Monday, June 28, 2010

दो नई किताबें और एक सरप्राइज़

शाम दोनों किताबें सावंत आंटी की लड़कियां और पिंक स्लिप डैडी छपकर हाथ में आ गईं. हैप्‍पी. मराठी के उपन्‍यासकार भालचंद्र नेमाड़े ने दोनों किताबों का लोकार्पण किया. नामवर सिंह और पंकज बिष्‍ट भी मौजूद थे. एक अच्‍छा अनुभव. ख़ुशनुमा अहसास. अपनी नई-नवेली, ताज़ा किताबों को छूना किसी भी लेखक को भावुक कर सकता है. और ये तो पहली किताबें हैं कहानी की, तो भला क्‍यों न हुआ जाए?


इन दोनों किताबों के साथ एक पुस्तिका भी. सबद पर अनुराग वत्‍स ने जो मेरा इंटरव्‍यू किया था, उसे राजकमल प्रकाशन ने पुस्तिका ‘सम्‍मुख : गीत चतुर्वेदी’ के रूप में प्रकाशित किया और इन्‍हीं दोनों के साथ उसका लोकार्पण भी हुआ. सबद पर इस इंटरव्‍यू के प्रकाशन के कुछ ही दिनों बाद राजकमल ने इसे पुस्तिका की तरह छापने का निर्णय लिया था. यह इंटरव्‍यू अनुराग की लंबी मेहनत है. और उनकी पहली प्रकाशित पुस्‍तक भी.  इसके लिए उन्‍हें ढेर सारी बधाइयां.




Friday, June 25, 2010

किताबें






कहानी की दो किताबें हैं. सावंत आंटी की लड़कियां और पिंक स्लिप डैडी.

रविवार 27 जून को शाम छह बजे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्‍सी में इनका लोकार्पण है.

लोकार्पण करेंगे मराठी के मशहूर लेखक भालचंद्र नेमाड़े.
तफ़सील के लिए तस्‍वीर पर क्लिक करके बड़ा करें.

ज़रूर आएं. आपका स्‍वागत है.


Monday, June 21, 2010

नया



इधर एक इंटरव्‍यू हुआ है, जो सबद पर लगा है. अनुराग की लंबी मेहनत है,  उसे यहां देख सकते हैं.



आशुतोष भारद्वाज ने एक सुंदर विश्‍लेषण किया है उभयचर का. और उन गलियों पर बात की है, जिधर लोग कम ही गए. इसे यहां पढ़ सकते हैं और यहां भी.

Friday, June 11, 2010

जाना सुना मेरा जाना

अर्थ बचा रहे इसके लिए ज़रूरी है कि लिपि में शब्दों के बीच दूरी बनी रहे
दोनों पैर एक साथ बढ़ाता हूं तो गिर जाता हूं उछलना पड़ता है इसके लिए
चल सकूं अपने पैरों को बारी-बारी आगे बढ़ाता हूं
सड़क से मुहब्बत का यह आलम है उसे चोट नहीं देना चाहता
फिर क्यों तुमको बार-बार सड़क मानने से कतराता
इस दुनिया में कोई चीज़ अगर हर वक़्त गर्भवती है तो
समय है वह क्या-क्या नहीं जन्म लेता यहां से हर समय
इतना विशाल गर्भाशय कि गर्भाशय का कैंसर हो गया तो कौन ठीक करेगा
जो था वह था ही नहीं रहता है भी हो जाता है
जो नहीं था वह भी है हो जाने को अकुलाता है
कुछ चीज़ों की वृद्धि उनके छोटे होते जाने में रही फिर भी
बिना पेंसिल उठाए हंसते चेहरे का चित्र बना लेने वालों के हुनर से हमेशा घबराया
इतिहास में ऐसे मौक़े ज़्यादा आए जब ग़लत चीज़ों पर एकमत रहा बहुमत; उन मौक़ों पर मैं किस तरफ़ रहा?
जिन लोगों के बीच रहा उनकी अपेक्षाएं नहीं रहीं कभी बहुत ही
इसीलिए बहुत कुछ पाया भी नहीं उन्होंने कभी      वे सब व्यवस्था के कारकून बोले तो अव्यवस्था के मसीहा
इस जहां में जहां जहां जाना है उन्हें पाना है उस जहां में भी जहां जहां
मेरी नसों को नश्तरों से खोलेंगे फिर ख़ून में तैरेंगे ख़ून को खोजते हुए
फिर एक दिन कह देंगे ख़ून है नहीं रहा ही नहीं इन नसों में कभी
नसों की दीवारों पर बने चित्रों को आदिम गुफ़ाओं की परंपरा का कहेंगे
और वहां पर्यटन की संभावना पर बैठक होगी
मेरे शरीर में नेअनडरठाल रहते हैं यह कितना दिलचस्प शोध होगा
बहुत अकेले छितराए हुए थे नेअनडरठाल बिखरे हुए जब उनकी प्रजाति नष्ट हुई थी
वे इतिहास के सबसे कुरूप लोग थे शिकारी थे बावजूद योद्धा न थे
आकांक्षाएं योद्धाओं को आकर्षित करती हैं आकर्षित जो होते हैं वे योद्धा बन जाते हैं
आंसू के बिना कोई प्रार्थना लिखी ही नहीं गई इस दुनिया में कभी
कम न हो आत्मबल मनोबल मुंह के बल गिरने पर भी बल के मुंह को धो-पोंछ संवार लेना
इतना बूढ़ा न होना कि ख़ुद को जवान न कह सकना
इतना संपन्न हमेशा रहना कि कुछ भी लुट जाने से डर न लगे
इतना निष्फिकिर भी कभी नहीं कि फ़क दिस वर्ल्‍ड विद योर मिडिल फिंगर
सुंदरताएं भी क्रूर होती हैं कई बार अनिवार्य रूप से क्रूर
उसके बाद भी वे सुंदर होती हैं यह उनकी क्रूरता को थोड़ा कम करता है
सितारे आसमान में, अपनी दूरी-क़ुरबत से, जो आकृतियां बनाते हैं वे दरअसल
न पढ़ी गई लिपियों के अक्षर होते हैं पढ़े जाने के सुराग़
क्या फ़रक़ पड़ता है कि दीवार पर लिखे गए स्क्रीन पर मन पर मचलते तन पर कितौ आसमान पर ही लेकिन
काग़ज़ भी तो अंकल मुहब्बत की शै होती है
अकेला होकर भी चंद्रमा कभी अल्पमत में नहीं होता आसमान पर काग़ज़ के टुकड़े-सा चिपका हुआ
कौन मूल है क्लोन कौन है
इस युग में जितनी तेज़ी है अचरज मत करना इस पर अगर कहीं यह पता चले कि
क्लोन पहले पैदा हुआ था मूल से, एक अधिभौतिक भूल से
पचीस-पचास-पांच सौ साल पहले दुनिया में आकर कोई तीर नहीं मार लिया उनने
बड़े-बुज़ुर्गों की इज़्ज़त करने से बेहतर है उन चीज़ों की इज़्ज़त करना
जो आधी रात तुमको अचक्के जगा जाती हैं जब जगते हो तो पाते हो
टूटा घड़ा रात-भर में इतना टपका कि ख़ालीपन से भर गया
ऐसी हवा चली कि तुम्हारे प्रिय पेड़ के सारे पत्ते आंगन में गिर गए गिर कर कूड़ा बन गए
ऐसी तमाम चीज़ों को मुश्किल पाता हूं बहुत
पाने जाता हूं इन सबको आती हैं और भी मुश्किलें
देने के लिए मेरे पास सिर्फ़ प्रेम है और, इज़्ज़त, मुझे लगता है,
एक निहायत सामंती परंपरा है जिसके धागों से ओढऩे-बिछाने के कपड़े बने सबके
एक दिन जिनका तार-तार हो जाना निहायत अनिवार्य है
पर यह कितना अजीब है कि कुछ हत्याओं का कारण प्रेम को माना गया कुछ का इज़्ज़त को
कि घृणा करने के सारे गुर प्रेम ही सिखाता है
कुछ हथियार ऐसे होते हैं जो हाथ बदलते ही अपनी ताक़त खो बैठते हैं
जबकि दुनिया में कोई शै ऐसी नहीं जिसके लिए लड़ा जाए
जबकि दुनियाओं का विस्तार अन्वेषणों से कम हुआ आक्रमणों से ज़्यादा
एक ऐसा दरवाज़ा जिसे सदियों से खटकाया जाता है न खुलता है न ही भहराकर टूटता है जो
एक खिड़की जिसमें से निकलती है एक हरी लता जो कभी बढ़ती नहीं छंटती भी नहीं
उसमें से जो सुगंध निकलती है उसके स्थगन से पैदा होती है
इतना जाना सुना है मेरा जाना कि सब कुछ को देखना सब कुछ के साथ रुका होना है
इतना अ-जाना अ-सुना है मेरा अ-जाना कि जाने से पहले ही लगता है जा चुका हूं
लौटने से पहले से लौटता रहा हूं बाद भी जैसे रॉकेट की पूंछ से निकलता धुआं एक विलंबित लौट के अभ्यास में
बहुत देर तक बहुत बहुत देर तक दिखता है खो जाने के बाद भी दिखता ही रहता है स्थिरता में अपनी
मैं पूर्व में जाता था जबकि सारी दुनिया पश्चिम जा रही
पश्चिम वाले और पश्चिम और पश्चिम एक ने कहा जापान, अमेरिका के पश्चिम में है
सो एक तरफ़ से ही मानो दिशाएं क्या बताऊं मेरा पूर्व दिशा नहीं है
जैसे तीसरी आंख दरअसल आंख नहीं जैसे पांचवां सिर दरअसल सिर नहीं जैसे तीसरी दुनिया कोई दुनिया ही नहीं
जैसे हर धर्म में होती है एक पवित्र भूमि, एक प्रॉमिस्ड लैंड
उसकी आकांक्षा कितना गौरवान्वित करती है हमेशा के लिए खो जाने की इस प्रक्रिया को बामुराद
इतने नए सिरे से आई है यह गुमशुदगी अनिश्चित अप्रत्याशित
इतना अंधेरा है और मैं इतना निश्चिंत कि धीरे-धीरे हाथ डुलाते उन दिनों को याद करता हूं
जब मैं गर्भाशय में था
पैर को थोड़ा-सा हिलाकर किसी को ख़ुशी दे देता हुआ
गुम हो जाना बिना हाथ हिलाए विदा हो जाना है
जब बर्दाश्त से बाहर हो जाएगी भूख हम अपना भविष्य खा लेंगे