Monday, January 17, 2011

अकेले रहने का हुनर सिखाते हैं पेड़

एक जर्मन फिल्म में एक किरदार है, जो अपने दफ्तर की खिड़की से एक पेड़ को देखा करता है। सड़क किनारे सिर झुकाने-जैसी मुद्रा में खड़ा वह पेड़ उसे अपने बचपन के घर जैसा लगता है, कभी दबंग पिता जैसा लगता है, तो कभी नाराज़ होकर दूर चली गई प्रेमिका जैसा उदास। उस किरदार के जीवन में कुछ भी हरा नहीं बचा, इसलिए वह उस पेड़ की हरियाली को अपनी जीवन में सब्स्टीट्यूट की तरह ले लेता है। वह भीड़ में जाता है, कुछ लोगों की मदद करता है और वापस अपने अकेले फ्लैट में, भीड़ भरे दफ्तर के अकेलेपन में खो जाता है। एक दिन पाता है कि वह उस पेड़ में खुद को देखने लगा है। जीवन में हम सबको एक आईने की जरूरत हमेशा पड़ती है, जिसमें हम अपना निखालिस अक्स निहार सकें। कभी वह आईना किसी व्यक्ति के भीतर मिल जाता है, तो कभी किसी चीज के भीतर। उसे उसका आईना उस पेड़ में दिखाई दिया, जिसने बता दिया कि अगर वह अकेला है, तो उसे पेड़ की तरह जीना चाहिए। अपने अकेलेपन को खत्म भी न करे और कुछ-कुछ सबके काम भी आता रहे।

वांग कार-वाई की एक फिल्म में एक किरदार जब अपने भीतर किसी भावना के उत्पात को महसूस करता है, बहुत बेचैन हो जाता है, अपनी बात कहने के लिए उसे कोई नहीं मिलता, तो वह घर से दूर एक उपवन में अपने एक प्रिय पेड़ के पास जाता है। उसके एक कोटर में मुंह घुसाकर, फुसफुसाते हुए अपनी बात कहता है, फिर घास के तिनकों से उस कोटर को ढंक देता है। उसे लगता है कि पेड़ ने उसकी बात सुनकर, संजो ली है। वह पेड़ किसी तीसरे को नहीं बताएगा। यह दरअसल चीन के एक समुदाय की मान्यता भी है। खुद को अभिव्यक्त न कर पाने की उसकी बेचैनी खत्म हो जाती है। वह बहुत शांत महसूस करता है। उसे शांति इसीलिए मिलती है कि जिसे वह बता रहा है, वह खुद शांत है। पेड़ में चंचलता नहीं है, इसीलिए उसे विश्वास है कि उसका राज यहां राज ही रहेगा।

जिन लोगों को अकेले रहने की आदत होती है, पेड़ उनके सबसे क़रीबी साथी हो सकते हैं या उनके सबसे नज़दीकी राज़दार। अकेले रहने का हुनर भी पेड़ ही सिखाते हैं। पानी में अकेलापन नहीं होता, पहाड़ में भी नहीं, हवा में तो बिल्कुल नहीं। घास, जानवर और मछलियां भी एक खास किस्म की सामूहिकता उत्सर्जित करते हैं, लेकिन पेड़ समूहों में रहकर भी अकेलेपन का भावबोध देते हैं। मछलियां एक दिशा में तैरती हैं, पानी के अणु एक दिशा में बहते हैं, पहाड़ अपने तिकोनेपन में सबसे ऊपर सबसे ज्यादा संकुचित होते हैं। ये उनकी स्वाभाविक विशेषताएं हैं।

पेड़ों के साथ ऐसा नहीं। कतार से सारे पेड़ एक ही दिशा में नहीं झुके होते। जंगल को देखिए, हर पेड़ अकेला है, तभी तो अपनी-अपनी राह बढ़ता है। उनका अकेलापन, वृद्धि की स्वच्छंद इच्छा और नितांत निजी शख्सियत ही जंगल के सौंदर्यबोध का विकास करती हैं। पेड़ों की सामूहिकता मनुष्य की सामूहिकता से मिलती-जुलती है। भरी भीड़ में अकेला होने की सामूहिकता। आदमी का व्यवहार भी ऐसा ही होता है। दोस्ती किसी से भी हो सकती है, लेकिन विश्वास वह उन्हीं पर कर पाता है, जिनमें पेड़ जैसी विशेषताएं हों। यानी जिनमें स्थिरता हो, कम से कम चंचलता हो, जो अपने अकेलेपन में भी मदद की छांव बढ़ाए रखते हों, जो अपने भीतर की हरियाली को सामने वाले के भीतर रोप सकें, कड़ी धूप में भी शीतलता का निर्यात कर सकें और छोटे-मोटे धक्कों से उखड़ न जाएं।


Sunday, January 2, 2011

पांच कविताएं

Tracy Emin - My Bed
अधिकार से असुरक्षा आती है और असुरक्षा एक राजनीतिक औजार होती है

हर पलंग के पास एक बुरा सपना होता है। कमर टिकाते ही जकड़ ले।

हर घर में कुछ बूढ़ी रूहें होती हैं, जो नींद या जाग में, सफ़ेद साड़ी पहने इस कोने से उस कोने तक जाती दिख जाती हैं। रात को जब दरवाज़ों की किर्र-किर्र आठवें सुर की तरह रहस्यमयी लगती है, तभी किचन में गिरी कॉफ़ी की बोतल उठाने में अचानक पीठ पर वे आ लदती हैं। अकबकाकर पीछे मुड़ने पर दीवार में जाकर खोता एक लंबा ख़ालीपन नज़र आता है, जिसे सांस की हवा भर देती है।

हर नींद में एक ग़फ़लत होती है और हर ग़फ़लत अपने साथ एक विशेष कि़स्म का भय ले आती है।

सपना चाहे जैसा भी हो, सच होने का बीज भी उसमें छिपा होता है। (या नींद की ग़फ़लत का एक और भय है यह।) शायद इसी कारण पलंग पर चित पड़े पैर अचानक हिलता है और लगता है, एक अछोर खाई में गिर रहे हैं। बेनियाज़ी में पैर की पोजीशन बदल जाती है।

एक कामयाब नींद क्‍या होती है? उसमें प्रवेश कर लेना या उसमें से सही-सलामत निकल आना? मेरी जाग क्‍या है? उसमें से सही-सलामत निकल नींद में पहुंच जाने की क्‍या गारंटी?

सच कहूं, मुझे लगता है कि मेरी जाग एक नियंत्रित नींद है।

बीते कई दिनों का फ़साना है। जागते हुए भी लगता है, सो रहा हूं और सोने जाता हूं, तो लगता है, नींद दुनिया की सबसे निरर्थक चीज़ है। अगर नींद नाम की यह चीज़ मेरे दफ़्तर में काम कर रही होती, तो अब तक मैं इसकी छंटनी कर चुका होता।
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प्रसन्न रहना इच्छा से ज़्यादा मौक़ापरस्ती है

यह जीवन ऐसा है, जहां आप निरंतर एक भय में रहते हैं। भय यह कि जाने किस पल, किस तरीक़े आपका अपमान हो जाए। आप जीत की ख़ुशी में बल्लियों उछल रहे हों और अचानक बता दिया जाए कि आप जीते नहीं, बल्कि हारे हुए हैं।

उस जीवन को धिक्‍कारना ही चाहिए, जो हार और जीत जैसे दो ध्रुवों के बीच झूलता हो।

हार और जीत का फ़लसफ़ा सत्‍ताओं ने अपने फ़ायदे के लिए बनाया था। हम जो इस धरती का जल हैं, सिर्फ़ पिये जाने या उलीच दिए जाने के लिए यहां आते हैं।

फिर भी मैं अपनी कामयाबियों पर इतराता फिरा। मैंने रातों की नींद और दिन का श्रम उन्हें दिया। अपने दिमाग़ के सुंदरतम विचार उन्हें सौंप दिए। अपनी त्वचा के छिलके निकालकर उनके लिए ग़लीचे बनाए। जब मैं यह सब करता, वे तालियां बजाते, जिनसे मैं ख़ुश होता था।

कुछ समय बाद वे मेरी नींद मुझे लौटा देते। मैं पाता, एक पवित्र नींद जब उनके पास से वापस लौटती, उसके पंख नुंचे हुए होते। वह नींद किसी भी उड़ान की संभावना से निरस्त और निराश होती। जब मेरा श्रम लौटकर आता, वह मधुमक्खियों के चुसे हुए छत्‍तों की तरह दिखता। वे मेरे विचारों को भी लौटा देते, तब मैं सोचा करता कि क्‍या ये मेरे ही विचार हैं? मैं धूर्त, मक्‍कार और सयाना नहीं था। अचरज है कि जब मैं बोलने खड़ा होता, मुझे इन्हीं में से एक मान लिया जाता।

एक दिन उन्होंने मेरी त्वचा के छिलके भी लौटा दिए। वे मेरी त्वचा की तरह नहीं थे। उनमें मेरी कोशिकाओं का मानचित्र नहीं था। किसी दरी की तरह भी नहीं कि घर बिछा लेता। वह पता नहीं, क्‍या थी।

मैं सीधे को सीधा और टेढ़े को टेढ़ा कहना चाहता था, पर मेरी दराज़ में इ€कीसवीं सदी के बेस्टसेलर लेखकों की किताबें न जाने किसने डाल दी थीं। उनमें हर टेढ़े को सीधा जानने का हुनर था।

वे कभी किसी को मृत्युदंड नहीं देते, डांट भी नहीं लगाते, बस, उसकी नींद छीन लेते हैं। मैं अनुभव से बताऊं, यह मृत्यु से भी भयावह होता है। जिन व्यक्तियों, संस्कृतियों और देशों को नींद नहीं आती, वे अपना मूल खो देने को अभिशप्‍त हो जाते हैं।

मैं इन सबसे ख़ाइफ़ हूं। बिल्कुल कांपता हुआ-सा।

मैं कमरे में छोटे बच्चे के साथ खेलता हूं। सड़क पर सुंदर स्त्रियों को देख मुस्कराता हूं। पार्क में फुटबॉल से खेलते वृद्ध दंपति को देख ख़ुश होता हूं। मैं पेड़ों और घास को देख प्रकृति की उदारता महसूस करता हूं। पर अचानक मुझे यह दुनिया दिख जाती है, जहां हर सुंदरता के पीछे मुस्कराती हुई बदबू है। किसी अंडर-वर्ल्‍ड की तरह। मैं सकपकाकर वापस अपने भीतर घुस जाता हूं। हैरान गौरैया की तरह गर्दन टेढ़ी कर चारों ओर चकबक देखता हूं।

मैं प्रसन्न रहना चाहता हूं, पर पाता हूं, ज़्यादातर समय सिर्फ़ सन्न हूं।
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Gillian Wearing - Lily
भ्रम कोई मनोदशा नहीं, एक राजनीतिक विचारधारा है, जिसमें पत्थर पर काई की तरह विचार अटके रहते हैं; नहीं मंज़ूर, तो मत मानिए, पर मन तो मत मारिए

एक क्षण के भीतर न जाने कितने क्षण रहते हैं। परमाणु का विखंडन किया जाए, तो उसमें उससे भी ज़्यादा ताक़तवर, ज़्यादा रहस्यमयी कणों का निवास मिलता है। उनकी गति और दिशा उस परमाणु की चौहद्दी में सीमित रहते हैं, वैसे ही कणों की गति और दिशा भी उसी क्षण की दुनिया में सीमित होती है। उन पर बाहरी क्षणों का दबाव पड़ता हो, लेकिन प्रभाव न पड़ता होगा।

परमाणुओं के टूटने पर विस्फोट होता है। जब एक क्षण टूटता है, तो कोई ध्वनि नहीं होती। उसके बुरादे हवा में उड़ जाते हैं, दूसरे कई क्षणों के साथ संसर्ग करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें कहीं प्रवेश नहीं मिलता।

मुझे लगता है, मैं वह क्षण हूं, जिसे एक सनक गए वैज्ञानिक ने ग़फ़लत में तोड़ दिया। मैं बुरादे में बदल गया और उड़ गया। मैं उन सारे कणों की तलाश में हूं, जिनसे वापस अपना साबुत रूप पा सकूं।

देखिए न, हम सूरज के चारों ओर घूम रहे हैं। घूमते सौरमंडल से बाहर एक मिल्की-वे है, वह भी घूम रही है। उसके पार घूमती हुई आकाशगंगाएं हैं, जो किसी दूसरे आकाशगंगा परिवार का हिस्सा हैं। वह परिवार भी घूम रहा है, लेकिन हमारी तरह उसके पास कोई सूरज नहीं। वे एक अंधेरे के चारों ओर घूम रही हैं।

इस तरह सब कुछ घूम रहा है।

तो हम जो सूरज की परिक्रमा कर प्रकाश का आभार जताते हैं, दरअसल, बृहत्‍तर रूप में अंधेरे की परिक्रमा करते हैं।

और साफ़ बोलूं- मैं जिसकी परिक्रमा करता रहा, वह अंधेरा निकला। मैंने परिक्रमाओं को हमेशा पवित्र माना और उसमें लगने वाले श्रम का सम्‍मान किया। सामाजिक, पारिवारिक, शारीरिक, भावनात्मक या किसी भी कि़स्म का श्रम। प्रेम हो या शत्रुता, सब श्रम के ही पर्यायवाची हैं। एक दिन मैं सारा श्रम उतारकर अलग़नी पर टांग दूंगा और ख़ुद को हवा में एक पंख की तरह छोड़ दूंगा। एक निस्पृह कण की तरह।

एक दिन मैं पाऊंगा कि अंधेरा ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा सत्य है। हमें रोशनी के लिए बाह्य माध्यम की ज़रूरत पड़ती है, अंधेरे के लिए नहीं। प्रकाश संभवत: अंधेरे का सबसे विरल या डाइल्यूटेड रूप है। उसे अत्यधिक सांद्र कर दें, तो वह अंधेरे-सा प्रभाव डालता है। अंधेरा ही हमारी इच्छाओं का सबसे हिंसक और वेगवान उद्भासक है। (इतनी मेहनत से की गई मेरी खोज फिर भी नई कहां होगी?  क्‍या जीवन ही पुराना जीता आया)

हम सब एक अंधेरे से निकलते हैं, दुबारा उसी में प्रविष्ट हो जाने के लिए। क्षण से लघु, लघुतर, लघुतम क्षण होते हुए टूटकर उसके बुरादे में बदल जाते हैं और अपने लिए महज़ एक दरवाज़ा खोजते हैं।

ऐसे में लगता है, भ्रम महज़ मानसिक अवस्था नहीं, एक राजनीतिक विचारधारा होता है।

क्‍या हम श्रम के राग पर भ्रम का गीत गाते हैं?
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Angela Bulloch
संस्कृतियां एक-दूसरे-सी हो जाती हैं, मनुष्य और उनका हाल भी, पर इसका बहुवचन ‘हालात’ बदलता है, तो ‘हालातों’ बनकर अशुद्ध क्‍यों हो जाता है?

पानी बनना सबसे बड़ी चुनौती है। पानी में पैर डालकर बैठना, अपनी ही देह में प्रविष्ट हो कुछ खोजने जैसा है। पानी की मांसपेशियां लहराती हैं, जैसे आत्मा झिलमिलाती है। पानी को भी पानी से ही धोना चाहिए, जैसे एक आत्मा, दूसरी से रगड़ खाती है और सब कुछ स्वच्छ हो जाता है।

हम हमेशा दूसरी आत्मा की तलाश में भटकते हैं और घबराते हैं, कंटीली झाडि़यों की खुरच कहीं दाग़ न बन जाएं। हर दाग़ कुछ बुरी स्मृतियों को जगा देता है। एक दिन हम पाते हैं कि हमारी आत्मा के हर हिस्से पर दाग़ लग गए हैं।

फिर हम तलाश छोड़ देते हैं और समय का इंतज़ार करने लगते हैं। ऐसी ही किसी संधि पर मुझे लगता है, मैं समय को नहीं, समय मुझे गुज़ार रहा है।

मैं जाती हुई कई पीठ देखता हूं, लेकिन कब वह चेहरा थी, कब मुड़ गई, नहीं देख पाया। वे पीठें इतनी तेज़ी से चली गईं कि अभी भी वहीं खड़ी दिखती हैं। मैं उन तक इस तरह जाता हूं कि लगता है, कभी न पहुंचने के लिए ही चल रहा हूं।

मैं उतना ही थमा हूं, जैसे एक प्रार्थना हूं।

मुझसे व्याकरण के स्वर खो गए, व्यंजनों का क्रम बदल गया, एक दिन मेरे शब्‍दों के पास न ध्वनि थी, न अर्थ। जैसे तार पर टंगे कपड़ों से पानी उड़कर कहीं चला गया। भाग्य कि तुम्‍हें पानी का पता मिल गया। मैंने कभी कपड़ों को सूखने नहीं देना था। दुर्भाग्‍य कि मैं जीवन का जल नहीं सहेज पाया।

मैं तुम्‍हें अपना नाम देता हूं और ख़ुद तु्हारा नाम ले लेता हूं। सच बताओ, हमने पहचान खोई या एक-दूसरे को नई पहचान दे दी?

या इन्हीं शब्‍दों में पहचान छीन लेने का दोष भी है?

कभी सोचा है, तब क्‍या होगा, जब चंद्रमा, सूर्य की तरह महसूस करे;  एक सुबह अंतरिक्ष में लटका बुध पाए कि वह शुक्र में तब्‍दील हो गया है;  गुरु जब आईना देखे, तो उसे अपने चारों ओर शनि के वलय दिखें…

मैं अभी-अभी सौरमंडल से लौटा हूं। देख आया हूं कि वहां का हाल ठीक यही है। सब हैरान-हलाकान। और सब ही जानते हैं, इस तरह बदल जाना एक पुरानी इच्छा थी, जो अपने रहस्यमयी विस्तार में

जितना दोष दिखती है,  उतना ही पारितोष।
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Yayoi Kusama -
Ascension of polka dots on the trees
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युद्ध के लिए किसी कारण की ज़रूरत नहीं होती, लेकिन विनाश हमेशा एक ही कारण से होता है; करुणा, मौज का पर्यायवाची शब्द है या विलोमार्थी?

जो युद्ध में लड़कर दूसरों को मार देते हैं, वे जांबाज़ होते हैं। मारे गयों पर करुणा नहीं, गर्व किया जाता है। मुझे यही सिखाया गया है, चाहे दुनिया के किसी भी हिस्से, किसी भी संस्कृति से पलकर आया होऊं मैं।

मुझे प्रेम विरासत में मिला, यह मेरी मनुष्यता की लाखों वर्ष पुरानी परंपरा है। मैंने अपने देवताओं से छल सीखा, इतिहास से संहार। बादशाहों ने मुझे क्रूरता व घृणा सिखाई और माताओं ने स्नेह। मौक़ा देखकर भाषा भूल जाने की मासूमियत मैंने तीन साल के बच्चे ‘क्‍का‘ से सीखी। राज्य ने मुझे उदासीनता सिखाई, कोतवालों ने दबंगई और क़ैदियों की आंखों से मैंने भय सीखा। जनजातियों और क़बीलों से मैंने श्रम और न्यायपद्धति सीखी। ऐसी बहुत सारी शिक्षाओं के साथ एक दिन मैं एक देश बन गया।

मैंने पाया, हर रिश्ता एक राजनयिक संबंध होता है, एक सामाजिक नौकरी। चाहें, तो रिश्तों में भी पिंक स्लिप दे सकते हैं। हर संभव जगह युद्ध के मैदान में बदल जाती है। इस पर भी युद्ध संभव है कि मैंने तुमसे ज़्यादा प्रेम किया, तुम उतना क्‍यों नहीं लौटा पाए?

पेड़ अगर आग में जल गया, तो आग को अपराधी मानूं? और यह कहूं कि ये न्यायालय नहीं, महज़ निर्णयालय हैं, तो सच बताओ,  मुझ पर मुक़दमा कर देंगे न जज साब?

सृष्टि का कई बार अंत हो चुका है, कुछ नहीं बचता, पर क्‍या हर बार यही बचता है कि हम कुछ भी समझ नहीं पाए? कोई तो होगा, जो सृष्टि के हर चक्र की समीक्षा कर क्‍वार्टर्ली रिपोर्ट बनाता हो।

वह अंत किसकी विजय है? या किसकी मौज है?

कहीं पढ़ा था यह शेर, निदा फ़ाज़ली का

मैदां की जीत-हार
तो मुक़द्दर की बात है
टूटी है
किसके हाथ में तलवार,
देखना
…………………
…………………
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(ये पांचों कविताएं मेरी कहानी 'पिंक स्लिप डैडी' में उसका हिस्‍सा बनकर छपी हैं, उसके बाद कविता के रूप में 'संबोधन' के विशेषांक और 'प्रतिलिपि' में छपीं.)