Tuesday, September 30, 2008

उबासी के बीच कोई उदासी


बहुत दिनों बाद दफ़्तर पहुंचे, तो किताबों के दो पैकेट आए पड़े थे. कुछ किताबों की काफ़ी दिन से प्रतीक्षा थी. एमस ओज़ (पुराने हिब्रू उच्‍चारण के अनुसार आहमोस आउस) की 'हाऊ टु क्‍योर अ फैनेटिक' और डेविड ग्रॉसमैन की 'द येलो विंड'. ये दोनों इज़राइली लेखक बहुत पसंद हैं. और कुछ कवि भी. अमीख़ाई के बाद मिशोल, शेरन हास, लीसा कात्‍स, रोनी सॉमेक, रामी सारी. ये लिस्‍ट भी ख़ुद को याद दिलाने के लिए, क्‍योंकि अभी घर के कबाड़ से अहमद नदीम क़ासमी की एक पुरानी कहानी खोजने के चक्‍कर में हास और सॉमेक की कुछ बेहद प्रिय कविताओं का झेरॉक्‍स मिल गया. सौ-सवा सौ पन्‍नों का धूल-भरा पुलिंदा. नाक सुड़कसूं हो गई है. धूल सहन नहीं इसे. जबकि किताबों की कि़स्‍मत में यह धूल हथेली की जीवन रेखा की तरह गाढ़ी है. देखिए, 'द प्रेस एंड अमेरिका' भी मिल गई, और दूबोई की हिंदू मैनर्स वाली किताब भी. पिछले साल जब खोजा, तब नहीं मिली थी. अभी भी इसकी धूल नाक के रोओं पर झूल रही है. आक्‍छी. पर क़ासमी नहीं मिले. वह अगले अगले साल मिलेंगे, यूं ही, हाथ से लिखे पीले पन्‍नों से झांकते, जब उनको नहीं खोजा जा रहा होगा. काफ़्काई उकताहट और बेहनाम दायानी टाइप की बुझेली खीझ लिए बैठे पढ़ने. पर लिखने लग गए. फि़ज़ूल. अब अंबर्तो ईको टाइप का 'मैं कैसे लिखता हूं' थोड़े पढ़ा जाएगा. पढ़ा तो जाएगा.

पढ़ा / तो / जाएगा/ (काम से).


घोंघा बसंत.
थोथा बसंत.
पतरे पर खड़ा होकर नाचता बसंत.
अनंत महंत.
संत बसंत.
इतिहास का अंत.
सबर का भी.

(कोई असंसदीय शब्‍द लिखने का मन हो गया. किसको संबोधित करूं? हिस्‍स. भाव का फन-फ़नी विलक्षण अभाव. गाली खाने को कोई समर्थ गुसाईं भी नहीं परकटता. रात के तीसरे पहर एक 'निहायत शरीफ़' आदमी का मन गाली देने को क्‍यों करता है? नोप्‍स. डॅन कॉल इट नाइट, बडी.)

चलो, अक्‍टूबर से पहले नोवेंबर रेन. जीएनआर को सुनिए. सुनिए, जब रोज़ का गला और स्‍लैश का गिटार टनकता है, तो इलेक्‍ट्रॉन, प्रोटॉन क्‍या, उलझे-न पकड़ आए बोसॉन भी झनक-झनक जाते हैं. पूछूं- झनके क्‍या, और इयाऊं-झियाऊं करते गाल को भीतर से चुभलाते चच्‍चा-चाची सब निकल लिए, तो पचका हो जाएगा. सच बात है न, सर विदिया कक्‍का?

3 comments:

Arun Aditya said...

पतरे पर खड़ा होकर नाचता बसंत।

....................

इन दिनों का गीत

पोर्ट्रेट है जीवंत

कलाकार सुखवंत

बधाइयाँ अनंत।

ravindra vyas said...

अपने ही हाथ की अंगुलियों में फंसी सिगरेट से निकलते उदास धुंए को छोटी सी खिड़की में से झांकता-देखता मुस्कराता चेहरा।

डॉ .अनुराग said...

हमें तो मुस्कान लगी .....