Sunday, August 8, 2021

नई वेबसाइट geetchaturvedi.com

नई वेबसाइट तैयार है। इस पते पर देख सकते हैं : 

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Monday, May 9, 2016

सबद पर दस नई कविताएं



दस नई कविताएं सबद पर प्रकाशित हुई हैं. उनमें से एक नीचे है.
सारी कविताओं को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 




व्‍युत्‍पत्तिशास्‍त्र

एक था चकवा. एक थी चकवी. दोनों पक्षी हर समय साथ-साथ उड़ते. अठखेलियां करते. पंखों से पंख रगड़ तपिश पैदा करते.

                                                      (भाषाशास्‍त्री नोट करें : प्रेम की उत्‍पत्ति 'साथ' से हुई.)

एक रोज़ शरारत में उन्‍होंने एक साधु की तपस्‍या भंग कर दी. साधु ने शाप दे दिया कि आज से तुम दोनों का साथ ख़त्‍म. जैसे ही दिन ढलेगा, चकवा नदी के इस किनारे होगा और चकवी नदी के उस किनारे.

                                                      (भाषाशास्‍त्री नोट करें : प्रेम की उत्‍पत्ति 'विरह' से हुई.)

दिन-भर चकवा और चकवी एक-दूसरे को पहचानते तक नहीं. जैसे ही अंधेरा छाता, वे उड़कर नदी के विपरीत छोरों पर चले जाते. वहां से सारी रात अपने प्रेम की वेदना की कविता गाते. मिलन की प्रतीक्षा करते.

                                                      (भाषाशास्‍त्री नोट करें : प्रेम की उत्‍पत्ति 'कविता' से हुई.)

रात-भर दोनों दुआ करते कि किसी तरह साधु ख़ुश हो जाए और अपना शाप वापस ले ले. लेकिन शाप देने के बाद साधु लापता हो गया. वह साधु शब्‍द में भी नहीं बचा. प्रेम को लगा शाप कभी वापस कहां होता है?

                                                      (भाषाशास्‍त्री नोट करें : प्रेम की उत्‍पत्ति 'शाप' से हुई.)

चकवी अक्‍सर मेरी कविताएं पढ़ती हैं. पढ़-पढ़कर रोती है. कहती है, 'चकवा जो गाता है, तुम वह लिखते हो. ऐसा आखि़र कैसे करते हो? तुम चकवा हो?'

भोली है. यह नहीं जानती, मैंने कभी कोई कविता दिन में नहीं लिखी.

                                                      (भाषाशास्त्री अब नोट करना बंद करें : प्रेम और कविता जब शुरू होते
                                                      हैं,तब भाषा का कोई काम नहीं बचता. इतिहास में जितने भी महान
                                                      प्रेमी हुए, उनमें एक भी भाषाशास्त्री न हुआ.)


पोस्‍ट-स्क्रिप्‍ट :
हर शाम चकवी पूछती है : 'रात-भर जागोगे? ऐसी कविता लिखोगे, जो नदी के दोनों किनारों को जोड़ दे?'



Monday, June 8, 2015

(भू) लोक-कथा


*1*

उस ग़रीब को अपना अपराध समझ में न आया, लेकिन बादशाह ने उसे सज़ा सुना दी. सज़ा थी कि कड़ाके की ठंड में रात भर इसे निर्वस्‍त्र, कमर-भर पानी वाली नदी में खड़े रखा जाए. बादशाह को यक़ीन था कि इस तरह उसे जो मौत आएगी, वह मिसाल क़ायम करेगी. बादशाहों को मौत की मिसालें बनाने का बड़ा शौक़ होता है.

वह ग़रीब कमर-भर पानी में डूबा हुआ, निर्वस्‍त्र, बादशाह की सुनाई सज़ा का अनुवाद अपनी ठिठुरन में करता रहा. सुबह हुई, तो लगभग नीला, कांपता हुआ-सा, नदी से बाहर निकला. बादशाह अपनी हैरत में डूब गया कि इसे मौत क्‍यों नहीं आई. उसे संदेह हुआ कि इसने या किसी और ने सज़ा अमल करने में छल किया है.

पूछने पर उस ग़रीब ने बताया, 'जब मैं पानी में खड़ा हुआ, तो मुझे बहुत ठंड लगी. मुझे लगा, मैं इसी पल मर जाऊंगा. तभी मेरा ध्‍यान आधा कोस दूर आपके महल पर गया. उसके बुर्ज़ पर एक दिया जल रहा था. मैं उसे देखने लगा. थोड़ी ही देर में ऐसा लगा कि वह दिया आधा कोस दूर नहीं, बिल्‍कुल मेरे पास है. उसके बाद मुझे उसकी रोशनी, उसकी गर्मास महसूस होने लगी. मैं उस दिये के कारण जीवित हूं.'

*2*

बादशाह को ख़ुद पर फिर गर्व हुआ. इस बार भी छल का उसका संदेह सही साबित हुआ. उसने सज़ा बढ़ा दी. कहा, आज रात छाती तक पानी में इसे निर्वस्‍त्र रखा जाए, वहां से नज़र आने वाले सारे दिये बुझा दिए जाएं. इसके पास गर्मी और रोशनी का क़तरा भी न पहुंचे, ध्‍यान रहे.

अगली सुबह ग़रीब फिर जि़ंदा बच निकला. वैसा ही नीला, ठिठुरता. बादशाह फिर हैरान हो गया. पूछने पर ग़रीब ने कहा, 'बादशाह, मैं तो पूरी ईमानदारी से सज़ा ही भुगत रहा था. एक समय मुझे यह यक़ीन हो गया था कि बस, कुछ पलों बाद ही मैं मर जाऊंगा, लेकिन रात के उस पहर मैंने देखा, जब आसपास कोई दिया नहीं था, दूर उत्‍तर के आसमान में एक तारा उग आया. मैं उसे बेहद ध्‍यान से देखने लगा. उसकी रोशनी और गर्मास मुझ तक पहुंचने लगी. वह तारा मेरे बिल्‍कुल पास ही था.'

बादशाह उसकी बची हुई ठिठुरन देख रहा था, तभी उसने कहा, 'बादशाह, आज की रात सारे तारों को भी बुझा देना.'