय बाद पकड़ा गया. पहल के एक अंक के लिए जब मैंने तुर्की कवि आकग्यून आकोवा से संपर्क किया था, और उनसे आत्मकथ्य मांगा था, तब उन्होंने इस हत्यारे कवि के बारे में बताया था और उसकी कुछ कविताएं भी पढ़ाई थीं. यह किसी भी कवि और संवेदनशील पाठक को झिंझोड़कर रख देने के लिए काफ़ी है. कविता निर्दोषों की हत्या के लिए उकसाती है, ऐसा पहले कभी नहीं सुना. और पता नहीं किस सनक में उस हत्यारे ने अपनी हत्याओं के लिए कविताओं को जि़म्मेदार ठहराया. इस पर विश्वास भी नहीं होता.

वहीं हार्ट क्रेन की कविताओं को याद कर चार्ली चैपलिन अपने हास्य में करुणा जोड़ा करते थे। ऐसे ही किसी क्षण में उन्होंने कहा था कि- कविता दुनिया के नाम लिखा गया एक प्रेम-पत्र है। ये सारी बातें बेतरतीब हैं, इनमें कोई सिलसिला नहीं. पता नहीं, पढ़ने वालों को कैसी लगें. पर ये कविता पढ़ने से होने वाले अनुभव हैं. हर किसी को होते हैं. हर कोई इनके बारे में सोचता है. मैं भी सोचता हूं. हर कविता अलग-अलग असर छोड़ती है, जैसे ये कविता है, अख़्तरुल ईमान की 'तहलील' यानी अंत: विश्लेषण. इस कविता को पढ़कर मेरा मन करता है भागता जाउं, भागता जाउं, फॉरेस्ट गंप की तरह, बस भागता ही जाउं. कहां, नहीं पता. क्यों, नहीं पता. तय है, आप हंसेंगे. पर मन तो मन है. आपकी हंसी से बदल थोड़े जाएगा. ख़ैर, ये कविता पढि़ए. ईमानदारी से बताइए, आपका मन क्या कहता है. क्या ये सवाल मन में नहीं आता कि ख़ुद को बचाए रखने के लिए भीतर ज़हर पालना ज़रूरी क्यों होता है? हो सकता है, कोई विचार आवे ही नहीं. मैं ही ज़बरन बोले जा रहा होउं?

उर्दू से लिप्यंतर बहुत ही प्यारे शायर फ़ज़ल ताबिश ने किया था -


मेरी मां अब मिट्टी के ढेर के नीचे सोती है
उसके जुमले, उसकी बातों,
जब वह जि़ंदा थी, कितना बरहम (ग़ुस्सा) करती थी
मेरी रोशन तबई (उदारता), उसकी जहालत
हम दोनों के बीच एक दीवार थी जैसे

'रात को ख़ुशबू का झोंका आए, जि़क्र न करना
पीरों की सवारी जाती है'
'दिन में बगूलों की ज़द में मत आना
साये का असर हो जाता है'
'बारिश-पानी में घर से बाहर जाना तो चौकस रहना
बिजली गिर पड़ती है- तू पहलौटी का बेटा है'

जब तू मेरे पेट में था, मैंने एक सपना देखा था-
तेरी उम्र बड़ी लंबी है
लोग मोहब्बत करके भी तुझसे डरते रहेंगे

मेरी मां अब ढेरों मन मिट्टी के नीचे सोती है
सांप से मैं बेहद ख़ाहिफ़ हूं
मां की बातों से घबराकर मैंने अपना सारा ज़हर उगल डाला है
लेकिन जब से सबको मालूम हुआ है मेरे अंदर कोई ज़हर नहीं है
अक्सर लोग मुझे अहमक कहते हैं।
***

7 comments:

Yunus Khan said...

गीत भाई अद्भुत कविता है ये । सच कहूं तो ये मैंने भी महसूस किया है कि जब कविताएं पढ़ो तो वो लिखने को प्रेरित करती हैं । यहां पत्रिकाएं लेने परिदृश्‍य तक जाना पड़ता है । ढेर सारी पत्रिकाएं लेकर जब लोकल-ट्रेन में चढ़ता हूं तो दृष्टि ही बदल जाती है । परसों जब ऐसे ही दौरे से लौटा तो तीन कविताएं लिखी गयीं । ये जानकर हैरत हुई कि कविता पढ़कर कोई हत्‍या भी कर सकता है ।

Ashok Pande said...

अख़्तर उल ईमान की और कविताएं यहां लगा देंगे तो दरिद्र हिन्दी समाज के ऊपर बड़ा परोपकार होगा. कविता के पढ़े, सुने और समझे जाते वक़्त पड़ने वाले प्रभावों पर आपकी निगाह बहुत पैने तरीके से गई है. बढ़िया कविता और उम्दा प्रस्तुति. हां शुन्तारो तानीकावा के ज़िक्र से याद आया कि वे अपनी एक कविता में खेत दर खेत दर खेत ... भागते जाने जैसी किसी छवि का प्रयोग करते हैं ...

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

कमाल की कविता है भाई. अख़्तरुल ईमान नज़्म के बहुत बड़े शायर हें. उनकी बहुत मशहूर नज़्म है 'लड़का'. मिल जाए तो पढ़वाओ.

वैसे भी एक अच्छी कविता पढ़ते-पढ़ते आदमी वही नहीं रह जाता जो वह उस कविता को पढ़ने के पूर्व था.

ज्ञान जी ने लगता है वह आदत पिछले कई दशकों से छोड़ रखी है. हा हा हा !

Deep Jagdeep said...

गीत जी सही कहा आपने कविता पढ़ते वक्त अक्सर मन में कई नई कविताओं के रंग रूप बनते हैं, दिल करता है अभी सब कुछ कागज़ पर उतार दूं, लेकिन उसी वक्त उन कविताओं को पढ़ने की ललक सी मन में होती है। अक्सर ऐसे मौकों पर मैं खुद को दोराहे पर पाता हूं। लिखूं या पढ़ूं। ज्यादतर मैं पढ़ने को ही तरजीह देता हूं, इसलिए कई बार मन में उभरी बेहतरीन कविताओं से हाथ धो बैठता हूं। इसी कशमकश के चलते मुझे पढ़ी कविता याद नहीं होती। बस उसका सार अवचेतन में जगह बना लेता है। इस विषय पर साइकलॉजिक रिसर्च होनी चाहिए। क्या कोई आजकल का फ्रायड आपकी नजर में है?

Anonymous said...

geet ji,
apki is post par mere teen vichar hai-
1. kavita jab atamhatya k liye uksa sakti hai to hatya k liye bhi. hatya aur atmhatya dono karne vale man ki samvedna ko samjhne ki jarurat hai. kavita asar karti hai isliye hi to hatya ya atmhatya ki bat aati hai.(iska yeh arth nahi hai k hatya karna uchit hai)
kavita hi to hai jo hajaro lakho logo ko ek dhun par nacha sakti hai. kranti aur kavita...?
2. yeh bat sahi hai k kavita dunia ke nam likha gaya ek prem patra hota hai.aur prempatra padhne vala har samvedansheel man kuch na kuch jarur sochta hai. is antah vishleshan ko padhkar mera man gehre avsad me doob gaya.
3. kavita bahut bhavuk kar dene vali hai. maan ko mano mitti k neeche, padh lene ke baad sab dhundhla jata hai aankh k pani me.
bahut achha geet ji, bahut badhiya.
vrindavani

DUSHYANT said...

pehlee baar apke blog ko visit kiya ,mugdh hun aapke intikhaab aur lafzon kee jadugaree ka

pradeep kushwaha said...
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