Saturday, October 23, 2010

लिखने की आदतें

टाइम ने इस बार जोनाथन फ्रैंजन पर कवर स्‍टोरी दी है. बरसों बाद कोई लेखक टाइम के कवर पर आया है. फ्रैंजन का नाम सुना है, पर उसकी कोई किताब पढ़ी नहीं है. टाइम ने उस पर बढि़या लिखा है, ऐसा कि उसे पढ़ने की दिलचस्‍पी जग गई. इसी में पढ़ा कि एक लंबे राइटर्स ब्‍लॉक के दौरान जब फ्रैंजन कुछ नहीं लिख पा रहे थे, तो उन्‍होंने तंबाकू खाना शुरू कर दिया. यह आदत उनके लेखक दोस्‍त डेविड फॉस्‍टर वैलेस में थी. वैलेस की आत्‍महत्‍या के बाद वह आदत उनमें आ गई. उनकी एक और आदत के बारे में इसी से पता चला कि जब वह लिखते हैं, तो अपने पुराने डेल के लैपटॉप के आगे ज़ोर-ज़ोर से अपने डायलॉग्‍स बोलते हैं. छह घंटे के लेखन-सेशन के बाद उनका गला बैठ जाता है और यह लगभग रोज़ की बात है. उनका कहना है, ऐसा करने से उनके डायलॉग्‍स सरल, सहज, अमेरिकी बोलचाल की भाषा में हो जाते हैं. वे फिलिप रॉथ के डायलॉग्‍स को किताबी मानते हैं. लिखते समय अपना लिखना उच्‍चारने की आदत फॉकनर में भी थी. 

राइटर्स ब्‍लॉक से जूझने का लेखकों का तरीक़ा कई बार अद्भुत होता है. जैसे हारुकि मुराकामी ने तो पूरी एक किताब ही इस पर लिख दी है. उनके संस्‍मरणों की किताब व्‍हाट आय टॉक व्‍हेन आय टॉक अबाउट रनिंग   दौड़ने की उनकी आदत के बहाने की उनकी रचना-प्रक्रिया की पड़ताल है. अपनी किताबों के कई हिस्‍से उन्‍होंने इसी तरह दौड़ते हुए ही सोचे हैं. 

लिखते समय की कई अजीब आदतें हैं लोगों की. कई तो इतने अनुशासित होते हैं कि कल जहां छोड़ा था, वहीं से आज शुरू कर दिया. जैसे सलमान रूश्‍दी. वह सुबह उठने के बाद पहला काम जो करते हैं, वह है लिखना. टेबल पर पहुंच गए. कल क्‍या-क्‍या, कितना लिखा था, उसे पढ़ डाला. फिर आगे लिखने बैठ गए. तीन घंटे लिखने के बाद फ्रेश होने जाएंगे. फिर दुनियादारी. शाम को पेज तीन वाली जि़ंदगी में घुसने से पहले एक बार फिर पढ़ेंगे कि सुबह क्‍या-क्‍या लिखा था. फिर अगली सुबह छुएंगे. कोई करेक्‍शन हुआ, तो वह भी अगली सुबह. मिडनाइट्स चिल्‍ड्रन  लिखते समय वह नौकरी पर थे. पांच दिन नौकरी करते थे, पांचवीं शाम घर पहुंच घंटा-डेढ़ घंटा गरम पानी से नहाते, फिर लिखने बैठ जाते. सोमवार की सुबह तक सोते-जागते लिखते, फिर अपने काम पर चले जाते, पांच दिन के लिए. 

ओरहन पमुक ने अदर कलर्स  में बहुत दिलचस्‍प कि़स्‍से लिखे हैं अपनी ऐसी आदतों के बारे में. एक निबंध में वह कहते हैं- उन्‍हें घर में लेखन करना अजीब लगता था. उन्‍हें हमेशा एक दफ़्तर चाहिए होता, जो घर से अलग हो, जहां वह सिर्फ़ लिख सकें. (यह आदत कई लेखकों की रही है. इसके लिए उन्‍होंने घर के पास या तो कोई फ़्लैट ख़रीद लिया या किराये पर ले लिया और वहां काम किया.) ख़ैर, पमुक घर में लिखने की मजबूरी से अलग ही ढंग से निपटे. वह सुबह उठते, नहाते-धोते, नाश्‍ता करते, बाक़ायदा फॉर्मल सूट पहनते और पत्‍नी से यह कहकर कि अब मैं ऑफिस जा रहा हूं निकल पड़ते, पंद्रह-बीस मिनट सड़क पर टहलने के बाद वह वापस घर  लौटते, अपने कमरे में घुसते, और उसे अपना ऑफिस मान लिखने लग जाते. 

सुनने-पढ़ने में यह जितना आसान लग रहा है, उतना होता नहीं होगा. मैंने कुछ दोस्‍तों को यह तरीक़ा बताया है, और वे अब तक ऐसा नहीं कर पा रहे. घर पहुंचने के बाद घर, उन्‍हें हर तरह से घर ही लगता है. अब हम लोग जो घर में ही लिखते रहे हैं, लिख लेते हैं, लेखन के लिए दफ़्तर वाला चस्‍का लगा नहीं है, सो इस पूरी प्रताड़ना को समझने से भी बचे हुए हैं. लेकिन यह ज़रूर अचरज में डालता है कि ये सारे बड़े लेखक कितनी कमिटमेंट के साथ लिखते हैं. कोई नियमित दिन में बारह घंटे लिखता है जैसे पमुक इस्‍तांबुल के लिए, मारकेस सॉलीट्यूड के समय और बाद में भी सुबह नौ से दोपहर तीन बजे तक लिखते थे और उसके बाद पॉपुलर संगीत सुना करते थे. लिखते समय उनकी टेबल पर पीला गुलाब होना ज़रूरी था, यह तो कई बार कही गई बात है. 

पर मुझे सबसे अजीब आदत  हेमिंग्‍वे  की लगती है. वह आदमी खड़े-खड़े लिखता था, बैठकर लिख ही नहीं पाता था. उसने बाक़ायदा अपने लिए स्‍टडी बनवाई थी, लेकिन लिखने का काम बेडरूम में करता था. अपने लिए एक ऐसी डेस्‍क बनवाई थी, जिस पर उसके काग़ज़, टाइप राइटर और तुरंत काम में आने वाली किताबें रखे रहता. एक टांग मोड़कर, दूसरी अकेली टांग पर खड़े रहता. कभी इस पैर पर वज़न डालता, कभी उस पैर पर. इस दौरान पेंसिल से पुराने लिखे काग़ज़ों में करेक्‍शन करता रहता, इस बीच जब उसे लगता कि अब वह रौ में आ गया है, आनन-फानन टाइप करना शुरू कर देता. ओल्‍ड मैन एंड द सी   ऐसे ही लिखा गया है. दूसरे उपन्‍यास भी. एक लंबे राइटर्स ब्‍लॉक से निकलने के लिए उसने यह आदत पैदा कर ली थी, जो ऐसी चिपकी कि उससे अलग हो कुछ लिखा ही न जाता. 

राइटर्स ब्‍लॉक बहुत ख़राब चीज़ होती है. जो न कराए सो कम. जैसे क्रिकेटर फॉर्म खो जाने से ख़ाइफ़ रहते हैं, वैसे ही लेखक ब्‍लॉक से. वैसे, विलियम फॉकनर इस बारे में बहुत ही बेरहम बात करते हैं कि जो लेखक बहुत नखरे करते हैं, लिखने के लिए ढेर सारी मांग करते हैं, मन की शांति से लेकर धन की शांति तक, वे दरअसल फर्स्‍ट रेट लेखक होते ही नहीं, लिखने के लिए तो सिर्फ़ कुछ सादे काग़ज़ और एक छिली हुई पेंसिल की ज़रूरत होती है. फॉकनर आजोबा की यह सच्‍ची बात माथे पर बल डालने के लिए काफ़ी थी. पर एक दूसरे निबंध में यह भी पढ़ लिया कि इन्‍हीं फॉकनर आजोबा ने यह भी कहा था कि लेखक दिन-भर नौकरी और पैसे के जुगाड़ में लगा रहेगा, तो क्‍या खा़क लिखेगा. (यह उन्‍होंने तब कहा था, जब उन्‍हें पोस्‍ट ऑफिस की एक नौकरी से इसलिए निकाल दिया गया था कि वह ड्यूटी अवर्स में बैठकर किताब पढ़ते पकड़े गए थे.) 

यह सारी बातें तो मुझे इसलिए याद आईं कि कल दिन में किसी दोस्‍त से बात हो रही थी और मैं उसे बता रहा था कि मैंने चैट और एसएमएस करते हुए अपनी कविता या कहानी की पंक्तियां पाई हैं. फिर उन्‍हें पिरोया है. चीज़ों को सब अपनी-अपनी तरह पाते हैं, और कई चीज़ें कई दूसरे लोगों जैसे ही मिलती हैं. कुछ संयोग है, कुछ आदत की बात, कुछ हालात हैं, तो कुछ प्रेरणाओं का दबाव. आखि़र हम सब ही जानते हैं, हिकमत की कविताएं जेल में सिगरेट की डिब्बियों पर लिखी गई थीं.

ऐसी बहुत-सी स्‍मृतियां हैं. कई लेखकों की आदतें याद आ रही हैं. अब बस.  उन पर फिर कभी.  



Sunday, October 17, 2010

धरती पर सबसे अजनबी चीज़






क्या कभी हवा आकर मुझसे कहती है कि मानो, मैं बह रही हूं। मेरे अस्तित्व को मान लो। मेरे महत्व को भी। कभी वह पूछती है कि देखो, मेरे भीतर पानी के कण भी मौजूद हैं, तुमने देखा है कभी? कभी पानी ही आकर यह पूछता है कि मेरे भीतर भी हवा है, जानते हो? 

रात में पेड़ अपनी छांव कहां दे आते हैं? बचाकर रखते हैं? उन पेड़ों के लिए जो अपने पत्तों से विरत हो चुके हैं? 
ऐसे ही आत्मा आकर कभी नहीं बताती।

कहीं पढ़ा था कि आत्मा इस धरती पर सबसे अजनबी चीज़ है।

***

एक बार नबोकोव एक क्लास में थे। टॉल्स्टॉय पर उनका लेक्चर था। वह बार-बार समझाना चाह रहे थे कि टॉल्स्टॉय का एसेंस क्या है। तभी उन्होंने क्लास की खिड़की के परदों को हटा दिया। तेज़ रोशनी भीतर आई। कमरा पूरी तरह रोशन हो गया। नबोकोव ने कहा, एग्जैक्टली, मैं यही बताना चाहता था, टॉल्स्टॉय यही हैं। अचानक आई इस रोशनी की तरह।

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एक फिक्शन राइटर के तौर पर हमें यह कोशिश कभी नहीं करनी चाहिए कि हम अपने कैरेक्टर्स के साथ सिम्पैथी का खेल खेलें। लिखते समय सहानुभूति से दूर रहें। यह पाठक का औज़ार है। 

***

जब आप नहीं लिख रहे होते, तब आप क्या कर रहे होते हैं? मैं ज़्यादातर समय नहीं लिख रहा होता। ज़्यादातर मैं पढ़ रहा होता हूं, संगीत सुन रहा होता हूं, कोई फिल्म देख रहा होता हूं या यूं ही नेट सर्फ कर रहा होता हूं। मैंने पाया है, ईमानदारी से, कि जिन वक्तों में मैं नहीं लिख रहा होता, वह मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि असल में मैं उन्हीं वक्तों में लिख रहा होता हूं।

जब फिलिप ग्लास की आठवीं सिंफनी सुन रहा होता हूं, तो दरअसल, मैं खुद उस सिंफनी की रचना कर रहा होता हूं। इस तरह मैं खुद फिलिप ग्लास बन जाता हूं। जब मैं प्रैसनर को सुन रहा होता हूं, तो किस्लोवस्की बन जाता हूं। मैं उसके सिक्वेंस पढऩे लगता हूं। 

हर कला के मूल में संगीत है। बिना संगीत के किसी कला का अस्तित्व नहीं। सृष्टि चाहे ओम के नाद से बनी हो या बिग बैंग से, वह साउंड ऑफ म्यूजि़क ही रहा होगा।

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अच्छी चीज़ों का सबसे बड़ा गुण या अवगुण यह है कि आप पर उसका कोई भी असर पड़े, उससे पहले वह आपको भरमा देती है। अच्छी कविता तो सबसे पहले भरमाती है। वह आपके फैसला करने की क्षमता को कुंद करती है और फैसला देने की इच्छा के लिए उत्प्रेरक बन जाती है। वह तुरत आपके मुंह से यह निकलवाती है- यह क्या बला है भला? ऐसा कैसे हो सकता है? फिर वह धीरे-धीरे आपमें प्रविष्ट होती है। यही समय है, जब आपकी ग्रहण-क्षमता की परीक्षा होनी होती है। आप उसे अपने भीतर कितना लेते हैं, इसमें अच्छी रचना का कम, आपका गौरव ज़्यादा होता है। अगर आपको अच्छी चीज़ों की अच्छाई की ऐतिहासिकता का भान पहले से न हो, यानी उसे पढऩे-सुनने-देखने से पहले आपको यह पता न हो कि इसे समय ने बहुत अच्छे की श्रेणी में रखा है, तो आप  नाक सिकोड़ेंगे। उसकी अच्छाई का ज्ञान आपको उसे स्वीकार करने में मदद तो करता है, लेकिन हम कभी यह नहीं पता कर सकते कि उसे अच्छा माने जाने की प्रक्रिया उसे रचने की प्रक्रिया से भी ज़्यादा श्रमसाध्य रही होगी। 

बाज़ दफा, आप कई बार बिना किसी श्रम के भी चीज़ों को अच्छा मान लेते हैं, ऐसा भी होता है।

सही समय पर दी गई दाद, राग और आलाप की श्रेष्ठता से ज़्यादा, श्रोता के संस्कारों का परिचायक होती है।

***

बनैलापन क्या होता है? वाइल्डनेस? किसी को जंगल का शेर वाइल्ड लग सकता है, तो किसी को जंगले में बंद शेर। आर्ट में टेम्ड वाइल्डनेस को ज़्यादा एन्ज्वॉय किया जाता है, क्योंकि वह उपस्थित में है, दृश्य के बीच है, यानी सभ्यता के बीच एक निश्चित परिमाण में। 

अगर आपके पास अनटेम्ड वाइल्डनेस है, तो उस पर ध्यान ही नहीं दिया जाएगा। उल्टे यह पूछा जाएगा कि वाइल्डनेस तो है ही नहीं। जंगल आपको तभी वाइल्ड लगेगा, जब आप शहर में खड़े होकर उसके अनुभवों के आधार पर जंगल को देखेंगे। जंगल के बीच रह रहे हों, या जंगल ने आपको अपने भीतर पूरी तरह समो लिया है, तो आप उसे वाइल्ड नहीं मानेंगे। 

यह जंगल की सफलता है।

वाइल्डनेस एक मांग होती है। एक उम्मीद और एक अवधारणा। मेरी पारिस्थितिकी में मेरी सहजता, आपकी अवधारणाओं के उलट एक नई अवधारणा बना देती है।

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अव्यवस्था के दबाव के बिना व्यवस्था की निर्मिति नहीं होती। इसलिए अव्यवस्था ऐतिहासिक अर्थों में उदात्त है। 

एक कहानी में मैं बहुत सारी चीज़ों को ले आया और उनसे बची बहुत सारी चीज़ों को मैंने बाहर रख दिया। या वे बाहर छूट गईं। असल दबाव उन बाहर छूट गई वस्तुओं का है। कहानी के भीतर बहुत सारी जगह है, लेकिन कहानी के बाहर तो कोई जगह है ही नहीं। इसे पृथ्वी और अंतरिक्ष के संबंध की तरह लिया जाए। अंतरिक्ष अनंत है, एटर्नल स्पेस, पर वहां उन चीज़ों के लिए कोई स्पेस नहीं है, जो पृथ्वी पर हैं। जो पृथ्वी पर टिकी हैं, वे पृथ्वी के गुरुत्व बल के कारण। इसी तरह कहानी का भी एक गुरुत्व बल है, जो चीज़ों को रोक लेता है, पर कहानी के बाहर चीज़ें भटक रही हैं और वे ज़्यादा हैं और वे एक निर्वात में हैं, नॉन-स्पेस में। 

वे चीज़ें लगातार आपके दरवाज़े खटखटाती हैं। और जितनी बार वे दस्तक देती हैं, कहानी के भीतर व्यवस्था मज़बूत होती जाती है। 

***

कई जगहों पर पहली बार जाते ही सोच लेता हूं कि यहां दुबारा जाऊंगा। मुझे पता होता है, पहली बार में मैं उस जगह को नज़र-भर भी देख ना पाऊंगा। इसी तरह कई लोगों से पहली मुलाकात के वक्त ही सोच लेता हूं, इनसे दूसरी मुलाकात में बात करूंगा। पहली मुलाकात अक्सर चुप्पी, झिझक और संकोच से भरी होती है। कई लोगों से, कई जगहों से हर मुलाकात ऐसी ही होती है।

(पुरानी टीपें. चित्रकृतियां : अल्‍बेर्तो सावीनियो)


Friday, October 1, 2010

अब्‍बू ख़ां की बकरी





यह बहुत पुरानी कविता है, इतनी कि लंबे समय तक यह याद भी नहीं रहा था कि ऐसी कोई कविता लिखी थी. पुराने काग़ज़ों की सफ़ाई करते वक़्त मिली. सफ़ाई तो पहले भी की है, लेकिन मिली अबकी. इसके नीचे तारीख़ है 8 सितंबर 98. यह पूरी होने की तारीख़ है. तब मैं कविता के नीचे पूरी होने की तारीख़ डाला करता था, शुरुआत की नहीं. इसलिए यह नहीं याद कि शुरू कब हुई थी. कुछ ही समय बाद यह गोरखपुर की पत्रिका 'दस्‍तावेज़' में छपी थी. उसके बाद का कुछ नहीं याद. जैसे कभी यह सब लिखा ही न था. मेरे पास वे पत्रिकाएं कभी नहीं होतीं, जिनमें मेरी चीज़ें छपी होती हैं. ऐसा कोई अंक नहीं है, किसी भी पत्रिका का. 2007 में इस कविता की याद नागपुर से कवि-मित्र बसंत त्रिपाठी ने दिलाई. उनसे पहली बार फ़ोन पर बात हो रही थी, और उसी दौरान उन्‍होंने इसका जि़क्र छेड़ा. उन्‍होंने तब पढ़ी थी. उस समय याद आया कि हां, ऐसी एक कविता लिखी थी, पर वह कहां गई, नहीं पता. उस समय भी मैंने इसे खोजा था. बाद के दिनों में भी कुछ और दोस्‍तों ने इस कविता को याद किया. मैं बार-बार याद करता कि उस कविता में मैंने लिखा क्‍या था, कुछ विचारधाराओं-प्रतीकयोजनाओं के आधार पर इसकी सिलाई की थी, इससे ज़्यादा कुछ याद न आता. यही कारण था कि यह न संग्रह में रही, न बातचीत में, न डायरियों में, न ही ऑनलाइन डाटा में. कल शाम मिल ही गई आखि़र. जब इसे नहीं खोज रहा था तब. यही नहीं, कुछ और भूल चुकी कविताएं भी मिली हैं. एकाध को पढ़कर मुझे समझ ही न आया कि ये किन मन:स्थितियों में लिखी गई थीं और इनका अर्थ क्‍या है (जो लोग मुझसे मेरी कविताओं का अर्थ पूछते हैं, उन्‍हें ख़ुश होना चाहिए). 

मुझे ऐसा लगता है कि उस समय मुझे उत्‍तर-आधुनिकता के बारे में कुछ संपट नहीं पड़ा होगा, क्‍योंकि हाशिए पर एक नोट में उसे भी इसमें शामिल करने का निर्देश लिखा हुआ है. संपट होती, तो पता नहीं क्‍या लिखता. अभी भी यही सोच रहा हूं कि क्‍या लिखा है. पुरानी, विस्‍मृत रचनाओं को देखकर हम हमेशा ऐसा सोचते हैं कि इसे आज लिखा होता, तो ये-ये, वो-वो दुरुस्‍त कर देता. दुरुस्‍त कर लेने वाला भाव ही शायद आपका क्रमिक विकास होता हो. 

ख़ैर, बारह साल पहले भूली जा चुकी यह कविता पढ़ें. इसे यहां लगाने से पहले मैं इसे कवि बसंत त्रिपाठी को ही समर्पित करता हूं.     
***



अब्‍बू ख़ां की बकरी


अब्‍बू ख़ां एक परंपरा है
अब्‍बू ख़ां की बकरी एक मुहावरा

सबसे पहले हमें कुछ बुनियादी बातों पर सोचना चाहिए
अब्‍बू ख़ां कौन था
वह बकरियां क्‍यों पालता था
उसने कितनी बकरियां पाली थीं
उसकी बकरियां बार-बार उसके पास से भाग क्‍यों जाती थीं
उसकी बकरियों को खा जाने वाला भेडि़या कौन था
जब उसने धीरे-धीरे सारी बकरियां खा डालीं
तो क्‍या अब्‍बू ख़ां ने बकरियां पालना छोड़ दिया

मार्क्‍सवादी पद्धति से इस पर सोचा जाए
तो अब्‍बू ख़ां मेहनतकश वर्ग का था जिसे
सर्वहारा कहा जाना चाहिए
अय्यप्‍प पणिक्‍कर की एक कविता खुजली और बंबई में
प्रचलित शब्‍द खुजली के आशयों के अनुसार
उसे बकरी पालने की खुजली थी
या उसके पेट में भूख नाम की एक पिशाचिनी रहती थी
जो उससे बकरी पलवाती थी
और उसका दूध निकलवाती थी
यानी बकरी उसके लिए उत्‍पादन का साधन थी
जिसे दुहकर वह एक तरह से दूध का उत्‍पादन करता था
इस तरह देखा जाए तो
उत्‍पादन के उस साधन पर अब्‍बू ख़ां की मिल्कियत थी
अब्‍बू ख़ां दूध निकालने में मेहनत भी करता था
अर्थात वह मेहनतकश भी था
अर्थात उत्‍पादन के साधन पर मेहनतकश का स्‍वामित्‍व था
तो इस तर्क के आधार पर हम यह कैसे कह सकते हैं
कि अब्‍बू ख़ां सर्वहारा था
लेकिन उसकी माली हालत इतनी अच्‍छी भी नहीं थी कि
उसे नेशनल बूर्ज्‍वाजी का नाम दे सकें
उसे हम मध्‍यवर्ग या निम्‍न(मध्‍य)वर्ग में ले सकते हैं
जो श्रम करता है और वस्‍तुत: भूख का श्रमिक होता है

दूसरी तरफ़ इसे थोड़ा अस्तित्‍ववादी मोड़ दिया जाए
तो अब्‍बू ख़ां एक स्‍वतंत्र व्‍यक्ति था
और उसकी एक निरपेक्ष्‍ा इच्‍छा थी कि बकरी पाली जाए
अस्तित्‍वाद में व्‍यक्ति के पास इच्‍छा का होना ज़रूरी है
इसमें ऐसा नहीं कि भूख मर जाती है
बल्कि भूख मिटाने की इच्‍छा का होना महत्‍व का है
व्‍यक्तिनिष्‍ठ तरीक़े से वह एक व्‍यक्ति था
जिसके पास एक व्‍यक्तिगत भूख होती है
जिसे वह व्‍यक्तिगत या सार्वजनिक माध्‍यम से पूरा करता है
उसकी बकरियों की भी एक निहायत व्‍यक्तिगत इच्‍छा होती है
मुक्ति की जिसे आध्‍यात्मिक शब्‍दों में
अब्‍बू ख़ां से मुक्ति पूरी दुनिया से मुक्ति पा मोक्ष की तलाश
कह सकते हैं
जबकि मार्क्‍सवादी शब्‍दों में बकरी सर्वहारा नहीं है
क्‍योंकि उसके पास खोने के लिए बेडि़यां और पाने के लिए सबकुछ के ठीक उलट
खोने के लिए बेडि़यों के साथ सुरक्षा और प्‍यार और पाने के लिए भेडि़ये से संघर्ष और मौत है
हालांकि मार्क्‍सवाद नियतिवाद में विश्‍वास नहीं करता

अस्तित्‍ववादी परंपरा और रेनेसां की प्रतीकयोजना के मुताबिक़ यह भी संभव है कि
अब्‍बू ख़ां भारत का एक आम व्‍यक्ति हो
और उसके पास कोई बकरी ही न हो
यानी अब्‍बू ख़ां के दिमाग़ के कुछ अंधेरे पहलू हों
और उनमें कुछ बकरियां निवास करती हों
बकरियां ज़रूरी नहीं कि बकरी की तरह ही हों
बकरियां नादान होती हैं सीधी-सादी होती हैं
सो बकरियां दिमाग़ के नादान सुविचार भी हो सकती हैं
और भेडि़या भी दिमाग़ में ही निवास करता हो
किसी भयानक कुविचार की तरह
अब्‍बू ख़ां के दिमाग़ की बकरियां जब-जब हरे-भरे मैदानों में तफ़रीह करना चाहती हों
यानी अब्‍बू ख़ां के नादान सुविचार उससे मुक्‍त हो अमल में आना चाहते हों
या अभिव्‍यक्‍त हो सार्वजनिक हो जाना चाहते हों
ठीक उसी समय धर दबोचता हो उन्‍हें कुविचार का भेडि़या
अब्‍बू ख़ां की बकरी को हम देश के हर आदमी के दिमाग़ के अंधेरे पहलुओं में
चल रहे सुविचार-कुविचार के संघर्ष के रूप में देख सकते हैं
पर चूंकि यह वैदिक-ऐतिहासिक धर्म-अधर्म का संघर्ष नहीं
सो इसमें बकरी रूपी धर्म अर्थात कमज़ोर नादान सुविचारों की ही जीत हुई हो
इतिहास में ऐसा कभी दर्ज नहीं हो पाया

यह भी संभव है कि अब्‍बू ख़ां अपनी बकरियों और भेडि़ये और अपनी पूरी कहानी समेत हमारे दिमाग़ में रहता हो, लड़ाई चलती ही रहती हो और वह हमारे बहुत सारे निर्णयों को प्रभावित भी करता हो 

आजकल के टाइम का एक व्‍यावहारिक सिद्धांत यह भी है
बतर्ज लड़की अगर मिनी स्‍कर्ट पहनेगी तो रेपिस्‍ट तो आएगा ही कि
बकरी जब देर रात घने जंगल में अकेले घूमेगी
तो भेडि़या तो उसे खाएगा ही
इसमें दोष बकरी का ही था
क्‍योंकि बकरी ही बार-बार आज़ाद होने के लिए अब्‍बू ख़ां के पास से भाग जाती थी
और भेडि़ये के इलाक़े में पहुंच जाती थी
फुक्‍कट में भेडि़ये को दोष कायको देना
उसके पास भी भूख है और पारिस्थितिकी के अनुसार उसका आ‍हार बकरियां हैं
सवाल यह है कि बकरियां अब्‍बू ख़ां से आज़ादी क्‍यों चाहती थीं
क्‍या मेहनतकश अब्‍बू ख़ां शोषक अब्‍बू ख़ां भी था
क्‍या अब्‍बू ख़ां की पालना में रहना अब्‍बू ख़ां की कष्‍टकर ग़ुलामी में रहना था
वे अब्‍बू ख़ां के पास घास खाने, दूध देने, छोटी-छोटी लेंडियां करने और
जब-तब में-में करने के सिवाय करती ही क्‍या थीं
अब्‍बू ख़ां में कोई लाड़-प्‍यार भी था जो बकरियों का दिमाग़ फिरा देने को काफ़ी था
और उन बकरियों की भूख नामक मूलभूत ज़रूरत पूरी तरह संतुष्‍ट थी
क़ायदे की बात है कि जब पेट भरा हुआ होता है
तो आज़ाद होने की बात ख़याल आती है
(देश की आज़ादी का पूरा संघर्ष ही भरे पेट वाले लोगों की अगुआगिरी में हुआ था)

अब यहां कलावादी उचककर सवाल करते हैं
लेकिन हर चीज़ आकर भूख पर ही क्‍यों टिक जाती है
और भी ग़म हैं ज़माने में भूख के सिवाय

ये तो आप जानते ही हैं कि ऐसा कौन कहेगा कि
भेडि़या हिंदू था और मुसलमान (की) बकरियों को ही खाना प्रिफ़र करता था

क़ानून की बात कि अब्‍बू ख़ां ने अपनी बकरियों की सुरक्षा का इंतज़ाम कैसा किया था
अलेक्‍ज़ेंडर ब्‍लोक के प्रतीकवाद और मायकोवस्‍की के बाद के भविष्‍यवाद पर आएं
और अब्‍बू ख़ां की बकरियों को अब्‍बू ख़ां की बेटियों के रूप में देखें तो
लड़कियों के बार-बार भेडि़यों द्वारा खा लिये जाने की अनंत दारुण कथा समझ में आती है
तब भेडि़ये को कैसे लें
जवान लड़कियों को सुनहरी सपने दिखा खींच लेने वाला प्रलोभन
एक ऐसा चुंबक जिसे पता है मिट्टी और लोहे के बुरादों का फ़र्क़
फिर बकरियों को क्‍यों नहीं पता अब्‍बू ख़ां और भेडि़ये का फ़र्क़

जब-जब कोई बकरी मारी जाती है
तब-तब अब्‍बू ख़ां ख़ुद को भयंकर असुरक्षित और एकाकी महसूस करता है
जब-जब हमारे दिमाग़ में कोई पराजय होती है दुख सिर उठाता है
हम अब्‍बू ख़ां की गति को प्राप्‍त होने लग जाते हैं
उपभोक्‍तावाद में बकरी हमारी संस्‍कृति बन जाती है और भेडि़या बाज़ार आक्रांता
हम एक-एक करके अपनी बकरियां खोते जा रहे हैं अलग-थलग होते जा रहे हैं
पूंजीवाद अपने विध्‍वंसक रूप के प्रभावों से व्‍यक्ति को लगातार आत्‍मकेंद्रित
अलग-थलग और एकाकी बनाता जाता है

ज़रा फिर मार्क्‍सवादी-समाजवादी संदर्भों में लौटें
भुवनेश्‍वर, सर्वेश्‍वर से लेकर विमल कुमार की कविताओं का भेडि़या कितने रूप बदल चुका है
क्‍या अब्‍बू ख़ां की बकरियों के प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण करने की प्रवृत्ति ही भेडि़या है
अगर बकरी अब्‍बू ख़ां का श्रम है तो उसे बेमोल पचा ले जाता है
उसके उत्‍पादन का एक अंग तो लगान की तरह वसूल ले जाता है
अब्‍बू ख़ां लाख सिर पटकता है
बकरी उसके पास टिकती नहीं
पालतू ग़ाफि़ल हो बार-बार भग जाती है
घात लगाये भेडि़या दबोच लेता है
अब्‍बू ख़ां रोता है
अकेले में बूढ़ा होता है

अब्‍बू ख़ां एक परंपरा है
अब्‍बू ख़ां की बकरी एक कहावत-मुहावरा
भेडि़या परंपराओं-कहावतों से रूढ़ एक नंगी असलियत
(फिन देक के लो न भिड़ू, कविता को परंपराओं-मुहावरों से बचाने का है,
बोले तो काय-काय चीज़ से बचाने का है, समझ के लो न)