यह बहुत पुरानी कविता है, इतनी कि लंबे समय तक यह याद भी नहीं रहा था कि ऐसी कोई कविता लिखी थी. पुराने काग़ज़ों की सफ़ाई करते वक़्त मिली. सफ़ाई तो पहले भी की है, लेकिन मिली अबकी. इसके नीचे तारीख़ है 8 सितंबर 98. यह पूरी होने की तारीख़ है. तब मैं कविता के नीचे पूरी होने की तारीख़ डाला करता था, शुरुआत की नहीं. इसलिए यह नहीं याद कि शुरू कब हुई थी. कुछ ही समय बाद यह गोरखपुर की पत्रिका 'दस्तावेज़' में छपी थी. उसके बाद का कुछ नहीं याद. जैसे कभी यह सब लिखा ही न था. मेरे पास वे पत्रिकाएं कभी नहीं होतीं, जिनमें मेरी चीज़ें छपी होती हैं. ऐसा कोई अंक नहीं है, किसी भी पत्रिका का. 2007 में इस कविता की याद नागपुर से कवि-मित्र बसंत त्रिपाठी ने दिलाई. उनसे पहली बार फ़ोन पर बात हो रही थी, और उसी दौरान उन्होंने इसका जि़क्र छेड़ा. उन्होंने तब पढ़ी थी. उस समय याद आया कि हां, ऐसी एक कविता लिखी थी, पर वह कहां गई, नहीं पता. उस समय भी मैंने इसे खोजा था. बाद के दिनों में भी कुछ और दोस्तों ने इस कविता को याद किया. मैं बार-बार याद करता कि उस कविता में मैंने लिखा क्या था, कुछ विचारधाराओं-प्रतीकयोजनाओं के आधार पर इसकी सिलाई की थी, इससे ज़्यादा कुछ याद न आता. यही कारण था कि यह न संग्रह में रही, न बातचीत में, न डायरियों में, न ही ऑनलाइन डाटा में. कल शाम मिल ही गई आखि़र. जब इसे नहीं खोज रहा था तब. यही नहीं, कुछ और भूल चुकी कविताएं भी मिली हैं. एकाध को पढ़कर मुझे समझ ही न आया कि ये किन मन:स्थितियों में लिखी गई थीं और इनका अर्थ क्या है (जो लोग मुझसे मेरी कविताओं का अर्थ पूछते हैं, उन्हें ख़ुश होना चाहिए).
मुझे ऐसा लगता है कि उस समय मुझे उत्तर-आधुनिकता के बारे में कुछ संपट नहीं पड़ा होगा, क्योंकि हाशिए पर एक नोट में उसे भी इसमें शामिल करने का निर्देश लिखा हुआ है. संपट होती, तो पता नहीं क्या लिखता. अभी भी यही सोच रहा हूं कि क्या लिखा है. पुरानी, विस्मृत रचनाओं को देखकर हम हमेशा ऐसा सोचते हैं कि इसे आज लिखा होता, तो ये-ये, वो-वो दुरुस्त कर देता. दुरुस्त कर लेने वाला भाव ही शायद आपका क्रमिक विकास होता हो.
ख़ैर, बारह साल पहले भूली जा चुकी यह कविता पढ़ें. इसे यहां लगाने से पहले मैं इसे कवि
बसंत त्रिपाठी को ही समर्पित करता हूं.
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अब्बू ख़ां की बकरी
अब्बू ख़ां एक परंपरा है
अब्बू ख़ां की बकरी एक मुहावरा
सबसे पहले हमें कुछ बुनियादी बातों पर सोचना चाहिए
अब्बू ख़ां कौन था
वह बकरियां क्यों पालता था
उसने कितनी बकरियां पाली थीं
उसकी बकरियां बार-बार उसके पास से भाग क्यों जाती थीं
उसकी बकरियों को खा जाने वाला भेडि़या कौन था
जब उसने धीरे-धीरे सारी बकरियां खा डालीं
तो क्या अब्बू ख़ां ने बकरियां पालना छोड़ दिया
मार्क्सवादी पद्धति से इस पर सोचा जाए
तो अब्बू ख़ां मेहनतकश वर्ग का था जिसे
सर्वहारा कहा जाना चाहिए
अय्यप्प पणिक्कर की एक कविता खुजली और बंबई में
प्रचलित शब्द खुजली के आशयों के अनुसार
उसे बकरी पालने की खुजली थी
या उसके पेट में भूख नाम की एक पिशाचिनी रहती थी
जो उससे बकरी पलवाती थी
और उसका दूध निकलवाती थी
यानी बकरी उसके लिए उत्पादन का साधन थी
जिसे दुहकर वह एक तरह से दूध का उत्पादन करता था
इस तरह देखा जाए तो
उत्पादन के उस साधन पर अब्बू ख़ां की मिल्कियत थी
अब्बू ख़ां दूध निकालने में मेहनत भी करता था
अर्थात वह मेहनतकश भी था
अर्थात उत्पादन के साधन पर मेहनतकश का स्वामित्व था
तो इस तर्क के आधार पर हम यह कैसे कह सकते हैं
कि अब्बू ख़ां सर्वहारा था
लेकिन उसकी माली हालत इतनी अच्छी भी नहीं थी कि
उसे नेशनल बूर्ज्वाजी का नाम दे सकें
उसे हम मध्यवर्ग या निम्न(मध्य)वर्ग में ले सकते हैं
जो श्रम करता है और वस्तुत: भूख का श्रमिक होता है
दूसरी तरफ़ इसे थोड़ा अस्तित्ववादी मोड़ दिया जाए
तो अब्बू ख़ां एक स्वतंत्र व्यक्ति था
और उसकी एक निरपेक्ष्ा इच्छा थी कि बकरी पाली जाए
अस्तित्वाद में व्यक्ति के पास इच्छा का होना ज़रूरी है
इसमें ऐसा नहीं कि भूख मर जाती है
बल्कि भूख मिटाने की इच्छा का होना महत्व का है
व्यक्तिनिष्ठ तरीक़े से वह एक व्यक्ति था
जिसके पास एक व्यक्तिगत भूख होती है
जिसे वह व्यक्तिगत या सार्वजनिक माध्यम से पूरा करता है
उसकी बकरियों की भी एक निहायत व्यक्तिगत इच्छा होती है
मुक्ति की जिसे आध्यात्मिक शब्दों में
अब्बू ख़ां से मुक्ति पूरी दुनिया से मुक्ति पा मोक्ष की तलाश
कह सकते हैं
जबकि मार्क्सवादी शब्दों में बकरी सर्वहारा नहीं है
क्योंकि उसके पास खोने के लिए बेडि़यां और पाने के लिए सबकुछ के ठीक उलट
खोने के लिए बेडि़यों के साथ सुरक्षा और प्यार और पाने के लिए भेडि़ये से संघर्ष और मौत है
हालांकि मार्क्सवाद नियतिवाद में विश्वास नहीं करता
अस्तित्ववादी परंपरा और रेनेसां की प्रतीकयोजना के मुताबिक़ यह भी संभव है कि
अब्बू ख़ां भारत का एक आम व्यक्ति हो
और उसके पास कोई बकरी ही न हो
यानी अब्बू ख़ां के दिमाग़ के कुछ अंधेरे पहलू हों
और उनमें कुछ बकरियां निवास करती हों
बकरियां ज़रूरी नहीं कि बकरी की तरह ही हों
बकरियां नादान होती हैं सीधी-सादी होती हैं
सो बकरियां दिमाग़ के नादान सुविचार भी हो सकती हैं
और भेडि़या भी दिमाग़ में ही निवास करता हो
किसी भयानक कुविचार की तरह
अब्बू ख़ां के दिमाग़ की बकरियां जब-जब हरे-भरे मैदानों में तफ़रीह करना चाहती हों
यानी अब्बू ख़ां के नादान सुविचार उससे मुक्त हो अमल में आना चाहते हों
या अभिव्यक्त हो सार्वजनिक हो जाना चाहते हों
ठीक उसी समय धर दबोचता हो उन्हें कुविचार का भेडि़या
अब्बू ख़ां की बकरी को हम देश के हर आदमी के दिमाग़ के अंधेरे पहलुओं में
चल रहे सुविचार-कुविचार के संघर्ष के रूप में देख सकते हैं
पर चूंकि यह वैदिक-ऐतिहासिक धर्म-अधर्म का संघर्ष नहीं
सो इसमें बकरी रूपी धर्म अर्थात कमज़ोर नादान सुविचारों की ही जीत हुई हो
इतिहास में ऐसा कभी दर्ज नहीं हो पाया
यह भी संभव है कि अब्बू ख़ां अपनी बकरियों और भेडि़ये और अपनी पूरी कहानी समेत हमारे दिमाग़ में रहता हो, लड़ाई चलती ही रहती हो और वह हमारे बहुत सारे निर्णयों को प्रभावित भी करता हो
आजकल के टाइम का एक व्यावहारिक सिद्धांत यह भी है
बतर्ज लड़की अगर मिनी स्कर्ट पहनेगी तो रेपिस्ट तो आएगा ही कि
बकरी जब देर रात घने जंगल में अकेले घूमेगी
तो भेडि़या तो उसे खाएगा ही
इसमें दोष बकरी का ही था
क्योंकि बकरी ही बार-बार आज़ाद होने के लिए अब्बू ख़ां के पास से भाग जाती थी
और भेडि़ये के इलाक़े में पहुंच जाती थी
फुक्कट में भेडि़ये को दोष कायको देना
उसके पास भी भूख है और पारिस्थितिकी के अनुसार उसका आहार बकरियां हैं
सवाल यह है कि बकरियां अब्बू ख़ां से आज़ादी क्यों चाहती थीं
क्या मेहनतकश अब्बू ख़ां शोषक अब्बू ख़ां भी था
क्या अब्बू ख़ां की पालना में रहना अब्बू ख़ां की कष्टकर ग़ुलामी में रहना था
वे अब्बू ख़ां के पास घास खाने, दूध देने, छोटी-छोटी लेंडियां करने और
जब-तब में-में करने के सिवाय करती ही क्या थीं
अब्बू ख़ां में कोई लाड़-प्यार भी था जो बकरियों का दिमाग़ फिरा देने को काफ़ी था
और उन बकरियों की भूख नामक मूलभूत ज़रूरत पूरी तरह संतुष्ट थी
क़ायदे की बात है कि जब पेट भरा हुआ होता है
तो आज़ाद होने की बात ख़याल आती है
(देश की आज़ादी का पूरा संघर्ष ही भरे पेट वाले लोगों की अगुआगिरी में हुआ था)
अब यहां कलावादी उचककर सवाल करते हैं
लेकिन हर चीज़ आकर भूख पर ही क्यों टिक जाती है
और भी ग़म हैं ज़माने में भूख के सिवाय
ये तो आप जानते ही हैं कि ऐसा कौन कहेगा कि
भेडि़या हिंदू था और मुसलमान (की) बकरियों को ही खाना प्रिफ़र करता था
क़ानून की बात कि अब्बू ख़ां ने अपनी बकरियों की सुरक्षा का इंतज़ाम कैसा किया था
अलेक्ज़ेंडर ब्लोक के प्रतीकवाद और मायकोवस्की के बाद के भविष्यवाद पर आएं
और अब्बू ख़ां की बकरियों को अब्बू ख़ां की बेटियों के रूप में देखें तो
लड़कियों के बार-बार भेडि़यों द्वारा खा लिये जाने की अनंत दारुण कथा समझ में आती है
तब भेडि़ये को कैसे लें
जवान लड़कियों को सुनहरी सपने दिखा खींच लेने वाला प्रलोभन
एक ऐसा चुंबक जिसे पता है मिट्टी और लोहे के बुरादों का फ़र्क़
फिर बकरियों को क्यों नहीं पता अब्बू ख़ां और भेडि़ये का फ़र्क़
जब-जब कोई बकरी मारी जाती है
तब-तब अब्बू ख़ां ख़ुद को भयंकर असुरक्षित और एकाकी महसूस करता है
जब-जब हमारे दिमाग़ में कोई पराजय होती है दुख सिर उठाता है
हम अब्बू ख़ां की गति को प्राप्त होने लग जाते हैं
उपभोक्तावाद में बकरी हमारी संस्कृति बन जाती है और भेडि़या बाज़ार आक्रांता
हम एक-एक करके अपनी बकरियां खोते जा रहे हैं अलग-थलग होते जा रहे हैं
पूंजीवाद अपने विध्वंसक रूप के प्रभावों से व्यक्ति को लगातार आत्मकेंद्रित
अलग-थलग और एकाकी बनाता जाता है
ज़रा फिर मार्क्सवादी-समाजवादी संदर्भों में लौटें
भुवनेश्वर, सर्वेश्वर से लेकर विमल कुमार की कविताओं का भेडि़या कितने रूप बदल चुका है
क्या अब्बू ख़ां की बकरियों के प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण करने की प्रवृत्ति ही भेडि़या है
अगर बकरी अब्बू ख़ां का श्रम है तो उसे बेमोल पचा ले जाता है
उसके उत्पादन का एक अंग तो लगान की तरह वसूल ले जाता है
अब्बू ख़ां लाख सिर पटकता है
बकरी उसके पास टिकती नहीं
पालतू ग़ाफि़ल हो बार-बार भग जाती है
घात लगाये भेडि़या दबोच लेता है
अब्बू ख़ां रोता है
अकेले में बूढ़ा होता है
अब्बू ख़ां एक परंपरा है
अब्बू ख़ां की बकरी एक कहावत-मुहावरा
भेडि़या परंपराओं-कहावतों से रूढ़ एक नंगी असलियत
(फिन देक के लो न भिड़ू, कविता को परंपराओं-मुहावरों से बचाने का है,
बोले तो काय-काय चीज़ से बचाने का है, समझ के लो न)