Monday, April 28, 2008
कविता और मन बज़रिए एक छोटी-सी तहलील...
वहीं हार्ट क्रेन की कविताओं को याद कर चार्ली चैपलिन अपने हास्य में करुणा जोड़ा करते थे। ऐसे ही किसी क्षण में उन्होंने कहा था कि- कविता दुनिया के नाम लिखा गया एक प्रेम-पत्र है। ये सारी बातें बेतरतीब हैं, इनमें कोई सिलसिला नहीं. पता नहीं, पढ़ने वालों को कैसी लगें. पर ये कविता पढ़ने से होने वाले अनुभव हैं. हर किसी को होते हैं. हर कोई इनके बारे में सोचता है. मैं भी सोचता हूं. हर कविता अलग-अलग असर छोड़ती है, जैसे ये कविता है, अख़्तरुल ईमान की 'तहलील' यानी अंत: विश्लेषण. इस कविता को पढ़कर मेरा मन करता है भागता जाउं, भागता जाउं, फॉरेस्ट गंप की तरह, बस भागता ही जाउं. कहां, नहीं पता. क्यों, नहीं पता. तय है, आप हंसेंगे. पर मन तो मन है. आपकी हंसी से बदल थोड़े जाएगा. ख़ैर, ये कविता पढि़ए. ईमानदारी से बताइए, आपका मन क्या कहता है. क्या ये सवाल मन में नहीं आता कि ख़ुद को बचाए रखने के लिए भीतर ज़हर पालना ज़रूरी क्यों होता है? हो सकता है, कोई विचार आवे ही नहीं. मैं ही ज़बरन बोले जा रहा होउं?
उर्दू से लिप्यंतर बहुत ही प्यारे शायर फ़ज़ल ताबिश ने किया था -
मेरी मां अब मिट्टी के ढेर के नीचे सोती है
उसके जुमले, उसकी बातों,
जब वह जि़ंदा थी, कितना बरहम (ग़ुस्सा) करती थी
मेरी रोशन तबई (उदारता), उसकी जहालत
हम दोनों के बीच एक दीवार थी जैसे
'रात को ख़ुशबू का झोंका आए, जि़क्र न करना
पीरों की सवारी जाती है'
'दिन में बगूलों की ज़द में मत आना
साये का असर हो जाता है'
'बारिश-पानी में घर से बाहर जाना तो चौकस रहना
बिजली गिर पड़ती है- तू पहलौटी का बेटा है'
जब तू मेरे पेट में था, मैंने एक सपना देखा था-
तेरी उम्र बड़ी लंबी है
लोग मोहब्बत करके भी तुझसे डरते रहेंगे
मेरी मां अब ढेरों मन मिट्टी के नीचे सोती है
सांप से मैं बेहद ख़ाहिफ़ हूं
मां की बातों से घबराकर मैंने अपना सारा ज़हर उगल डाला है
लेकिन जब से सबको मालूम हुआ है मेरे अंदर कोई ज़हर नहीं है
अक्सर लोग मुझे अहमक कहते हैं।
***
Tuesday, April 22, 2008
मैंने हिटलर को मारा था
ख़ैर, यह कविता पढ़ें। इसके कई पाठ हैं। यह साधारण को असाधारण तरीक़े से व्यक्त करती है. बुराई को समाप्त करने के पॉपुलर तरीक़े को ख़ारिज करती हुई. और ऐसे समय में तो इसे पढ़ना और भी ज़रूरी है, जब सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यता पर हिटलर से ज़्यादा बारीक हमले हो रहे हों. जब तानाशाह और अत्याचारी के पास अपनी कोई शक्ल न हो और वह हर पड़ोसी की शक्ल में आपके सामने हो, अभेद्य कुटिल मुस्कान के साथ स्वागत करता हुआ. व्यक्ति और प्रवृत्ति के बीच की कुटिलताओं का फ़र्क़ बताता हुआ.
आप पढ़ें और इसका विश्लेषण ख़ुद ही करें। यह ज़गायेव्स्की के कविता संग्रह 'सेलेक्टेड पोएम्स' से ली गई है.
मैंने हिटलर को मारा था
अब तो काफ़ी समय गुज़र गया : मैं अब बूढ़ा हो गया हूं। मुझे बता देना चाहिए कि 1937 की गर्मियों में हेस्से नाम के छोटे से क़स्बे में क्या हुआ था। मैंने हिटलर का क़त्ल कर दिया था.
मैं एक डच हूं, बुकबाइंडर, कुछ बरसों से रिटायर। तीस की उम्र में मैं उस समय की त्रासद यूरोपीय राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखता था। लेकिन मेरी पत्नी यहूदी थी और राजनीति में मेरी दिलचस्पी बहुत अकादमिक कि़स्म की नहीं थी। मैंने तय किया कि हिटलर का सफ़ाया मैं ही करूंगा, किसी निशानची के सधे निशाने के साथ, उसी तरह जैसे किसी किताब को किया जाता है बाइंड। और मैंने किया भी।
मुझे पता था कि हिटलर गर्मियों में अपने एक छोटे-से झुंड के साथ तफ़रीह करना पसंद करता है, ख़ासकर बिना सुरक्षाकर्मियों के, और फिर वह छोटे-छोटे गांवों में रुकता है, ख़ासकर पेड़ों की छांव में बने खुले रेस्तराओं में। ज़्यादा गहराई में क्या जाना। मैं सिर्फ़ इतना कहूंगा कि मैंने उसे गोली मार दी और वहां से भागने में कामयाब रहा।
वह उमस-भरा रविवार था, तूफ़ान आधे रास्ते में था और मधुमक्खियां लड़खड़ाते भटक रही थीं, जैसे उन्होंने पी रखी हो.
विशाल पेड़ों के नीचे ढंका-तुपा था रेस्तरां। ज़मीन को गिट्टियों-कंकड़ों से ढांप रखा गया था।
लगभग अंधेरा हो चुका था, और माहौल इतना उनींदा और बोझिल था कि ट्रिगर दबाने में भी काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी। शराब की एक बोतल लुढ़क गई थी और सफ़ेद काग़ज़ के मेज़पोश पर ख़ून का लाल धब्बा फैल रहा था।
उसके बाद मैं अपनी छोटी-सी कार में किसी हैवान की तरह भागा। हालांकि मेरे पीछे कोई नहीं पड़ा था। अब तक तूफ़ान आ चुका था, तेज़ बरसात होने लगी।
रास्ते में पड़ी कंटीली झाडि़यों में मैंने अपनी बंदूक़ फेंक दी। मैंने दो बगुलों को भी मारके बहा दिया, जो छोटे-छोटे क़दमों से भाग रहे थे, अजीब तरीक़े से। ज़्यादा तफ़्सील में क्यों जाना?
मैं विजयी होकर घर लौटा। मैंने विग को फाड़कर फेंक दिया, अपने कपड़ों को जला दिया, अपनी कार धो डाली।
और यह सब कुछ बिना मतलब के, क्योंकि अगली सुबह कोई दूसरा, हूबहू उसके जैसा, नखशिख वैसा ही, उसकी जगह बैठ गया, जो शायद उससे भी ज़्यादा क्रूर था, जिसे मैं मार आया था।
अख़बारों ने कभी उस क़त्ल का जि़क्र तक नहीं किया। एक आदमी साफ़ हो गया था, दूसरा प्रकट हो गया था।
उस दिन बादल पूरी तरह काले थे, खांड की तरह चिपचिपे।
***
Thursday, April 17, 2008
शायरी अपने कमरे में सो जाएगी : ज़ीशान साहिल की कुछ नज़्में
किताबों की दुकान में
ख़्वाब मेरी आंखों में घर बना चुके थे
Wednesday, April 16, 2008
कवि मरता नहीं, वह अपना जीना स्थगित कर देता है...
प्रत्यक्षा, अशोक जी, अल्पना जी और उड़न तश्तरी जी का आभार. यक़ीनन, हौसला बढ़ता है. कविता लिखना अकेले होते जाना है, वो भी ऐसे भयानक समय में, जब भाषा को इतना चबा-चबाकर बोला जा रहा है कि वह पराई लगने लगती है. भाषा के बीच चल रही तमाम गलाज़तों के बीच एक कवि भाषा में ही ज़रा-सा अटका हुआ बचा रहता है. जैसे शमशेर की पीली शाम में एक पत्ता सांध्य तारक-सा अतल में अटका होता है. जैसे आंख की कोर पर एक आंसू ताउम्र अटका हुआ-सा. किनारे पर अटकी एक सूख रही नदी. नदी जिस-सा बन जाने की इच्छा हम सबकी होती है.
जोशिम और अतुल का भी आभार. जैसा कि वृंदावनी ने लिखा, पेंटिंग यक़ीनन हज़ार बांहों वाली है. पोस्ट करते समय मैं क्रेडिट देना भूल गया. यह एक मित्र कलाकार सिद्धार्थ की पेंटिंग है. रविकुमार जी, आपने मेल करने को कहा है, पर आपका आईडी नहीं है मेरे पास. और अनुवादों के लिए शुक्रिया. अरे हां, अबू ख़ां की बकरी को अच्छा याद दिलाया आपने. मेरी स्मृति से निकल गई थी वह कविता. दुर्भाग्य से कोई प्रति नहीं है उस कविता की मेरे पास. यह नौ-दस साल पहले छपी थी, जब शुरुआत की थी मैंने. कुछ दिनों पहले नागपुर से कवि बसंत त्रिपाठी भी वह कविता मांग रहे थे. एक पुरानी कविता स्मृति का इम्तेहान लेने के लिए ही आती होगी. इसी तरह बैंडिट क्वीन पर लिखी एक कविता भी उस समय बहुत पसंद की गई थी. एक पुरस्कार भी मिला था उस पर. लेकिन उसकी भी कोई प्रति नहीं. न छपी हुई, न रफ़ लिखी. पिछले छह-सात बरसों में इतने शहरों में इतनी बार रहा हूं कि बहुत कुछ खो बैठा हूं. एक शायर अपने खोई और छूटी हुई चीज़ों में ही रहता है हमेशा.
जैसे पाकिस्तान के शायर ज़ीशान साहिल अपनी खोई हुई स्पेस को तलाशते रहे; और दो दिन पहले अचानक इस धरती को छोड़ दिया. कल ही पता चला. कराची के एक अस्पताल में सांस लेने में दिक़्क़त होने पर भरती हुए और कुछ घंटों में कूच कर गए. यह पूरे बर्रे-सग़ीर की शायरी को लगा ऐसा झटका है, जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं. वह कितना अज़ीज़ और आला दर्जे का शायर था, इस ब्लॉग पर मेरी पहली पोस्ट से पता चल जाएगा. कविताओं की अपनी डायरी में मैंने पहले सफ़े पर उसकी नज़्म लिखी है, उसी तरह ब्लॉग पर पहली नज़्म उसकी रखना चाहता था मैं.
ज़ीशान से जब मैंने बात की थी, तो मक़सद था पहल के लिए फोन पर उनका एक लंबा इंटरव्यू करना. उन्होंने कहा था, सवाल भेज दो, तब तक थोड़ी संभल जाएगी तबियत. उनके लिए कई सवाल लिखे, पर बिना जवाब दिए गए चले गए वह. एक शायर अपने पीछे कितने अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है....
पिछले दिनों मृत्यु सूचना के रूप में बहुत तेज़ी से आई है मुझ तक. कुछ महीनों पहले मुंबई में कवि भुजंग मेश्राम नहीं रहे. मराठी आदिवासी कविता को उन्होंने एक नया स्वर दिया था. एक पका हुआ स्वर. 45 के आसपास था वह. पहल में चंद्रक्रांत पाटील ने उसे याद किया है. ऋतुराज को जब पहल सम्मान मिला, तो कार्यक्रम की सदारत ज्ञानरंजन जी ने भुजंग से ही कराई थी. एक वरिष्ठ कवि का सम्मान एक युवा कवि के हाथ से.
भुजंग के कुछ ही दिनों बाद मुंबई में ही मराठी कवि अरुण काळे का निधन. भुजंग और अरुण दोनों मराठी कविता के पाये थे. उखड़ गए. नाम्या ढसाळ की परंपरा के शायर. जिनके लिए कविता कान में उंगली डालकर नाक से सूंघने का बायस नहीं थी. पिछले पखवाड़े मराठी के ही महान कथाकार बाबुराव बागुल का भी निधन हो गया. 80 के आसपास थे. हिंदी वाले दलित साहित्य के नाम पर दया पवार और लक्ष्मण गायकवाड़ को पढ़कर धन्य होते हैं, पर शुरुआत तो बागुल से हुई थी. उनको तो हिंदी में आने ही नहीं दिया गया. भाषा की राजनीति बहुत सारे स्तरों पर काम करती है. भाषा के मैदान में एक लेखक को मारना सबसे सरल होता है. बागुल यानी हमारे आबा ने माटुंगा की रेलवे कॉलोनी से मज़दूरी शुरू की थी. वह मज़दूरी ही करते रहे हमेशा. नौ साल पहले हम उनसे मिलने नासिक गए थे- हम यानी भुजंग, संजय भिसे और मैं. अरुण काळे भी वहीं मिला था पहली बार. गांव के एक छोटे-से झोंपड़नुमा घर में रह रहे आबा के पास बिजली कनेक्शन नहीं था. शायद बिल नहीं भरे जाने के कारण काट दी गई थी. शाम होने पर मोमबत्ती और लालटेन से रोशनी मांगनी पड़ी. पूरी उम्र आबा को आंख और हाड़ फोड़ने पड़े, परिवार का पेट भरने लायक़ कमा लें, इसके लिए, साथी लेखकों और संस्कृतिपुरुषों ने कोई क़सर नहीं छोड़ी थी इस बात में कि आबा टूट कर बिखर जाए. पर आबा कभी नहीं टूटा. अपना हल उसने अपने कांधे के ज़ोर से ही खींचा. उसी आबा को उसी महाराष्ट्र सरकार ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी. बंदूक़ें दग़ रही थीं. नासिक की हर सड़क पर आबा के बड़े-बड़े कटआउट्स लगे थे, पोस्टर और होर्डिंग थीं. ऐसा लगा, महाराष्ट्र सरकार आबा की मौत का जश्न मना रही हो. व्यवस्था के लिए अत्यंत ख़तरनाक एक लेखक की मौत का जश्न. वह साहसी थे, इसीलिए सुंदर भी. कुछ मनुष्यों, कुछ स्मृतियों की बहादुरी पहले देखनी चाहिए, उनकी सुंदरता बाद में.
आबा, भुजंग और काळे पर जल्द ही और कुछ. ये सब रुलाते रहते हैं. उनमें ज़ीशान भी शामिल हो गया अब.
ज़ीशान एक साधारण आदमी का नाम नहीं था. उसकी तस्वीरें देखिए यहां पर. हां, वह सिर्फ़ 47 का था... http://www.t2f.biz/zeeshan/index.html
आज महान अभिनेता चार्ली चैपलिन का जन्मदिन भी है. ज़ीशान और चैपलिन के सरोकार भी एक-से थे. दोनों पर कुछ पोस्ट्स जल्द ही. अभी तो मैं अपने अख़बार में ज़ीशान पर एक पूरा पेज निकालने की तैयारी कर रहा हूं...
Tuesday, April 15, 2008
कुछ चिल्लर कविताएं...
वह आदमी कल शिद्दत से याद आया
एक रात वह मेरे घर पहुंचा
***
मेरे पैरों में थकान है, थिरकन नहीं
सबसे आसान है स्वांग करना
उसको पकड़ पाना सबसे मुश्किल
कितना बौड़म हूं
लिखा जाए
जो कुछ है- चकाचौंध सब कुछ विशाल है
Friday, April 4, 2008
आज महान गायक कुंदनलाल सहगल का जन्मदिन है...
उन्हें हिंदी सिनेमा का पहला सुपरस्टार कहा गया। पाकिस्तानी शायर अफ़ज़ाल अहमद सैयद से शब्द उधार लें, तो कह सकते हैं, जैसे काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया था, हुरूफ़ फिनिशियों ने, सुर गंधर्वों ने, उसी तरह सिनेमा का संगीत सहगल ने ईजाद किया। दुनिया में कई रहस्य हैं। चुनौती देते। चुनौती सहगल भी दे गए हैं। फ़क़ीरों-सा बैराग, साधुओं-सी उदारता, मौनियों-सी आवाज़, हज़ार भाषाओं का इल्म रखने वाली आंखें, रात के पिछले पहर गूंजने वाली सिसकी जैसी ख़ामोशी, और पुराने वक़्तों के रिकॉर्ड की तरह पूरे माहौल में हाहाकार मचाती एक सरसराहट... बता दो एक बार, ये सब क्या है? वह कौन-सी गंगोत्री है, जहां से निकल कर आती है सहगल की आवाज़? पता कर लो, कहां से आता है सहगल का दर्द, जो सीने में हूक, आंखों में नमी और कंठ में कांटे दे जाता है? क्यों एक रुलाहट आंखों पर दस्तक देती है और बिना कुछ कहे तकती हुई-सी लौट जाती है? यह सुबह या दुपहरी की नहीं, सांझ के झुटपुटे की आवाज़ है, जिसका असर रात के साथ गहरा होता जाता है। अगर आप दिल से कमज़ोर हैं, आधी रात को सहगल मत सुनिए। उन्हें सुनना भाषा में तमीज़ को जीना है। आंख में आंसू का सम्मान करना है। दुख जो दिल के क़गार पर रहता है, उसे बीचो-बीच लाकर महल में जगह देनी है। दुख को जियो, तो जीने का शऊर आ जाता है।
सहगल चमचमाती हुई कामयाबी का नाम नहीं है, राख और धुएं का नाम है। बर्बादी का जश्न है, जो सूखते हुए पत्ते को नम हो जाने का मंत्र देता है। वह तपती हुई रेत है, जिस पर तलवे रखने से मज़बूती हासिल होती है। वह क़तरा-क़तरा अपनी मौत में घुसता है और अपनी अंजुरी में भरकर सूर्य को सुरों का अर्घ्य देता है। वह अपना घर जलाता है और सितारों को रोशनी का दान देता है। वह शरत् का देवदास है- असली देवदास, जिसमें बचाने के लिए, ख़त्म हो जाने का साहस है। देवदास हर दिल में रहता है। पारो हर लड़की में रहती है। सहगल हर नब्ज़ में बहता है। हर कंठ में कांटों की शक्ल में रहता है, हर उस हथेली में चुभन बनकर बसता है, जो किसी पुराने स्पर्श की याद में बिसूर रही होती है।
सहगल के बारे में कुछ खास बातें
1- सहगल की उदारता के कई कि़स्से मिलते हैं। कहते हैं कि न्यू थिएटर्स के ऑफिस से उनकी सैलरी सीधे उनके घर पहुंचाई जाती थी, क्योंकि अगर उनके हाथ में पैसे होते, तो आधा वह शराब में उड़ा देते, बाक़ी ज़रूरतमंदों में बांट देते। एक बार उन्होंने पुणे में एक विधवा को हीरे की अंगूठी दे दी थी।
2- सहगल बिना शराब पिए नहीं गाते थे। 'शाहजहां' के दौरान नौशाद ने उनसे बिना शराब पिए गवाया, और उसके बाद सहगल की जि़द पर वही गाना शराब पिलाकर गवाया। बिना पिए वह ज़्यादा अच्छा गा रहे थे। उन्होंने नौशाद से कहा, 'आप मेरी जि़ंदगी में पहले क्यों नहीं आए? अब तो बहुत देर हो गई।
3- सहगल को खाना बनाने का बहुत शौक़ था। मुग़लई मीट डिश वह बहुत चाव से बनाते थे और स्टूडियो में ले जाकर साथियों को भी खिलाते थे। यही नहीं, आवाज़ की चिंता किए बग़ैर वह अचार, पकोड़ा और तैलीय चीज़ें भी ख़ूब खाते थे। सिगरेट के भी ज़बर्दस्त शौक़ीन थे।
4- सहगल ने ग़ालिब की क़रीब बीस ग़ज़लों को अपनी आवाज़ का सोज़ दिया। ग़लिब से इसी मुहब्बत के कारण उन्होंने एक बार उनके मज़ार की मरम्मत करवाई थी।
5- सहगल पहले गायक थे, जिन्होंने गानों पर रॉयल्टी शुरू की। उस वक़्त प्रचार और प्रसार की दिक़क़्तों के बावजूद श्रीलंका, ईरान, इराक़, इंडोनेशिया, अफ़ग़ानिस्तान और फिजी में सुने जाते थे। आज भी 18 जनवरी को कई देशों में सहगल की याद में संगीत जलसे होते हैं।
6- वह विग लगाकर एक्टिंग करते थे। अभिनेत्री कानन देवी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, 'साथी की शूटिंग के दौरान हवा के झोंके से उनकी विग उड़ गई और उनका गंजा सिर दिखने लगा। लेकिन सहगल अपनी धुन में मगन शॉट देते रहे। इस पर दर्शक हंस पड़े। सहगल झेंपने की जगह लोगों के ठहाकों में शामिल हो गए।
7- सहगल की क़द्र भारत से ज़्यादा पाकिस्तान में नज़र आती है। वहां जि़ला स्तर पर सहगल यादगार कमेटियां बनी हैं। सहगल की बरसी पर आम प्रशंसा बाक़ायदा लंगर लगाते हैं।
8- लता मंगेशकर सहगल की बड़ी भक्त हैं। वह चाहती थीं कि सहगल की कोई निशानी उनके पास हो। वह उनकी स्केल चेंजर हारमोनियम अपने पास रखना चाहती थीं, पर सहगल की बेटी ने उसे अपने पास रखते हुए सहगल की रतन जड़ी अंगूठी लता को दी। लता के पास आज भी वह निशानी है। कहते हैं कि कमउम्र में लता ने सहगल की एक फिल्म देखने के बाद उनसे शादी करने का ख्याल ज़ाहिर किया
9- रेडियो सीलोन पर हर सुबह 7:57 बजे सहगल के गाने चलते थे। जालंधर के पुश्तैनी मकान में जिस वक्त सहगल की मौत हुई थी, उस वक्त सुबह के 7:57 ही बजे थे। जिस्म चला गया था, फि़ज़ा में तैरती उनकी आवाज़ बाक़ी रह गई थी।