Sunday, April 24, 2011

दर्द के सुर में सबसे मधुर गीत





वह एक कांपती हुई आवाज़ थी. झरना नहीं, उससे फूटकर अलग हुई एक पतली-सी धार थी, जिसकी पोशाक मख़मल की थी. वह आवाज़ अवध की तहज़ीब थी. वैसी ही मिठास, वैसा ही नफ़ासत भरा दर्द. कई दुख छत पर खड़े होकर हल्‍ला करते हैं, कुछ दुख सिगड़ी में रखे अंगारे की तरह तपते रहते हैं. जो पास आता है, उसे जलाते नहीं, जिंदगी जी सकने लायक़ तपिश देते हैं. तलत महमूद का दर्द शालीन है. वह ख़ामोशी से आंखों से निकलकर दूर होता आंसू है. वह आपके घावों को सहलाता है और कहता है, 'महसूस करो, दर्द का स्‍वाद मीठा होता है.' (हैं सबसे मधुर वो गीत, जिन्‍हें हम दर्द के सुर में गाते हैं.) यही वह तपन है, जिसने तलत को तपन कुमार सिन्‍हा नाम भी दिया था. 

विरह से बड़ा कोई राग नहीं होता. सुर के सारे सोते इसी से फूटते हैं. एक हंसती हुई धुन आपके पैरों को थिरका सकती है. एक पनीली धुन आपके दिल के भीतर घुसती है और दिल के पैरहन की सारी सलवटों को साफ़ करती है-- रेशम के बुहारन से. संगीत के शब्‍दकोश को पलटकर खंगाल लें, वहां रेशम का अर्थ तलत लिखा हुआ मिलेगा. इस आवाज़ को खींचकर आप गगनचुंबी इमारत नहीं बना सकते, इस आवाज़ में आप हाई-पिच सुरंग भी नहीं सेंध सकते. उनकी आवाज़ पगडंडी है- पतली, तमाम हरियालियों के बीच रास्‍ते का आभास देती हल्‍की-सी लकीर. यह लकीर दुनिया के तमाम राजमार्गों से ज़्यादा भव्‍य है. अगर आप तलत को दिल से सुनते हैं, तो गर्व आपकी आंखों का सुरमा होगा. 

तलत का दर्द इंतज़ार का दर्द है. आपका कोई आपसे दूर है. आपका दिल मार डूबा जा रहा है. तलत को सुनिए. वह इलाज हैं. वही दर्द हैं. वही दवा हैं. शामे ग़म की क़सम खाइए और वे गीत ढूंढ़ लाइए, जिनके लिए आंखों के दिए जलते हैं. वह आपको दुनिया के भीड़-भड़क्‍के से निकाल ले जाएंगे, उस जगह जहां कोई न हो. जहां दर्द तलत बन जाता है, इश्‍क़ तो है ही तलत. जहां ख़ामोशी एक ग़ज़ल का क़ाफि़या बन जाती है, इंतज़ार उसकी बहर. तलत की आवाज़ हमारे भीतर के इसी इंतज़ार को हौसला देती है. 

(24 फरवरी 2007 को दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित)



Sunday, April 17, 2011

ग़म की बारिश, नम-सी बारिश





वह भयानक रात थी, जब उसकी आंखें नशे से डोल रही थीं और वह रिसीवर पर बाक़ायदा चीख़ रहा था, 'हलो... गीतू... मैं गुरु... मैं बहुत अकेला हूं... प्‍लीज़, आज मेरे पास आ जाओ... आई नीड यू गीता...'. वह गि‍ड़गिड़ा रहा था. बरसों से एक डाह में जल रही गीता दत्‍त खि‍लखिलाईं और ज़हर बुझे तीरों से उस ख़रगोश को बींधकर रख दिया, 'आई स्टिल लव यू गुरु... पर तुम मेरे लिए नहीं, उस वहीदा के लिए तड़प रहे हो. उसे मद्रास फोन कर लो, शायद वह आ जाए. मैं नहीं आने वाली... किस मुंह से तुम मुझे बुला रहे हो...'

गीता नहीं आई. वहीदा दूर हो ही गई थी. काग़ज़ के फूल ख़ुशबू नहीं दे पाए थे. गुरुदत्‍त कई रातों से दुख के तंदूर में भुन रहे थे, कभी इस करवट, कभी उस करवट. उस रात अपनी पसंदीदा स्‍कॉच में उन्‍होंने नींद की बीसियों गोलियां मिला लीं. उससे पहले कभी राज कपूर को फोन करते, कभी देव आनंद को. दोनों ने आने से इंकार कर दिया. वह सिर्फ़ एक रात के लिए अपना अकेलापन किसी की गोद में रखकर देर तक रोना चाहते थे. देव के साथ 'प्रभात' के शुरुआती दिनों को याद करना चा‍हते थे. राज के साथ बंबई के समंदर के साथ की गई शैतानियों को सिमर भीतर से गीला होना चाहते थे. गीता से कहना चाहते थे कि उन्‍होंने उससे बेइंतहा प्‍यार किया है. वहीदा को बताना चाहते थे कि तुम मेरी कलाकृति हो और कलाकार को अपने सिर से ज़्यादा प्‍यारी होती है अपनी कलाकृति. उनकी इस तड़प को सनक माना गया. सबने अपने-अपने तरीक़े से इंकार कर दिया. 

गुरु ने बाहोश गोलियां खाईं और बेहोशी में जिस्‍म को छोड़ दिया. रूह आगे-आगे भागती रही (जैसे 'काग़ज़ के फूल' का आखिरी सीन), जिस्‍म वहीं पड़ा दुनियादार लोगों का इंतज़ार करता रहा. उस वक़्त उनका फोन लगातार बज रहा था. गीता दत्‍त उन्‍हें कॉल कर रही थीं कि हां गुरु, मैं अभी आ रही हूं... मद्रास से वहीदा रहमान ठीक उसी समय बहुत परेशान होकर लाइटनिंग कॉल बुक करा रही थीं- मि. गुरुदत्‍त पादुकोण के नाम. देव आनंद और राज कपूर भी आंखें मींचते हुए उन्‍हें कॉल करना चाह रहे थे. पौ फट चुकी थी. गुरु के चेहरे पर यक़ीन था- ख़ुद के मर जाने का यक़ीन. इस बात का यक़ीन कि कोई नहीं आएगा अब... बिछ़ड़े सभी बारी बारी. यह यक़ीन बहुत निर्णायक होता है. मरने में बहुत मदद करता है. इसी यक़ीन ने गुरुदत्‍त की लाश के होंठों को एक मुस्‍कान सौगात की. गुरु व्‍यंग्‍य भरी मुस्‍कान के साथ मरे थे- तिरछी मुस्‍कान. सबने जागने में देर कर दी थी. उस रात की सुबह बहुत रुक कर आई. कुछ घंटों के बाद पूरी दुनिया उनके दरवाज़े पर जमा थी और गुरुदत्‍त की रूह दरवाज़े पर दोनों हाथ फैलाए मद्धम-सी आवाज़ में गा रही थी- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्‍या है... रोशनी उस रूह के पीछे से आ रही थी. आगे तो सब कुछ अंधेरा था. 

अंधेरा उसे बहुत प्‍यारा था. वह श्‍वेत-श्‍याम का जादूगर था. जितना श्‍वेत में खिलता था, उससे कहीं ज़्यादा श्‍याम में. वह अंधेरे में हिलती हुई एक परछाईं था. कोई उसे साफ़-साफ़ नहीं देख पाया. न गीता, न वहीदा और न ही ढाई घंटे के लिए हॉल में आने वाले दर्शक, जिनके अंधकार को रोशनी से भरने के लिए वह बरसों अपनी स्‍कॉच में अपने दिल के तमाम गलियारों में छाए अंधेरों का अर्क मिलाकर पीता रहा. उस अर्क को आंसू बनाकर बहाता रहा. 

उसे आंसू बहुत प्रिय था. गुरुदत्‍त उस बूंद का नाम था, जो आंसू की कोख से निकलता है और एक बारिश में बदल जाता है. वह ग़म की बारिश था. वह नम-सी बारिश था. वह गालों को छूकर किसी अतल में जा धंसा एक अनाम-सा आंसू था. जिंदगी में हम कई लोगों को छूते हैं. कइयों से गले मिल लेते हैं, लेकिन कोई एक छुअन ऐसी होती है, जो बाक़ी तमाम स्‍पर्शों को हीन बताती है और अपनी अद्वितीयता में ताक़त देती है. हम सिर्फ़ उस छुअन को याद कर पूरी उम्र निकाल देते हैं. ताउम्र हमारी पूंजी सिर्फ़ एक निगाह होती है जो दिल में बस जाती है, साये की तरह बदन को लपेटती है, जो वक़्त की धूप को अपनी छांह से चुनौती देती है, अपनी ठंडक में पुचकारती है, तपिश को बर्फ़ का दान देती है और जलती आंखों को नम फ़ाहे. ताउम्र हम सिर्फ़ एक मुस्‍कान को याद रखते हैं, जो किसी फुनगी की तरह उमगती है. हम सिर्फ़ एक हुलस में जीते हैं, जो फ़सल के बीचोबीच चुनरी लहराकर लहलहाती है. 

हम एक सच पर पूरी दुनिया वार देते हैं, एक झूठ पर ख़ुद को क़त्‍ल कर देते हैं. गुरुदत्‍त भी एक छुअन में जिये. वहीदा की उस निगाह में उन्‍होंने अपना घर बना लिया, जो पहली बार हैदराबाद में उन पर आ टिकी थी. उस आंसू में रहे, जो बंगाल के शरत और नॉर्वे के नट हैमसन को पढ़कर उनकी आंखों से निकले. उस भटकन में रहते थे, जो मुंबई के नंगी रातों में सड़क पर फिसली हुई होती है. 

कश्‍मीर की डल झील में डोलते हुए शिकारे में जब वहीदा ने उनके माथे पर चुंबन की रोली लगाई, तो उनकी आंखें छलछला गईं. उन्‍होंने कहा, गीता मुझे छोड़ गई है. तुम मत छोड़ना कभी. और वहीदा ने कुछ ही दिनों बाद उनका साथ छोड़ दिया. बिना पूरा सच बताए. गुरु को झूठ का यक़ीन नहीं था और सच का अंदेशा भी नहीं. वहीदा कैरियर के लिए बाहर की फिल्‍में साइन करने लगीं. फिल्‍म इंडस्‍ट्री भी इसी दुनिया की तरह क़दम-क़दम पर चालाक लोमड़ों से भरी पड़ी है. गुरु ने, उनके दोस्‍त अबरार अल्‍वी ने बार-बार समझाया कि तुम्‍हारी ज़रूरत गुरु को है. वहीदा ने अपने कैरियर और सपने गिनाए. उस दिन गुरु फिर टूटे. ऐसा टूटे कि फिर कभी जुड़ नहीं पाए. उनके माथे पर पड़ा आखिरी चुंबन चालबाज़ निकला. उसने माथे पर पड़ने वाली लकीरों को कई गुना बढ़ा दिया. 

गुरुदत्‍त की लगभग हर चिट्ठी माफ़ी से भरी होती. एक ख़रगोश जो अपनी नींद में बाड़े तोड़ निकल भागता हो, और अपनी जाग में लौटने पर कंटीली बाड़ों से माफि़यां मांगता हो. वह एक तड़पा हुआ दिल था. प्‍यार की तलाश में मारा-मारा फिरता. पानी के छींटों पर बैठकर दूर-दूर तक उड़ता.  दिल का कांच टूटने पर बनी किरचों पर लहू के क़तरों की तरह चस्‍पा रहता. वह दुनिया से सिर्फ़ एक चीज़ मांग रहा था- आओ, मुझे थोड़ा-सा समझो, थोड़ा-सा संभालो. दुनिया कह रही थी कि यह सनक का सुल्‍तान है. इसे कुछ मत दो. सिर्फ़ हंस दो. जबकि गुरुदत्‍त को उन रंगों से भी परहेज़ था जिन्‍हें हंसी के रंग कहते हैं. गुरुदत्‍त के आसपास की दुनिया उसे समझ नहीं पाई, वह जो चाहता था, नहीं दे पाई. एक दिन गुरु ने दुनिया की फ़ेहरिस्‍त से अपना नाम ख़ारिज कर लिया. 

(9 जुलाई 2007 को दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित.)