Wednesday, April 29, 2009

ट्रेन में एक शाम

वह जिस तरह लेटा था, उसे युवा हो जाना चाहिए था.
वह स्‍त्री इस तरह उस अधेड़ की मां लग रही थी.


बाहर कुछ नहीं दिख रहा था. ट्रेन को पता था, कहां जाना है, इसीलिए वह बिना हांफे दौड़ रही थी. खिड़की पर टंगा परदा अचानक उठ जाता, पर हवा जैसी कोई चीज़ नहीं आती. वह भीतर ही भीतर थी और अपने आप शुद्ध हो जाती. शीतल भी.
एक तरफ़ की खिड़की आईने की तरह हो गई थी. उसमें वह आदमी, वह लड़की दोनों दिख रहे थे.

पहले पहल वह आदमी खांसा था. किसी ने ध्‍यान नहीं दिया. वह लड़की बार-बार छोटे कांच वाला चश्‍मा संभालती, इस संभाल के बीच किताब के पन्‍ने पलट लेती, इसी बीच एकाध बार वह सिर उठाकर देख लेती, उसके चश्‍मे के कांच में छत पर लगा छोटा-सा लैंप प्रकाश का बिंदु बनकर चमकता. मैंने एकाध बार उसकी किताब की तरफ़ देखा. उसने एक बार भी मेरी तरफ़ नहीं देखा. मैं उसे उसकी ओर देखना रोक चुका था. मैं उसे आईने में बदल गई दूसरी खिड़की से देखता रहा. मैं उसे देख रहा था, इस तरह, जैसे कहीं और देख रहा हूं, ट्रेन से बाहर, जबकि वहां कुछ नहीं दिख रहा था. वह किसे देख रही थी, इस तरह, जैसे कहीं और देख रही हो, किताब के भीतर, जबकि वहां कोई चित्र न रहा होगा.

पहले पहल वह आदमी खांसा था. किसी ने ध्‍यान नहीं दिया. किताब में देखती उस लड़की ने भी नहीं. फिर वह और ज़ोर से खांसा. फिर वह खांसता चला गया. साइड की दो सीटों पर वे आमने-सामने थे. इस तरफ़ से हमने उसे देखा. हमारे देखने से पहले उस लड़की ने किताब से बाहर आकर उसे देखा.

खांसी की तमाम स्‍मृतियों को निरस्‍त कर हम एक खांसते हुए आदमी को देख रहे थे, जो पास में रखे अपने बैग से कुछ निकालने की कोशिश में और दोहरा हो रहा था. उस लड़की ने किताब परे की और उस बैग से उसे कुछ निकालने में मदद करने लगी. उस आदमी ने हाथ को मुंह के पास ले जाकर कुछ इशारा किया. उस लड़की ने बैग पूरी तरह अपने हाथ में ले कुछ पलों के बाद एक इन्‍हेलर निकाला. आदमी ने उसे मुंह के भीतर लेकर स्‍प्रे जैसा किया. उसके सांस और खांस थिर होने लगे. वह इस तरह हांफ रहा था, जैसे बहुत दौड़ा हो, बिना यह जाने कि कहां जाने के लिए इस तरह दौड़ा. शीतल हवा में भी उसके माथे पर पसीना था. उसकी आंखों के पास से पानी बह रहा था, जो खांसी का आंसू होगा. लड़की ने उसे ऊपर टंगा हुआ नैपकिन उतार कर दिया.
डिब्‍बे का दरवाज़ा जितनी बार खुलता, उतनी बार शोर का बगूला घुसता. हम उतनी बार दरवाज़े की ओर देखते.

आईना बन गई खिड़की से मैं उस लड़की को उस आदमी का बैग बंद करते, फिर सहेज कर रखते देखता रहा. वह आदमी पीठ टिकाए आंख बंद किए था. आंख बंद करने पर जो अंधेरा दिखता है, वह उतना गाढ़ा नहीं होता. लड़की ने उसे एक पल को उठने को कहा. फिर सीट गिरा दी. वह उस पर लेट गया. मेरे सामने वाले ने उस लड़की से कहा, भाभीजी, आप चाहें, तो इन्‍हें यहां लिटा सकती हैं. यहां डिस्‍टर्ब नहीं होगा. वह लड़की मुस्‍कराई और उसके पैर की ओर बैठ गई. मैंने आईने में उसे उसकी पत्‍नी की तरह देखा.

बीच-बीच में वह किताब से चेहरा निकालती और उस आदमी के चेहरे को देख लेती. और एकाध बार उसके माथे से पसीना पोंछ देती. उसका सूती दुपट्टा उस आदमी की आंखों पर था.

मैं कभी आईने में और कभी गरदन फिराकर उसे देखता रहा. उसे पता नहीं चल पाया होगा कि मैं उसे दो तरफ़ से देख रहा हूं. वह किताब के भीतर और सीट पर देखती रही. इस बीच वह मोबाइल पर एसएमएस पढ़ती और जवाब देती रही.

क़रीब एक घंटे बाद स्‍टेशन आया. उसने सीट के नीचे से अपना बैग निकाला. कोई नंबर डायल किया और अपने डिब्‍बे का नंबर बताने लगी. उठते समय उसने लेटे हुए उस आदमी का कंधा हिलाकर कहा, अब आप पैर फैलाकर सो जाइए.

कांच का दरवाज़ा खोलकर वह डिब्‍बे से बाहर हो गई. वहां उतरने के लिए कुछ लोग दरवाज़े के पास सामान रखकर खड़े थे.