Tuesday, July 29, 2008

खिलेगा तो देखेंगे


उन्‍हें पढ़कर हमेशा लगता है कि कविता के प्‍लेबैक में गद्य गाता है. विनोद कुमार शुक्‍ल के उपन्‍यास 'खिलेगा तो देखेंगे' से कुछ प्‍लेबैक:

- यह स्‍वतंत्र होने का प्रदर्शन है. चिडि़या जितनी स्‍वतंत्र होती, बिल्‍ली भी उतनी ही स्‍वतंत्र और उन्‍मुक्‍त होती. बिल्‍ली हमेशा दबोचने वाली ताक़त होती.

- तालाब के अंधेरे और पानी के अंदर के अंधेरे में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं लगता होगा. इसलिए मछली को ऊपर का अंधेरा भी पानी लगता होगा. पानी के अंधेरे में पानी था. ज़मीन के अंधेरे में पानी नहीं था.

- चीज़ों को उसी तरह के साथ उसके अलावा भी देखने का अभ्‍यास होना था. छूटे हुए लोगों के साथ दुनिया छूट गई. एक छूटी हुई पाठशाला एक छूटे हुए गांव में होगी. छूटी हुई किराने की दुकान में छूटा हुआ चावल बिकता था.

- निरंतरता समय का गोत्र है, जैसे भारद्वाज गोत्र होता है.

- गांव में एक सुंदर पक्षी दिखा, क्‍या यह गुनाह की पुस्‍तक में दर्ज हो सकता था?

- लकड़ी की बंदूक़ से केवल धांय बोलने से गोली निकल जाती थी. पेड़ की डाल तोड़कर लड़के खेल-खेल में तलवार की तरह लड़ते.

- भागकर एक लड़की दृश्‍य में रात और दिन में छुपती है और अधेड़ होकर बच जाती है.

- ख़ुश होने के पहले बहाने ढूंढ़ने चाहिए और ख़ुश रहना चाहिए. बाद में ये बहाने कारण बन जाते. सचमुच की ख़ुशी देने लगते.

- रेलगाड़ी से एक देहाती स्‍टेशन का दृश्‍य उतर रहा था. एक यात्री उतरता, तो एक दृश्‍य की तरह उतरता. जाती हुई रेलगाड़ी का दृश्‍य रेलगाड़ी के साथ चला गया.

- वस्‍तुओं के समझदार होने में ख़तरा उनकी ग़लत समझ का होगा. ठीक समझ के लिए वस्‍तुओं की पाठशाला होती. एक समझदार वस्‍तु गुरुजी होंगे.

- जीने का तौर-तरीक़ा प्रतीकात्‍मक होने लगा था. ख़ाली पिंजड़े के अंदर तोते का प्रतीक मर चुका था. जाना है, जीना है, जैसा सुनाई दिया.

- मुन्‍नी के बाएं हाथ में सूर्य का झोला लटका था. सुबह-सुबह सूर्य के झोले में जि़ंदा प्रकाश कुलबुला रहा था.

- बुलबुल सीटी बजा रही थी, पर गौरैया दिख रही थी. बुलबुल के प्‍लेबैक से गौरैया गा रही थी.

- भूख की चिंगारी बुझाने के लिए आखि़री कौर खाना पड़ेगा. ऐसा नहीं था कि बाज पहला कौर खाकर चार दिन बाद आखि़री कौर खा लें.

- सचमुच के काम कठिन थे, लेकिन झूठमूठ की बीड़ी से सचमुच का नशा छूट गया. सचमुच की जिंदगी में सचमुच की हांसी.

Wednesday, July 23, 2008

रोशनी किस जगह से काली है


फाउंटेन से नरीमन पॉइंट तक पहली बार टैक्सी की थी। वह रास्ता पहले पैदल पसंद था। दोनों तरफ़ किताबें लगी होती थीं। दोस्त ने बताया, अब नहीं होतीं। अब क्या-क्या नहीं होता यहां पर? मुस्कराहट के अलावा कुछ नहीं लौटता।

लोग वैसे ही दौड़ते हैं, लेकिन उनकी हांफ की आवाज़ अब नहीं सुनाई देती। ज़्यादातर जाम और हॉर्न चीख़ते हैं। जहांगीर के बाहर हमेशा बारिश रहती है और छोकरों के स्केच गीले हो जाते हैं। खादी ग्रामोद्योग का बोर्ड उतर गया है और यह बिल्डिंग एलआईसी की है, जिसे अब सिटी बैंक के नाम से जानते हैं लोग। अब लोकल में चाथी सीट भी नहीं मिलती। महीने में एक भी फिल्म नहीं देख पाता। किताबें ख़रीदने जाओ, तो लगता है, फि़ज़ूलख़र्ची है। घड़ी इतनी बार ख़राब हो चुकी कि अब और ठीक कराने का मन नहीं करता।

और वह पीपुल्स बुक हाउस के सामने की चाय की दुकान?
वह भी वैसी ही है, लेकिन दस मिनट में उठा देता है वो।
वही जो पूछता था, आप राइटर हो क्या? हां बोलने पर स्पेशल चाय बनाता था?
नहीं, अब वह नहीं है। उसका बेटा बैठता है।

एशियाटिक की सीढि़यां?
वे तो बिछी हुई हैं, वैसे ही।
एक बूढ़ा दोस्त बैठता था न वहां? अस्सी-पचासी का था तब।
अब पता नहीं, कहां है। मराठी का कवि था। बहुत परेशान रहता था। पता नहीं, किन-किनको गालियां बकता था। एक दिन बोला, कविता बंद। फिर एक दिन- पीना बंद। फिर एक दिन- खाना बंद। फिर दिखा नहीं वह। मैं अभी भी सीढि़यों पर बैठता हूं।

मैंने सिगरेट सुलगाई और तीली समंदर में फेंक दी। लहरें सिर पटक रही थीं। मलाबार हिल की तरफ़ रोशनी जगमगा रही थी। यहां फुटपाथ बहुत चौड़ा हो गया था। स्मृतियों की फ़र्श से साफ़। लोग अनुशासित थे। जोड़े में बैठकर प्रेम करते थे।
बहुत दुखी था?
पांच साल से मैं उसे लगभग उन्हीं कपड़ों में देखता रहा। अभी भी दो रुपए वाली टिकटिक पेन से लिखता था। पेपर और किताब पढ़ने एशियाटिक आता था। कहीं से आया कोई और बोला- तेरी कविता मनुष्यविरोधी है। क्या पता, मज़ाक़ में कहा कि क्या, उसको सनाका लग गया। भवानी सरक गई उसकी। येड़ा। कविता लिखना बंद।
आप जिंदगी-भर लिखते रहो, कभी भी, कोई भी आएगा और आपको मनुष्य विरोधी कह देगा, सांप्रदायिक कह देगा, पूंजीवादी कह देगा, घटिया, ग़लीज़ और दो कौड़ी का कह देगा और कोई धीमा ज़हर आपकी नसों में उतार देगा। भवानी तो सरकेगी ही।

पूरा इलाक़ा चमकता है अब? मैंने पूछा।
हम्म।
सामने मलाबार हिल, उधर कफ परेड, इधर नरीमन पॉइंट। झकास है, नहीं क्या? रोशनी ही रोशनी?
यह सिर्फ़ रोशनी को देखने का समय नहीं है, यह देखो कि रोशनी किस जगह से काली है।
मुझे फ़ज़ल ताबिश और आंद्रेई वाइदा एक साथ याद आ गए। कोई मेलोड्रामेटिक बैकग्राउंड स्कोर नहीं।

यहां अब सेंगदाने वाले नहीं दिखते?
उसने कहा, समय हो गया। बीएमसी ने पूरा इलाक़ा साफ़ कर दिया है। स्वच्छ मुंबई। आइसक्रीम वाले भी नहीं। भुट्टे भी नहीं। समंदर के किनारे सेंगदाने नहीं, अजीब लगता है। तुमने देखा, यहां अब कबूतर भी नहीं हैं?
काफ़ी देर से वहां कुछ ग़ायब-ग़ायब लगता था। सच, वहां कबूतर नहीं थे। उनकी फड़फड़ाहट, उनकी गूं, दाना फेंकने वाले बुज़ुर्ग और शौकि़या, कुछ नहीं।
ये बिल्डिंग वालों को प्रॉब्लम होती है। कबूतर उनके यहां गंदगी कर देते हैं। तो उन्होंने रसूख़ चलाया। कबूतर ग़ायब। नरीमन पॉइंट साफ़-सुंदर, चौड़ा हो गया।
ऊंची बिल्डिंग की तरफ़ देखा। हर बाल्कनी में एसी था। कपड़े कम ही जगह सूख रहे थे। हवा लेने कोई खड़ा नहीं दिखता।

ये इलाक़ा कभी भी तुम्‍हारा नहीं था.
पर कबूतर हमारे थे, सेंगदाने... समंदर भले उनका था, लहरें हमारी थीं, पानी और पत्‍थर... ये सिर पटकना हमारा था... बैठना, खड़े हो जाना और टहलना हमारा था... एक दिन समंदर से पानी और पत्थर भी छीन लिया जाएगा... बैठना और हमारा टहलना भी...

फिर पता नहीं क्यों, वह बोला
ग़रीब लहरों पर पहरे हज़ार होते हैं
समंदर की तलाशी कोई नहीं लेता...
उसे समंदर में उछालने के लिए कोई कंकड़ नहीं मिला। आधी पी सिगरेट ही उछालते हुए बोला...
बोलो... भवानी सरकेगी कि नहीं?
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