Tuesday, September 30, 2008

अंधेरे की परिक्रमा


थकान इतनी छायादार हो सकती है, उससे पहले कभी महसूस नहीं हुआ था। मैं थकान के नीचे लेट गया। आंखें बंद किए। निर्मल जी की एक पंक्ति दिमाग़ में लगातार गूंजती रही- `जीवन में असफल होने का फ़ायदा यह है कि मेरे पास अपने होने के अलावा और कुछ नहीं है, और मेरे पास जब सिर्फ़ `मैं´ है, तो उसका मैं लिखने में ही इस्तेमाल कर पाऊंगा।´

वह कौन-सा पेड़ था, जिसमें से थकान चूती थी? जिसके नीचे लोहे की एक बेंच पर मैं लेटा था। वे छोटे-छोटे फूल थे या छोटे-छोटे पत्ते, जो पेड़ से झरे थे और आकर उसके बालों में उलझ गए थे। पीले टुकड़े। जिनका झरना सृष्टि की सबसे निश्शब्द क्रिया थी, जाकर उसके बालों में अटक जाना सबसे शालीन घुसपैठ। ख़ुद को धरती में जाकर रोपने की बजाय उसके बालों में रोप देना प्रेम का सबसे छोटा बीज ही कर सकता है। उस वक़्त तुम्‍हारे बाल तुम्‍हारे चेहरे पर आ गए थे, और तुम्‍हारी वह तस्‍वीर याद आ गई थी, जो स्विट्ज़रलैंड में खींची थी, जब तुम पानी के जहाज़ के डेक पर खड़ी होकर सिगरेट का पैकेट देख रही थीं.

रात इतनी अंधेरी नहीं थी कि मैं अंधेरे से घबराऊं। चांद इतना बड़ा भी नहीं था कि दो उंगलियों के बीच लेने से कतराऊं। पर ठीक उसी क्षण मुझमें थकान आ गई थी। भीतर ही भीतर कोई उस पराजय पर हंस रहा था। हंसते हुए कह रहा था- ले, फिर तुझको मात मिली।

लाइब्रेरी के सामने सड़क की रेलिंग पर बैठकर एक दिन हमने सूरज को डूबते हुए देखा था। वह जगह सूरज को भी बहुत पसंद थी। हर रोज़ वहीं आकर डूबता था। हम उसे धीरे-धीरे पहाड़, उसके आसपास की हरियाली, कहीं-कहीं डिब्बों की तरह बने मकानों और उड़ते-उड़ते औचक ही मुड़ जाने वाले परिंदों के लैंडस्केप में खोते हुए देख रहे थे।

उसने पूछा- यह डूबते हुए बाय भी नहीं कहता?

मैंने कहा- जो कहता है, हम उसे सुन नहीं पाते।

उसने कहा- सुनते हैं, तभी तो शाम को अंत माना जाता है। सुना नहीं है, न जाने किस गली में जि़ंदगी की शाम हो जाए...

मैंने कहा- ऐसा नहीं है। डूबना, दरसअल एक निहायत सच्ची कि़स्म की उम्मीद है।

उसने कहा- लेकिन तुम्हारी उम्मीद तो मैं हूं?

मैंने कहा- हां, तुम मेरी सूरज हो और मैं पृथ्वी की तरह तुम्हारी परिक्रमा करता हूं। तुम्हीं में डूबता हूं और तुम्हीं से उग आता हूं। जैसे, ऐसे ही किसी लैंडस्केप से उगती है सुबह।

उसने कहा- तुम चलते पुर्जे हो। अच्छे-से जानते हो कि तुम्हारे भीतर अंधेरा भरा है, और तुम्हें रोशनी की परिक्रमा करनी है।

एक पल में तुमने साबित कर दिया था कि मैं अंधेरे से भरा हूं। यह भी मानोगी कि अंधेरा कितना भी गाढ़ा हो जाए, रहता वह अकेला ही है? रोशनी कभी उसकी मित्र नहीं बन पाती, बस उसे चीरते हुए गुज़र जाती है। मानोगी कि इस दुनिया में पहले अंधेरा आया था और उसके अकेलेपन पर रहम करने के लिए पीछे-पीछे रोशनी आई थी?

प्रेम के इस सौरमंडल में मैं पृथ्वी की तरह तुम्हारे चारों ओर घूमता हूं। हमसे बाहर एक मिल्की वे है, उससे बाहर एक बहुत बड़ी आकाशगंगा, उसके बाहर जाने कितनी आकाशगंगाएं... ये सब भी घूम रही हैं। लेकिन इनके पास कोई सूरज नहीं। ये अभी भी अंधेरे के ही चारों ओर घूम रही हैं।

मैं, जो तुम्हें प्रकाश मान तुम्हारे चारों ओर घूम रहा हूं, क्या वृहत्तर रूप से अंधकार की ही परिक्रमा कर रहा हूं?

पर वह तो मैं ख़ुद ही हूं।

आज जब मैं यहां अकेला लेटा हूं, थकान के इस पेड़ के नीचे, किताबों का बस्ता ज़मीन पर फेंक, तो कोई पत्ता क्यों नहीं गिरता? इच्छा, पीड़ा, प्रेम, उम्मीद का वह पत्ता? जिसका आवाह्न तुम्हारे खुले हुए केश करते थे। कहां गया वह पत्ता, क्या मेरे अकेलेपन, अंधेरे और शून्यता से टकराकर लौट गया, पेड़ और मेरे बीच किसी अतल में लटका हुआ-सा? तुम क्यों नहीं हो यहां? क्या पत्तों की डंठल में गोंद बनकर खो गई हो? पलकों से छूकर पत्तों को हरा करती हो? जब आसमान पर चिपके सारे तारों की गोंद सूख जाएगी, तो क्या करोगी?

तुम रोशनी क्यों थीं, जो एक पल में खो जाती है? जो चमक से हुलसाती है, फिर चपलता से हट जाती है? जो जितनी तेज़ी से आती है, उतनी ही तेज़ी से लौट भी जाती है?

आज मैं यहां अकेला हूं और थकान के इस पेड़ को घूर-घूरकर देख रहा हूं। इस पर अब भी कोई नाम नहीं खुदा। उस दिन तुम्हारा बहुत मन था कि इसके मोटे तने पर हम दोनों का नाम खुदा हो।

तुमने कहा- तुम चाक़ू क्यों नहीं हो? मैं तुम्हें उठाती और इस पेड़ पर हम दोनों का नाम गोद देती। हमारा प्रेम चाक़ू की नोंक पर उगा हुआ दरख़्त होगा.

मैंने पूछा- चाक़ू ही क्यों?

तुमने कहा- कुछ भी। मतलब इस वक़्त तुम्हें लोहा होना चाहिए था। तलवार होते, तो भी चल जाता।

मैंने कहा- नहीं, मैं लोहा नहीं हूं। कभी लोहा बना भी, तो तलवार का लोहा नहीं बनूंगा। वह प्रेम के खि़लाफ़ बोलती है।

तुमने पूछा- फिर क्या बनोगे मेरे प्लास्टिक के भालू?

मैंने कहा- मिट्टी हूं मैं। लोहा बनने की उम्मीद से बहुत दूर। फिर भी कभी लोहा बना, तो बहुत छोटी कील का लोहा बनूंगा। चाक़ू और तलवार हमेशा बांटने का काम करते हैं। छोटी-सी कील ही होती है, जो जोड़ती है, अपनी नगण्यता और लघुता में भी।

मैं आज तक नहीं समझ पाया, उसके बाद तुम रोने क्यों लगी थी?

क्या तुम्हारी आकांक्षाओं में कीलों की कोई जगह नहीं थी? या किन्हीं पुरानी कीलों का दर्द उग आया था, जिनसे देह और दुपट्टा दोनों छिदे हुए थे? क्यों रोई तुम इतना कि तब से जो मेरी हिचकी बंधी है, पृथ्वी का आधा पानी पी लेने के बाद भी जाती नहीं? क्या लघु और नगण्य होने की मेरी आकांक्षा से इतना घात हुआ? पर यह तो हर सूरज जानता है कि उसके चारों ओर घूमता ग्रह उससे छोटा ही होता है। पेड़ को देखते हुए क्यों रोईं तुम? क्या नहीं जानती थीं कि पेड़ को देखते हुए रोना, पेड़ बनकर रोने जैसा ही है? कि रोते हुए अंधेरे को देखना, रोशनी से घात करना है? क्या वह रोना अंधेरे की उदारता और रोशनी की चपलता के बीच एक को चुनने का क्षण था और क्षण-भर का रोना, दरअसल, कभी क्षण-भर का रोना होता ही नहीं।

कितनी देर तक रोती रहीं तुम? सुबकते हुए। बिलखते, फिर बिखरते। मैं कैसे कहूं कि मेरी हथेलियां कभी इतनी बड़ी नहीं हो पाईं कि एक बार, पूरा का पूरा, तुम्हें सहेज सकता उसमें?

क्‍यों कहा था तुमने, एक दिन लौटकर आऊंगी मैं, जैसे सदियों बाद भी अचानक, लौटकर आती हैं स्मृतियां। तुम मुझे भूल जाने के लिए मत याद रखना। अपनी कही हर बात को झूठ होते देखना रोशनियों का प्‍यारा शग़ल होता है.

आज मैं यहां अकेला लेटा हूं और बाक़सम, बेंच मुझे बहुत गीली लग रही है। रोने की वह आवाज़ इसकी सलाखों में एक शाश्वत ठंडक बनकर रहने लगी है। उस दिन जब तुम रोई थीं, मैं भीतर से हार गया था। देखो, न मैं चाक़ू बन पाया, न तलवार। न ही छोटी वाली कील। सच, तुम सच रोई थीं। मिट्टी में लोहा हो सकता है, लेकिन लोहे के गुण नहीं।

आज मैं यहां अकेला बैठा हूं। मैं इतनी देर तक अंधेरे को घूरता रहा हूं कि मेरी भूरी पुतली का रंग काला हो गया है। अंधेरे के कनस्तर में बार-बार झांकता हूं। कहीं जुगनू भी चमक जाए, इस उम्मीद से। ताकि रोशनी में तुम दिख जाओ।

तुम इतनी देर तक आसमान को घूरती रही कि एक दिन तुम्‍हारी आंखों का रंग नीला हो गया. तुमने कहा, तुम्‍हारी आंखें अंतरिक्ष हैं और बाहर से देखने पर उसमें आसमान चिपका हुआ लगता है. तुम बार-बार सिर झुकाती हो और अंतरिक्ष में झांकने लगती हो. जैसे कोई एक कील, सितारों के झुरमुट में कहीं खो गई हो...

आज मैं यहां अकेला लेटा हूं और रोशनी की लकीर, सूरज की डूब, थिर होकर पत्तों का गिरना ढूंढ़ रहा हूं। ढूंढ़ रहा हूं एक बहुत छोटी कील, जिससे इस पेड़ के तने पर कोई नाम गोद सकूं...

(शुरू हुई एक कहानी का कोई तो भी हिस्‍सा, पेंटिंग- हेनरी मातीस)

उबासी के बीच कोई उदासी


बहुत दिनों बाद दफ़्तर पहुंचे, तो किताबों के दो पैकेट आए पड़े थे. कुछ किताबों की काफ़ी दिन से प्रतीक्षा थी. एमस ओज़ (पुराने हिब्रू उच्‍चारण के अनुसार आहमोस आउस) की 'हाऊ टु क्‍योर अ फैनेटिक' और डेविड ग्रॉसमैन की 'द येलो विंड'. ये दोनों इज़राइली लेखक बहुत पसंद हैं. और कुछ कवि भी. अमीख़ाई के बाद मिशोल, शेरन हास, लीसा कात्‍स, रोनी सॉमेक, रामी सारी. ये लिस्‍ट भी ख़ुद को याद दिलाने के लिए, क्‍योंकि अभी घर के कबाड़ से अहमद नदीम क़ासमी की एक पुरानी कहानी खोजने के चक्‍कर में हास और सॉमेक की कुछ बेहद प्रिय कविताओं का झेरॉक्‍स मिल गया. सौ-सवा सौ पन्‍नों का धूल-भरा पुलिंदा. नाक सुड़कसूं हो गई है. धूल सहन नहीं इसे. जबकि किताबों की कि़स्‍मत में यह धूल हथेली की जीवन रेखा की तरह गाढ़ी है. देखिए, 'द प्रेस एंड अमेरिका' भी मिल गई, और दूबोई की हिंदू मैनर्स वाली किताब भी. पिछले साल जब खोजा, तब नहीं मिली थी. अभी भी इसकी धूल नाक के रोओं पर झूल रही है. आक्‍छी. पर क़ासमी नहीं मिले. वह अगले अगले साल मिलेंगे, यूं ही, हाथ से लिखे पीले पन्‍नों से झांकते, जब उनको नहीं खोजा जा रहा होगा. काफ़्काई उकताहट और बेहनाम दायानी टाइप की बुझेली खीझ लिए बैठे पढ़ने. पर लिखने लग गए. फि़ज़ूल. अब अंबर्तो ईको टाइप का 'मैं कैसे लिखता हूं' थोड़े पढ़ा जाएगा. पढ़ा तो जाएगा.

पढ़ा / तो / जाएगा/ (काम से).


घोंघा बसंत.
थोथा बसंत.
पतरे पर खड़ा होकर नाचता बसंत.
अनंत महंत.
संत बसंत.
इतिहास का अंत.
सबर का भी.

(कोई असंसदीय शब्‍द लिखने का मन हो गया. किसको संबोधित करूं? हिस्‍स. भाव का फन-फ़नी विलक्षण अभाव. गाली खाने को कोई समर्थ गुसाईं भी नहीं परकटता. रात के तीसरे पहर एक 'निहायत शरीफ़' आदमी का मन गाली देने को क्‍यों करता है? नोप्‍स. डॅन कॉल इट नाइट, बडी.)

चलो, अक्‍टूबर से पहले नोवेंबर रेन. जीएनआर को सुनिए. सुनिए, जब रोज़ का गला और स्‍लैश का गिटार टनकता है, तो इलेक्‍ट्रॉन, प्रोटॉन क्‍या, उलझे-न पकड़ आए बोसॉन भी झनक-झनक जाते हैं. पूछूं- झनके क्‍या, और इयाऊं-झियाऊं करते गाल को भीतर से चुभलाते चच्‍चा-चाची सब निकल लिए, तो पचका हो जाएगा. सच बात है न, सर विदिया कक्‍का?

Thursday, September 18, 2008

इमरे कर्तेश की दुनिया से बाहर














कहते हैं कि इमरे कर्तेश को पढ़ने के तुरंत बाद वैसे भी कुछ करने का मन नहीं करता. एक अजीब कि़स्म का अवसाद, घुटने मोड़कर बैठी हुई चुप्पी, हथौड़े की तरह पूरे वजूद पर आ गिरा अकेलापन, अपने होने पर सकुचाता कोई लजीला संवाद, अचानक चीख़ में बदल गई कोई कराह और कुछ बेहद अमूर्त कि़स्म के सवाल आपको बड़े फूहड़ तरीक़े से खींच ले जाते हैं, बाल्कनी में खड़े होकर आप अपने आप में और बेकार होते रहते हैं. पिकासो के पास ब्लू पीरियड था. कर्तेश आपको ग्रे पीरियड में ले जाते हैं. धूल से भरा हुआ, मटमैले रंग का, जहां त्वचा पर बरसों पहले चिपकी गीली मिट्टी त्वचा जैसी ही झुर्रीदार दिखने लगती है.

पार्क में पत्थर की बेंच पर बैठी हर चीज़ पत्थर नहीं होती. पर दिखने वाली और न दिखने वाली हर चीज़ को धीरे-धीरे पत्थर में बदलते जाना है. दिखने वाले और न दिखने वाले पत्‍थर में. बेंच पर बैठकर देह से अलग होती एक औरत थोड़ी देर बाद पत्थर बन जाती है, फिर उस पर किसी हवा, किसी पानी का असर नहीं होता. जब वह उड़ती है, तो पत्थर की तरह उड़कर कहीं लगती है और जब टूटती है, तो पत्थर की तरह. पत्थर की तरह टूटना सबसे बुरा होता है. जुड़ने की कोई उम्मीद बाक़ी नहीं रहती. पर टूटे हुए टुकड़ों के पास भी आकार होता है, टूटा हुआ आकार. बच्चे उनसे सात चिप्पी खेलते हैं. एक अद्भुत आकार वाला पत्थर देव बन जाता है. एक पत्थर धमकाने के काम आता है और एक डरा हुआ, हमेशा के लिए बेंच के पास ही दुबक कर सदियों लंबी एक नींद में चला जाता है. सदियों बाद उठकर वह इन वक़्तों की गवाही देगा, यह बताएगा कि कैसे एक पत्थर की बेंच पर बैठकर रोती हुई एक औरत पत्थर की बन गई थी और उसके बाद पत्थर की तरह टूट गई थी.

और उसके पास बैठा पुरुष हवा की तरह हल्का होता है. उसके टूटने की कोई आवाज़ नहीं होती. वह अपने जुड़ने की तलाश नहीं करता कभी. उसका टूटा हुआ चेहरा भी जुड़े हुए चहरे जैसा ही भरम देता है. वह कहना चाहता है, लेकिन सांय-सांय से ज़्यादा कोई आवाज़ नहीं निकल पाती. कहने की तमाम कोशिशों के बाद जो कहा जा सके, वह नहीं होता, जिसे कहने के बारे में सोचा था.

कहानी दोनों के पास होती है. दोनों अपनी कहानी के साथ चलना चाहते हैं, लेकिन वह असंभव लगता है. दोनों अपनी कहानी को नए सिरे से लिखना चाहते हैं, लेकिन वह भी असंभव लगता है. हर निजी कहानी दरअसल कभी न सुनाई जा सकने वाली कहानी होती है. जैसे ही कुछ बोलने के लिए हम मुंह खोलते हैं, आंखें उसी वक़्त खुल जाती हैं. कहानी ख़त्म हो चुकी होती है. हम हमेशा दूसरों की कहानियों में रहते हैं. उनकी कहानी सुनते हैं, उसे ही लिखते हैं. उसी के बीच अपने कुछ प्रसंग जोड़कर बुनकरों का इल्म पाने की कोशिश करते हैं. जो हाथ लगता है, वह भटकते हुए शब्दों का गुच्छा-भर होता है.

कभी उस प्रोटॉन की मजबूरी के बारे में सोचा है, जो चाहे कितनी बग़ावत कर ले, रहना उसे इलेक्ट्रॉन के दायरे में ही है. उसी के केंद्र में भटकना है, अभिशप्त गति से. उस समुद्र को क्यों कोसना, जो अपने ही पानी में डूब मरा हो. बदबख़्गी का ऐसा आलम तो उस आदम के पास भी नहीं, जिसके पास सिर्फ़ एक ही जन्नत थी, जिसने सिर्फ़ एक ही जन्नत खोई थी. बदबख़्त होना क्या होता है, उस आदम से पूछो, जिसके पास कई जन्नतें थीं और हर जन्नत को वह ऐसे खोता रहा, जैसे देह सांस खोती है. पीछे मुड़कर देखना रूमानी प्रतीक हो सकता है, पर यह कितना घातक होता है, उस ऑर्फियस से पूछो, जो स्वर्ग से अपनी बीवी को लौटा कर ला रहा था और पृथ्वी पर पांव रखते ही उसने पीछे मुड़कर देखा कि वह आ रही है या नहीं और उसका सिर कटकर गिर गया. देवदूतों ने उससे वादा मांगा था कि वह पीछे मुड़कर नहीं देखेगा.

पीछे मुड़कर देखना अकेलेपन को चुनौती देना होता है. दूसरों की कहानी को झांककर देखना अपनी कहानी न कह पाने का शोक होता है.

और अकेलापन क्या होता है. एक हथौड़ा ही न, जो पत्थर पर गिरता है, तो पत्थर टूटकर बिखर जाता है. लोहे पर गिरता है, तो लोहा और मज़बूत हो जाता है. सब कुछ तो मेरे चारों ओर ही है. अकेलापन किस बात का? किस घड़ी अकेले होते हैं हम? स्मृतियां अकेला होने देती हैं क्या? डर, आशंका, अनजाने आई कोई मुस्कान या माइग्रेन की तड़तड़ अकेले होने देते हैं? जो मर चुके हैं, वे तो मेरे अकेलेपन में कभी साथ नहीं छोड़ते. जो अब भी कहीं जी रहे हैं, वे मेरे अकेलेपन का साथ देने नहीं आते.

`स्क्रीम ऑफ द आंट्स´ के अंत में एक पात्र बताता है: `मैं अकेले-अकेले पूरी दुनिया घूम आया, मैंने सबसे ऊंचे पहाड़ पार किए, सातों समंदरों को लांघा, रेगिस्तानों और दलदलों से गुज़रा और एक दिन मैं लौट आया. मैंने देखा, जो मैं खोज रहा था, वह पत्तियों से लटकती पानी की बूंद में छिपी थी, पंखुडि़यों पर उसका पता लिखा था.´

(इमरे कर्तेश की `फेटलेस´ और `लिक्विडेशन´ पढ़ने के बाद उससे जुदा कुछ बिंब. हमेशा की तरह धूल-धुंधले. पेंटिंग मार्क शाशा की है. उनकी वेबसाइट से साभार.)

Friday, September 12, 2008

नकार का कोबेन, निराशा का रीज़्झी


कर्ट कोबेन और बोरिस रीज़्झी में क्या समानता है?

रीज़्झी नए रूस का कवि था. वह रूस, जो अपने बिखरे हुए सपनों, कटे हुए डैनों के साथ लाल चौक के बाहर एक पेड़ की फुनगी पर लटका हुआ था, गिरने-गिरने को. और गिरने से बड़ी विडंबना कि इस गिरने से वह हुलस रहा था. अपने सपनों को इतिहास की सबसे फूहड़ गालियां देता हुआ. रीज़्झी उस रूस की नई पीढ़ी का प्रतिनिधि था. आंख झपकते इस पीढ़ी की हुलसित होहराहट अवसाद से भरी बड़बड़ाहट में बदल गई. दूसरे के अंगों पर फेंकी गई गालियां रपटकर अपने ही अंगों पर आन गिरीं. निराशा, नकार (नेगेशन फॉर नेगेशन वाला तो क़तई नहीं) अराजकता और अपराध की अंधेरी काली बस्तियों में यह पीढ़ी शरण लेती है. रीज़्झी उस पीढ़ी की कविता लिखता है. जिस सदी के शुरुआती बरसों में रूस में मायकोवस्की उम्मीद की कविता लिख रहे थे, उसी सदी के आखि़री बरसों में उसी देश का एक नौजवान अंधेरे को सबसे खुरदुरी आवाज़ दे रहा था. वह सारी चीज़ों को नकार रहा था, लेकिन उसे नहीं पता था कि हामी किसकी भरी जाए. 2001 में रीज़्झी ने जब आत्महत्या की, तो उसकी उम्र 26 साल थी. सामाजिक-पारिवारिक असफलताएं और उससे उपजे अवसाद उसे ड्रग्स की तरफ़ ले गए, और ड्रग्स अवसाद के चरम पर.

कर्ट कोबेन नए अमेरिका का गायक था. 1994 में उसने 27 की उम्र में आत्महत्या कर ली थी, जिस समय वह अपनी प्रसिद्धि के चरम पर था. इसकी मौत के प्रत्यक्ष कारण भी ड्रग्स और अवसाद ही थे. वह जॉन बॉन जॉवी, गन्स एन रोजेस, मैटेलिका और एरोस्मिथ का दौर था. कर्ट कोबेन अपने बचपन के दोस्तों के साथ हार्ड रॉक बैंक `निर्वाना´ लेकर आया, जिसने रॉक और मेटल संगीत का पूरा चेहरा ही बदल दिया. कोबेन ने अपने संगीत को `ग्रूंज रॉक´ कहा. उसका संगीत तीखी धुनों, ग़ुस्सैल इलेक्ट्रिक गिटार और असमंजस के शोर से बनता है. उसमें बीच-बीच में आई चुप्पी एक नाकाम तलाश और अनुत्तरित दस्तक के बाद घुटने मोड़कर बैठ जाने की स्थिति है और फिर सनक कर, बौखलाहट में उछाली गई गाली है. ऐसी अंट-शंट अवस्था में ज़रूरी नहीं होता कि कहा गया हर शब्द अपने साथ एक निश्चित कि़स्म का अर्थ ढोता हो. यह अमेरिका की वह पीढ़ी है, जिसकी झेरॉक्स प्रतियां दूसरे देशों में एक्सपोर्ट की जाती हैं. इसका दहकता हुआ लिबीडो, नायकों की तलाश में दर-द भटकते तीसरी दुनिया टाइप के देशों के दुर्बल, हीन नौजवानों को पुचकार-पुचकार पुकारता है. रॉक संगीत अनियंत्रित और निरुद्देश्य विरोध का संगीत है. कोबेन का संगीत भी नकार का संगीत है, लेकिन रीज़्झी की तरह (और हमारे पढ़े-देखे-सुने कई अल्हड़ क्रांतिकारी प्रोटोटाइप-से) ही कोबेन भी कभी नहीं जान पाया कि आखि़र हामी किसके लिए भरी जाए. जब वह चीख़कर कहता है, `अ मुलैट्टो, एन अल्बीनो, अ मस्कीटो, माय लिबीडो´, तो यह कोई प्रतीक नहीं, उसकी पूरी पीढ़ी के निरर्थक भटकाव का शोर होता है.

नौजवान देशों को अपनी नौजवानी और सपनों पर हमेशा फख़्र होता है, लेकिन उन्हें कभी इसकी चिंता नहीं होती कि नौजवानी की इस नवऊर्जा को परनालों में बहने से कैसे रोका जाए. कोबेन और रीज्‍झी दोनों को ही भटका हुआ युवा माना गया था. भटके हुए युवा अपराध करते हैं, लेकिन ये भटके हुए दो युवा संगीत रचते हैं, कविता करते हैं. तो क्‍या संगीत और कविता अपराध हैं ?  अगर नहीं, तो फिर यह किस्‍म का भटकाव है ? क्‍या यह एक भटकी हुई दुनिया के बीच अपनी राह खोजने का रचनात्‍मक भटकाव है, जिसका कला में विस्‍फोट होता है ? और एक दिन यह अहसास होता है कि हमारी इस खोज को यह भटकी हुई दुनिया कोई मान्‍यता ही नहीं दे रही, तब आत्‍मघात होता है? कलाकार का आत्‍मघात समूची दुनिया को दी गई चेतावनी होती है कि देख लो, तुम भटकी हुई हो. तुम मुझे सहेज ही नहीं पाई. जब कोई अपने आप ख़ुद को ख़ारिज करता है, तो वह दरअसल, ख़ुद के अलावा सबको ख़ारिज कर रहा होता है.

बहरहाल, कविता और संगीत की दो बड़ी प्रतिभाओं (जिनका बड़ा हिस्सा अब हमेशा अनएक्सप्लोर्ड ही रहेगा) की झलक देखिए. पहले रीज़्झी की कविता `ट्राम´ और नीचे निर्वाना का गीत `स्मेल्स लाइक टीन स्पिरिट´.


ट्राम : बोरिस रीज़्झी

अतीत में जाना है तो
बेहतर है एक ट्राम पकड़ लो
जो घंटियां बजाती चलती है
जिसकी पटरी पर
कोई बेवड़ा, गंदला स्कूली बच्चा
सनक गई लड़की और
पोपलर की पत्तियां बिछी होती हैं

पांच या छह स्टॉप्स के बाद
हम 1980 में पहुंच जाते हैं
जहां बाईं ओर मार कारख़ाने हैं
दाईं ओर मार कामगार
अरे उतर कर देख भी लो लल्लू
चिंता मत करो
क्या बुदबुदा रहे हो तुम, शकी हो,
ऐसा जो भी कुछ है हमने नबोकोव से पाया है
वह ज़मींदार का बेटा था
हम लोग तो जूठन हैं
ये क्या, तुम्हारे चेहरे पर आंसू
अरे छोड़ो भी, मुस्कराओ यार

हमारा स्टॉप ये है-
जहां देखो वहां पोस्टर, बैनर
नीला आसमान, लाल नेकटाई
किसी की शोकयात्रा है, साजि़ंदे बजा रहे हैं
उनके साथ तुम भी गुनगुनाओ सीटी बजाते हुए
और उस ख़ूबसूरत आवाज़ में खो जाओ
खो जाओ अपने लैदर जैकेट में,
उसकी जेबों में हाथ डाले
उस रास्ते पर जहां अलगाव कभी ख़त्म नहीं होता
उदासी कभी ख़त्म नहीं होती जिस सड़क पर
जो जाती है उस घर तक
जहां तुम पैदा हुए थे
सूर्यास्त, अकेलेपन, नींद और
पत्तियों के झड़ने के बीच पिघलते हुए
लौटना किसी मारे जा चुके सिपाही की तरह.

स्‍मेल्‍स लाइक टीन स्पिरिट : निर्वाना (नेवरमाइंड से)

Tuesday, September 9, 2008

चादर, पैर और दिल्ली की डकार

दिल्ली एक बहुत बड़ी चादर लग रही थी, जिसमें से अनगिन पैर बाहर निकले हुए थे. चादर में न अंट पाने का दोष पैरों को देना ग़लत है. नींद में ग़ाफि़ल उन लोगों को खोजना चाहिए, जिन्होंने चादर का ऊपरी सिरा कहीं दांतों में खोंच रखा है. मैं पैदल चलता था और दिल्ली नाम की चादर से बाहर निकले, बिना नाम वाले पैरों से टकराकर लटपटा जाता.

कुछ ख़ाली घंटे नेमत की तरह आते हैं, और उनमें किसी नामधारी से मिलना नेमत को शर्मिंदा करने जैसा होता है, कुछ ऐसा ही सोचकर मैं सड़क के एक किनारे खड़ा था. पचास किताबों का बोझ मामूली नहीं होता. कंधे पर टांगकर चलना ख़ुद से कोई बदला चुकाने जैसा होता. और ख़ाली घंटे नेमत होते हैं, और ये नेमत आपको ईश्वर भेजता है, और ईश्वर नेमतें भेजने के मामले में बहुत कंजूस होता है, फ़रिश्तेपन की प्रतीक्षासूची में खड़ी आत्माएं ऐसा बताकर गई थीं.

और वह जो ऑटो रिक्शा वाला था, वैसी ही किसी सूची में खड़ा दिखता था. स्वभाव के विपरीत मेरे मुंह से शब्द झरने लगे. वह भी बोल रहा था. मेरी भाषा उसके सामने, भाषा सीखने के क्रम में किसी बच्चे की त-त, प-प से ज़्यादा नहीं लग रही थी. वह मोलभाव कर रहा था और मैं उसे आशंकित कर रहा था कि मैं बिना किराया दिए भाग भी सकता हूं. मयूर विहार, नहीं, पश्चिम विहार, अरे, द्वारका चलो यार, छोड़ो, आईटीओ तक ही. एक काम करो, मंडी हाउस छोड़ देना. श्रीराम बुक सेंटर.

वह सलाह दे रहा था कि पहले सोच लो. और मैं सोच रहा था कि कुछ घंटे अचानक ख़ाली मिल जाएं, तो वाणी कैसी तो खड़बड़ा जाती है, खोपड़ी वैताग जाती है. करें क्या, दिमाग़ बोंब मारता है. मैं उसके रिक्शे में जमा हुआ था और बाहर खड़ा वह अभी भी नक्की कर लेना चाहता था कि कहां और कितने में उतारेगा मुझे.

हो सकता है, दो मिनट बाद ही उतर जाऊं मैं.
मेरी बात सुनकर वह बमकने-सी अवस्था में आने लगा- आप तो अभी उतर जाओ. गड़बड़ आदमी लगते हो.
तो ये भी मेरी गड़बड़ी ताड़ गया. इस गड़बड़ी का क्या किया जाए, जो छिपाए नहीं छिपती. जिसे मैं अपने सीधेपन का छत्रगौरव मानता हूं, वह सामने वाले को गड़बड़ कि़स्म की धूर्तता क्यों लगती है?

सारी धूर्तता को रिवील करते हुए मैंने उसे यूं ही दिल्ली घुमाने के लिए कह दिया. और वह घुमाता भी रहा. इंडिया गेट के सामने ले जाकर बोले कि ये इंडिया गेट है, तो 'तिच्या आईला, देऊ का कानाखाली' जैसा कोई रापचिक बोलवचन मुंह से फूटने-फूटने को होता, पर वासुदेव कृष्ण टाइप का मुस्कानिज़्म रोक-रोक लेता. आंख निकलकर नाक तक आती और स्वांग में रोम-रोम का साझा होता.

एक जगह थककर सड़क किनारे पेड़ तले लेट जाने का मन हुआ. इस तरह खुले में पता नहीं कब लेटा था. आंख खुले, तो नींद आती है और आंख बंद हो, तो अनिद्रा. मारकेस के नॉवेल की वह लड़की, जो मिट्टी खाती है और पूरे गांव की नींद भी. पर छांव भली लगती है. घास पर और भी लोग लेटे हैं. उन सबके पांव चादर से बाहर हैं.

पास बैठकर बीड़ी फूंकता ऑटोवाला अपने घर की कहानी सुना रहा है. दिल्ली की बेदिली के कि़स्से. मैंने एक घर ख़रीदा. पटपड़गंज में. एक जाट ने उस पर क़ब्‍ज़ा कर लिया. मुझे सामान सहित घर से निकाल दिया. कुछ दिन मेरे पूरे परिवार ने ऐसे ही सड़क के किनारे जीवन जिया.
सामने एक दूसरा ऑटोवाला सवारी से भाड़े की किचकिच कर रहा है. ये वाला कहता है कि सब एक जैसे हैं.
उससे एक बीड़ी लेकर किनारे का जीवन जीता हूं. उससे कहता हूं, पैर दिखा.
अचकचा जाता है.
अबे, पैर दिखा.
अपना और उसका पैर एक साथ रखता हूं और कहता हूं, देख, दोनों एक-से हैं. दोनों पर चादर से बाहर रहने के निशान हैं, सूखी हुई चमड़ी पर बाहर रहने की सफ़ेद धारीदार आदत है.
आंख फिर नाक तक आती है और उलटकर लौटकर जाती है. स्साला. गड़बड़ आदमी है. कुछ ऐसा ही सोचा उसने और पैर पीछे खींच लिया. फिर सकुचाकर पूछा- कहां रहते हो?

बग़ल में लेटी अरस्तू की आत्मा को उसका सवाल दिलचस्प लगता है. वह मेरी देह में आ जाता है और कहता है-
मैं अपने शब्दों में रहता हूं. मेरे शब्दों की छत इन दिनों टपकती है. तुम ही बताओ, कोई टपकती छत के नीचे कितने दिनों तक रह सकता है?
हम तो खुले आसमान के नीचे रह लेते हैं. टपकती छत से क्या गुरेज़!
अरस्तू की आत्मा ओझा को चंवर डुलाती है. उचक कर पेड़ पर टंग जाती है. ये सारे दार्शनिक दिल्ली के ऑटोवालों से क्यों नहीं मिल लिए आकर?

उबासी की पत्ती उड़ते हुए आती है. पिछली कई रातों से थकान के बाद भी बिस्तर पर जागी हुई सिलवटें हैं बस. मिट्टी खाने वाली बच्ची नींद भी खा जाती है.
एक राउंड और. एक्सीलरेटर और ब्रेक का संतुलन बनाते वह फिर अपने मकान से बेदख़ली का कि़स्सा सुनाने लगता है.
मैं उसके और अपने पैर देखता हूं. दोनों एक जैसे ही तो हैं. पर वह नहीं मानता.
ख़ाली घंटे ईश्वर नेमत से देता है. और मैं ऐसे ही बचे किसी घंटे में फिर दिल्ली नाम की चादर से बाहर निकले, बिना नाम वाले पैरों से टकराता लड़खड़ाता भटकता हूं. उम्मीद से कि इस चादर के नीचे कहीं कोई जगह मुझे भी मिल जाए.

मकान से बेदख़ली का कि़स्सा जारी रहता है. किसी ऐसी लिपि में, जिसे पढ़े जाने की उम्मीद भी बाक़ी नहीं. किसी ऐसी आवाज़ में, जो डकार और ठहाकों के समय में गूंगी-बहरी हो चुकी.

Sunday, September 7, 2008

झोंक या झक का आज-टाइप रंग

जो नहीं समझ सका
तुम्‍हारी चुप्‍पी
व‍ह क्‍या समझेगा तुम्‍हारे बोल?

कितना बुरा था यह सुनना
मैं तुमसे प्‍यार करता हूं
हंड्रेड परसेंट
और सच है ये सच
हंड्रेड परसेंट

नहीं, कहन का तरीक़ा नहीं था यह
माप लेने की नपी-तुली साजि़श थी
दिल साफ़ रहा बरहमेश ज़िंदगी गंदी

अब कम से कम
आसमान से गिरती हर शै को गाली मत दो
पुरानी किताबों में पढ़ा है मैंने
बौराई बारिश की तरह
कभी-कभार पंखुरियां भी बरसती थीं
***
(काग़ज़ पर गिरकर फैल गए, किसी झोंक या झक के आज  वाले रंग के  बीच  आईं कुछ बेतरतीब पंक्तियां.)


और एनिग्‍मा का सेडनेस.