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Friday, August 15, 2008

स्‍वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग एक स्‍वाधीन व्‍यक्ति से

रघुवीर सहाय
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इस अंधेरे में कभी-कभी
दीख जाती है किसी की कविता
चौंध में दिखता है एक और कोई कवि
हम तीन कम से कम हैं, साथ हैं

आज हम
बात कम काम ज़्यादा करना चाहते हैं
इसी क्षण
मारना या मरना चाहते हैं
और एक बहुत बड़ी आकांक्षा से डरना चाहते हैं
जि़लाधीशों से नहीं

कुछ भी लिखने से पहले हंसता और निराश
होता हूं मैं
कि जो मैं लिखूंगा वैसा नहीं दिखूंगा
दिखूंगा या तो
रिरियाता हुआ
या गरजता हुआ
किसी को पुचकारता
किसी को बरजता हुआ
अपने में अलग सिरजता हुआ कुछ अनाथ
मूल्‍यों को
नहीं मैं दिखूंगा

खंडन लोग चाहते हैं या कि मंडन
या फिर केवल अनुवाद लि‍सलिसाता भक्ति से
स्‍वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग
एक स्‍वाधीन व्‍यक्ति से

बहुत दिन हुए तब मैंने कहा था लिखूंगा नहीं
किसी के आदेश से
आज भी कहता हूं
किंतु आज पहले से कुछ और अधिक बार
बिना कहे रहता हूं
क्‍योंकि आज भाषा ही मेरी एक मुश्किल नहीं रही

एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे नफ़रत है सच्‍ची और निस्‍संग
जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्‍योछावर होता है

हो सकता है कोई मेरी कविता आखि़री कविता हो जाए
मैं मुक्‍त हा जाऊं
ढोंग के ढोल जो डुंड बजाते हैं उस हाहाकार में
यह मेरा अट्टहास ज़्यादा देर तक गूंजे खो जाने के पहले
मेरे सो जाने के पहले
उलझन समाज की वैसी ही बनी रहे

हो सकता है कि लोग लोग मार तमाम लोग
जिनसे मुझे नफ़रत है मिल जाएं, अहंकारी
शासन को बदलने के बदले अपने को
बदलने लगें और मेरी कविता की नक़लें
अकविता बन जाएं. बनिया बनिया रहे
बाम्‍हन बाम्‍हन और कायथ कायथ रहे
पर जब कविता लिखे तो आधुनिक
हो जाए. खींसे बा दे जब कहो तब गा दे

हो सकता है उन कवियों में मेरा सम्‍मान न हो
जिनके व्‍याख्‍यानों से सम्राज्ञी सहमत हैं
घूर पर फुदकते हुए संपादक गदगद हैं

हो सकता है
हो सकता है कि कल जब कि अंधेरे में दिखे
मेरा कवि बंधु मुझे
वह न मुझे पहचाने, मै न उसे पहचानूं
हो सकता है कि यही मेरा योगदान हो कि
भाषा का मेरा फल जो चाहे मेरी हथेली से ख़ुशी से चुग ले
अन्‍याय तो भी खाता रहे मेरे प्‍यारे देश की देह.