Wednesday, December 21, 2011

आषाढ़ पानी का घूंट है






तुम्‍हारी परछाईं पर गिरती रहीं बारिश की बूंदें

मेरी देह बजती रही जैसे तुम्‍हारे मकान की टीन
अडोल है मन की बीन

झरती बूंदों का घूंघट था तुम्‍हारे और मेरे बीच
तुम्‍हारा निचला होंठ पल-भर को थरथराया था

तुमने पेड़ पर निशान बनाया
फिर ठीक वहीं एक चोट दाग़ी
प्रेम में निशानचियों का हुनर पैबस्‍त था

तुमने कहा प्रेम करना अभ्‍यास है
मैंने सारी शिकायतें अरब सागर में बहा दीं

धरती को हिचकी आती है
जल से भरा लोटा है आकाश
वह एक-एक कर सारे नाम लेती है
मुझे भूल जाती है
मैं इतना पास था कि कोई यक़ीन ही नहीं कर सकता
जो इतना पास हो वह भी याद कर सकता है

स्‍वांग किसी अंग का नाम नहीं

आषाढ़ पानी का घूंट है
छाती में उगा ठसका है पूस.