Sunday, August 31, 2008

काज़ुको शिराइशी की दुनिया में


जापानी कविता पढ़ चुके लोगों के लिए काज़ुको शिराइशी नाम नया नहीं होगा. 1931 में कनाडा के वैं‍कूवर में जन्‍मी शिराइशी को मां-बाप द्वितीय विश्‍वयुद्ध के ठीक पहले जापान ले गए. सत्रह की उम्र से कविताएं लिखनी शुरू कीं. कविताएं एलेन गिंसबर्ग से गहरे तक प्रभावित. 'न्‍यू डायरेक्‍शंस' से छपे इनके संग्रह के बैक कवर पर टिप्‍पणी में इन्‍हें 'जापान की एलेन गिंसबर्ग' कहा गया है.

1973 में आयोवा यूनिवर्सिटी के राइटिंग प्रोग्राम में एक साल तक रहने के बाद उनकी कविता में कई बदलाव आए. 78 में 'सीज़न्‍स ऑफ सैक्रेड लस्‍ट' छपकर आया, जिसने उन्‍हें अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर स्‍थापित कर दिया. उनकी कविताएं गहरे अमूर्तन की कविताएं हैं, भीतर के संघर्षों की. कविता के भीतर जीवन के एक नए दर्शन की तलाश. मार्च 88 में वह भारत भवन में हुए 'कविता एशिया' के लिए भोपाल आई थीं.


वह आदमी

वह आदमी कभी नहीं रुकेगा
पता नहीं कब से भागना शुरू किया है उसने
अभी एक पल को किसी इमारत की खिड़की से
झांक रहा था उसका सिर
वह दीवार पर दौड़ता है
वह सड़क पर दौड़ता है
सड़क जब समंदर में जाकर ख़त्‍म हो जाती है
वह पानी पर दौड़ने लगता है

ये जो आदमी दौड़ता जाता है दौड़ता जाता है
और जो कभी रुकेगा नहीं
उसे रखती हूं मैं
अपनी कॉपियों में
अपनी दराज़ में
अपने अंधेरे में
और मरते रहते हैं मेरे दिन
और ख़त्‍म नहीं होतीं मेरी रातें.



गली

तब की बात है जब हम भीतर त्‍वचा तक गीले
चल रहे थे रहस्‍य से भरे एक क़स्‍बे की अंधेरी गली में
बारिश. बेहद ठंडा मौसम.
हमारे पास रेनकोट थे और एक काला छाता.
कितनी तेज़ी से झोंका ख़ुद को टैक्‍सी पकड़ लेने के लिए
कोई मतलब नहीं, वे रुकी ही नहीं
अंतत: हमने पैदल चलना शुरू किया
भीगे हुए भीतर तक कस कर चिपके हुए
और सोचते रहे भविष्‍य ने कैसे दिन छिपा रखे हैं हमारे वास्‍ते

हालांकि मैंने
उस गर्म होटल, ताप को साझा करती हमारी देह
बेशुमार शब्‍दों और प्‍यार के तरीक़ों के बारे में
कभी कुछ याद नहीं किया.


फुटबॉल का खिलाड़ी


वह फुटबॉल का खिलाड़ी है
गेंद को किक मारता है हर रोज़
एक रोज़

उसने किक मारकर प्‍यार को ऊपर आसमान में पहुंचा दिया
वह वहीं रह गया
चूंकि वह कभी नीचे नहीं आया
लोगों को लगा यह सूरज है
या चांद या फिर कोई नया सितारा

मेरे भीतर एक गेंद है
जो कभी नीचे नहीं आती
लटकी रहती है आसमान के बीचोबीच
आप देख सकते हैं उसे लपट बनते हुए
प्‍यार या सितारा बनते हुए




तोता

मैंने कहा- मैं तुमसे प्‍यार करती हूं
तुमने जवाब दिया- मैं तुमसे प्‍यार करता हूं
मैंने कहा- मैं नफ़रत करती हूं तुमसे
तुमने जवाब दिया- मैं नफ़रत करता हूं तुमसे
मैंने पूछा- अब हम अलग हो जाएं क्‍या?
तुम तोता ही रहे हमेशा
दोहराते रहे मेरे शब्‍दों को जस का तस
इसीलिए ऐसा आया एक समय
जब हमें तलाक़ लेना पड़ा.

(सारी कविताएं 'सीज़न्स ऑफ सैक्रेड लस्‍ट' से)

Thursday, August 28, 2008

क्‍यों सोचें?

कई बार यही नहीं समझ आता कि हम क्या कर रहे हैं. वे क्या कर रहे हैं, समझना, ऐसे में मुश्किल नहीं जान पड़ता? अपना अमूर्तन हमेशा सुहाता है. उनका अमूर्तन भ्रम में डालता है. जैसे मेरी अमूर्त बातों को, मुंह बिचकाकर या बिराकर निकल लेते हैं आप लोग. लेखक तो होता ही मध्यवर्गीय जीव है, जो लिखता इसलिए है कि अपने भीतर की किसी मुंहबिराऊ मुद्रा से ख़ुद बच निकले और अपनी नागरिक अकर्मण्यताओं और उससे झुंझलाए अपराधबोध को दूसरे में (प्रत्या)रोपित कर आंख मलते विजयीभाव से वाह-वाह की ध्वनियों को टप्पा लेते आते देखे. अक्सर यह प्रत्यारोपण फ़ेल हो गई सर्जरी की तरह होता है, जिसका सारा दोष सॉइल की निरोधी फ़र्टिलिटी के माथे गिरता है. रोपण, सींचन, अंखुअन, स्फुरण जैसी बॉटैनिकल (कितौ बायोटेक्निकल) क्रियाएं होते-होते रह जाती हैं, प्रैक्टिकल के अभाव में पिक्टोरियल डिक्शनरी देख थ्योरी से ही काम-भर का पंखा झल जाता है. बीज-गुरु मन की किसी गांठ में बिसूरते पड़ रहते हैं कितौ लुंगी की गांठ से सरक लेते हैं. वाह-वाह की ध्‍वनि भी ऑडिबल नहीं रह जाती.

और पाठक भी भाभड़ा (कितौ छप्पनटिकली), ऐसा सैडिस्टिक अप्रोच लिए विचरता है कि बेचारा मध्यवर्गीय लेखक आज-इतिहास की न जाने कितनी त्रासदियों पर यौगिक रुदन करता है, और पाठक उस पर पेंसिल कितौ की-बोर्ड से वाह-वाह टीपता, 'इसकी तो ले ली' वाले भाव में एक स्माइली, सरेस-मय, चिपकाकर कल्टी मार लेता है.

विजय किसकी होती है, रो-रोकर आंख मलते विजयीभाव से फिरकीदार वाह-वाही टप्पों को तकते राइटर महोदय की या रोने पर आंख दबाकर खींस निपोरती सरेस-मय स्माइली वाले टीपक-कुलदीपक की... इस पर कभी सोचना नहीं चाहिए.

सोचना तो इस पर भी नहीं चाहिए कि कैसे मारे जाओगे? जम्मू में मुसलमान बनकर या कश्मीर में हिंदू बनकर? म्यूनिख़ में इज़राइली बनकर या गाज़ा में फ़लीस्तीनी बनकर? मुंबई में बिहारी बनकर या उड़ीसा में ईसाई बनकर? बिहार में बाढ़ में बहकर या गुड़गांव में मॉल के मलबे में दबकर? ज़्यादा लोगों के बीच कम बनकर या कम के बीच उपेक्षित भरकम बनकर? तमगे लगाए कलग़ीदार फ़ौजी की तानाशाही में या लहसन-प्याज़ नुमा लोकतंत्रवादी बहुमत की तानाशाही में?

सोच-सोचकर थरूर ने हाथी, बाघ और सेलफोन को जोड़ दिया और बार-बार बताया कि देश का मध्यवर्ग सोचता नहीं, सिर्फ़ शौचता है. कि सोचे बिना शौच के सहारे भी यह मध्यवर्ग कुछ बरसों में पूरी दुनिया पर छा जाएगा, राज करेगा, फिफ्थ एवेन्यू में नया मकान ख़रीदेगा, ट्रैफलगर में कोठी बनाएगा, अंटी दाबकर सबको ठांसेगा और बिना आवाज़ के खांसेगा. लेकिन उसकी वर्तमान राजनीतिक उदासीनता धीरे-धीरे राजनीतिक नासमझी में बदल जाएगी, यह नहीं सोचा कहीं. यह भी नहीं कि दुनिया का भावी सबसे शक्तिशाली मध्यवर्ग अकाल नहीं, एक राजनीतिक मृत्यु मरेगा.

मरना तो है ही, सो सोचना क्या? और मरना इतना सस्ता हो गया है कि सोचना बिल्कुल नहीं चाहिए. दो रुपए की चाय पर छुरा पेट में उतर जाए, या 'फ़ेल होन पर क्यों डांटा' पर बाप की टंगड़ी चिर जाए, कि 'फ़ुटपाथ पर क्यों सोते हो, साहबज़ादे की गाड़ी तो चढ़ेगी ही' से लेकर 'झोपड़ी में क्यों रहते हो, एक दिन तो उखड़ेगी ही' तक, 'ग्राम जोकहरा, जवार भकुरा, जि़ला आरा में रह लो कितौ लैबीरिन्थ, 9, पेडर रोड पर, खाना इसी मुंह है जाना उसी लोक' तक, किसी भी बात पर मरना हो सकता है. इसलिए किसी भी व्यक्ति, परिवार, समूह, समाज, समुदाय, राज्य अथवा राष्ट्र को नहीं सोचना चाहिए. सोचने से लीवर ख़राब होता है, प्रोस्टेट बढ़ जाता है.

सोच लिया, तो क़ै होने लगती है. फिर काग़ज़ के पन्ने हों या वेब के, गन्हाने लगते हैं. फिर क़ै का वर्गीकरण हो जाता है. विशेष गंधों के गंजियाहेपन पर. रंगों की रंगदारी पर. उम्दा, बेहतरीन, आभार, जमाए रखिए, उखाड़ दिया, दिखा दिया, चमका दिया छाप तेल से टीप के दीप बाले जाते हैं. या फिर 'काय ग पाटील बरं हाय काय, काल जे काही पाहिलं ते खरं हाय काय' (क्यों पाटील साब, सब ठीक तो है, एक बात बताइए, जो कल आपको करते देखा, वह सच है क्या) की तर्ज़ पर चमका जाएंगे कि पाटील नाम के बच्चू, तुमने भी सोच के नाम पर बहुत शौच की है. तुम्हारे गन्हाने की जिन्नाती बोतल खोलूं क्या?

सोचालय की दीवार वैताग कर भहरा जाती है. बास्‍टर्ड ऑफ इस्‍तान्‍‍बुल (कितौ गोधरा, जम्‍मू, मेरठ, मुंबई, भिवंडी, बेहरामपाड़ा) को कहां खोजे?

रोपण कहां हुआ, अंखुआया क्या? नहीं, बस टिपियाया. :) :D और कलट लिए.

बीज भी अंखुआता है और कीड़ा भी. जगह अलग-अलग होती है.

बीज-गुरु मन की किसी गांठ से लुंगी की गांठ की यात्रा पर निकलते हैं, बिना दिशाशूल देखे.

सींकदार झाड़ू को छितराकर कमर पर बांध लेने से तो मोर नहीं बन जाएंगे कि बारिश पड़े, तो छमाछम नाच आ जाए. या फिर हथेली पर ही कभी पृथ्वी का पौधा उगाएंगे? धन का पौधा उगते तो कंप्राडोर / कारपारेट जि़ंदगी में बहुत देखा है. पृथ्वी का पौधा बताओ, तो जानें. अब माइकल जैक्सन को कौन समझाए कि दुनिया भर का घाव 'हील' करने को चीख़ रहे हो, जिन्नाती बोतल तो तुम्हारी भी बनी पड़ी है? हम तो अपने हीलों-हवालों में ही रहेंगे. (एक स्‍माइली ब्‍लैक एंड व्‍हाइट- सरेस-मय.)

मन हो तो सुन लीजिए. नीचे लिरिक्स भी हैं. देखिए, कुछ बुझाता है क्या? कुछ अंखुआता है क्या? पर ख़बरदार, सोचिएगा मत. सोचने से लीवर ख़राब हो जाता है. प्रोस्टेट बढ़ जाता है.



Heal The World

There's A Place In
Your Heart
And I Know That It Is Love
And This Place Could
Be Much
Brighter Than Tomorrow
And If You Really Try
You'll Find There's No Need
To Cry
In This Place You'll Feel
There's No Hurt Or Sorrow

There Are Ways
To Get There
If You Care Enough
For The Living
Make A Little Space
Make A Better Place...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

If You Want To Know Why
There's A Love That
Cannot Lie
Love Is Strong
It Only Cares For
Joyful Giving
If We Try
We Shall See
In This Bliss
We Cannot Feel
Fear Or Dread
We Stop Existing And
Start Living

Then It Feels That Always
Love's Enough For
Us Growing
So Make A Better World
Make A Better World...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

And The Dream We Were
Conceived In
Will Reveal A Joyful Face
And The World We
Once Believed In
Will Shine Again In Grace
Then Why Do We Keep
Strangling Life
Wound This Earth
Crucify Its Soul
Though It's Plain To See
This World Is Heavenly
Be God's Glow

We Could Fly So High
Let Our Spirits Never Die
In My Heart
I Feel You Are All
My Brothers
Create A World With
No Fear
Together We'll Cry
Happy Tears
See The Nations Turn
Their Swords
Into Plowshares

We Could Really Get There
If You Cared Enough
For The Living
Make A Little Space
To Make A Better Place...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

Tuesday, August 26, 2008

ख़ालीपन को निराश करने के कुछ निजी टोटके

ख़ुश होना कोई टोटका होता है, या कोई कोशिश, जिसमें बार-बार 'नो' के डिब्बे में सही का निशान लगाना होता है। और कभी छल से निहुरकर 'यस' के डिब्बे की तरफ़ देखें, तो पाते हैं कि वह उसी तरह काग़ज़ से गिर गया है, जैसे अंतोनियोनी की किसी फिल्म में बारीकी से अतल में गिरता गुलाब का कोई टुकड़ा। मन करता है, वेनिस के पानी में छपाकें मारने का, तो इल्म होता है किसी रोमन मिथ का, कि प्रेम की देवी को जब पहली बार विरह का शाप मिला, तो वह इस क़दर रोई कि शहर पनीले हो गए।


किसी कॉलेज के कैंपस में ऊपर से बरसती बारिश और नीचे से उछलते कीचड़ के बीच, प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठकर, छूट गई छुअन का ताप कंधे पर महसूस करते खिंचवाई तस्वीर को देखकर ख़ुश होने की कोशिश भी 'नो' के डिब्बे की तरफ़ ले जाती है और कॉलरा का फ्लोरेंतीनो दिखाई पड़ता है, जिसने अपने कंधे आज तक उचका रखे हैं, क्योंकि जब पहली बार वह छुअन उसके कंधे पर आकर बैठी थी, तो विस्मय, हर्ष और स्वीकार की कोमलता में उसके कंधों का वही पहला रिस्पॉन्स था। लगातार सफ़ेद होती मूंछ बताती है कि उम्र एक अंधेरी सुरंग है महज़. बेरंग, बदरंग।


या कि वान गॉग का आर्ल्स का कमरा देखते रहें, जहां पीले के बीच उभरा हुआ हरा भी बेनूरी में थककर पीला हो जाता है, जहां पलंग पर एक ख़ालीपन रहता है, गोकि यह उसी की पलंग हो और कमरे में एक ख़ालीपन विचरता है गोकि यह उसी का कमरा हो, और बग़ल की मेज़ पर बिसूरती दवा की बोतल जैसे जानती हो कि यह उसकी मेज़ नहीं है। दीवार पर लटकी तस्वीरें, कपड़े, तौलिए बारहा कोशिश करते हैं कि वे ख़ालीपन को निराश कर दें। पर एक तस्वीर क्या होती है ख़ालीपन को निराश करने वाली? एक मैं क्या होता हूं? भरे-भरे का अस्तित्व तो इसीलिए है कि ख़ालीपन कहीं ढंका-तुपा रह जाए।


एक बेपरवाह फुसफुसाहट औचक आती है, कहती है कि सच हमेशा बेआरामी से भरा होता है और सिर झुकाकर अंगूठे से फ़र्श को खोदते रहने की क्रिया हमेशा ख़ुशी से ख़ाली रहती है। पैरों को अपराधबोध होता है कि वे चलने तक से मना कर देते हैं, नाचना तो दूर की बात है।

वैसे, अपराधबोध से भरा होना भी एक तरह से ख़ालीपन ही होता है. क्‍या ये ख़ालीपन को निराश करने लायक़ हो सकता है?


जॉर्ज माइकल की केयरलेस व्हिस्‍पर.

Monday, August 25, 2008

महमूद दरवेश की डायरी से



बैरूत पर हुए इज़राइली हमले के दौरान लिखी महमूद दरवेश की डायरी के टुकड़े





होटल कमोदोर जहां विदेशी पत्रकारों का हुजूम लगा रहता है, एक अमेरिकी पत्रकार मुझसे पूछता है:
- इन दिनों क्या लिख रहे हैं कवि महोदय?
- मैं अपनी चुप्पी लिख रहा हूं।
- आपका मतलब यह है कि इस वक़्त बंदूक़ों को ही बोलना चाहिए?
- हां, क्योंकि उनकी आवाज़ मेरी आवाज़ से ज़्यादा ऊंची है।
- तो आप क्या कर रहे हैं?
- स्थिरता को पुकार रहा हूं।
- क्या आप यह युद्ध जीत जाएंगे?
- नहीं। अहम बात है डटे रहना। डटे रहना अपने आप में जीत होती है।
- उसके बाद क्या होगा?
- नए युग की शुरुआत।
- फिर आप वापस कविता लिखना कब शुरू करेंगे?
- बंदूक़ों को थोड़ा चुप हो जाने दीजिए। जब मेरी चुप्पी का विस्फोट होगा। चुप्पी, जिसमें ये सारी आवाज़ें घुली हुई हैं। जब मैं अपने लिए एक भाषा तलाश लूंगा।
- तब तक आपकी कोई भूमिका नहीं?
- नहीं, कविता में मेरी इस वक़्त कोई भूमिका नहीं। मेरी भूमिका कविता से बाहर है। मेरी भूमिका वहां होने में है, नागरिकों और लड़ाकों के बीच।

कुछ बुद्धिजीवियों को यह मौक़ा पुराने हिसाब-किताब चुकता करने के लिए सही लगा। वे पत्रकारों के सामने ही एक-दूसरे पर छींटे उछालने लगे। हमें उन पर व्यर्थ में चिल्लाना पड़ा, 'चुप हो जाइए। बकवास बंद कीजिए। बैरूत पर क़ब्ज़ा करने वाले लेखक नहीं हैं। बुरे से बुरा क्या होगा, आपके लेखन को साहित्य नहीं माना जाएगा। अच्छे से अच्छी स्थिति में मान भी लिया, तो इससे आपका लेखन लड़ाकू जहाज़ उड़ाने वाली तोप तो नहीं हो जाएगा।'

पर वे पलटकर बोले, 'नहीं, यही सही समय है यह तय करने का कि कोई कवि या कविता क्रांतिकारी है या नहीं। कविता है, तो उसे इसी समय जन्म लेना चाहिए, वरना उससे जन्म लेने का अधिकार छीन लेना चाहिए।'

मैं फिर चिल्लाया, 'तो फिर आपने होमर को 'ईलियड' और 'ओडिसी' लिखने का अधिकार क्यों दे दिया? लेखको, हर कोई एक ही तरीक़े से प्रतिक्रिया नहीं करता। अगर कोई ठीक युद्ध के बीच में लिख सकता है, तो उसे लिखने दीजिए। कोई बाद में लिखना चाहता है, तो बाद में सही। जहां तक मेरा मानना है, तो वह यह है कि - जो घायल हैं, प्यासे हैं, जो पानी, रोटी या छत की तलाश में भटक रहे हैं, वे आपसे कविता नहीं मांग रहे। जो लड़ रहे हैं, उन्हें अपनी जान की फि़क्र है, आपकी कविता की नहीं। इस समय में सबसे बड़ी चीज़ जो आप कर सकते हैं, वह यह है कि उन प्यासों के लिए बीस लीटर पानी खोज लाइए। रोटी इकट्ठी करके उजड़े हुए लोगों के पास चलिए। इस युद्ध में हम हाशिए पर हैं, नगण्य। इस समय मानवीय प्रतिबद्धता चाहिए लेखको, कलात्मक सुंदरता नहीं।'

कौन हैं वे कवि, जो सर पर मंडराते युद्धक विमानों, बम विस्फोटों, सड़क पर जमा लाशों के बीच कमरे में बैठे कविता लिखते रहते हों?
ये बहस चलती रही। बाहर भी। और भीतर भी।
...
इसके बाद भी पाकिस्तान से आए मेरे पुराने दोस्त फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पूछते हैं, 'सारे कलाकार कहां चले गए?'
'कौन-से कलाकार, फ़ैज़?
'बैरूत के कलाकार.'
'उनका क्या करोगे?'
'भई, उन्हें इस युद्ध की विभीषिका को शहर की दीवारों पर रंगकर दिखाना चाहिए।'
'तुम्हें दिखता नहीं फ़ैज़, शहर में दीवारें बची हैं क्या? सारी दीवारें तो ज़मींदोज़ हो गईं।

Saturday, August 16, 2008

एलियन

एलियन

उगता हुआ सूरज उस औरत की तरह लगता है हमेशा
जो सुबह उठकर चाय के लिए पानी गर्म करती है

कार, बस, ट्रेन और हवाई जहाज़ में
विंडो सीट पर बैठने की जि़द करता हूं हमेशा
बाहर देखते हुए नए सिरे से जांचता हूं पुरानी बात
कि धरती और आसमान सब जगह एक ही हैं

रुदन को पवित्र मानते हुए भी
खेल से बाहर रोती बच्ची को खिझाता हूं हमेशा
उसकी पीठ पर मारता हूं एक धौल
इस तरह अभ्‍यस्त हो जाएगी वह
पीठ पर वार झेलने की रिवायत से

छोकरों से भरी जीप में से मस्ती में निकला कोई हाथ
धक्का देकर गिरा देता है साइकल से
क़तार में पीछे से मारता है कोई सिर पर टपली
उठकर झाड़ता हूं कपड़े सहेजता हूं साइकल
सिर घुमाकर पीछे नहीं देखता
आंखें मूंद बुदबुदाता हूं कोई प्रार्थना हमेशा
तुम तक लौट जाएंगी तुम्हारी गालियां और सारी गोलियां

जिनको कभी ग़ुस्सा नहीं आता
अचरज करते हैं
आत्मा वाले मुस्कराते हैं
मेरे लिए नहीं खुलते आत्मा के दरवाज़े कभी
उसकी चाभी को कामुक स्त्रियों ने वक्षों के बीच छुपा रखा है

गाल, ज़मीन और उंगली की पोर पर पड़े आंसू को
ग़ौर से देखता हूं फिर डायरी में नोट करता हूं
आंसू की कोई परछाईं नहीं होती
वह पृथ्वी पर बाहर से आया कोई जीव है

पेंटिंग : सिद्धार्थ

Friday, August 15, 2008

स्‍वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग एक स्‍वाधीन व्‍यक्ति से

रघुवीर सहाय
........................




इस अंधेरे में कभी-कभी
दीख जाती है किसी की कविता
चौंध में दिखता है एक और कोई कवि
हम तीन कम से कम हैं, साथ हैं

आज हम
बात कम काम ज़्यादा करना चाहते हैं
इसी क्षण
मारना या मरना चाहते हैं
और एक बहुत बड़ी आकांक्षा से डरना चाहते हैं
जि़लाधीशों से नहीं

कुछ भी लिखने से पहले हंसता और निराश
होता हूं मैं
कि जो मैं लिखूंगा वैसा नहीं दिखूंगा
दिखूंगा या तो
रिरियाता हुआ
या गरजता हुआ
किसी को पुचकारता
किसी को बरजता हुआ
अपने में अलग सिरजता हुआ कुछ अनाथ
मूल्‍यों को
नहीं मैं दिखूंगा

खंडन लोग चाहते हैं या कि मंडन
या फिर केवल अनुवाद लि‍सलिसाता भक्ति से
स्‍वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग
एक स्‍वाधीन व्‍यक्ति से

बहुत दिन हुए तब मैंने कहा था लिखूंगा नहीं
किसी के आदेश से
आज भी कहता हूं
किंतु आज पहले से कुछ और अधिक बार
बिना कहे रहता हूं
क्‍योंकि आज भाषा ही मेरी एक मुश्किल नहीं रही

एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे नफ़रत है सच्‍ची और निस्‍संग
जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्‍योछावर होता है

हो सकता है कोई मेरी कविता आखि़री कविता हो जाए
मैं मुक्‍त हा जाऊं
ढोंग के ढोल जो डुंड बजाते हैं उस हाहाकार में
यह मेरा अट्टहास ज़्यादा देर तक गूंजे खो जाने के पहले
मेरे सो जाने के पहले
उलझन समाज की वैसी ही बनी रहे

हो सकता है कि लोग लोग मार तमाम लोग
जिनसे मुझे नफ़रत है मिल जाएं, अहंकारी
शासन को बदलने के बदले अपने को
बदलने लगें और मेरी कविता की नक़लें
अकविता बन जाएं. बनिया बनिया रहे
बाम्‍हन बाम्‍हन और कायथ कायथ रहे
पर जब कविता लिखे तो आधुनिक
हो जाए. खींसे बा दे जब कहो तब गा दे

हो सकता है उन कवियों में मेरा सम्‍मान न हो
जिनके व्‍याख्‍यानों से सम्राज्ञी सहमत हैं
घूर पर फुदकते हुए संपादक गदगद हैं

हो सकता है
हो सकता है कि कल जब कि अंधेरे में दिखे
मेरा कवि बंधु मुझे
वह न मुझे पहचाने, मै न उसे पहचानूं
हो सकता है कि यही मेरा योगदान हो कि
भाषा का मेरा फल जो चाहे मेरी हथेली से ख़ुशी से चुग ले
अन्‍याय तो भी खाता रहे मेरे प्‍यारे देश की देह.

Tuesday, August 12, 2008

किताब के पहले पन्‍ने पर दस्‍तख़त-सा आदमी







श्रीधर वाकोड़े कौन है, मुझे नहीं पता, पर इसका नाम मैं बरसों से पढ़ता आ रहा हूं। मेरी कई किताबों के शुरुआती पन्नों पर मराठी में उसके दस्तख़त हैं। उसे देखने की इतनी आदत पड़ गई है कि कई बार मैं उसकी तरह दस्तख़त करना चाहता हूं।

अरिहंता ने बताया था कि वह चिकनी का पप्पा है। चिकनी कौन है? उससे बातचीत में पता लगा, आगे किसी बिल्डिंग में रहती है और यहां बस पकड़ने आती है और यहां के लड़के उसे टापने में कोई क़सर नहीं बाक़ी रखते।

अरिहंता कौन है? सिर्फ़ इतना जानता हूं कि मुलुंड चेक नाके के पास उसकी रद्दी की दुकान थी, जो अब वहां नहीं है। उसका असली नाम भी नहीं पता। उसके दुकान का नाम था अरिहंता पेपर मार्ट, तो मेरी स्मृति में उसका नाम यही बस गया है।

मैंने उससे कहा था, मुझे उसके घर ले चलेगा? तो उसे लगा कि मैं भी चिकनी की क़तार में हूं। मैंने कहा, नहीं, उसके बाप के पास? वह बोला, सब लड़की के पीछे और तू बाप के पीछे, सही है बावा।

पर अरिहंता कभी लेकर नहीं गया। मैंने भी फिर कभी पूछा नहीं। श्रीधर वाकोड़े उसके यहां अपनी किताबें बेचता रहा और मैं वहां से उन किताबों को ख़रीदता रहा। यह सिलसिला बारह-तेरह साल पहले शुरू हुआ था। श्रीधर वाकोड़े के दस्तख़त वाली पहली किताब जो मिली थी, वह थी मारकेस की 'नो वन राइट्स टु द कर्नल'। इस तरह उसने मारकेस से परिचय कराया। उस संग्रह की एक कहानी उस वक़्त भी मुझे बहुत पसंद आई थी, वह थी 'ट्यूज़डे सीस्टा'। वह अब भी मेरी पसंदीदा कहानी है। बाद में मारकेस को और पढ़ा, तो पता चला, वह उनकी भी पसंदीदा है। बर्गमान की 'द मैजिक लैंटर्न' और बुनुएल की 'द लास्ट साय' भी वहीं मिली। 'पिकासो इन इंटरव्यूज़', इनग्रिड बर्गमैन की मराठी में आत्मकथा, मैरी पिकफोर्ड, डगलस फेयरबैंक्स, विवियन ली और क्लार्क गैबल की जीवनियां। और एक नई-नवेली एलन सीली की 'द एवरेस्ट होटल'। इन सबमें श्रीधर वाकोड़े अपनी लचकदार साइन और पेंसिल के निशानों के साथ मौजूद है। जहां दुख और उदासी की सबसे गहरी पंक्तियां हैं, किसी मटमैले पुच्छल तारे की तरह उसकी पेंसिल वहां से ज़रूर गुज़री है। जिन पन्नों पर आंख गीली हो जाए, उन पन्नों को शायद बार-बार पढ़ा गया। उनके किनारे मुड़े हुए रहे होंगे, क्योंकि तिकोना मोड़ अब भी वहां निशान में है। उसकी किताबें उसके और मेरे बीच जाने कैसा रिश्ता बनाती हैं।

वह क्या था, कोई कलाकार या कोई संघर्षरत फिल्मकार या कोई नाटककार, अभिनेता, कोई लेखक-कवि या फिर कोई साधारण पाठक? किसी साधारण पाठक के पास तो ये किताबें मिलने से रहीं। कोई नामचीन रहा होगा, इसमें भी शक है, क्योंकि बिल्कुल पास के अरिहंता के लिए वह सिर्फ़ चिकनी का पप्पा था। फिर क्या था वह? अरिहंता की दुकान रोड वाइडेनिंग में उजड़ गई और अरसे से मुंबई अपने से छूटी हुई है। अब रद्दी की दुकानें भी दिखती नहीं। जो दिखती हैं, उनमें अख़बार, फेमिना, कॉस्मो मिलती हैं, कहीं दबाकर रखी कोई पुरानी डेब या पीबी।

जिन किताबों को कोई भी पढ़ा-लिखा शान से अपनी शेल्फ़ में लगाकर रखे, उन किताबों को वह बाक़ायदा पढ़कर या बरसों संभालकर, एक दिन रद्दी में क्यों बेच आता था? एक दोस्त से यह बात की, तो वह जि़ंदगी और मौत के अद्वैत में लग गया- हर किताब को एक दिन रद्दी की दुकान में जाना होता है।

कई बार लगता है कि वह शब्दों से बाहर निकल गया कोई पात्र है, जो शुरुआती ख़ाली पन्ने पर सिर उचकाकर उपस्थिति दर्ज करा रहा हो। या मौन में भटक गया मनुष्‍य हो। या ड्रामे के ठीक पहले परदा खींचने वाला हाथ है, जिसकी उंगलियों की झलक तक हमको नहीं दिख पाती। या कैमरे की नज़र से छूट गया एक भरा-पूरा लैंडस्केप हो या एडिटिंग टेबल पर कट कर गिर गया कोई दृश्य हो। वह आलमारी से निकलकर फुटपाथ पर पहुंच गई कोई किताब ही रहा हो। मेरी किताबों के बीच वह किसी असहाय किसान की तरह लगता है, जिस पर एक-एक टुकड़ा ज़मीन बेचने का बज्जर गिरा हो। अशोक के बाद कलिंग पर राज करने वाले राजा खारवेल की तरह, इतिहास में जिसके पास कोई जीवन नहीं बचा, हाथीगुफा की दीवारों पर गुदा नाम बचा बस। वैसे ही, श्रीधर वाकोड़े भी कोई जीवन था या सिर्फ़ किताबों पर लिखा हुआ एक नाम?

जब भी किताबी कोना पर जाता हूं, श्रीधर वाकोड़े बेसाख़्ता याद आता है। क्‍या आपकी किताबों में भी कोई श्रीधर वाकोड़े रहता है?

Monday, August 11, 2008

भाषा के मानचित्र में एक निर्वासित कवि का देश.



महमूद दरवेश समकालीन अरबी दुनिया के सबसे बड़े कवि थे. एक ऐसे देश के कवि, जिसका अस्तित्‍व सिर्फ़ शब्‍दों और भाषा में है. हज़ारों लेखों, भाषणों में उन्‍हें फ़लीस्‍तीन की दिलो-जु़बां कहा गया. वह अपने देश की लड़ाई लड़ते रहे, अपनी ज़मीन को अपना कह सकने की लड़ाई. कुछ उनके साथ रहे, कुछ उनके खि़लाफ़. संबंधों का विकेंद्रीकरण ऐसे ही होता है. एक इंटरव्‍यू में उन्‍होंने कहा था, जीते-जी अपने लिए एक राष्‍ट्र नहीं पा सका मैं, सिर्फ़ इसका सुकून है कि मैंने अपनी भाषा में अपने लिए एक राष्‍ट्र बनाया, अपनी मातृभूमि के सीवान उसी भाषा में पहचाने. कई बरस जेल में गुजारने के बाद उन्‍हें निर्वासित होना पड़ा. और वह इतना लंबा चला, कि एक कविता में उन्‍होंने लिखा- अब निर्वासन की लत लग गई है. वह मूलत: लिरिकल कवि थे. प्रेम और विद्रोह के गीत गाते. उनकी कई कविताएं, मसलन रीता और राइफल, मैं जहां से आया, मेरे शब्‍द आदि अरबी दुनिया में बाक़ायदा गाए और गुनगुनाए जाते हैं. लोकप्रियता इतनी कि उनकी कविता या भाषण सुनने के लिए अस्‍सी हज़ार की भीड़ इकट्ठी हो जाए. मेरे पास एक वीडियो था, जिसमें वह नेरूदा पर बोल रहे हैं, उनकी कविताओं को अरबी अनुवाद सुना रहे हैं और एक लाख के क़रीब भीड़ हर चौथी लाइन पर तालियों के शोर में तब्‍दील हो रही है.

उनकी कविताएं बाग़ी तेवर की हैं, लेकिन 90 के बाद की कविताएं मिस्टिक या रहस्‍यवादी प्रवृत्ति की हैं. निर्वासन के दिनों में उन्‍होंने अंग्रेज़ी और फ्रेंच सीखी और इनसे जुड़े मिथक उनकी कविता में तेज़ी से आए. आलोचकों ने उन पर भटकने का आरोप लगाया, पर उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई. उनका कहना था, मैं ख़ुद की आलोचना करता हूं और हमेशा ख़ुद को एक सीढ़ी ऊपर उठाना चाहता हूं. लेकिन इसका मतलब यह क़तई नहीं कि मैंने पहले जो कविताएं लिखीं, उनके लिए मुझमें कोई अफ़सोस या क्षमायाचना का भाव हो. वह स्‍वर मेरी कविता की टेक है, जो नई कविताओं में भी बरक़रार है. अच्‍छा कवि वही होता है, जो बहुत ज़्यादा पढ़े और समय-समय पर दूसरों से प्रभावित भी हो.

कल उनके निधन पर कबाड़ख़ाना में कुछ कविताएं लगाई गई थीं. आज यहां प्रस्‍तुत है एक कविता और डायरी से एक पीस. कविता उनकी शब्‍दयात्रा का आख्‍यान है और जबकि डायरी ख़ूबसूरत गद्य का नमूना. उस पीस में आया मच्‍छर क्‍या है, वे लोग भली-भांति समझ जाएंगे, जिन्‍होंने सत्‍ता के असली रूपों को बहुत क़रीब से देखा हो. आप अपना ब्‍लडग्रुप बदलवा लें, सत्‍ता आपको नहीं काटेगी. यह पीस अनुवाद करते समय मुझे मायकोवस्‍की की वह कविता बार-बार याद आई (जो उन्‍होंने आखि़री दिनों में सोवियत व्‍यवस्‍था में फैली और निर्णायक रूप से घातक साबित हुई भ्रष्‍ट अफ़सरशाही पर लिखी थी), '... शार्क मछलियों को मैंने छका दिया, फलां-फलां ख़तरनाक जानवरों से मैं बच निकला, पर जिन्‍होंने मुझे मारा, वे खटमल थे.'


मेरे शब्‍द

जब मिट्टी थे मेरे शब्‍द
मेरी दोस्‍ती थी गेहूं की बालियों से

जब क्रोध थे मेरे शब्‍द
ज़ंजीरों से दोस्‍ती थी मेरी

जब पत्‍थर थे मेरे शब्‍द
मैं लहरों का दोस्‍त हुआ

जब विद्रोही हुए मेरे शब्‍द
भूचालों से दोस्‍ती हुई मेरी

जब कड़वे सेब बने मेरे शब्‍द
मैं आशावादियों का दोस्‍त हुआ

पर जब शहद बन गए मेरे शब्‍द
मक्खियों ने मेरे होंठ घेर लिए.


मच्‍छर और आपका ब्‍लडग्रुप

मच्‍छर, मेरी भाषा में हमेशा स्‍त्रीलिंगी है और गॉसिप से ज़्यादा जानलेवा है. वह न केवल आपका ख़ून चूसती है, बल्कि एबसर्डिटी के खि़लाफ़ आपको एक लड़ाई में झोंक देती है. और बुख़ार की तरह हमेशा अंधेरे में आती है. किसी जंगी जहाज़ की तरह वह झिन-झिन, घुं-घुं करती है, जिसे आप निशाने पर उसके हमले के बाद सुन पाते हैं. निशाना आपका ख़ून है. आप उसे खोजने के लिए बत्‍ती जला देते हैं और वह आपकी हैरानी की सबसे ऊंची अटारी पर जाकर खो जाती है. वहां किसी दीवार पर बैठ वह सुस्‍ता रही होती है, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, स्‍वीकार्य. आप उसे अपने जूते से मार देना चाहते हैं, पर वह याचना करती है, बचकर भाग निकलती है, और फिर एक आत्‍महंता जि़द के साथ दुबारा आप तक आ जाती है. आप फिर कोशिश करते हैं, और फिर हार जाते हैं. चीख़-चीख़कर उसे बददुआएं देते हैं, वह कान तक नहीं धरती. आप मीठी ज़बान में उससे शांतिवार्ता करते हैं: तुम सो जाओ, उसके बाद मैं भी सो जाऊंगा. आपको लगता है कि आपने उसे मना लिया है, बत्‍ती बुझाकर आप सो जाते हैं. भले उसने आपको ढेर सारा ख़ून चूस रखा हो, वह फिर अपनी झिन:झिन, घुं-घुं शुरू कर देती है, अगले हवाई हमले की घोषणा में. और आपको अनिद्रा के साथ एक दूसरी लड़ाई में झोंक देती है. एक बार फिर आप बत्‍ती जलाते हैं और कोई किताब पढ़ने लगते हैं, ताकि अनिद्रा और उससे, दोनों से लड़ा जा सके. वह खुले हुए पन्‍ने पर आकर बैठ जाती है और आप पुलक उठते हैं कि चलो, अब ये फंसी जाल में. आप ज़ोर-से किताब बंद करते हैं. मैंने उसे मार डाला... मैंने उसे मार डाला. जीत का जश्‍न मनाने के लिए जब आप किताब दुबारा खोलते हैं, तो पाते हैं, वहां न तो मच्‍छर है, और न ही शब्‍द. पन्‍ना पूरी तरह सफ़ेद और ख़ाली है. मेरी भाषा में हमेशा स्‍त्रीलिंगी अभिव्‍यक्ति पाने वाली मच्‍छर कोई रूपक नहीं है, बल्कि एक कीट है, जो आपके ख़ून से प्‍यार करता है. वह बीस मील दूर से भी आपके ख़ून को सूंघ सकती है, और उससे युद्धविराम का सिर्फ़ एक ही रास्‍ता है, आप अपना ब्‍लडग्रुप बदलवा लें.

Friday, August 8, 2008

घर में पीजै, मीर को पढि़ए, वहीं सो जाइए

फ़ज़ल ताबिश को उर्दू का बांका और कड़वा शायर कहा जाता है. उनकी फक्‍कड़ जि़ंदगी और बेपरवाह तबीयत के बहुत कि़स्‍से हैं. शायरी का एक संग्रह 'रोशनी किस जगह से काली है' ख़ासा चर्चित था. एक उपन्‍यास 'वो आदमी' की भी बराबर बात होती है. उनके अदब से कुछ चीज़ें यहां पेश हैं. देखिए इनका बांकपन...


ग़ज़ल

शखि़्सयत है कि सिर्फ़ गाली है
जाने किस शख़्स ने उछाली है

शहर दर शहर हाथ उगते हैं
कुछ तो है जो हर एक सवाली है

जो भी हाथ आए टूट कर चाहो
हार कर ये रविश निकाली है

मीर का दिल कहां से लाओगे
ख़ून की बूंद तो बचा ली है

जिस्‍म में भी उतर के देख लिया
हाथ ख़ाली था अब भी ख़ाली है

रेशा रेशा उधेड़ कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है

दिन ने चेहरा खरोंच डाला था
जब तो सूरज पे ख़ाक डाली है.


ग़ज़ल 2

दिल कहे दीवाना बनकर दरबदर हो जाइए
दूसरा दिल हो कि शाम आ पहुंची घर को जाइए

कौन सी आवारगी यारी कहां की सरख़ुशी
घर में पीजै मीर को पढि़ए वहीं सो जाइए

आने वाले वसवसे बीते दिनों से भागकर
कुछ न बन पाए तो रस्‍तों में कहीं खो जाइए

हमको सब मालूम है मालूम होने का भरम
बस ये औलादें ही बस में हैं यही बो जाइए

घर के दीवारों के गिरने की ख़बर मुझको भी है
आप ख़ुश होना अगर चाहें तो ख़ुश हो जाइए

मांगिए हर एक से उसके गुनाहों का हिसाब
और सारे शहर में सबके ख़ुदा हो जाइए.


उस देस में

धूप अपना बिस्‍तर लपेटकर
हमारे छत पर नहीं रखती
सफ़र पर जाने के आखि़री लम्‍हे तक जाड़े
रहते हैं हमारे घर
लोटते-पोटते हैं मगर जाते वक़्त
कुछ भी छोड़ कर नहीं जाते गर्मियों के लिए

हमारे घर आते हैं पैसे
दौलतमंद रिश्‍तेदारों की तरह खड़े-खड़े
रोकना चाहते हैं हम उन्‍हें
उन्‍हें जाना होता है पार्टी, डिनर या लंच में
कौन बुलाता है पैसों को दावतों में

हमारे घर आती है मौत
बैठती है पलंग पर ज़मीन पर कुर्सियों पर
ले जाती है हमारे किसी को
धूप, जाड़े, रिश्‍तेदारों और
पैसों के देस में

न जाने वहां क्‍या होता है
अब्‍बा तुम ख़त लिखना
बहन, भाई और मां तो अनपढ़ थे.


सफ़र

रात जब हर चीज़ को चादर उढ़ा दे
ढांप ले काले परों में
आग लपटों-सी ज़बानें
अज़दहे जब अपने अंदर बंद कर लें
तब उसी काले समय में
तुम घरों की क़ब्र से बाहर निकलना
और बस्‍ती के किनारे
ख़ाब में ख़ामोश बहते आदमी-से
आके मुझको ढूंढ़ना
मैं वहीं तुम सबसे कुछ आगे मिलूंगा
और अंधेरा-सा तुम्‍हारे आगे-आगे मैं चलूंगा

रोशनी लेकर चलूंगा तो मुझे
तुमसे भी पहले और कोई ढूंढ़ लेगा.

***

Wednesday, August 6, 2008

जो चाहो, मानो मुझे...



मुझे जो चाहे, माना जा सकता है।

जीवन में कुछ लोग अभी भी ऐसे हैं, जिन्हें लगता है, चलते-चलते कहीं गिर न जाऊं। और कुछ ऐसे भी हैं, जो लड़ पड़ते हैं, कभी नहीं गिरेगा। मैं दोनों को समझा दूं कि गिरना कभी भी हो सकता है। और क़तई ज़रूरी नहीं कि लड़खड़ाहट हर बार चेतावनी की तरह ही आए।

कुछ हैं, जो अभी भी भला मानते हैं और कुछ पशुवत। हालांकि ये भी अतिरेक हैं। हमेशा भले रहना संभव नहीं और पशुता आवाह्न पर आती नहीं। दोनों को ही निर्बंध मान लूं मैं?

चाहो, तो मुझे घृणा भी कह सकते हो, चाहो तो प्रेम भी। हालांकि अपना नाम मैंने प्रेम से मिलता-जुलता रखा था और अब भी इतिहास की चोर गलियों में जब मैं भटकता हूं, लुकते-छिपाते, तो जाने कब से, सुने जाने के इंतज़ार में हवा में भटकती सिसकी और अपने नाम की एक पुकार को, अपने पीछे दौड़ता पाता हूं।

जिन्होंने मुझे घृणा नाम दिया था, उन्हें कभी किसी गली से लुकते गुज़रने की ज़रूरत नहीं पड़ी.

गुज़ारिश है कि मुझे ख़ुशी न कहें। वैसे, मुझे पता है, इस गुज़ारिश का कोई मतलब नहीं, क्योंकि मैं बहुत पीछे तक घूम आया हूं, वाहीक पार नदियों के किनारे तक, अवेस्ता की जगह तक, मगध में बहुत रहा मैं, जब महामाया गुज़री थीं और थोड़ी देर बाद दुनिया ने छोटे-से सिद्धार्थ का रुदन सुना था, तो उस वक़्त लुंबिनी के मार्ग पर मैं पेड़ बनकर रहा करता था, एक दिन कटकर मैं एक नाव बन गया और बहते-बहाते काशी पहुंचा था, फिर काग़ज़ बनकर मैं मुग़लों के दरबार से लेकर उनके रद्दीगोदाम तक में रहा, मैं डि´गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में भी रहा और इतिहास के भुला दिए गए क्षणों में, थके लोगों के पसीने और पराजित लोगों के लहू में रहा। सो, मुझे सारे खेल पता हैं। इसीलिए मैं कहता हूं, मुझे ख़ुशी मत कहना। क्योंकि मुझे पता है, उदासी ही जीवन की टेक होती है। हम सड़क के किनारे ख़ुशी की राहबत्ती तले उदासी का कोई घिस चुका सिक्का खोज रहे होते हैं। उसकी क़ीमत का कोई सूचकांक किसी महानगर में नहीं पाया जाता.

आप चाहें, तो मुझे लाश कह सकते हैं, और चूंकि मैं कहानियां सुनाता हूं, कभी-कभार कविता भी, तो यह मेरे होने के बहुत क़रीब होगा, क्योंकि मैं देख आया हूं, संसार की सारी कहानियां, सारी कविताएं दरअसल हमें लाशें ही सुनाती आई हैं अब तक।

इतिहास की गलियों में आपको मेरी हांफ सुनाई देगी। मैं हमेशा बचने के लिए दौड़ा। सच कहूं, कभी हथियार लेकर किसी के पीछे नहीं दौड़ा, हथियार मेरे पीछे दौड़ते आए। मैंने कभी कोई हत्या नहीं की। जो हत्या नहीं करते, उनकी हत्या होना तय होता है क्या?

फिर भी, आप चाहें, तो मुझे हत्यारा कह सकते हैं। क्योंकि मुझे पता है, सिकंदर और पोरस की कहानी तक्षशिला के पास चौपाल पर एक चरवाहे ने साथियों के बीच नंबर बढ़ाने के लिए यूं ही उड़ा दी थी। और मुझे जितने भी नाम दिए गए हैं, उन सबके पीछे किसी का प्‍यार, दुलार, स्‍वप्‍न, महत्‍वाकांक्षा, हिकारत और घृणा रही है.

आप मुझे झूठा भी कह सकते हैं, क्योंकि मुझसे पहले कही गई बातों को सच माना जा चुका है और सच की ठुंसी बोरी से बातें लत्तों की तरह झांक रही हैं।

एक सेकंड! मेरा पुराना दमा उभर रहा है। मेरे बीमार फेफड़ों को सांस की इजाज़त दे दीजिए, महामहिम!
अरे, यह तो बहुत पुरानी बात है। हर चीज़ के लिए इजाज़त मांगना, पाने के लिए रिरिया देना और पाकर ख़ुशी की राहबत्ती में थोड़ी चमक और बढ़ा लेना, बहुत पुरानी रिवायत हैं। क्या कहूं इसे, ये कोई नागरिक पराभव है या फिर एक नागरिक उदासीनता?

आप नहीं समझे न? मैं भी अभी तक नहीं समझ पाया।

ख़ैर, मैं कह रहा था, आप मुझे कुछ भी कह सकते हैं, प्रेम से लेकर घृणा तक, पेड़ से लेकर मछली तक। इतिहास से लेकर आधुनिक तक। पर मुझे विजेता मत कहिए। विजेता कभी छिपकर चलते हैं क्या? मैं एक पराजित मनुष्य हूं। और मनुष्य भी तो सिर्फ़ अपनी ही नज़र में हूं। वो भी कब तक हूं, किसे पता. _