Saturday, February 26, 2011

अलौट व अन्‍य कविता






Photo- Ana Himes

अलौट

अब कभी तुम उतनी मासूम नहीं दिख सकोगी, जितनी पंद्रह साल पहले की एक तस्‍वीर में
हमारे चेहरे की, और दिल की भी, मासूमियत सुखा देने के लिए कम नहीं होता एक पल भी
परिभाषा बदलकर सुंदरता को फिर पाया जा सकता है
मासूमियत को तो किसी पड़ोसी समार्थी तक से भय नहीं होता
इतनी निश्चिंत होती है कि जानती है जाने के बाद लौटकर आना नहीं इस देस


अस्थिरता की आराधना

जिस वक़्त वह जा रही थी, मैं अपनी टेबल पर बैठा एक कविता में खोया हुआ था। अभी-अभी मैं जिन सारी अस्थिरताओं से गुज़रा हूं, उन्हें इस कविता में पकड़ लेना चाहता हूं, इससे पहले कि वे सब उड़ जाएं। ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है। सोचता हूं कि इसे याद रखूंगा, स्थिर होते ही यह सब लिख डालूंगा। वे सारी स्मृतियां अस्थिरता की होती हैं। और उन्हें अभिशाप है कि स्थिर होते ही वे कपूर की तरह उड़ जाती हैं। सो, जब भी मैं उन्हें लिखने बैठता, वे खो चुकी होतीं। 

अब मैंने स्थिरता की प्रतीक्षा बंद कर दी है। मैं अस्थिरता की आराधना में डूब जाता हूं। पता नहीं, वह कौन-सा शब्द था, जिसे मैं लिख रहा था, तभी उसने कहा, 

मेरे कवि प्रेमी, एक दिन मैं तुम्हारी एक कविता बन जाऊंगी, तुम्हें हज़ार किस्म की दिक़्क़तों में डालूंगी, तुम तड़पकर उसे लिखोगे, और उस दिन तुम्हें मेरी क़ीमत का अहसास होगा।

जब वह दरवाज़े से बाहर निकल रही थी, मैं उसी तरह बेचैन हो रहा था, जैसे स्थिर क्षणों के बीच अस्थिर स्मृतियों के खो जाने और उन्हें काग़ज़ पर न लिख पाने के अफ़सोस के बीच बेचैन रहता था।


Sunday, February 20, 2011

फास्‍ट बॉलर







Usha Shantharam- Gully cricket

दफ़्तर के बाहर उन लड़कों को क्रिकेट खेलते देख मन लहक गया. रविवार का दिन था और पूरी सड़क खाली थी. आठ-दस लड़के थे और हर रविवार को यहाँ खेलते. मैं पिलर के पास खड़ा सिगरेट पीता उन्हें देखता रहता. हर बार सोचता कि जाकर पूछूं, मैं भी खेलूँ क्या? पर कभी नहीं हो पाया. एक बॉल ढुलकती हुई मेरे पास आई, उन्होंने अंकल-अंकल कहकर बॉल के लिए आवाज़ लगाई और मैं उनके साथ चला गया. फील्डिंग के लिए खड़ा होने पर मुझे बहुत शर्म आ रही थी. ऑफ़िस वाले देख रहे होंगे.
जब मेरी बैटिंग की बारी आई, तो एक लड़का चिल्लाया, ‘अंकल को स्लो फेंकना.’ मैं मुस्करा दिया. इनकी तो आईला… बॉलीच गुम कर दूंगा. बॉल बीच में टप्पा खाई और कमर तक आई. बहुत नज़ाकत के साथ मैंने उसे टिक किया. बैट की मीठी आवाज़ गूंजी और मेरे पूरे हाथ में झनझनाहट फैल गई. अगली गेंद मैंने उसके सिर से उछाल दी. उसकी तीसरी गेंद बहुत तेज़ आई और ऑफ़ में निकल गई. और चौथी गेंद सीधे मेरे दाहिने हाथ पर कलाई से चार इंच ऊपर आ लगी. दर्द से आंखों में पानी आ गया और सामने सब कुछ धुंधला पड़ गया. बैट फेंककर किनारे हो गया. बॉल ठीक उसी जगह लगी थी, जहां एक साल पहले हाथ का ऑपरेशन हुआ था. ठीक टांकों के ऊपर. पूरे हाथ में झनझनाहट. कान में सांय-सांय. हाथ लाल हो गया था, सूजन बढ़ रही थी. मैं वापस अंदर आ गया. क्रीम मंगाकर मलने लगा.
मुझे लगा, मैंने बरसों बाद बैट उठाया है, पर ऐसा नहीं था. छह साल पहले मैंने आख़िरी बार क्रिकेट खेला था. क्रिकेट के साथ मेरी बेशुमार स्मृतियां जुड़ी हैं, लेकिन कुछ ऐसी हैं, जो अक्सर लौट आती हैं. जब भी किसी बॉलर को विकेट लेने पर ख़ुशी ज़ाहिर करते देखता हूं, तो मुझे अपना ख़ुश हो जाना याद आ जाता है. मैं मुख्यतः बॉलर था और जिस तरह पहली हैट ट्रिक ली थी, वह अब भी याद आती है. क्रिकेट से जुड़ी ये सारी स्मृतियां किसी प्रतीक की तरह हैं, जो जीवन की अगली बातों का एक कूट हैं, जिन्हें तोड़ने का कोई तरीक़ा अभी तक नहीं आया. उस समय मेरी इनस्विंगर सटाक से निकलती थी, जांघ को छूती हुई और डांडी उड़ा जाती थी. अब मैं कुर्सी पर बैठा काम करता हूँ और पता नहीं, कहाँ से, कोई अदृश्य इनस्विंगर आती है और बैठे-बैठे मुझे आउट कर जाती है.
अपने ग्रुप में छोटा-मोटा मैच तो पहले भी खेला करता था, लेकिन वह पहला मौक़ा था, जब बड़ों के बीच खेला. तब मैं सातवीं में पढ़ता था. मैदान में दो टीमें थीं और दूसरी टीम में एक खिलाड़ी कम था. बेदी का भाई होने के कारण मुझे जगह मिल गई. बेदी राइवल टीम में था. मैं उससे बहुत डरता था, उसकी बॉलिंग से भी. छोटी-सी बात पर भी बीच मैदान कनटाप बजा देना उसकी आदत थी. मैं रुआंसा भगवंती नवाणी स्टेज पर बैठ जाता और कबूतरों की सूख गई शिट गिना करता.
पंद्रह ओवरों का मैच था. मुझे आठवें नंबर पर भेजा गया. छह-सात गेंदें बची होंगी तब. मैं सबसे छोटा था. वे बड़े, ऊंचे और खूंख़ार दिखते लड़के थे. उनमें से कई ऐसे थे, जिन्हें बुरा बच्चा माना जाता था और उनके साथ देख लेने पर घर में सज़ा मिल जाने का ख़तरा होता.
मुझे याद है, मैं क्रीज़ पर खड़ा हुआ, तो हमारी टीम के दो लड़कों ने मेरी पोजीशन ठीक की. एक मेरे पीछे खड़ा हो गया, बार-बार समझाते हुए कि सिर्फ़ टच करना है, एक रन लेना है और दौड़ना नहीं है, क्योंकि वह मेरा रनर है, वह दौड़ेगा. उसने गेंद फेंकी, मैंने बैट धीरे से हिलाया. टच ही तो करना था. वह फुलटॉस थी. जब वह दौड़ रहा था, तो उसे बहुत ध्यान से देखा था. उसके हाथ से छूटते समय भी बॉल दिखी थी. बीच में कब ग़ायब हो गई और कब सारे लड़के शोर करने लगे, मेरी समझ में नहीं आया. पलटकर देखा, तीनों डंडे जगह छोड़ चुके थे. मैं अवाक्‌, रोने के किनारे खड़ा था.
मेरे रनर ने मुझसे बैट लेते हुए कहा, ‘क्यों रे, तू बेदी का भाई है… और फुलटॉस पे बोल्ड?’
मनीष नाम का बॉलर जिसके बाल जॉन बॉन जॉवी की तरह थे और जो जेसन डोनोवन के गाने, ख़ासकर ‘अनदर नाइट’, दिल से गाता था, उसने मेरे सिर पर हाथ फिराया. मैं रोना रोकता पेड़ के नीचे जा बैठा. इनिंग्स बदलने पर मैं उनसे बार-बार बॉलिंग के लिए कहता रहा, पर किसी ने नहीं दिया. मैं खाड़ाभर्ती था यानी उन्होंने सिर्फ़ ग्यारह का नंबर पूरा करने के लिए मुझे रखा था.
बेदी और उसके दोस्त धमाधम कूट रहे थे. मैं हर ओवर के बाद उनसे बॉल मांगता और वे झिड़क देते. बहुत देर बाद अचानक उन्होंने खुद बॉल पकड़ा दी, ‘चल, लास्ट ओवर है, वो लोग ऑलमोस्ट मैच जीत गए हैं, तू कर ले बॉलिंग’ वाले अंदाज़ में. मुझे अब यह याद नहीं, कितने रन बने थे, क्या आंकड़े थे, पर वह इंप्रेशन याद है. गेंद फेंकते समय अपना उछलना और माइकल होल्डिंग वाली स्टाइल में फेंकने से ठीक पहले हाथ को एक ख़ास तरीक़े से झटका देना याद है. बेदी नॉन-स्ट्राइक पर था, सामने कोई और. मैं बहुत लंबे रन-अप के साथ आया और पहली गेंद इनस्विंग. सीधे उसकी जांघ में जा घुसी. वह जिस तरह सहला रहा था, पता चल जाता कि बॉल रापचिक तेज़ी से घुसी होगी. दूसरी गेंद फिर इनस्विंग. और इस बार बीच में जांघ नहीं आई. गिल्ली उड़ गई. क्या चीख़ा था मैं… किसी को भी उस बोल्ड होने पर यक़ीन नहीं हुआ. अगली बॉल डालने से पहले मैंने अज़हरुद्दीन के अंदाज़ में कॉलर खड़े कर लिए. अगली गेंद शायद मेरी स्मृति की सर्वश्रेष्ठ यॉर्कर थी, मुझे उस बैट्‌समैन का लड़खड़ाकर गिरना अब तक याद है. तीनों डंडे ज़मीन पर बिखर गए थे. मैं हमेशा चाहता रहा कि एक ऐसी गेंद डालूं, जिससे स्टंप दो टुकड़े हो जाए और गुलांटी खाता हुआ कीपर से पीछे जा गिरे. वह गेंद मेरी हथेली में रहती है, मुझे पता है, लेकिन इस जीवन में वह उंगलियों की क़ैद से बाहर नहीं निकली.
मैंने दो गेंद पर दो विकेट ले ली थी और सारे फील्डर हैटट्रिक-हैटट्रिक चिल्लाने लगे.
दर्शक बमुश्किल बीस-पचीस थे, जो अमूमन उदासीन रहते. मैदान से गुज़रते वक़्त कुछ देर खड़े होकर खेल देख लेते या कोई काम न होने पर वहीं बैठ जाते. वे कभी तालियां नहीं बजाते थे. कभी यह पता नहीं चलता था कि वे किस टीम की तरफ़ से मैच देख रहे हैं.
फिर भी मुझे महसूस हो रहा था कि पूरा स्टेडियम चिल्ला रहा है मेरे लिए. मैंने वापस अपने कॉलर नीचे कर लिए. अब मेरा हाथ कांप रहा था और हांफ बढ़ रही थी. मैंने एक और लंबा रन-अप लिया. जब दौड़ रहा था, तो ख़ुद को लग रहा था कि मैं एक ट्रेन हूँ, जिसके मुँह से आग निकल रही है. इस वक़्त मुझे ‘मुंबई एक्सप्रेस’ का नाम दिया जाना चाहिए. अंपायर के पास मैं उछला, हवा में होल्डिंग की तरह हाथ लहराया और झटक दिया. बॉडीलाइन सीरिज़ में वह बॉलर पिच पर सिक्का रखकर उस पर गेंद डालने का अभ्यास करता था. मुझे पिच पर पड़ा सिक्का साफ़ दिख रहा था. उसके बाद मुझे बॉल नहीं दिखी, सिर्फ़ टनाक की आवाज़ आई और सारे लड़कों का शोर. इस बार ऑफ़ स्टंप उड़ा था और बिना टूटे दूर जाकर गिरा था.
मैंने हैटट्रिक ले ली थी.
बड़े बच्चों के बीच यह मेरा पहला मैच था और मैंने उन्हें बता दिया था कि अगर मुझे लास्ट की जगह पहला ओवर दिया जाता, तो अब तक मैं यह मैच ख़त्म कर चुका होता.
सारे लड़के दौड़ते हुए मेरी तरफ़ आए. ऐसा पहले मैंने टीवी पर ही देखा था. उन्होंने मेरे हाथ पर ताली मारी. मेरे बालों में उंगलियां फिराईं और उनमें से एक बोला, ‘सच्ची रे, तू तो बेदी का भाई निकला.’
मैंने बेदी को देखा, वह नॉन-स्ट्राइक पर सिर झुकाए अपने बैट का मुआयना कर रहा था.
मैंने एक से पूछा, ‘हम मैच जीत गए?’
उसने कहा, ‘नहीं, दो बॉल पर चार रन चाहिए. सुन, तू ठंडा रहना. विकेट नहीं मिले, परवाह नहीं. पर रन मत देना.’
मैंने कहा, ‘देखो, अगली भी डांडी उड़ाता हूँ.’ मैंने कॉलर फिर चढ़ा लिए.
लंबे रनअप और वैसी ही रफ़्तार के साथ बॉल फेंकी. बैट्‌समैन का बैट किनारे से छू गया. बॉल स्लिप के पीछे गई. एक रन लिया जा चुका था.
सामने बेदी आ गया. मैं बेदी को कभी बोल्ड नहीं कर पाया था. वह मेरा क्रिकेट का गुरु था, म्यूज़िक, फिल्मों और किताबों का. मैं जहाँ कहीं जाता, वहां मैं बेदी का भाई होता. इनस्विंग मेरा सबसे घातक हथियार था और वह बेदी ने ही सिखाया था. मैं बेदी को भले बोल्ड न कर पाया, उसे रन तो नहीं लेने दूंगा. मेरी इनस्विंग को अमूमन वह बैकफुट पर जाकर स्लिप के पास से निकाल देता था. मैंने स्लिप पर दो-तीन एक्स्ट्रा लगा दिए. मैं इनस्विंग नहीं फेंकने वाला था. मुझे नहीं पता था, मैं क्या फेंकूंगा. मेरे हाथ से बॉल छूटी और वह कूदता हुआ आगे आ गया, फ़ुलटॉस पर लिया और टनाक. मेरी जान सूख गई. गेंद बिल्कुल मेरे पास से निकली, धूल उड़ाती हुई. पीछे भगवंत नवाणी स्टेज के पास हम चौका मानते थे, बॉल उससे भी पीछे तक गई, झाडिय़ों में.
मैं वहीं पिच पर उकड़ूं बैठ गया. बेदी की टीम जश्न मनाने लगी. वे उछल-उछलकर चीख़ रहे थे. गले लग रहे थे. बैट लड़ा रहे थे. अपनी टोपियां उड़ा रहे थे और मैच जीतने के बाद मिले पैसों का हिसाब कर रहे थे. हमारी टीम का कैप्टन उन्हें पैसे दे रहा था और बहुत नाराज़गी में मेरी ओर देख रहा था. हमारी टीम तितर-बितर हो गई थी. सब वापस जा रहे थे. चारों ओर उनके दौड़ने, चलने और उछलने से उड़ी धूल घिर गई थी. मैं वहीं पिच पर था. अपने पास से बॉल से उड़ी धूल को बॉल के आकार में ही महसूस कर रहा था.
थोड़ी देर बाद उठा. कॉलर सीधा किया और पेड़ के नीचे जाकर बैठ गया.
मैदान के उस तरफ़ दोनों टीमों के लड़के जमा हो गए. वे सब दोस्त थे. मैच से जीते पैसों से उन्होंने वड़ा-पाव खाया और एक-एक बोतल नींबू-सोडा पिया. मैं पेड़ के नीचे से उन्हें देखता रहा. फिर धीरे-धीरे मैं रोने लगा. नाक के बीच धूल का स्वाद सूंघता. आँखों के पास गिरे आंसू को पोंछता, तो शायद गीली धूल से स्टंप जैसा कोई निशान बनता. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं मैच को जीता हुआ मानूं या हारा हुआ. मैंने अपने जीवन की पहली हैटट्रिक ली थी और बॉलर के रूप में कैरियर की शुरुआत की थी. थोड़ी देर पहले ही सबने.खुशी मनाई थी और अब किसी को मेरा ख़याल नहीं था.
एक विजेता, पराजितों की तरह अकेला बैठा हुआ था. सभी की नज़रों से दूर.
यह पूरी स्थिति किस बात का प्रतीक है?
दूर तक दिखता है कि यह स्थिति घूम-घूम कर मेरे पूरे जीवन में किसी न किसी तरह आती रही है.
कई बरसों बाद दादर स्टेशन की एक बेंच पर रात के पौने एक बजे लोकल ट्रेन का इंतज़ार करते समय बेदी ने बताया, ‘किसी को भी य.कीन नहीं था कि बारह साल का लड़का इतनी फास्ट बॉलिंग कर सकता है. वह मेरी देखी सबसे सैक्सी हैटट्रिक थी.’ फिर उसने मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए कहा, ‘पर मुझे पता था कि अगर बॉल तेरे हाथ में गई, तो हम मैच नहीं जीत पाएंगे, इसीलिए जब उन्होंने पूछा था कि बेदी, तेरा भाई बॉलिंग कैसी करता है, तो मैं सि.र्फ हंसा था और बोला था, मैच जीतना है, तो उसको दे दे बॉल. उन्होंने मेरी बात को हास्य-व्यंग्य समझ लिया. पर मुझे विश्वास था. मैं तुझसे बहुत प्यार करता हूं.’
मैं सिर झुकाकर सुन रहा था. मुझे बहुत.खुशी हो रही थी. सीने से कुड़बुड़-सी कोई अनजानी आवाज़ आ रही थी. मैंने उससे कहा, ‘अगर तूने यही बात उस शाम कह दी होती, तो मैं उस पेड़ के नीचे बैठ घंटों रोया न होता.’
वह ट्रैक पार कर मुझे तीन नंबर प्लेटफॉर्म पर ले गया और मेरे लाख मना करने के बावजूद उसने एक वड़ा-पाव और लेमन सोडा ख़रीदा. जब मैं सोडा पी रहा था, वह इस तरह मुझे देख रहा था, जैसे मेरी किसी गेंद के टप्पा खाने के बाद स्विंग होने का इंतज़ार कर रहा हो.
उसके बाद मैंने चार बार और हैटट्रिक लीं. अलग-अलग समय पर. उनमें से एक कॉलेज के ग्राउंड में ली थी, जिसके कारण मैं अपनी क्लास की लड़कियों में पॉपुलर हो गया. कॉलेज में कोई बेदी नहीं था, वहाँ कोई मुझे बेदी का भाई करके नहीं जानता था. यहाँ जो कुछ था, मैं था. इंटरक्लास मैच होते थे, तब हमारी कॉलेज की टीम नहीं बनी थी.
मैंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर कॉलेज में बहुत हल्ला मचाया कि हमारे कॉलेज की भी एक टीम हो. एक दिन उसका बनना तय हो गया. सब मानकर बैठे थे कि मैं उस टीम का कैप्टन होऊंगा, क्योंकि मेरा इनीशिएटिव सबसे ज़्यादा था. बांद्रा में कोलगेट-पामोलिव के मैदान पर टेस्ट होना था, फिर टीम चुनी जानी थी. कॉलेज के प्रिंसिपल, फिज़िक्स के हेड और स्पोर्ट्स के हेड की सेलेक्शन कमेटी थी. हर किसी को ख़ाली स्टंप पर छह बॉल डालनी थी और बैट्समैन को छह बॉल फेस करनी थी. मैं बॉलर था, सो मेरा टर्न बाद में आना था. मैं स्ट्रेचिंग, वार्मअप करता रहा. बॉल की सिलाई को दो उंगलियों के बीच फंसाकर प्रैक्टिस करता रहा. मैंने अपनी हथेली और उंगलियों से अपने सपनों की स्टंप-तोड़ गेंद का आवाह्न किया, जैसे हवन से पहले अग्नि का आवाह्न करते हैं.
मैं छह बॉल पर छह वैरायटी देना चाहता था.
मैंने कंधों से नीचे जाते अपने केश रबर बैंड से बांधकर पोनी बनाई और लंबा रनअप नापा. मेरी पहली गेंद इनस्विंगर थी, ऑफ़ में टप्पा खाकर मिडिल स्टंप के अंगुल-भर ऊपर से निकल गई. चारों ओर तालियाँ गूंजने लगीं. दूसरी गेंद सीधी निकली और ऑफ स्टंप के सूत-भर पास से निकल गई. ये बॉलिंग की सर्वश्रेष्ठ कलात्मकता होती है, जब देखने में लगता है कि बॉल सीधा ऑफ़ या मिडिल पर जाएगी, तब वह थोड़ा बाहर की ओर लहराकर, ऐन ऑफ़ के बग़ल से निकल जाए. सबसे ज़्यादा ऐसी गेंदों पर स्लिप में कैच उड़ा करते हैं. वह गेंद फेंकने के बाद मैंने कॉलर ऊपर कर लिया. गेंद पर मेरा हाथ सही था, यह विश्वास जानते हुए. अगली गेंद गुड लेंग्थ थी, जो टप्पा खाकर स्टंप में घुस गई और चौथी गेंद लेग स्टंप को धक्का मारते हुए कीपर के पास पहुंच गई. अगली दोनों गेंदें मैंने फिर उसी कलात्मकता से लहराकर ऑफ़ के बाहर निकालीं.
ऐसी गेंदें कोई आसानी से नहीं डाल सकता. इसके लिए बरसों का रियाज़ चाहिए, हवा में ही गेंद को अप्रत्याशित लहरा देने का कौशल चाहिए और बॉल फेंकने से ठीक पहले कलाइयों को एक ख़ास झटका देने का हुनर चाहिए.
मेरी हर गेंद पर तालियां गूंजी थीं, बार-बार खुल जाने वाले मेरे केश हर गेंद पर लहराए थे. हर गेंद के बाद मैं मुस्कराते हुए उस ओर देखता, जिस ओर सेलेक्टर्स और लड़कियां बैठी थीं. पार्ला, अंधेरी और खार की वे सारी मिनी-स्कर्ट टाइप लड़कियां दूर उपनगरों से आए इस फास्ट बॉलर के अपनी ओर देख लेने मात्र से उछल-उछलकर सीटियां बजा रही थीं. मेरा सेलेक्शन तो पहले से तय था.
मैं अपना ओवर पूरा कर उन लड़कियों के पास जाकर बैठ गया और हर गेंद से जुड़ा अनुभव सुनाने लगा. थोड़ी देर बाद जब टीम की घोषणा हुई, तो उसमें मेरा नाम नहीं था. मैंने दुबारा पूछा, तिबारा पूछा, पर नहीं, मैं कहीं नहीं था. मुझे यक़ीन नहीं हुआ. मैंने सेलेक्टर्स से सीधे पूछा, पर वे कंटेस्टेंट्स को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं थे. मैं तमाशा नहीं करना चाहता था, पर मैं सदमे में था. ऐसी गेंदें फेंकने के बाद भी सेलेक्शन न हो, यह अविश्वसनीय ही था.
मेरे दोस्तों, जिनमें.ज्यादातर लड़कियां थीं, ने हंगामा मचाना शुरू कर दिया. उन्होंने सेलेक्टर्स को घेर लिया, नारे लगने लगे. उनके धोखेबाज़, रिश्वतखोर और बेईमान होने की बातें उठने लगीं. मैं एक तरफ़ को सिर झुकाए खड़ा था और अभी भी अपने अचरज से जूझ रहा था. थोड़ी देर बाद शोर थम गया. लोग जाने लगे. एक लड़की ने मेरे पास आकर बताया, ‘वे कह रहे थे कि इसकी सिर्फ़ दो बॉल ही स्टंप पर लगी थीं, लाइन पर इसका कंट्रोल ही नहीं.’
मैं उस लड़की का चेहरा ही देखता रह गया. मुझे उस बयान पर एकबारगी भरोसा न हुआ.
थोड़ी देर बाद जब हम कैंटीन में गुजराती कचौड़ी और कटिंग चाय पी रहे थे, मुझे गहरा अहसास हुआ कि मैं अगले एक साल के लिए कॉलेज की टीम में नहीं हूँ. उस वक़्त मुझे रोना आ गया. मैं टेबल पर सिर झुकाकर सुबकने जैसा लगा. पार्ला, अंधेरी और खार की उन सारी मिनी स्कर्ट टाइप लड़कियों के सामने दूर उपनगरों से आया एक रिजेक्टेड फास्ट बॉलर सिर झुका कर रो रहा था.
उनमें से एक ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मुझे चुप कराया. बोली, ‘बॉलिंग इज़ एन आर्ट. उसे खेलना आसान है, पर समझना मुश्किल.’
यह घटना भी मुझे एक प्रतीक की तरह लगती है.
इसके बाद मुझे जीवन के हर क्षेत्र में ऐसे बहुत सारे लोग मिले, जिनके लिए किसी भी क़िस्म की बॉलिंग का मतलब बॉल का स्टंप से जाकर टकराना-भर था.
मैं ऐसे लोगों को कभी संतुष्ट नहीं कर पाया.

(प्रतिलिपि में आई थी. )

Wednesday, February 2, 2011

दृश्य समंदर






The 400 blows
फ्रेंच निर्देशक फ्रांसुआ त्रूफो की फिल्म 400 ब्लोज़ के आखिरी दृश्य में समंदर आता है, जबकि उस फिल्म का किशोरवयीन नायक शुरुआत से ही अपनी सबसे बड़ी आकांक्षा यह बताता है कि उसे समंदर देखना है। आकांक्षाएं हमारे भीतर शुरुआत में ही बनती हैं। ऐसे भी कह सकते हैं कि जब आकांक्षाओं का उत्पादन हमारे भीतर होता है, वही हमारी शुरुआत का क्षण बन जाता है, जबकि ऐसा बहुत कम होता है कि जीवन की फिल्म का आखिरी फ्रेम चल रहा हो और हम पाएं कि सामने हमारी आकांक्षाओं का समंदर डोल रहा है।

जीवन जितना बारीकियों से बनता है, उतना ही विस्तारों से भी। किशोरवयीन नायक दौड़ता हुआ समंदर की ओर जाता है और उसके ठीक नज़दीक पहुंचकर, पैर गीले करके, वह लौट पड़ता है। दौड़ते हुए कैमरे में समा जाता है। आकांक्षा की पूर्ति तुरंत दूसरी आकांक्षा के जन्म का क्षण होता है। वह जैसे ही समंदर को सामने देखता है, उसके भीतर जीवन का उद्दाम विस्तार अपनी जगह बनाता है और वह उसे छूकर लौटता है, जीवन के नए रास्तों के लिए। यहां एक क्रिया के रूप में लौटना महत्वपूर्ण है। बिना लौटे आगे नहीं बढ़ा जा सकता, कोई बड़ा स्वप्न नहीं देखा जा सकता। समंदर लौटना सिखाता है।

समंदर का सारा पानी ताउम्र इस कोशिश में रहता है कि वह किसी तरह किनारे पहुंच जाए। पर दुनिया का कोई समंदर किनारे पर अपना घर नहीं बना पाया। लहरें किनारे पर पहुंचती हैं, किनारे को छूकर अपना पैर गीला करती हैं और फिर लौट जाती हैं। इसी से समंदर का जीवन चलता है। अगर ये न हो, तो समंदर अपना समंदरपना खो देगा। हम अपने एक सपने के लिए जी रहे होते हैं, उस सपने को पूरा कर पाते हैं और वहां से तुरंत लौट आते हैं, अगले सपने के लिए।

एक यूनानी लोककथा में एक बच्चा अपनी मां से पूछता है कि सपने कहां से आते हैं? वह कहती है- दुनिया के सारे सपने समंदर के पेट में रहते हैं। वहां से एक सीढ़ी सीधा चांद के दरवाज़े पर जाती है। वे एक-एक सीढ़ी चढ़कर चांद पर जाते हैं और वहां से हमारी नींद के समंदर में आ जाते हैं। इसीलिए जब हम सपना देख रहे होते हैं, चांद मुस्करा रहा होता है, कभी पूरा सफेद बनकर, कभी अंधेरे में खुद को छिपाकर।

फिर हमारे देखे हुए सपने कहां जाते हैं? शायद वे वापस समंदर के भीतर चले जाते हैं। एक दूसरी कहानी याद आती है, जिसमें एक बच्चा पूछता है कि आंख से गिरने के बाद आंसू गाल पर तो दिखता है, उसके बाद कहां चला जाता है? यहां भी जवाब देने वाली मां ही है- गाल जहां खत्म होते हैं, वहां से समंदर शुरू हो जाता है। आंसू समंदर में चले जाते हैं। जैसे सारी बारिशें समंदर के पानियों के ऊपर उठ जाने से होती हैं, उनसे नदियां भरती हैं और नदियां वापस समंदर में चली जाती हैं।

यानी जहां सपनों का घर होता है, वहीं आंसू का भी घर होता है। सपने आंखों में रहते हैं। आंसू भी वहीं रहते हैं। और समंदर के पेट में भी दोनों साथ-साथ ही रहते हैं। दोनों ही दुख, विफलता, भावुकता और अतिरेकों की उत्पत्ति हैं। पीड़ा न हो, तो आंसू न होगा। पीड़ा न हो, तो कोई बड़ा स्वप्न भी नहीं होगा। आंसू न हो, तो स्वप्न भी नहीं होगा। और स्वप्न न हों, तो विफलता या सफलता के आंसू भी न होंगे। दोनों लौट-लौटकर एक-दूसरे के भीतर जाते हैं। और लौटना, तो समंदर का ही गुण है।

आंसू के नुक्तों को पकड़कर गाल से नीचे कूद जाया जाए, तो समझ आएगा, समंदर और कुछ नहीं होता, सिवाय एक संचित रुदन के। विज्ञान के लिए वह पानियों का समुच्चय होता होगा, लेकिन मनुष्यों को उसे एक स्वप्न की तरह देखना चाहिए, लाड़ से भरी एक सांत्वना, जो भीतर से बहुत गीली होती है, लेकिन पुचकारकर जो सांत्वना देती है, वह पैरों में टिके रहने लायक लोहा पैदा कर देती है।
 
(दैनिक भास्कर से)