Tuesday, May 27, 2008
समंदर क्या है सिवाय एक गहरे रुदन के
पीठ पर लदी हुई थकान थी। कुहनियों, पिंडलियों और कमर से थकान की पोटलियां लटकी हुई थीं। हम शाम-भर नाचे थे। उन दिनों बांद्रा में हमारा पसंदीदा थेक था- रॉक अराउंड द क्लॉक। पता नहीं, अब है या नहीं। बांद्रा में ही कॉलेज था। स्टेशन से ही बाहर निकलते, तो सामने ही फलूदे वाला होता था। उसका नाम नहीं, स्वाद याद है। और रंग भी। गुलाबी-केसरिया मिक्स। गिलास के बाहर चिपके हुए फलूदे नयों की नाक चढ़ाते थे। हम आदी थे और स्वाद ले-लेकर सुड़क जाते थे।
नाच की थकान के बाद अमूमन इन चट्टानों पर आकर लेट जाते। आसपास की चट्टानों के नीचे या दाएं या बाएं प्रेमी जोड़े बैठे होते। दुनिया-जहान से दूर। प्रेम और दुख हमेशा निर्जन कोनों में घनीभूत होते हैं। समंदर किसी राग में होता। उसकी आवाज़ से उसका संगीत समझ में आता, लेकिन हम आज तक उसकी राग, उसका ताल नहीं समझ पाए। उसी में हमारी होहराहट का संगीत भी होता। हम कुछ देर लेटे रहे। उठकर कंकड़ चुनकर समंदर में फेंकते रहे। फिर छोटे प्लेयर पर 'गन्स एंड रोजेस' सुनते रहे। लहरों के बीच एक्सल रोज की आवाज़ गूंजती रही। स्लैश का गिटार टुनकता रहा। गिटार की वह आवाज़ अकेलेपन के भटकते हुए पलों में अब भी गूंज-गूंज जाती है।
Talk to me softly
There is something in your eyes
Don't hang your head in sorrow
And please don't cry
I know how you feel inside I've
I've been there before
Somethin is changin' inside you
And don't you know
Don't you cry tonight
I still love you baby
Don't you cry tonight
Don't you cry tonight
There's a heaven above you baby...
लड़कपन का गाना था, किसी प्रार्थना की तरह इसे सुनते थे, आंखें बंद करके, गले में कांटे उगाए हुए, हमने किसी को छोड़ दिया था, या हम सब किसी न किसी के द्वारा छोड़े गए थे और भीतर हो रहे बदलावों पर जैसे ख़ुद से कहते थे- डोंट यू क्राय टुनाइट... हम जिसे कहना चाहते थे, पता नहीं उस तक हमारी बात पहुंचती भी थी कि नहीं, पर स्लैश के एक गहरे आलाप के बाद जब गाना ख़त्म होता था, तो हम खो चुके होते थे, एकाध बार अपने भीतर रो चुके होते थे और आसपास के माहौल को ऐसे देखते थे, जैसे कोई गीली झिल्ली अभी भी दृश्य और दृष्टि के बीच कांपते हुए झूल रही हो...
और इसी बीच तड़ाक की एक आवाज़ उठती है। कोई गूंज बेतहाशा चट्टानों पर दौड़ती है और छपाक से अरब सागर में कूद जाती है। फिर दो-तीन बार और आवाज़ आती है- तड़ाक-तड़ाक-तड़ाक।
हम बौखलाकर खड़े होते हैं। किसी चट्टान से किसी स्त्री के रुदन की आवाज़ आती है। पहले ज़ोर-से, फिर सुबकने की। अंधेरे में किसी पुरुष की आकृति ऊपर उठती है और चट्टानों को फलांगती हुई निकल जाती है। सिसकी बच रहती है।
हम वहां जाकर देखते हैं। एक स्त्री बिखरे हुए बालों के साथ अपना पर्स समेट रही है और मंत्रों की तरह बद-दुआएं बुदबुदा रही है। हममें से एक उस दिशा में दौड़ता है, जहां वह पुरुष गया है। कोई फ़ायदा नहीं।
हम बार-बार उस औरत से पूछते हैं। हमें कोई जवाब नहीं मिलता। उसकी सिसकी बढ़ती है... बढ़ती जाती है। चट्टानों पर चलते-चलते वह सड़क की तरफ़ जा रही है। एक हाथ में पर्स है, दूसरे में लटकती हुई सैंडिलें। अपने पीछे रुदन छोड़ जाती है, जो वहां गूंज रहा है।
हम देर तक सन्नाटे में हैं। लौटकर अपनी चट्टान पर पसर जाते हैं, पत्थरों से छीजी हुई रेत की तरह बिखरे हुए और गीले। वह बिखराव जिंदगी में लौट-लौटकर आता है... समंदर की ढेर सारी यादों, आवाज़ों के साथ नत्थी एक सिसकी... जो पलटकर तकती तक नहीं.
बाब डिलन बेतहाशा याद आता है। हमारी किसी नस को गिटार की तरह छेड़ता-
समंदर क्या है,
सिवाय एक गहरे रुदन के...
Saturday, May 17, 2008
हमें माफ़ कर दो, वरना हम तुम्हें गोली मार देंगे
बहुत सारे हथियारों के साथ
वे दनदनाते हुए घुसेंगे आपके घर में
और कहेंगे कि सारे हथियार निकाल फेंको
उन पर सिर्फ़ हमारा हक़ है
वे आपको रास्ते में रोक लेंगे और
नाक पर पिस्तौल सटाकर कहेंगे
जेब में जितने भी हों पैसे
हमें दे दो
पैसों पर सिर्फ़ हमारा हक़ है
वे आधी रात को फ़रमान जारी करेंगे
अपनी औरतों को भेज दो हमारे तंबुओं में
ख़ूबसूरत औरतों पर सिर्फ़ हमारा हक़ है
वे मासूम बच्चों की आंखों में गोली मारेंगे
बिना ज़ाहिर किए कि उन आंखों से उन्हें डर लगता है
वे बुज़ुर्गों की ज़ुबानों पर छुरी चलाएंगे
और दूर खड़े होकर खिजाएंगे
वे पीठ से बांध देंगे आपके हाथ और
किसी महिला की चड्ढी से ढांप देंगे आपका मुंह
और कहेंगे कि ढूंढ़ लीजिए वह राह
जिस पर चलना है आपकी सरकार को
आपके गले में पट्टा बांधकर कहेंगे
सिर्फ़ हांफो ज़ुबान निकाल कर
कराहने, रोने या चीख़ने की हिम्मत न करना
हमें तफ़रीह का मन है
और एक दिन जब उनका मन भर जाएगा
वे आपकी कनपटी पर लगाएंगे बंदूक़
और दुख के साथ कहेंगे
हमें माफ़ कर दो इन सबके लिए
वरना हम तुम्हें गोली मार देंगे
(2004 में लिखी गई, प्रगतिशील वसुधा में प्रकाशित)
Thursday, May 15, 2008
एक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत...
यौवन की ऋतु में जो भी मरता है,
इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत
सूरत उसदी परियां वरगी
गुमियां जन्म जन्म हन ओए
नज़र मेरी हर ओंदे जांदे
वेहल थकावट बेचैनी जद
हर छिन मैंनू इयें लगदा है
इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत
- यही गीत ख़ुद शिव की आवाज़ में यहां से सुनिए.
- शिव का इंटरव्यू हिंदी में यहां सुनिए.
- नुसरत की आवाज़ में एक गीत यहां .
Tuesday, May 13, 2008
लाइब्रेरी में बूढ़ा
अगर आप उस जगह को जानते नहीं हैं, तो आपको वह जगह दिखेगी भी नहीं। सड़क से उसे देख पाना मुश्किल काम था. उसके सामने ईंटों का ढेर होता था. सीमेंट की बोरियां रखी रहती थीं. रेती का बड़ा-सा टीला होता था. लोहे की सरिया और भी बहुत-से अगड़म-बगड़म सामान. पता ही नहीं चलता था कि इसके पीछे कोई इमारत होगी और उसमें किताबें रहती होंगी. किताबें, जिनके लिए दौड़ते-भागते, लगातार हबुआते और हर चीज़ का मोलभाव करते शहर में कोई जगह बची होगी, ऐसा कभी नहीं लगता था. पर वहां एक लाइब्रेरी थी. उस सड़क के सामने से हज़ारों बार गुज़रने के बाद हमें यह बात पता चल पाई थी. हम उसी सड़क से गुज़रकर दस साल तक स्कूल जाते रहे. उसी सड़क पर एक अस्पताल में बरसों पहले मैं जन्मा था. उसी सड़क के आगे पीले रंग की जालियों वाली एक खिड़की में एक लड़की उदास आंखों के साथ खड़ी रहती थी. उसी सड़क के पास एक रात को कुत्तों से घिर जाने के कारण एक ख़ब्ती दोस्त ने एक मोटी-सी सम्मानित और महत्वपूर्ण किताब कुत्तों को दे मारी थी. कुत्ता किंकियाता हुआ निकल गया था, और किताब की जिल्द का भुर्ता बन गया था. तो वहां किताबें थीं और हमें किताबों से प्यार था.
ईंटों, गिट्टियों, रोड़ों को पार कर हम उस इमारत में घुसे। वहां कुछ सूखे और कुछ हरे पेड़ थे. एक नल पता नहीं कितने बरसों से चू रहा था. काई की परतों की मोटाई देखकर अंदाज़ा होता था. लकड़ी का टूटा हुआ दरवाज़ा था, जिसकी खुली हुई कुंडी में एक ताला लटक रहा था. सुनसान मौक़ों पर कोई गौरैया उस पर ठोंगा मारती होगी. भीतर एक कुर्सी पर बैठा हुआ बूढ़ा था. उसके हाथ में सिंधी का एक अख़बार था. टेबल पर भी सिंधी अख़बार बिखरे हुए थे. उस तक गई हुई कोई भी आवाज़ लौटकर नहीं आती थी. कुछ भी पूछो, वह सिर्फ़ किताबों की ओर इशारा कर देता था. वह संभवत: हैरत में था. शायद उसने कई सदियों के बाद उस फ़र्श पर अपने अलावा किसी और की पदचाप सुनी थी. एक नज़र खड़े होकर पूरे हॉल को देखो, तो लगे, जब वह बूढ़ा बाहर से ताला बंद कर चला जाता होगा, तो रात यहां किताबों का नाच होता होगा. वे अपनी दराज़ों, आलमारियों और लिहाफ़ों से बाहर निकलती होंगी, अपने बदन से धूल और दीमकों को झटक कर नाचती होंगी, शोक की किसी थाप पर, उपेक्षा और अपमान की मिलीजुली ताल पर. वैसे ही, जैसे एक ग्रीक मिथ में दुखी देवदूत रात-भर किसी मैदान में नाचते हैं, वे किसी से बदला लेना चाहते हैं, लेकिन फ़रिश्ता होने की मजबूरी इस ख़याल को उनसे दूर कर देती है.
आलमारियों की तादाद देखकर लगता था कि यहां कभी ख़ूब किताबें रही होंगी। इतनी कि शहर डूब जाए. अब ख़ाली आलमारियां ज़्यादा थीं. उन पर धूल थी. कुछ काग़ज़. लकड़ी और झाड़ू का एकाध टुकड़ा. स्टीफ़न किंग के रहस्यवादी उपन्यासों में एक जगह ऐसी आती है, जहां सब कुछ रुका हुआ है. हज़ारों साल के लिए पृथ्वी चलना रोक देती है, और एक दिन अंतरिक्ष में अपनी जगह से ग़ायब हो जाती है. उसके ग़ायब होने के बाद भी ख़ाली बची उसकी जगह उसका आभास कराती रहती है. किताबों के न होने से बनी उनकी ख़ाली जगह वैसी ही लगती थी. जो कुछ बची थीं, उनमें हिंदी का पुराना साहित्य था. भुवनेश्वर की भेडि़ए थी, जो किसी और दुकान में नहीं मिली थी. तौलिए नाटक था. प्रेमचंद, प्रसाद के साथ गुरुदत्त भी थे. सिंधी का साहित्य देवनागरी लिपि में था. वहीं हमने पहली बार सस्सी और पुन्नू की प्रेमकथा पढ़ी थी. शाह अब्दुल लतीफ़, सचल सरमस्त, रूमी और फि़रदौसी भी. लड़काना, शिकारपुर और सख्खर का छोटा-मोटा इतिहास. वहीं एक किताब थी, जिसमें लिखा हुआ था कि शिकारपुरी सिंधी आपकी विदावेला तक आपसे पानी नहीं पूछते. और जो लड़काना में रहते थे, वे सबसे पहले ईरान से आए थे. लड़काना सिंध का एक क़स्बा है. उसके साथ बचपन का जुड़ाव है. वहां की गलियों की कहानियां अब भी याद हैं. मेरी दादी वहीं पैदा हुई थी, वहीं पली-बढ़ी थी. देश बंटा, तो लाखों लोगों के क़ाफि़ले में भटक कर करनाल पहुंची थी. वहां रिफ्यूजी कैंप में साल रहने के बाद इस शहर में, जिसे बसाया ही सिंधियों के लिए गया था.
इतनी बड़ी लाइब्रेरी हमने कभी देखी नहीं थी। आज भी लाइब्रेरी शब्द सुनते ही सबसे पहले वही याद आती है. हमारे लिए लाइब्रेरियां ठेलों पर लगती थीं और वहां वेदप्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक के नॉवेल, चंदामामा, चाचा चौधरी की कॉमिक्स रुपए-दो रुपए में एक दिन के लिए मिला करती थीं. पांच रुपए देने और आंख मारते हुए हंसने पर ठेलेवाले पोर्न पेपर्स देते थे. तब सीडियों का ज़माना नहीं था. हमने बूढ़े वाली उस लाइब्रेरी में बची हुई कई किताबें पढ़ीं. कई किताबें चुराईं. बूढ़ा जानता था कि हमारी शर्ट के नीचे एक किताब छुपी पड़ी है. पर वह कभी कुछ नहीं बोला. पहले हमें लगा कि हम दबंग है, इसलिए उसकी हिम्मत नहीं. बाद में उसने बताया कि वह सब जानता है. चलो, कोई पढ़ेगा तो सही. वह शिकारपुरी था. अपनी फि़तरत के खि़लाफ़ किताबें बेचा करता था. हिंदुस्तान आकर उसके बाप ने यह लाइब्रेरी खोली. बहुत लोग आते थे वहां. लोग अपने बच्चों को लेकर आते थे कि उन्हें किताबें पढ़ने का शउर मिले. वे पूरी क़ौम के लिए संघर्ष के दिन थे. पाकिस्तान से आए ज़्यादातर लोगों ने पढ़ाई-लिखाई से तौबा कर काम शुरू कर लिया. पापड़ बेच-बेचकर पैसे जुटाए और बिजनेस किया. आज वह क़ौम बहुत समृद्ध है. उस शहर में जालंधर से ज़्यादा पैसा टर्न होता है. पर अब वहां कोई लाइब्रेरी नहीं है. न इमारतों में, न ठेलों पर.
खुले हुए दिनों में बूढ़े ने बताया था कि विधायक लाइब्रेरी की इस ज़मीन को हड़पना चाहता है। उसी ने यहां ईंट-मिट्टी का ढेर लगा रखा है. उसे मेरे मरने का इंतज़ार है. मेरे मरते ही वह यहां एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनाएगा. मैं उससे बारहा कहता हूं कि मुझे मार डालो, क्योंकि जीते-जी मैं तुम्हें अपनी ज़मीन नहीं दूंगा. यह कहते हुए उसके होंठ कांपते थे. उसके चश्मे के पीछे की आंखों में कोई छिपा हुआ शौर्य तड़पकर सिर उठाता था. जब वह दोहराता, मैं अपनी लाइब्रेरी नहीं दूंगा, तो उस हॉल के सूनेपन, निर्जनता और बेनूर वीरानी में उसकी आवाज़ ऐसे लौटती थी, जैसे मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी.
एक दिन हमारी आंखों के सामने लाइब्रेरी को जेसीबी मशीन के ज़रिए ढहा दिया गया। मिट्टी का तेल छिड़क कर किताबों को आग लगा दी गई. लोहे की आलमारियों को तोड़ कर, तौल-तौलकर भंगार वालों को दे दिया गया. उस समय वह बूढ़ा वहां नहीं था. कहां था, किसी को नहीं पता. आज तक कोई पता नहीं कर पाया कि वह बूढ़ा कहां गया. बहुत दिनों तक हम सुनते रहे कि विधायक ने उसे ज़मीन के नीचे जिंदा गाड़ दिया है.
अब वहां एक बहुत बड़ी इमारत है। बड़ा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, जिसकी पहली मंजि़ल पर पार्किंग की सुविधा है. वहां के गार्ड्स को रात में किसी के कराहने की मद्धिम आवाज़ आती है. बदले में गार्ड्स अपनी सीटियों से कान फाड़ देने वाली किर्रर्रर्र की आवाज़ सड़क पर ढोल देते हैं.
Saturday, May 3, 2008
वे आए तब उनके हाथों में थी बाइबल...
तीन बजे रात को जब फोन की घंटी बजती थी, तो पूरा घर गूंज उठता था। पैरेलल था। एक चिंघाड़े, तो दूसरा भी चुप कैसे रह सकता था। नींद में डूबे पूरे घर को समझ में आ जाता था कि किसका फोन होगा। फोन मेरे कमरे में नहीं था। मैं किसी किताब में खोया रहता और उसे खोह से निकल हॉल की तरफ़ दौड़ता। नहीं चाहता कि फोन और देर तक चिल्लाए, कोई और जाकर उसे उठाए और नींद की अशिष्टता में सामने वाले को हड़का न दे। उस पार एक गूंजती हुई आवाज़ होती, जो बहुत ठहर- ठहर कर बार-बार मेरा नाम लेती। मैं कहता, हां भुजंग, बोलो, मैं ही हूं। वह भुजंग मेश्राम का फोन होता। उसके फोन रात के तीन बजे ही आते थे। कभी दस मिनट जल्दी, तो कभी दस मिनट देर से। पर दिन में तीन बजे, सुबह दस बजे, शाम को आठ बजे उसका फोन कभी नहीं आया। पूरे घर को पता थी यह बात। और घर वूं भी मेरे दोस्तों से परेशान रहता था। कोई रात को दो बजे दरवाज़े पर खड़ा होकर नाम पुकार रहा है, तो कोई सीटी बजा रहा है. घंटी कोई नहीं बजाता. उन्हें लगता है, घंटी बजाने से घर के दूसरे लोग जाग जाएंगे. जबकि उनके चिल्लाने से पूरा मोहल्ला जाग जाए, उन्हें परवाह नहीं. दिन के दोस्त अलग थे, रात के अलग. जो रात को दरवाज़े पर आवाज़ देते थे, वे वेताल थे, असुरों की प्रजाति के, निशाचर. उनमें से कोई अहिरावण जैसा दिखता, कोई महिरावण जैसा.
भुजंग मेश्राम उनमें से ही था। 97-98 का समय था. मेरी उम्र 19-20 की थी। कविताएं लिखता था। पढ़ता था। भुजंग मराठी कविता का प्रतिष्ठित और स्थापित नाम था। उसके चारों ओर ग्लैमर भी फैला रहता था। हम वैसे भी प्रसन्न रहते थे कि हमारे दोस्तों में भुजंग भी है। यह उस दौर की ख़ुशी थी, जब हमारी (स्पष्ट कर दूं हम यानी मैं, संजय भिसे, कुमार वीरेंद्र, गुरुदत्त पांडेय आदि) कुछ कविताएं ही छपी थीं, हम मार हुड़दंग करते थे, मुंबई के सीनियर लेखकों की नाक में दम किए रहते थे और एक अलग ही रोमान में जिया करते थे। यह रोमान हर युवा के जीवन में रहता है। हम साहित्यिक प्रोग्राम करते थे और कभी अध्यक्ष या मुख्य वक्ता की कमी से नहीं जूझते थे. भुजंग था न. हमसे उम्र में दोगुना, पर हम उससे तू-तड़ाक में बात करते थे।
तो रात तीन बजे आने वाला फोन सुबह पांच-छह बजे तक चलता रहता। हफ़्ते में दो-तीन बार उसका फोन आ ही जाता। वह बदनाम था, रात इसी समय फोन करने के लिए। उसने हिंदी के कई बड़े लेखकों को इस तरह नींद से जगाया था। मराठी में दिलीप चित्रे, चंद्रकांत पाटील आदि को लगभग ऐसे ही समय फोन करता था। और कभी माफ़ी नहीं मांगता था। बोलवचन में उस्ताद था। बोलता- कवि को रात-भर जागरण करना चाहिए, और रोना चाहिए, कबीर के माफिक। और वह रोता भी था. जिस दिन ग़ालिब को पढ़ ले, मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय को पढ़ ले. डेरेक वाल्कॉट या चिनुआ अचेबे या गैब्रियल ओकारा या न्गुगी वा थ्यांगो को पढ़ ले। उन्हीं दिनों उसने थ्यांगो की 'डीकोलोनाइजिंग द माइंड' पढ़ी थी और फोन पर उसके हिस्से सुनाया करता था. बाद में वह किताब हमने उससे झटक ली थी.
शराब बहुत पीता था। ग़ुस्से से भरा रहता था। इतिहास को ख़ुर्दबीन लगाकर पढ़ा करता था और पढ़ी हुई चीज़ों को हमेशा शक की निगाह से देखता था। कहता था- महान खोजें उन लोगों ने ही की, जिन्हें शक करने की आदत थी. सुबह पांच-छह बजे तक दारू पीते हुए फोन करने के बाद सुबह दस बजे ऑफिस के लिए निकल भी जाता था. उन दिनों वह ठाणे जिले के एक आदिवासी तालुके में बड़ा अफसर था. घर से स्टेशन तक रोज़ ऑटो रिजर्व करके जाता. उस समय शायद सौ-डेढ़ सौ लग जाते थे एक बार के. हम उसे टोकते, ये कैसी अय्याशी. तो कहता, टिपिकल मुंबइया में, तुम लोग हाथी-घोड़े पर चलते थे, मेरे पुरखों को तुम तपती रेत पर भी नंगे चलाते थे और रास्ते में पानी तक नहीं पीने देते थे. ऑटो में मैं नहीं चलता, मेरे पुरखे चलते हैं, हज़ार-दो हज़ार साल बूढ़े लोग. और कविता कभी रुक-रुक कर , सांस ले-लेकर नहीं पढ़ता था. कहता, वह कविता पढ़ने की ब्राह्मणी सामंती शैली है. आदिवासी कवि एक सांस में कविता पढ़ता है, जैसे एक घूंट में समंदर पीना, एक फूंक से तूफ़ान लाना, एक हुंकार से इंक़लाब लाना. फिर वह ऐसे ग्राम देवताओं के बारे में बताता, जिन्होंने लोक-इतिहास में ऐसे कारनामे किए थे।
भुजंग के बारे में लिखने को बहुत सारी बातें हैं। धीरे-धीरे। कुछ दिन पहले उसकी एक कविता पढ़ रहा था, जो उसके पहले संग्रह 'उलगुलान' में थी. इसका हिंदी अनुवाद मित्र कवि संजय भिसे ने किया है, जो प्रस्तुत है. पर एक बात ज़रूरी है- कविता का हिंदीकरण किया गया है, क्योंकि भुजंग को मराठी में भी सीधे-सीधे नहीं पढ़ा जा सकता. उसकी भाषा मुंबइया, गोंडी, हिंदी, मराठी और कई आदिवासी बोलियों के मिश्रण से बनती है। जिस इतिहास की बात वह करता था, वह इस कविता में दिखता है. और वह इतिहास किसके हाथ में है, यह भी.
ग्रैंडफादर
'वे आए
तब उनके हाथों में थी बाइबल
और हमारे हाथों में थी ज़मीन
परमेश्वर नहीं मानता काले-गोरे का भेद
आओ, आंखें बंद कर प्रार्थना करें'
खुश हुए हम
आंखें अपने आप बंद हो गईं
बड़ी उम्मीद से खुलीं जब आंखें
तो उनके हाथों में थी ज़मीन, हमारे हाथों में बाइबल।
नाती-पोतों को सुनाने के लिए
इसके अलावा कोई दूसरी परीकथा नहीं है हमारे पास
ऐसे समय दादाजी को अक्कल सिखाना बहुत मुश्किल।
फिर भी मैं करना चाहता हूं साहस
पच्चीस साल ख़ुद से बातें करने के बाद
इधर आए आप
पुकारते हुए आदिमों के नायक
क्या आपको देखना है आदिवासी भारत?
गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस पर आदिम कला
नाचती है राजधानी में
संस्कृति महलों में करती है कैबरे उस वक़्त
उसकी पालकी और हमारा जुलूस
चलता है एक ही राजमार्ग से
मज़ा आता है।
ये जंगल की जेल अब सभी को प्यारी है
पेड़ों को ख़त्म करना होता है न क्योंकि।
खांडव वन ख़त्म नहीं होता
इस बनवास को नकारा नहीं जा सकता।
आपका स्वागत किया जाता है
मंडल को हटाया जाता है
दिखाया जाता है राजघाट ताजमहल लाल कि़ला
छुपा लिया जाता है
बस्तर बेलखेड़ा ज्योतिबा और बाबा
इस अभिनंदन के जवाब में आप देते हैं अपना बयान
'हम दिन-भर एक-दूसरे से लड़ते हैं
शाम को परमेश्वर से माफ़ी मांगते हैं
चर्च में प्रार्थना करते हैं'
समूचा हॉल तालियों से गूंजता है
ग्रैंडफादर, तुम्हें बताने जैसा कुछ भी नहीं है
'वे आए तब उनके पास थी भटकन
और हमारे पास इतिहास'
वे बोले
'हम हर चीज़ की करेंगे अदला-बदली
और इस तरह बदल देंगे यह दुनिया।'
हमने किया यक़ीन
अब उनके पास है इतिहास और हमारे पास भटकन।
ग्रैंडफादर, आप बुद्ध को जानते हैं या नहीं?
***