Friday, October 31, 2008

अतल में

हर उदासी की शुरुआत तालियों से होती है. सबसे होहराती धुनों में भी उदासी खोज लेता हूं. कितौ धुनें ही खोज लाती हैं और सामने पटक देती हैं. गिरकर छितराई हुई उदासी, जो गिरने के बाद भी चढ़ी रहती है. यानी इसी तरह उदास करता है. उसके यहां जो पियानो बजता है, या ड्रम खड़कता है, तो लोग उत्‍साह खोजते हैं, मुझे बिना खोजे उदासी मिलती है.

'एक पीली शाम,
पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्‍ता,
शांत,
मेरी भावनाओं में
तुम्‍हारा मुखकमल...'

ऐसी उदासी पर मैं सबसे उदास कविता नहीं लिख सकता, पढ़ सकता हूं, निरुपमा दत्‍त का नाम ले यह नहीं कह सकता कि मैं बहुत उदास हूं.

'अब गिरा
अब गिरा वह
अधर में अटका हुआ आंसू
सांध्‍य तारक-सा
अतल में.'

आंखें बंद कर यानी सुनता हूं. सोचता हूं कि ताली बजाना एक बहुत अपमानजनक/कारक क्रिया है. वाह-वाह करने वाले आखि़र अब तक अपने घर क्‍यों नहीं चले गए?



Friday, October 24, 2008

साथ-साथ क्‍यों नहीं?

मेरी बातों में छल्‍ले बनते थे और तुम्‍हारे बालों में. जब मैं सिगरेट का धुआं उड़ाता था, तो उससे भी छल्‍ले बनते थे. लोग कहते कि इसकी बातों के छल्‍ले में मत पड़ना, हसंते-हंसते फंसा लेता है. मैं कहता था, दरअसल, बात के छल्‍लों से ज़्यादा घातक तुम्हारे बालों के छल्‍ले हैं. उन्‍हें देखकर ही मेरी बातों में छल्‍ले पड़ा करते हैं.

हम एक पत्‍थर पर बैठे थे. और ओस से गीली घास पर नंगे पैर चलते हुए हमने एक, दूसरे पत्‍थर तक जाने का तय किया.

तुमने कहा- मेरे भीतर भाव हैं, मैं भावों की उंगली पकड़ वहां तुमसे पहले पहुंच जाऊंगी.

मैं हंसा- मुझे भावों पर भरोसा नहीं. विचार हैं मेरे पास. दुनिया की सबसे मोटी किताबें मैंने ही लिखी हैं. मेरे लिए वहां पहले पहुंचना ज़्यादा आसान है.

तुम भाव पर चलीं, मैं विचार पर.

ओस सूख चुकी है, घास भी. न पीछे का वह पत्‍थर नज़र आता है, न आगे वाला पत्‍थर. तुम भी आसपास नहीं दिखतीं. कहां चली गईं तुम? क्‍या तुम उस पत्‍थर तक पहुंच गईं? क्‍या हम दोनों ही उस पत्‍थर तक नहीं पहुंच पाए?

हम एक-दूसरे से पहले क्‍यों पहुंचना चाहते थे, साथ-साथ क्‍यों नहीं? बताओ.

Wednesday, October 15, 2008

??? ??? ??? !!!

??? ... !!! **)(
:(
0-365
आइला झप्‍पा आइला झप्‍पा
बड़े सिपाही जी का ढेटा
हुड़ हुड़ हुप्‍पा फूल के कुप्‍पा
बड़ा सिकंदर वाह वाह.
गड़बड़झाला गले में माला
बड़ा सिकंदर हाय हाय.
:(   :(    :(    :(   :(
%^%777&&&889534
..............................................................................................................................................

don't you cry tonight, i still love you babe'.
for amitav ghosh.



Wednesday, October 8, 2008

जैसे सांस

धूप के कटोरे में पड़ी पानी की बूंदें
भाप बन जाती हैं जैसे
हवा बन जाते हैं मेरे शहर के लोग

शहर एक बुरी हवा था
मुहल्ले-पाड़े जैसे आंच के थपेड़े
बुख़ार के फेफड़ों से निकली
उसांसें थीं गलियां

इन गलियों में
जीवाणुओं की तरह रहते थे लोग
जिनकी आबादी का पता
दंगों, भूकंपों और बम-विस्फोटों में मारे गयों
की तादाद से चलता था

बरामदों में टंगे कपड़े
कपड़े नहीं मनुष्य थे दरअसल
सूखते हुए
इसी तरह जोड़े से छूट गई अकेली चप्पलों, टूटी साइकिलों, बुझ चुकी राहबत्तियों
सेंगदाने की पुल्लियों, गिरकर आकार खो चुके टिफिन बक्सों, उड़ते हुए पुर्जों
चलन खो चुके शब्दों-सिक्कों
और अपने गिरने को बार-बार स्थगित करते
अनाम तारों को भी
मनुष्य मानना चाहिए

सुने जाने के इंतज़ार में हवा में भटकती सिसकियों को भी

इस तरह करें मर्दुमशुमारी
तो उन लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा है
जिन्हें हमें मनुष्य मानना है

जितने लोग मरते थे
उतने ही पैदा हो जाते
आम बोलचाल में इसे उम्मीद का
समार्थी कहा जाता

पर जैसा कि मैंने बताया
शहर एक बुरी हवा है
(पानी का जि़क्र तो मैंने किया ही नहीं
पाड़े के नलके पर सिर फूटा करते हैं पानी पर
वो अलग
भले उसे सूखकर हवा बन जाना हो एक दिन
अच्छी, बुरी जैसी भी)

जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा
जिसमें ऐसे उखड़ते हैं लोग
जैसे सांस उखड़ती है.

Friday, October 3, 2008

ब्‍लॉग जगत में कुमार अंबुज का स्‍वागत है...

हिंदी कवि कुमार अंबुज भी अब ब्‍लॉग जगत में आ गए हैं. नवें दशक में कविता की जो पीढ़ी आई, उसमें कुमार अंबुज मुझे सबसे गहरे कवि के रूप में दिखते हैं, प्रभावित करते हैं और प्रेरित करते हैं.
'कुमार अंबुज' नाम से ही अपना ब्‍लॉग, उन्‍होंने कुछ दिनों पहले बनाया था, लेकिन उस पर विधिवत पोस्‍ट आज डाली है. उसे यहां पढि़ए और उनका स्‍वागत कीजिए.
अब पढि़ए उनकी एक कविता-


कोई है मांजता हुआ मुझे

कोई है जो मांजता है दिन-रात मुझे
चमकाता हुआ रोम-रोम
रगड़ता
ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई
इतिहास की राख से
मांजता है कोई

मैं जैसे एक पुराना तांबे का पात्र
मांजता है जिसे कोई अम्‍लीय कठोर
और सुंदर भी बहुत
एक स्‍वप्‍न कभी कोई स्‍मृति
एक तेज़ सीधी निगाह
एक वक्रता
एक हंसी मांजती है मुझे

कर्कश आवाज़ें
ज़मीन पर उलट-पलटकर रखे-पटके जाने की
और मांजते चले जाने की
अणु-अणु तक पहुंचती मांजने की यह धमक
दौड़ती है नसों में बिजलियां बन
चमकती है

धोता है कोई फिर
अपने समय के जल की धार से
एक शब्‍द मांजता है मुझे
एक पंक्ति मांजती रहती है
अपने खुरदरे तार से.

(कुमार अंबुज के चौथे संग्रह 'अतिक्रमण' से).