Sunday, May 22, 2011

गालेआनो के आईनों से






दो-तीन दिनों से मैं एदुआर्दो गालेआनो की नई किताब 'मिरर्स' पढ़ रहा हूं. इसके लिए मुझे अपने दोस्‍त विनीत तिवारी का शुक्रिया कहना चाहिए. इससे पहले गालेआनो की 'ओपन वीन्‍स' और 'डेज़ एंड नाइट्स ऑफ लव एंड वार' पढ़ चुका हूं. गैल्‍यानो रचनात्‍मक गद्य की मीनार हैं. वह कालयात्री भी हैं. इतिहास को वर्तमान से और वर्तमान को इतिहास से देखते हैं. इससे दोनों के नए अर्थ उरियां होते हैं. 'मिरर्स' में वह अपने पूरे वैभव पर हैं. 365 पेज में छोटी-छोटी 600 कहानियां हैं, जो सृष्टि की उत्‍पत्ति से लेकर इक्‍कीसवीं सदी के शुरुआती बरसों की गुमशुदगियों तक को बयान करती हैं. कहानी-दर-कहानी समय नाम की दाई की काया को वह नापते हैं और इतिहास-लेखन की अद्भुत कला से झांकते हैं. इस किताब के कुछ अंश नीचे प्रस्‍तुत हैं. बिना अनुमति लिए अनुवाद करना व छापना नैतिकता के विरुद्ध है, लेकिन इस किताब की सुंदरता यहां अनैतिक होने पर विवश कर रही है. गालेआनो और उनके प्रकाशकों से क्षमा भी, उनका आभार भी. अगर आपने यह किताब न पढ़ी हो, तो ज़रूर पढ़ें.  


***

आईने बेशुमार इंसानों से भरे हुए हैं 
जो अदृश्‍य हैं वे झांककर हमें देखते हैं 
हमें याद करते हैं विस्‍मृत लोग 
जब हम खु़द को देखते हैं, उन्‍हें देखते हैं 
जब हम पीठ फेर मुड़ जाते हैं, क्‍या वे भी फिरा लेते हैं पीठ ?

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इच्‍छा का जन्‍म 

जिंदगी अकेली थी. उसके पास न कोई नाम था, न कोई स्‍मृति. हाथ थे उसके पास, लेकिन छूने के लिए कोई नहीं था. उस के पास जु़बान भी थी, लेकिन बातें करने लिए कोई न था. जिंदगी इकलौती थी और इकलौता कुछ नहीं था. 

तब इच्‍छा ने अपने धनुष की प्रत्‍यंचा खींची. उससे निकले तीर ने जिंदगी को ठीक बीच से काट दिया, और जिंदगी दो में बदल गई. 

जब उन दोनों की नज़रें मिलीं, वे ज़ोर से हंसे. जब उन्‍होंने एक-दूसरे को छुआ, वे फिर से हंसे.


लिखाई का जन्‍म 

इराक़ तब तक इराक़ नहीं बना था, जब वहां पहली बार लिखे गए शब्‍दों का जन्‍म हुआ था.

शब्‍द चिडि़यों की क़तार की तरह दिखते थे. उस्‍ताद हाथों ने नुकीली लकडि़यों से मिट्टी में उकेर-उकेरकर उन्‍हें लिखा था . 

आग नाश करती है और रक्षा भी, जीवन देती है और लेती भी, जैसा कि हमारे देवता करते हैं, जैसा कि हम ख़ुद करते हैं. आग ने मिट्टी को तपा दिया और शब्‍दों को बचा लिया. आग का आभार कि इस दोआबे में ये शिलाखंड अब भी हमें वे सारी कहानियां सुनाते हैं, जो हज़ारों साल पहले सुनाया करते थे. 

हमारे समयों में जॉर्ज डब्‍ल्‍यू. बुश को शायद यह भरोसा हो गया कि लेखन की खोज टैक्‍सस में हुई थी, अपने होहराते उल्‍लास में दंड देने की ठानी और इराक़ को मिटाने के लिए उस पर हमला बोल दिया. हज़ारों हज़ार शिकार हुए और ऐसा नहीं था कि हर शिकार गोश्‍तो-ख़ूं से ही बना हो. उसमें बेशुमार स्‍मृतियों की भी हत्‍या कर दी गई. 

बेशुमार शिलाखंडों के भीतर जीवित धड़कता हुआ इतिहास चुरा लिया गया या बमों को नज़र कर दिया गया. 

एक शिलाखंड कहता था : 

हम कुछ नहीं सिवाय मिट्टी के 
हम जो कुछ भी करते हैं उसका मोल हवा से ज़्यादा कुछ नहीं.  


मिट्टी का जन्‍म 

पुराने ज़माने में सुमेरियनों का विश्‍वास था कि पूरी दुनिया दो नदियों के बीच की ज़मीन है और दो स्‍वर्गों के बीच बसी है. 

ऊपर के स्‍वर्ग में शासन करने वाले देवता रहते थे.

नीचे के स्‍वर्ग में कर्मचारी देवता रहते थे. 

सब कुछ ऐसा ही चलता रहा, पर एक दिन नीचे वाले देवता हमेशा काम करते रहने से क्‍लांत हो गए और इस तरह इतिहास में पहली बार हड़ताल का जन्‍म हुआ. 

अफ़रातफ़री मच गई. 

लोगों को भुखमरी से बचाने के लिए ऊपर के देवताओं ने मिट्टी से स्त्रियों और पुरुषों को बनाया और उन्‍हें काम पर लगा दिया. ये स्‍त्री-पुरुष तिगरिस और यूफ्रेट्स के तट पर पैदा हुए थे. 

उसी मिट्टी से वे किताबें भी बनाई गईं, जो उन लोगों की कहानियां कहती हैं. 

वे किताबें बताती हैं कि मरना वापस मिट्टी हो जाना होता है. 

Marian Siwek 1936-2007. Polish artist. Krakow.

अमर हो जाने की चाहत वाला राजा

समय हमारी दाई है और वही हमारी संहारक भी. कल उसने अपने स्‍तनों से हमें दूध पिलाया था और कल वह हमें खा जाएगी. 

तो ऐसा होता ही रहता है. और हम जानते भी हैं यह सब. 

पर क्‍या सच में जानते भी हैं ?

दुनिया में पहली बार जो किताब जन्‍मी थी, वह हमें राजा गिलगमेश की कहानी सुनाती है, जिसने मरने से इंकार कर दिया था. 

यह महाकथा जो पांच हज़ार बरसों से मुंहज़बानी सफ़र कर रही है, उसे लिख डालने का काम किया था सुमेरियनों ने, अकादियनों ने, बेबीलोनियाइयों ने और असीरियाइयों ने. 

यूफ्रेट्स के किनारों का राजा गिलगमेश एक स्‍वर्गिक देवी और एक पुरुष के मिलन से हुआ था. ईश्‍वरीय इच्‍छाएं मानवीय नियतियां बन जाती हैं. देवी मां से उसने अलौकिक शक्ति और सुंदरता पाई थी, पुरुष पिता से मृत्‍यु.

नश्‍वर होने का अर्थ उसे तब तक पता नहीं था, जब तक उसने अपने दोस्‍त एनकिदु को मृत्‍युशैया पर न देख लिया. 

गिलगमेश और एनकिदु ने ख़ुशियों को अचंभे की तरह एक साथ जिया था. साथ-साथ ही दोनों देव-वन में भी घुस गए थे, जहां उन्‍होंने उस पहरेदार को हरा दिया था, जिसकी भुजाओं का बल देख पर्वत तक कांप उठते थे. साथ-साथ ही दोनों ने स्‍वर्ग के बैल को भी पराजित किया था, जिसकी एक हुंकार से ज़मीन में विशाल गड्ढा हो जाता था और जिसमें सैकड़ों लोग दफ़न हो जाते थे. 

एनकिदु की मृत्‍यु ने गिलगमेश को तोड़कर रख दिया और आतंकित कर दिया. उसने पाया कि उसका जांबाज़ जिगरी दोस्‍त तो मिट्टी का बना हुआ था और वह ख़ुद भी मिट्टी से ही बना है. 

तो वह एक अनंत जीवन की तलाश में निकल पड़ा. अमरता की चाहत रखने वाला यह राजा अनगिनत रेगिस्‍तानों और चारागाहों से गुज़रा, 

उसने रोशनी और अंधेरों को पार किया, 
उसने विशाल नदियों को तैर डाला
एक दिन वह स्‍वर्ग के उपवन में पहुंचा 
एक नक़ाबपोश अप्‍सरा जो अपने भीतर सारे रहस्‍य छुपाए रखती थी, ने उसे शराब परोसी,
वह समंदर के परली ओर पहुंच गया 
उसने वह आर्क खोज लिया जो बाढ़ से बच गया था 
उसे वह पौधा भी मिल गया जो बुढ़ापे को तरुणाई में बदल देता है 
वह उत्‍तरी सितारों के दिखाए पथ पर चला और दक्षिणी सितारों के पथ पर भी 
उसने वह द्वार खोलकर देखा जिससे सूरज इस दुनिया में आता था और उस द्वार को बंद करके देखा जिससे सूरज जाता था 

और वह तब तक अमर बना रहा 
जब तक कि एक दिन वह मर नहीं गया. 


आंसुओं का जन्‍म 

जब मिस्र, मिस्र नहीं था, तब सूरज ने आकाश की उत्‍पत्ति की और उन चिडियों की भी, जो उस आकाश को पार करते उड़ें. उसने नील नदी बनाई और उसमें तैरने के लिए मछलियां भी. और पौधों और जानवरों में जान भरकर उसने उस नदी के काले तटों को हरे में बदल दिया. 

तब जीवन की उत्‍पत्ति करने वाला सूरज थोड़ी देर सुस्‍ताने बैठ गया और अपने इन कामों के बारे में विचार करने लगा. 

इस नवजात विश्‍व की गहरी सांसों को उसने अपने ऊपर महसूस किया और उसकी पहली-पहली आवाज़ें सुनीं. 

अतिशय सुंदरता भयानक ठेस भी पहुंचाती है. 
सूरज के आंसू ज़मीन पर गिरे और उनसे कीचड़ बना. 
और उस कीचड़ से मनुष्‍यों की उत्‍पत्ति हुई.

PS


श्रम के विभाजन का जन्‍म 

कहते हैं कि राजा मनु ने भारतीय जातियों पर पवित्र प्रतिष्‍ठाएं नाजि़ल की थीं.

उनके मुंह से ब्राह्मणों की उत्‍पत्ति हुई, भुजाओं से राजाओं और योद्धाओं की (क्षत्रिय). जांघों से व्‍यापारियों की (वैश्‍य). उनके पैरों से मज़दूरों व कारीगरों की (शूद्र).

और इस आधार पर उस सामाजिक पिरामिड का निर्माण हुआ, जिसकी भारत में तीन हज़ार से ज़्यादा कथा-मंजि़लें हैं.

हर कोई वहीं पैदा होता है, जहां उसे पैदा होना चाहिए. वही करता है, जो उसे करना चाहिए. पालने में ही क़ब्र बनी होती है, जन्‍म से नियति बन जाती है, हमारी जिंदगी पिछले जन्‍मों का कर्म है या फल, और हमारे वंश हमारी भूमिका व जगहें तय करते हैं.

व्‍यवस्‍था में गड़बड़ी न फैले, इसके लिए मनु ने आदेश किया: अगर निचली जाति का कोई व्‍यक्ति पवित्र किताबों की ऋचाओं को सुनेगा, तो उसके कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया जाएगा, और अगर वह उन्‍हें पढ़ेगा, तो उसकी जीभ काट ली जाएगी. ऐसे उपदेशों का अब ज़्यादा चलन नहीं रहा, लेकिन अब भी जब कोई अपनी जगह छोड़ता है, प्रेम में, श्रम में, तो ख़तरा रहता है कि उसे मौत मिल जाए या मौत से भी बदतर जीवन.

हर पांच में से एक भारतीय जाति-बाहर है और निचले से भी निचले पर है. उन्‍हें अछूत कहा जाता है, क्‍योंकि वे छूत फैला देते हैं: वे गए से भी गुज़रे हुए हैं, वे दूसरों से बोल नहीं सकते, दूसरों की बनाई सड़कों पर चल नहीं सकते, और उनके गिलास व बर्तनों को छू नहीं सकते. क़ानून उनकी रक्षा करता है और यथार्थ उन्‍हें बहिष्‍कृत. कोई भी उनके पुरुषों का अपमान कर सकता है और कोई भी उनकी स्त्रियों से बलात्‍कार कर सकता है, सिर्फ़ यही एक ऐसा मौक़ा होता है, जब वे अछूत, छूने लायक़ बन जाते हैं.

2004 के अंत में जब सुनामी की लहरों ने भारतीय तटों पर तबाही मचा दी थी, वे कचरा बीन रहे थे, शव उठा रहे थे.

हमेशा की तरह. 



Thursday, May 19, 2011

नेह-नृत्य






जब कोई नाचता है, तो उसके भीतर क्या नाचता है? बुल्ला कहता था, उसकी देह कभी नहीं नाचती, नाचती तो रूह है। जैसे पृथ्वी के भीतर समंदर नाच पड़े, तो पृथ्वी भी तो नाचती हुई ही जान पड़ेगी। सो भीतर का नाच ही बाहर का नाच होता है। शकीरा को नाचते हुए देखें, तो लगता है कि मुर्शद को मनाने वाला बुल्ला नाच रहा है, शम्स के सामने रूमी नाच रहा है, स्कार्फ हिलाकर जीवन के तमाम अबूझ का अभिवादन करती इज़ाडोरा डंकन नाच रही है, थोड़ा-सा तुम नाच रही हो, थोड़ा-सा मैं नाच रहा हूं। एक देह में कितने सारे लोग लोग नाच रहे हैं। यह देह का नहीं, नेह का नृत्य है। नाचती देह है, नचाता नेह है।


दुनिया के सारे नेह को इकठ्ठा  किया जाए, एक जगह रख दिया जाए, तो वह उतना ही होगा, जितना एक व्यक्ति के भीतर होता है। यानी एक के भीतर का नेह, सारी दुनिया में समाए नेह जितना होता है। इसीलिए उसके नेह से हम इतनी जल्दी जुड़ जाते हैं। नेह में क्षिप्त होकर किया गया नृत्य इसीलिए कदमों को ताल की सौगात देने से रोक नहीं पाता। संभव है कि यह किसी व्यक्ति के लिए किया गया नेह न हो, बल्कि अ-व्यक्ति के लिए हो। जो व्यक्त है, वह व्यक्ति है। अ-व्यक्त भी बहुधा व्यक्ति ही है। नृत्य का नेह अ-व्यक्त के व्यक्ति बन जाने का नेह है। बुल्ला को तब तक यह पता नहीं था कि उसके भीतर का अ-व्यक्त क्या है, जब तक कि उसने नृत्य न किया। वह नाचा, इसीलिए वह अपने भीतर छिपे हुए खुद को जान पाया।


आप कितना भी प्रेम में डूबे हुए हों, हर समय आपके भीतर एक शख्स ऐसा रहता है, जिसे आप नहीं जानते। आप न तो खुद के सामने और न ही किसी और के सामने, उसे व्यक्त कर पाते हैं। उसके सामने भी नहीं, जो पूरी तरह व्यक्त और व्यक्ति बनकर आपके जीवन में बैठा हुआ है। यही अ-व्यक्ति प्रेम को बढ़ाते रहने का काम करता है। आप एक व्यक्ति से प्रेम कर रहे होते हैं, उसी के साथ-साथ एक अ-व्यक्ति से भी प्रेम कर रहे होते हैं। 


'इश्क दी नवियों नवी बहारमें बुल्ला कहता है कि हीर को रांझा मिल गया, फिर भी हीर खोई-खोई रहती है, वह रांझा को अपने भीतर खोजती रहती है। उसे सुध ही नहीं है कि रांझा उसके ठीक पास है। अगर व्यक्ति रांझा ठीक पास है, तो हीर किसमें खोई हुई है? कीनन, रांझा के अ-व्यक्ति में। यानी वह रांझा के उस हिस्से में खोई हुई है, जो अभी तक हीर की देह पर, आत्मा पर व्यक्त नहीं हुआ है। यानी रांझा या प्रेम की महा-कल्पना, जो रांझा की हकीकत से कहीं आगे हैं, उससे कहीं विशाल है। शाम के समय पडऩे वाली परछाईं की तरह, जिसमें वस्तु तो बहुत छोटी होती है, लेकिन जब रोशनी के बीच आती है, तो वस्तु के आकार से कई गुना लंबी परछाईं बना देती है। इसमें ज़ोर रोशनी पर है। भीतर की रोशनी अ-व्यक्त की एक विशालकाय परछाईं का निर्माण करती है।


तो हीर एक साथ दो से प्रेम करती जान पड़ती है- अपने जीवन में रांझा की व्यक्त उपस्थिति से और अपने मन में रांझा की अ-व्यक्त उपस्थिति से भी। यही अ-व्यक्त उपस्थिति ही प्रेम की उसकी प्यास और तलाश है। यह उसके जीवन से प्रेम को कभी समाप्त नहीं होने देगी। यह मन ही मन किया गया प्रेम हीर को नचाता है। यही बुल्ला को नचा देता है। यही रूमी को, मीरा को, यही माइकल जैक्सन, शकीरा और डंकन को भी। अ-व्यक्त से प्रेम के बिना कोई नृत्य संभव ही नहीं। इन सबमें अ-व्यक्त प्रेम, नेह के झरने की तरह रहता होगा।


 माइकल की डायरी का एक हिस्सा याद आता है- 'महाचेतना हमेशा सृजन के ज़रिए $खुद को अभिव्यक्त करती है। यह दुनिया विधाता का नृत्य है। नर्तक आते हैं, चले जाते हैं, लेकिन नृत्य हमेशा रहता है। जब मैं नाचता हूं, तो लगता है, कोई बहुत पवित्र चीज़ मुझे छूकर गुजरी है। मेरी आत्मा बहुत हल्की हो जाती है। लगता है, मैं ही चांद और सितारे हूं। मैं ही मुहब्बत हूं, मैं ही महबूब हूं। मैं ही मालिक हूं, मैं ही गुलाम हूं। मैं ही ज्ञान हूं और ज्ञानी भी मैं ही हूं। मैं नाचता जाता हूं और एक समय सृष्टि का शाश्वत नृत्य बन जाता हूं। सर्जक और सृष्टि आनंद के ऐक्य में विलुप्त हो जाते हैं। तब भी जो बचता है, वह सिर्फ नृत्य होता है।


यही नृत्य है, तो प्रेम भी यही है। यह जो नृत्य है, वही देह के भीतर नेह बनकर रहता है। प्रेम व्यक्त से ज्यादा अ-व्यक्त में वास करता है। इसीलिए तो आप कभी नहीं बता पाते कि प्रेम है, तो कितना है? बस, बहुत है। बहुत मतलब बहुत।



Tuesday, May 3, 2011

प्रेम, कविता और शोपां





शोपां पियानो
18 जनवरी 2010
मोत्सार्ट के संगीत के बारे में कई विद्वानों का कहना है कि यह बहुत सोच-समझकर रचा गया संगीत है, दिमाग की सारी जटिलताओं को रूपायित करता हुआ; वहीं बीथोफन के संगीत के बारे में राय अलग है- कहा जाता है, वह संगीत बीथोफन के दिल से निकलता है और सीधे सुनने वालों के दिलों में समा जाता है। मुझे लगता है- बीथोफन का दिल जब आखिरी बार धड़का होगा, तब उसने थोड़ा-सा रक्त बरसों बाद आने वाले शोपां के दिल को नज़र किया होगा। शोपां को, देर रात, देर तक सुनने के बाद ऐसा ही महसूस होता है।

रूबीन्स्टीन का पियानो, शोपां का नॉक्टर्न। अगर श्रीकृष्ण ने बांसुरी के वेस्टर्न नोट्स बनाए होते, तो वे शोपां के नॉक्टर्न की तरह ही होते। (यह ख्याल ही कितना एब्सर्ड है कि बांसुरी को पियानो के नोट्स पर बजाया जाए।) 

नॉक्टर्न यानी रात के समय बजने वाला संगीत। अंधेरे में डूबा हुआ एक बगीचा। पत्तों की आवाज़ से हवा के चलने को महसूस करना। ज़मीन पर तारों की परछाईं देखना और आसमान में जो आकृतियां बनी हों, उन्हें ज़मीन पर उगे पेड़-बूटों की परछाईं की तरह महसूस करना। जब पैदल चलना, तो पत्तों की खदड़-खदड़ आवाज़ आना। कोई भी आवाज़ आने से पहले खुद को श्श्श्श् कहकर चुप करा देती है। वहीं बगीचे में थोड़ी सी गुंजाइश खोज लेना कि एक समंदर भी बन जाए। उसकी आवाज़ के भीतर उतरना। उसमें मिली एक-एक नदी को रेशे-रेशे की तरह अलग करना। उन्हें पहचाने बिना उन्हें फिर एक-दूसरे में मिला देना। वहीं एक टापू बना लेना और उसमें अकेले होने के विरुद्ध आवाज़ का एक बूटा रोपना। 

ये शोपां है।
मैं तुम्हारे पास हूं। तुम्हारी हथेली में उगली फंसाए।
तुम सबके पास हो।
पर मैं सबके पास नहीं
सिर्फ तुम्हारे पास हूं।
यही शोपां है।

वह बीजगणित के ‘माना कि एक्स बराबर वाय' को नकार देता है और बताता है कि अनुभूति और संगीत का कोई सिद्धांत नहीं होता। जो संगीत में भी सिद्धांतों और व्याकरणों का पालन करते हैं, वे दरअसल, किसी भी नए से घबराते हैं, वे पुराने से भी आतंकित हैं, वे मेड़ों से बंधे खेत में अनंत की खोज करते हैं।

नियमों को तोडऩा बहुधा एक नया नियम बन जाया करता है।

शोपां इससे दूर रहना सिखाता है।

‘मैंने अपने लिए नए नियम बनाए' यह कहने से बेहतर है यह कहना, ‘मैंने नियमों को ध्वस्त कर दिया और खुद को भी नियमों से आज़ाद रखा।'

शोपां अराजक नहीं है। बहुत अनुशासित और मापा हुआ है, फिर भी उसमें वह बनैलापन है, जो आपको उसके अनुशासन पर यकीन नहीं करने देता। 

दो परस्पर विरोधी चीज़ों को साध लेने वाले कलाकार हमेशा मुझे आकर्षित करते हैं।

कई बार मुझे लगता है कि यह दक्षिणोत्तर जैसी किसी नई दिशा की तलाश कर लेने जैसा है।

दो सौ साल पहले उसे पोलैंड से भागना पड़ा था। वह पेरिस में रहा। सारा संगीत उसने वहीं रचा। पर उसका दिल लगातार पोलैंड के लिए धड़कता। उसने कहा कि जब मैं मर जाऊं, तो मेरे दिल को मेरे शरीर से निकाल लेना और उसे पोलैंड में दफनाना। 39 साल की उम्र में जब वह मरा, तो उसकी इच्छा का सम्मान किया गया। उसका शरीर पेरिस में दफनाया गया, लेकिन उसका दिल निकालकर पोलैंड ले जाया गया। वह वहां दफन हुआ।

उस दिल से ऐसा संगीत न निकलता, तो कैसा निकलता? वह इस ख्याल को भी कितने म्यूज़िकल तरीके से खारिज करता है कि वह तब तक ही सुना जाएगा, जब तक वह गूंज रहा है।





21 जनवरी 2010
शोपां को सुनना सिर्फ शोपां को सुनना होता है। मोत्जार्ट को आप दूर बैठकर सुन सकते हैं, बीथोफन को सुनते हुए आप खुद ही धीरे-धीरे हर किस्म की ध्वनि से दूर होते जाते हैं। शोपां को मैं दूर से नहीं सुन पाता। उसमें इतनी बारीकियां हैं, इतनी छोटी-छोटी हरकतें हैं कि उसकी आवाज़ के पास अपने कान ले जाने होते हैं। इसीलिए मैं उसके लिए हेडफोन लगाता हूं। मैं उसका हर स्वर कानों से सुनना चाहता हूं। पहले कान सुनें, फिर वे तरंगें देह और आत्मा से लिपटें। संगीत अंग से भी ग्रहण होता है और अनंग से भी। 

शिव ने कामदेव को भस्म कर अनंग बना दिया था- वह विदेह हो गया था। फिर भी पार्वती जब भी संगीत बजाती थीं, वे दोनों महसूस करते थे कि अनंग कहीं पास ही है। देह खोने के बाद भी अनंग ने अपना व्यवहार नहीं खोया था। वह कैलाश के आसपास ही भटकता था। इसीलिए पार्वती को उस पर रहम आया था और वह शिव से आग्रह करती रहीं कि वह कामदेव के अनंग-शाप को वापस ले लें। पर शिव कहते, वह अनंग है, इसीलिए मनोज है। इसीलिए वह हर अंग का ओज है। वह विदेह है, इसीलिए हर देह से संयुक्त है।
कई बार मुझे लगता है कि पुराणों में जरूर कोई कथा ऐसी भी होगी, जिसमें संगीत को सशरीर उपस्थिति कहा गया होगा। और किसी शाप में उसने भी अपना रूप खो दिया होगा। जैसे कामदेव ने खोया, जैसे दक्ष ने खोया, जैसे शारंग ने खोया, जैसे आठों चिरंजीवियों ने खो दिया। हालांकि मैं अभी तक ऐसी किसी कथा तक नहीं पहुंच पाया हूं।

संगीत भी अनंग है, इसीलिए हर अंग में उसकी व्याप्ति है। पर मैं उसकी व्याप्ति को दिशा देना चाहता हूं। क्यों? मैं उसे एक मार्ग दिखाना चाहता हूं कि तुम यहां से प्रविष्ट हो और यहां जाओ। संगीत कभी आज्ञा नहीं मानता। और ग्राहक यानी उसे ग्रहण करने वाला अपनी पद्धति से बाहर नहीं निकलता।

इतालवी में प्रेम की एक परिकल्पना है, जिसे 'फीनो अमोरे' कहा जाता है यानी संपूर्ण प्रेम। यह दान्ते अलीगियेरी की रचनाओं से आया। ऐसा प्रेम, जिसमें शरीर का कोई अर्थ नहीं होता, अभिव्यक्ति और स्मृति का भी कोई अर्थ नहीं होता। आप जिससे प्रेम करते हैं, संभव है कि उसे आपने कभी देखा भी न हो, उससे कुरबत तो दूर की चीज़ है। न उससे बातें की हों, न ही कोई व्यवहार। पर उससे प्रेम करते हों। वह एक उपस्थिति हो, किंतु आपके भीतर। यह सिर्फ मन में किया जाने वाला प्रेम है। बाहर उसकी अभिव्यक्ति कैसे भी संभव है, लेकिन इसकी मौजूदगी केवल आपके भीतर है। यह प्रेम को भक्ति भी बना देता है। अपने यहां मीरा के रूप में ऐसे प्रेम का उदाहरण है।

संगीत से किया जाने वाला प्रेम फीनो अमोरे ही होता होगा। यह सिर्फ आपके भीतर रहता है। आप संगीत की देह को नहीं छू पाते, लेकिन वह आपकी आत्मा और देह को छूता रहता है। शोपां इसी तरह एक अनुपस्थित उपस्थिति में आता है। बहुत बारीक स्वरों, हल्की बुनावटों, छोटे-छोटे वाल्ट्ज और मादक नाक्टर्न्‍स में। उसे लोग 'पियानो का कवि' कहते हैं। बहुत ज्यादा चीजों का इस्तेमाल नहीं करता। प्रेम भी शायद ऐसा ही होता है। बजने के लिए ज्यादा साजों का प्रयोग नहीं करता। एक अकेली तान से ही बड़ा ऑर्केस्ट्रा खड़ा कर देता है। अकेली तान वाला ऑर्केस्ट्रा। उसी तरह कविता को भी दूरी से नहीं समझा जा सकता। आपको उसे समझने के लिए, उसके बहुत करीब, झुककर, निहुरकर जाना होता है। उसमें भी अकेली तान से बड़ा ऑर्केस्ट्रा बनता है। शोपां के पास भी इसी तरह जाना होता है। झुककर, निहुरकर, बहुत करीब। प्रेम, कविता और शोपां- तीनों एक ही गोत्र से निकले होंगे।

(मेरी डायरी के हिस्‍से. पहला हिस्‍सा कथादेश अक्‍टूबर '10 में 
और दूसरा हिस्‍सा दैनिक भास्‍कर में 3 मई '11 को प्रकाशित.)