जाग, दो निद्राओं के बीच का पुल है, जिस पर मैं किसी थके हुए बूढ़े की तरह छड़ी टेकता गुज़र जाता हूं. दिन की किसी ऊंघ में जब यह पुल कमज़ोर होता है, मैं छड़ी की हर थाप पर अपने क़दम रखता हूं. आवाज़ पायदान होती है. पदचाप की ध्वनि पैरों के होंठों से निकली सीटी है.
दिन कुछ कंकड़ों की तरह आते हैं. उनका आकार तय नहीं होता. कई बार इतनी दूर बैठकर मैं अपने दिनों को देखता हूं कि भारी चट्टान-से एक दिन को कंकड़ मानने की भूल कर बैठता हूं.
चट्टान की चोट को कितना भी दूर खड़े होकर देखो, कंकड़ की चोट जैसी नहीं दिखेगी. ध्यान रखना कि
छल जिन लोगों का बल है, उनकी पेशानी पर ठंडे पानी की पट्टियां रखना. वहां मेरे नाम के बल बुख़ार की तरह पड़ते हैं.
तुम्हारा चेहरा जब-जब भी मैं हथेली में थामता हूं, मुझे लगता है, मैं अपनी सारी स्मृतियों को अपने प्रेम की अर्घ्य दे रहा. तुम मेरे आंसुओं से आचमन करती हो. खिलखिलाते हुए पानी का प्रदेश बन जाती हो.
सारी रात मैं अंधेरे के सिरहाने बैठता हूं और सीली माचिसों को कोसता हूं. इस समय दिन अतीत है. सूरज अतीत की उपस्थिति था. गर्मी अतीत की एक घटना. इस समय इस कमरे में जितनी भी उमस है, वह अतीत की उमस है.
जबकि दिन मैंने अतीत में जाकर नहीं गुज़ारा था.
किसी ने पूछा था, तुम गुनहगार हो, जो तुम्हें नींद नहीं आती? गुनहगारों को जागती हुई रातें मिलें, यह उनका अव्वल नसीब होगा. जो मुतमईन सोते हैं, वे भी बेगुनाह नहीं हैं.
आंसू में नमक हो न हो, नहीं पता, उनमें गोंद ज़रूर होती है. वह अपनी जीभ की गरम नोंक पर रोपती थी मेरा हर आंसू और आसमान में सितारा बनाकर चिपका देती थी. सितारे टिमटिमाते हैं, क्योंकि वे मुझसे नज़रें नहीं मिला पाते. मुझे हर सितारे की कहानी पता है.
चौंधियाना, दृश्य को भंग करना है.
छोटे बादलों की ये क़तारें आसमान में पड़ी सिलवटें हैं. मेरी रातें गठरी से बाहर निकले कपड़ों की तरह मुड़ी-तुड़ी हैं. उमस का पसीना श्रम का मख़ौल है.
आत्मा इस देह के भीतर उतनी ही अजनबी है
जैसे बड़े शहर के बड़े बाज़ार की बड़ी भीड़ के बीच अजनबी हूं मैं
सुनो, तुम थोड़ा ज़ोर से गाया करो
झींगुर मेरी रातों को धीरे-धीरे कुतर रहे हैं
काजल आंख का सपना है. तुम्हारी बाईं आंख से थोड़ा काजल जो फैल गया है, तुम उसकी फि़क्र कभी मत करना. सपनों की कालकोठरी से भला कोई बेदाग़ निकला है?
* * *
एक अनाम रात, जिससे चांद की कलाएं भी नितांत अपरिचित हैं, जिसे पड़ोसन रातें भी नहीं पहचानतीं, रोज़मर्रा की रातों के गुच्छे में अचानक उग आई. उस रात के अभिवादन में बुनी गई शब्दों की एक देह. साथ लगी पेंटिंग सिद्धार्थ की है.