Monday, June 30, 2008

उसने कहा और..., मैंने कहा और..., जबकि हमारे बोल से ख़ामोशी फूटती थी

मेरी चुप्पी सुन वह खिलखिलाई। मैं सिर झुकाकर बैठा था। उससे पहले वह धीरे-धीरे मेरे बचे हुए बालों के बीच उंगलियों से सैर कर रही थी। उससे पहले वह सामने बैठी थी और मैं उसके कांपते हुए होंठों को देख रहा था। उससे पहले वह नहाकर निकली थी और उसके माथे पर पानी की एक बूंद ढुलकने को थी। उससे पहले वह अंगड़ाई ले रही थी और उसका शरीर मध्ययुग के किसी खंडहर की तरह टूट रहा था, भसक रहा था। एक-एक ईंट धप से गिर रही थी और धूल बनकर बिखर जाती थी।
उससे पहले उसने पूछा था, तुम्हें प्यार करना आता है?
उसके पूछने से पहले ही मैंने बता दिया था, नहीं, मैं एक पुरुष हूं।
मेरे ऐसा बताने से पहले ही उसने अपनी पलकों से मेरे गाल पर गुदगुदी की थी।
उसके ऐसा करने से पहले ही मैंने हल्की फूंक से उसके कान के बूंदे हिला दिए थे।
उसके कान की कांपती हुई लौ देहरी पर रखे दिए की कांपती हुई लौ की तरह थी।
उसने कहा, और...
मैंने कहा- और... और मैं तुम्हारे माथे पर बूंद की तरह चिपका रहना चाहता हूं, मैं सूरज का अवतार हूं, जो तेरे माथे पर रहने के लिए ही आया है, मैं चांद का अर्क हूं, तेरी आंखों में रहता हूं, तुझे पता है, तेरी आंखों की सफेदी मुझसे है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और मैं उंगली की पोर पर बैठा तिल हूं, अकेला, जैसे पूरे अंधेरे में आसमान पर अकेला बैठा हुआ तारा, किसी दूसरे तारे के इंतज़ार में बार-बार अपने गिरने को स्थगित करता, तेरे कानों की लौ में मैं बूंदा बनकर रहता हूं और तेरे लंबे केश में लट बनकर, जिसे सुलझाना तुम जानकर टाल देती हो, मैं झूठ-मूठ का रेगिस्तान हूं और तुम सचमुच का नख़लिस्तान, मैं तुममें इस तरह मिल जाऊं कि मेरी रेत का हर कण नन्हे हरे पत्ते में बदल जाए, मुट्ठी-भर बालू अंजुरी-भर पानी बन जाए... एक बहुत पुरानी छुअन हूं, जो अपने अहसास में गीली होती रहती है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और तुम एक जंगल हो, जिससे मैं हरी पत्ती बनकर मिलता हूं। तुम एक नदी हो, जिसमें मैं एक धारा की तरह बहता हूं। कोई झुरमुट हो, जिसमें मैं मख़मली ख़रगोश की तरह छुप जाता हूं। तुम एक दूरी हो, जो मेरे पीछे हटने से बनती है। तुम एक नज़दीकी हो, जो तुम्हारे आगे बढ़ने से बनती है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और मैं तुम्हें किसी पुल की पुल की तरह पार करना चाहता हूं... पर पुल पार करने से महज़ पुल पार होता है, नदी तो पार नहीं होती। मैं... मैं तुम्हें नदी की तरह डूबकर, तैरकर पार करना चाहता हूं...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और?
उसने कहा, हां, और...
मैं ख़ामोश हो गया। मैं अपनी भाषा का कवि था, जिसे शब्दों का कम से कम प्रयोग करने का संस्कार मिला था। वह न जाने किस भाषा की कवि थी, उसे और... और शब्द चाहिए थे।
उसने कहा, और...
मैं फिर ख़ामोश ही रहा।
मेरी चुप्पी सुन वह खिलखिलाई। मैं सिर झुकाकर बैठा था। वह अंगड़ाई ले रही थी और उसका शरीर मध्ययुग के किसी खंडहर की तरह टूट रहा था, भसक रहा था। एक-एक ईंट धप से गिरती थी और धूल बनकर बिखर जाती थी।
खंडहर की दीवारें भसकने से पहले थोड़ी देर तक हवा में ही अटकी रही थीं। वे मेरे इंतज़ार में अटकी थीं। पेड़ से टूटे किसी पत्ते की तरह, ज़मीन पर गिरने से पहले वह देर तक हवा में लहराती रही थी। वह मेरी ही प्रतीक्षा में लहरा रही थी।
जबकि मैं सिर झुकाए बैठा था। वह फिर खिलखिलाई। मैंने सिर उठाकर देखा। खिलखिलाते हुए वह एक चिडि़या बन गई। खिलखिल करती चिडि़या।
खिलखिल फड़फड़ाते पंखों से मेरे सिर के पास आई। उसके पंखों की हवा मैं अपने गालों पर महसूस कर सकता था।
उसने कहा... प्रेम शब्दों से नहीं, चुप्पी से करना चाहिए... बोल की आवाज़ धूल जैसी होती है, प्रेम को सिर्फ़ मैला करती है...
पंख फड़फड़ाती खिलखिल धूल से भरे कूलर पर बैठ गई। सिगरेट की एक डिबिया पर ठोंगा मारती हुई।


* * *

('पुल पार करने से महज़ पुल पार होता है, नदी पार नहीं होती', यह कवि नरेश सक्‍सेना की पंक्ति है, 
जिसका इस कहानी में प्रयोग किया गया है.)

Sunday, June 29, 2008

न जुनूं रहा न परी रही, जो रही सो बेख़बरी रही






(जिसके कान की मीठी लौ से सूरज रोशनी उधार लेता है, उसके लिए... रेमेदियोस द ब्यूटी के लिए )


कमरे में न तितलियों की कमी थी, न जुगनुओं की। सुबह होते ही धूप दरवाज़ा बजाती। खिड़की के इकलौते पल्ले पर भड़-भड़ करती। कुनमुनाते हुए दरवाज़ा खुल जाता। कोई सिंथ पर एक साथ उंगली फिरा दे, धूप ऐसे कमरे में घुस आती। दिन-भर तफ़रीह करती एक कमरे के उस फ्लैट में। कभी कोने में गोल होकर बैठ जाती, कभी पलंग के हत्थे पर उकड़ूं। कभी स्केल की तरह लंबी दीवार पर चढ़ती रहती। धूप के साथ बहुत-सी तितलियां आती थीं। उसे लगता, धूप तितली के पंखों में रहती है। तितली पंख फैलाती है, धूप बिखर जाती है। पूरे कमरे में तितलियां होतीं। जैसे पेड़ पर पत्ते नहीं लगते, तितलियां लगा करती हैं। दिन-भर पत्ते टूटते हैं, या तितलियां टूटकर गिरती हैं। उड़ते हुए पत्ते कमरे-भर में फैल जाते हैं, या तितलियां सरसराती हैं। अनगिन तितलियों के बीच वह इकलौते कमरे के इकलौते पलंग पर उतान लेटी होती। उस समय वह रंगों की एक प्लेट होती। हर तितली उस प्लेट से अपने पंख सटाकर उड़ती। और इस तरह वह कमरा रंगों से भर जाता। कभी सिर उठाकर इस तितली को देख लेती, कभी उस को। तितलियां उसके बोलने का इंतज़ार करतीं, फिर लौट जातीं। उनके लौटने से शाम हो जाती। शाम की फि़तरत में मायूस होना इसी लौट जाने से आया।

बग़ल में एक कूलर पड़ा रहता। बिल्कुल मुंह के पास। उसमें कभी पानी नहीं भरा गया था। कभी चलाया गया था, तितलियों को नहीं पता। पंखों के पीछे से उसमें लटके हुए जाले दिख जाते। वह पूरे कमरे की धूल को बुहारती थी। धूल उससे छिपकर वहां बैठ जाती थी। उसे उतान, ख़ामोश लेटा देखती रहती। फिर कूलर की धरती से निकल उसके ऊपर चादर की तरह बिछने लगती।

उसी तरह दरवाज़ा बजाते हुए रात आती। खिड़की का पल्ला अभी भी कुनमुनाता रहता। वह उठकर रात की अगवानी नहीं करती। रात अपने साथ जुगनू लाती। और पूरे कमरे में जुगनू फिरते। उस समय उतान लेटी वह रोशनी का कुआं होती थी। जुगनू उसमें कूद जाते और रोशनी के छींटे यहां-वहां उड़ने लगते। जंगल, खेत, मैदान, झुरमुट, हथेलियों और सपनों में जाने से पहले दुनिया के सारे जुगनू रोशनी के उसी कुएं और कमरे से होकर जाते थे।

रात को कोई भटकी हुई तितली आ जाती, कमरे में अकुलाई चक्कर लगाती, जुगनू उन्हें देखकर चकबक रह जाते। लौटते हुए वह एक बार पीछे देखती। किसी जुगनू को नहीं पता था कि वह एक बार उसके बोलने के इंतज़ार में भटकती है। किसी की चुप को अभिशाप के रंग में अपने पंखों पर सजाए।

ख़ामोश, उतान लेटी वह हरकत करती और धूल की चादर में सलवट पड़ जाती। औचक आए सपने की बारीक लकीर की तरह। वह एक क़हक़हा लगाना चाहती, जिससे शेष डोल जाए। उठकर एक डग भरना चाहती, जिससे सारी मनहूसियत डिग जाए। क़हक़हे का अनुवाद किसी रुदन में हो जाता और डग भरने की इच्‍छा अडिग बेबसी में बदल जाती. कातर आंखें कभी इस जुगनू को देखतीं, कभी उस जुगनू को। जुगनू उसे तितलियों की तरह दिखते, तितलियां जुगनुओं की तरह। उसे क्या चाहिए था दोनों में से? जिसे जुगनू मिलता है, उसे तितली कहां मिलती है? कभी जुगनू उड़ जाता, कभी तितली उड़ जाती. बेशुमार प्रेमकथाओं का अवसाद इसी उड़ जाने से आया. ख़बर-ए-तहिय्युर-ए-इश्क़ सुन, न जुनूं रहा, न परी रही, न तो तू रहा न तो मैं रहा, जो रही सो बेख़बरी रही...

धूल की चादर को खींचकर वह ऊपर कर लेती। ख़ामोश, उतान लेटे हुए अपने माथे पर क़तबा लिखती- मैं धूप की तरह इस दुनिया में हर सुबह आई, फिर अंधेरा बनकर हर रात यहां से चली गई, फिर से धूप बनकर आने के लिए।

हर सुबह एक तितली फूल बनकर और हर रात एक जुगनू मोमबत्ती बनकर उस क़तबे के नीचे बैठा करते हैं।


क़तबा - क़ब्र पर लिखी इबारत, epitaph,
पेंटिंग - फ्रीदा कालो, मेक्सिको

Saturday, June 28, 2008

ज़ोर से जय हिंद

पता नहीं, क्‍या है यह. कविता है, कवितानुमा है, मंच वालों का उत्‍साह, वाह-वाह है या फिर बैठे-ठाले की आह है. रघुवीरजी और धूमिल को जास्‍ती पढ़ लिया क्‍या? कितौ उड़ने लगे हो?


धक्कड़ हूं धूल हूं प्रदूषित हवा हूं
गले में ख़राश हूं
गठिया की पीड़ हूं नियंत्रित भीड़ हूं
चर्चा में जम्हाई हूं विमर्श में उबासी
शोक में ठहाका हूं सन्नाटे में पटाख़ा हूं
गोलगप्पे-सा हल्का गर्म-गर्म फुल्का
चेहरे में पिचकन कितौ शरीर में तोंद हूं
अचार में पचरंगा विचार में लाइट हूं
शेर हूं शोर हूं उम्मीद में किशोर हूं
काग़ज़ में हलफ़नामा
प्लास्टिक में पैसा कितौ रबर में कंडोम हूं
कपड़ों में ब्रा हूं रेशम की पैंटी हूं
क़र्जे़ के खेत में साइबर हूं आईटी हूं
सड़कों में गड्ढा हूं लाफ्टर का अड्डा हूं
ट्रेन में वेटिंग हूं प्लेन में स्टैंडिंग हूं
बंटाई में प्रदेश कितौ भाषा में विदेश
ग़ौर से देखो मुझे मैं एक देश हूं
.
(पेंटिंग मोईन फ़ारूक़ी की है. आभार सहित)

Monday, June 23, 2008

देह और छत के बीच कहीं तैरती नींद



अनलिखी कविताओं में
(ग़ालिब, व्हिटमैन और शिंबोर्स्‍का के लिए)

मैं लिखता कि
हम अभी भी युद्ध के बीच रहते हैं
यातना कैंप हमारे घर में हैं
आसपास क़ब्रिस्तान
इंतज़ार करती औरतें
और खेल के बाहर रोते बच्चे हैं

छल और कपट
अब तक बीते दिनों की बातों में शामिल नहीं हो पाए
यह योनि यह देह यह भाषा यह देश और ये सारे देव
मैंने अपनी मर्जी़ से नहीं चुने

मैं लिखता कि
इस धरती पर मैं अपने हिस्से के अपराध भी नहीं कर पाया
और सबके हिस्से की सज़ा मुझे दे दी गई
कि पुराने ज़माने में जो काम महाजन करता था
वह अब बैंक करते हैं
घर तक आकर क़र्ज़दार बना जाते हैं
फिर वसूली के लिए गुंडे भेजते हैं
काग़ज़ पर उनकी शर्तें इस तरह होती हैं कि
साक्षरों के लिए भी उसे पढ़ना नामुमकिन होता है

मैं यह लिखता कि
एक औरत को कपड़े न पहनने पर छेड़ा जाता है
एक औरत को पहनने पर

इस सिद्धांत कि-
सोते वक़्त भी जागता रहता है हमारा दिमाग़
को इस तरह लिखता-
जागते वक़्त भी सोता रहता है हमारा दिमाग़

मैं लिखता कि
दक्षिणी ध्रुव अब सुदूर उत्तर में पहुंच गया है
और बारिश के दिनों में न बच्चे गाते हैं न मेंढक
मुझे गुदगुदी नहीं होती अब
मेरी कांखों से पसीना बहता है
पैर की कानी उंगली अब चप्पल से बाहर निकलती है

उन लोगों के नाम लिखता
जिनके हुक्म से हमेशा कांपती थी मेरी स्वतंत्रता
प्यार लिखता उनको
जो मेरी परतंत्रता पर एक धौल जमा जाते थे

उन घडि़यों को ज़रूर कोसता
जो अलार्म के वक़्त से पहले ही बंद पड़ गईं

बिल्कुल
अपने नौसिखिएपन में लिखता
मुमकिन है उन्हें कविताओं की तरह नहीं लिखता
इस तरह लिखता जैसे
लिखा जाता है मनुष्य को
पर उस तरह नहीं
जैसे लिख दिया करते हैं ब्रह्मा

उस भाषा में
जिससे अजनबियों के शब्द समझे जा सकें
जो पीठ पर हाथ बांधे अपनी ज़ुबान और हमारे कान से निराश हो चुके हैं
उस हवा की बहान
जो घास पौधों छोटे पेड़ों और हडि्डयों पर रहम करती है
उस पानी का गुण
जिसके छींटे-भर से टूट जाती है हज़ार बरस की उनींदगी

उनमें उस नींद का जि़क्र होता
जो देह और छत के बीच कहीं तैरती है
वह आंसू होता
जिसके होने का सिर्फ़ अहसास होता है
(2006)

Monday, June 16, 2008

बिना पैर फैलाए सोना, बिना सिर उठाए जीना...

ज़ीशान साहिल की कुछ और कविताएं यहां पेश हैं. उनके बारे में पहले भी लिखा है. पुराने लिंक्‍स यहां हैं. ज़ीशान साहिल - परिचय और कुछ नज़्में .

प्‍यार
लड़कियों के लिए
प्‍यार करना उतना ही मुश्किल है
जितना किसी पेड़ के तने पर बैठकर
पहाड़ी नदी को पार करना
या सुखाना
किसी गीले काग़ज़ को

थोड़ी कोशिश करें
तो ये सब चीज़ें की जा सकती हैं
लड़कियां तो अपनी नोटबुक में
किसी का नाम तक नहीं लिखतीं

ऐसा कौन होगा जिसे
किसी का नाम पता हो
और वह उसे
कहीं लिखे न

मैं भी जानता हूं
एक लड़की का नाम.

चारदीवारी
हम जहां रहते हैं
आप उसे घर कह सकते हैं-
एक बहुत ऊंचे कमरे के ऊपर
एक बहुत नीची छत
एक बहुत बड़ी खिड़की
और एक बहुत छोटा दरवाज़ा

आप इस दरवाज़े से गुज़र सकते हैं
छाती पर बांधकर अपनी बांहें
बिना ज़मीन से क़दम उठाए

आप इस खिड़की से बाहर देख सकते हैं
एक बहुत ऊंचे कमरे में
एक बहुत नीची छत के नीचे

आप चाहें
तो बिना पैर फैलाए सो सकते हैं
बिना सिर उठाए जी सकते हैं.

जनरल की नाक
जनरल साहब
रोज़ अलस्‍सुबह
ठंडे पानी से स्‍नान करते हैं
और तैयार होने की शुरुआत करते हैं
अपनी पोशाक पहनते हुए
वह सीधे बग़ीचे की ओर जाते हैं
उन्‍हें बहुत पसंद है
ताज़ा हवा और खिलते हुए फूल

वह दिन बहुत ख़राब गुज़रा
जब सोलह सिपाही
चार सार्जेंट और दो कप्‍तानों को
कोर्ट मार्शल का फ़ैसला सुनना पड़ा
और माली को भी कोई
बख़्शा तो नहीं गया

उस दिन जनरल साहब ने
अपने बूट के नीचे कुचल दी एक कली
कहते हुए कि इससे ख़ुशबू नहीं आती

हमें बाद में पता चला
कि कुछ समय से
जनरल साहब की नाक बंद है.

Sunday, June 15, 2008

कल मैंने एक देश खो दिया

ये कविताएं उस कवयित्री ने लिखी हैं, जो बहुत हड़बड़ी में थी और जिसने कल ही अपना देश खोया है. ये कविता उन लोगों को संबोधित है, जो आने वाले दिनों में अपना देश खो बैठेंगे, क्‍योंकि वे सब भी बहुत हड़बड़ी में हैं. हम ऐसे समय में हैं, जहां हर सुबह संज्ञाएं बदल जाती हैं. सर्वनाम वही रहते हैं, पर क्रियाएं बदल जाती हैं. जो चीज़ें नहीं बदलतीं, वे अपनी बेबसी में शर्मिंदा हैं. न वे ख़ुद बदल पाती हैं, न दूसरी चीज़ों को बदलने से रोक पाती हैं.

उस कवयित्री का नाम है दुन्‍या मिख़ाइल. अरबी में लिखने वाली दुन्‍या बदले हुए वादों की कवि हैं. 1965 की पैदाइश है. चार संग्रह आ चुके हैं. दो अंग्रेज़ी में अनूदित हैं. 2001 में दुन्‍या को संयुक्‍त राष्‍ट्र का 'फ्रीडम ऑफ राइटिंग' अवार्ड मिला. उससे पहले इराक़ में उसे धमकियां मिलीं. जान बचाने की फि़क्र मिली. बग़दाद की गलियों से लाशें मिलीं. चीत्‍कार और आंसू मिले. सड़कों पर धुएं के बीच कुछ दोस्‍त मिले, जिन्‍होंने सरकारी धमकियों से बचाते हुए उसे देश से बाहर निकाला. 96 में वह इराक़ छोड़कर मिशिगन जा बसी. समकालीन अरबी कविता में वह एक ज़रूरी नाम है.

पहल 83 के लिए उसकी कुछ कविताओं का अनुवाद और ईमेल पर उससे एक छोटा-सा इंटरव्‍यू किया था. यहां प्रस्‍तुत कविता उन्‍हीं में से है. कविता में साहस पर पहले नज़र जाती है, कविता की सुंदरता पर बाद में.  

मैं हड़बड़ी में थी

कल मैंने एक देश खो दिया
मैं बहुत हड़बड़ी में थी
मुझे पता ही नहीं चला
कब मेरी बांहों से फिसलकर गिर गया वह
जैसे किसी भुलक्‍कड़ पेड़ से गिर जाती है
कोई टूटी हुई शाख

कोई उसके पास से गुज़रे
और वह उसकी टांगों से टकरा जाए

शायद आसमान की ओर खुले पड़े किसी सूटकेस में
या किसी चट्टान पर उकेरा हुआ
मुंह खोल चुके किसी घाव की तरह
या निर्वासित लोगों के कंबलों में लिपटा
या किसी हारे हुए लॉटरी टिकट की तरह ख़ारिज
या किसी नरक में पड़ा असहाय, विस्‍मृत
या बिना किसी मंजि़ल के लगातार दौड़ता
बच्‍चों के सवालों की तरह
या युद्ध के धुएं के साथ उठता
या रेत पर किसी झोपड़ी में लुढ़कता
या अलीबाबा के मर्तबान में लुकाया हुआ
या भेस बदलकर पुलिसवाले की पोशाक में खड़ा
जिसने अव्‍यवस्‍था फैला दी हो क़ैदियों के बीच
और ख़ुद भाग खड़ा हुआ हो
या हंसने की कोशिश करती
किसी औरत के दिमाग़ में
उकड़ूं बैठा हुआ
या अमेरिका में नए आए लोगों के
सपनों की तरह बिखरा हुआ

किसी भी रूप में टकराए वह किसी से
तो कृपया उसे मुझे लौटा दीजिए
मुझे लौटा दीजिए, श्रीमान
मेम साब, मुझे लौटा दीजिए
वह मेरा देश है
कल जब मैंने उसे खोया
मैं बहुत हड़बड़ी में थी.

Monday, June 9, 2008

और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा : फ़ैज़ की आवाज़ में एक और नज़्म

यह फ़ैज़ की बहुत मशहूर नज़्म है. कई बार सुनी-पढ़ी होगी आपने. 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'. नूरजहां ने यादगार तरीक़े से गाया भी था इसे. दरअसल, पिछली पोस्ट में 'शाम' से पहले इस नज़्म को सुनाना चाहता था, पर अपलोड ही नहीं हो रही थी.
सुनिए, ख़ुमारी में डूबी लटपटाती हुई-सी फ़ैज़ की आवाज़ ( वह ऐसे ही पढ़ते थे हर नज़्म, और कभी गुनगुनाते थे, तो भी कमोबेश ऐसे ही; ऐसा पढ़ा है कहीं. फ़ैज़ से अपना मिलना तो कभी हुआ नहीं था) में यह नज़्म.
फ़ैज़ पर ये दोनों पोस्ट कबाड़ख़ाना वाले अशोक पांडे जी को समर्पित हैं, जो लंबे समय से प्यारी, नायाब और दुर्लभ चीज़ों को हमसे साझा कर रहे हैं. उनके इस अथक परिश्रम को सलाम.



और भी ग़म हैं ज़माने में...

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

कुछ मायने : दरख़्शां- रोशन, ग़म-ए-दहर- दुनिया के तमाम ग़म, सबात- स्थिरता,
निगूं- झुकना, वस्ल- मुलाक़ात तारीक- अंधेरा, बहीमाना- भयानक, अतलस- सैटिन जैसा कोई कपड़ा, कमख़्वाब- ज़रीकाम किया हुआ वस्त्र, जा-ब-जा- जगह-जगह, अमराज़- घाव, तन्नूर- भट्ठी

फ़ैज़ की आवाज़ में उजड़ा हुआ बेनूर पुराना मंदिर





बरसों पहले, शायद काशीनाथ सिंह के किसी संस्‍मरण में पहली बार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह नज़्म पढ़ी थी, इसकी शुरुआती दो पंक्तियां. उस संस्‍मरण में धूमिल ये पंक्तियां किसी को सुना रहे थे. फ़ैज़, जिनका हर शब्‍द उम्‍मीद की लौ को आंजुर से ढंकता है, यहां शाम को इस क़दर फ्रीज कर देते हैं कि लगे, ये रात न कभी बुझेगी, न सुबह कभी होगी. घर पर एक पुरानी हार्ड डिस्‍क को खंगालने में फ़ैज़ की आवाज़ में कुछ नज़्में मिली हैं, और भी कई कवियों की आवाज़ों में शायरी. फ़ैज़ की इस शाम को ख़ुद पर उतरने दीजिए, जहां आसमां कोई पुरोहित है, जिस्‍म पर राख और माथे पर सिंदूर मले. उर्दू में पाठ की भव्‍य परंपरा है, लेकिन कहते हैं, फ़ैज़ बहुत अच्‍छा कविता पाठ नहीं करते थे. ख़ैर, यहां उनकी आवाज़ है, जो अपनी ख़राश में शायरी का बुलंद दरवाज़ा लगती है.



शाम
इस तरह है कि हर एक पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजड़ा हुआ बेनूर पुराना मंदिर
ढूंढ़ता है जो ख़राबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर इक दर का दमे-आखि़र है
आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्‍म पर राख मले, माथे पर सेंदूर मले
सरनिगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से
इस तरह है कि पसे-पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूं सहर का दाम
दामने-वक़्त से पैवस्‍त है यूं दामने शाम
अब कभी शाम ढलेगी न अंधेरा होगा
अब कभी रात बुझेगी न सवेरा होगा
आसमां आस लिये है कि ये जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वक़्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले .

****



पुनश्‍च : 
पहले लाइफ लॉगर पर था ऑडियो. अब वह बंद हो गया. सो दुबारा अपलोड किया है. लगे हाथ फ़ैज़ की ही आवाज़ में कुछ और नज़्में.




बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे 

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्‍म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख कि आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे कफ़्लों के दहाने
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्‍मो ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच जि़ंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले


पास रहो 


तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी कर सियह रात चले
मर्हम-ए-मुश्क लिये नश्तर-ए-अल्मास चले
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबते हुये दिल
आस्तीनोंमें निहाँ हाथों की रह तकने निकले
आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुल-क़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासुदगी मचले तो मनाये न मने
जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुन-सान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो



फिर कोई आया




फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार, नहीं कोई नहीं
राहरव होगा, कहीं और चला जाएगा

ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खडाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़

सो गई रास्ता तक तक के हर एक रहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग़
गुल करो शम'एं, बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़

अपने बेख्वाब किवाडों को मुकफ्फल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आयेगा


*** 

अगली नज़्म है 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्‍बत के सिवाय', वह एक अलग पोस्‍ट के रूप में यहां पढ़ी जा सकती है, फ़ैज़ साहब की ही आवाज़ है. 

Tuesday, June 3, 2008

माथा चूमना किसी की आत्‍मा चूमने जैसा है

कितनी ही पीड़ाएं हैं
जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं
ऐसी भी होती है स्थिरता
जो हूबहू किसी दृश्य में बंधती नहीं

ओस से निकलती है सुबह
मन को गीला करने की जि़म्मेदारी उस पर है
शाम झांकती है बारिश से
बचे-खुचे को भिगो जाती है

धूप धीरे-धीरे जमा होती है
क़मीज़ और पीठ के बीच की जगह में
रह-रहकर झुलसाती है

माथा चूमना
किसी की आत्मा चूमने जैसा है
कौन देख पाता है
आत्मा के गालों को सुर्ख़ होते

दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना
एक ख़राब कि़स्म की कठोरता है