Saturday, August 25, 2012

मेरे बचपन की पतंग आसमान में लटकी भुरभुरी उम्‍मीद है






'बेवजह गलियों में भटकता है एक कवि, 
पाता है कि वह रास्‍ता भूल गया है.' 

यह एक वियतनामी लोकगीत की पंक्तियां हैं, जो त्रान आन्‍ह हुंग की फिल्‍म 'साइक्‍लो' में कहीं बजती हैं. इस फिल्‍म को मैं कई बार देख चुका हूं. त्रान आन्‍ह हुंग की फिल्‍में उन वीरान जगहों की तरह हैं, जहां आप सिर्फ़ एक बार जाकर लौट नहीं सकते, आप दुबारा-तिबारा जाएंगे, आप वहां घर नहीं बनाएंगे, लेकिन हर समय आप घर में रहते भी नहीं हैं. 

घर से बाहर एक जगह ऐसी भी होती है, जहां आप उतनी ही बार जाते हैं, जितनी बार घर जाते हैं.  

हरा, आन्‍ह हुंग की टेक है. वह किसी भी दृश्‍य का हरे में अनुवाद कर सकते हैं और उमंग के रंग से उदासी का भाव पैदा करते हैं. जब सबकुछ बहुत बोल रहा हो, बोलता ही जा रहा हो, उनकी कम बोलने वाली इन फिल्‍मों के पास जाना, शब्‍दों की क़ीमत जानना है. 

कुछ ऐसा ही अहसास मेक्सिकन मेकर कार्लोस रेगादास की फिल्‍में देखकर होता है, लेकिन इसके बाद भी वह बिल्‍कुल अलग भूगोल हैं. 

इस समय मुझे 'साइक्‍लो' में टोनी लिऊंग का किरदार याद आता है, जो माफिया सरगना है और कवि भी है. लगभग गूंगा यह किरदार पृष्‍ठभूमि में कविताएं पढ़ता है, बहुत ज़रूरी होने पर कोई एक वाक्‍य उच्‍चरता है और हमेशा सिगरेट होंठों से लगाए रखता है. वह अपराध के लिए अनमना है. कवियों की तरह. 

कवि, अनमने के आंगन में रहते हैं. कविताएं उनके अनमने की हरियाली हैं. 

पूरी फिल्‍म में कई ऐसे दृश्‍य हैं, जहां इस कवि को संभवत: रोना हो. उसकी आंख से कोई आंसू नहीं गिरता. ऐसे समय उसकी नाक से ख़ून बहने लगता है. 

गिरे हुए आंसू, आंख के अंधेरों को याद करते हैं. 
बहा हुआ ख़ून, धमनियों की भुलभुलैया को याद करता है. 

किसी एक पृष्‍ठभूमि में कवि की अनमनी आवाज़ गूंजती है :  

मेरी आत्‍मा के भीतर सूर्योदय हुआ है 
हर घर के लिए एक-एक टुकड़ा सूरज 
हर एक के लिए अंजुरी-भर रोशनी 

छतरी के नीचे एक पत्‍ती कांपती है 
और ओस याद करती है बादलों को 

पृथ्‍वी विशाल हवाओं की सांस छोड़ती है 
जीवन के भीतर फैलती है झुरझुरी 

मेरे बचपन की पतंग 
आसमान में लटकी भुरभुरी उम्‍मीद है 

हृदय खुलते हैं, लोग रहते हैं 
एक ऐसी दुनिया में 
कोई भी जिससे बाहर नहीं है 

* * *