Saturday, June 9, 2012

मंत्रोच्‍चार






तुम्‍हारा नाम तुम्‍हारी उपस्थिति के पाठ का शीर्षक है

नींद के पहले स्‍वप्‍न होते हैं
सो जाने के बाद किसी स्‍वप्‍न का कोई अर्थ नहीं
हमारे भीतर का अंधेरा हमारी कंखौरी तले चिपका होता है
किसी-किसी रात हम जुगनू भी नहीं होते

फाउंटेन पेन को मैं साध नहीं पाता
दस मिनट खुला रख दो तो सूख जाती है स्‍याही
मित्रों जैसी एक निब सूखकर शत्रुओं की तरह काग़ज़ से रगड़ खाती
थोड़ा ज़ोर से हिल जाए अगर जेब के ही भीतर
तो वैसे ही छलकती
जैसे कड़वी रातों को तुम्‍हारे आंसू छलके थे

कोई कपड़ा देह को दाग़ से नहीं बचा पाता
कोई देह आत्‍मा को खुरच से नहीं बचा पाती

इससे बुरा क्‍या
अगर आंख की पुतली ही आंख की किरकिरी बन जाए
कुछ नदियां ताउम्र ज़मीन के नीचे ही बहती हैं

तुममें विसर्जन तुम्‍हारा सर्जन है

तुम पूरी थी तुममें से टूटकर निकला मैं
मैं भी पूरा हूं बिल्‍कुल अधूरा नहीं
देखो, टूटने से भी पूरा हो सकते हैं हम

हम हमेशा उसी से प्रेम करते हैं
हम जिसके बस के नहीं होते

शालीनता अतिभंगुर है
नूह, अपनी नौका में तुम रोज़ उसे रखना

दुख का शौर्य रणभूमि से बाहर खड़ा होता है

घास दृश्‍य पर टंका हरा फुटनोट है
अनुपस्थिति जीवन में घास की तरह उगती है असीमित

नये निष्‍कर्षों को पुराने ब्रह्मसत्‍यों में सीमित कर देना
यात्राओं की सरासर अवहेलना है
फूहड़ मंत्रोच्‍चार है


(बीते दिनों की कविता. साथ लगी पेंटिंग वीएस गायतोंडे की है.)


7 comments:

sarita sharma said...

कविता में अनेक कूट कथन हैं.नाम लेते ही व्यक्ति कल्पना में सामने खड़ा हो जाता है.रात के अँधेरे का अंत है मगर भीतरी अँधेरे को हम ढोते रहते हैं.निब रचनात्मक है मगर टूट जाये या चुभ जाये तो आहत भी कर देती है.आंख की पुतली का किरकिरी बन जाना अपनों के पराये हो जाने का संकेत है.प्रेम में एक दुसरे के प्रति समर्पित होते हुए भी सम्पूर्णता बनी रहती है.शालीनता चेहरे का नकाब है.

रश्मि प्रभा... said...

कोई कपड़ा देह को दाग़ से नहीं बचा पाता
कोई देह आत्‍मा को खुरच से नहीं बचा पाती ... आपकी रचनाओं की गहराई ज़िन्दगी के हर दस्तावेजों को खोल देती है

दिलबागसिंह विर्क said...

खूबसूरत...........

Ritu Vishwanath said...

Prem Prem Prem...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Sunder abhivyakti

Amrita Tanmay said...

बहुत ही सुंदर कृति !

ABHIVYAKTI said...

कोई कपड़ा देह को दाग़ से नहीं बचा पाता
कोई देह आत्‍मा को खुरच से नहीं बचा पाती


kuch toh baat hai in shabdon mein, padhti rahi ......ek baar ....nahi do baar nahi ......kayi kayi baar