Thursday, August 4, 2011

नूर का परदा






हांगकांग के निर्देशक वांग कार वाई की फिल्म 'चुंगकिंग एक्सप्रेस' के एक दृश्य में नायक सुबह-सवेरे जोशीली जॉगिंग करते हुए ख़ुद से कहता है- 'कई बार हमें प्रेम में दुर्भाग्य मिलता है। जब यह दुर्भाग्य मुझ पर छाता है, तो मैं जॉगिंग करने लगता हूं। इससे शरीर का सारा जल पसीने के रूप में निकल जाता है, आंसुओं के लिए बचता ही नहीं।'  

इसी फिल्म के एक दूसरे दृश्य में नायिका जो हमेशा सफेद विग, लंबा रेनकोट और सनग्लास पहने नज़र आती है, कहती है- 'जाने क्यों इन दिनों मैं बहुत सतर्क रहने लगी हूं। जब मैं रेनकोट पहनती हूं, तो सनग्लास भी लगा लेती हूं। जाने कब बारिश शुरू हो जाए या जाने कब धूप निकल आए।'

ये दोनों ही किरदार ख़ुद को पानी से बचा ले जाना चाहते हैं। कुछ लोगों को नदियों-समंदर के पानी से डर लगता है, वे तैर नहीं पाते। कुछ लोग जीवन और प्रेम के जल में डूबे हुए होते हैं, वे आंख के पानी से डरते हैं। नायक नहीं चाहता कि उसकी आंख से पानी की एक बूंद गिरे और नायिका नहीं चाहती कि आसमान से गिरने वाला कोई भी पानी उसके शरीर पर पड़े। वह सनग्लास लगाती है, ताकि अगर आंख में पानी हो, तो भी वह किसी को न दिखे। दोनों ही पानी से दूर भागते हैं।

रोना एक क्रिया से ज़्यादा स्मृति है। रोने से वही डरते हैं, जो बहुत रो चुके होते हैं। रोने की स्मृति उन्हें अगली बार रोने से रोकती है। जीवन की अनिश्चितता से बड़ा और कोई कारण नहीं होता, जो रुला सके। और इससे बड़ा दुख और कोई नहीं हो सकता कि जब आप रो रहे हों, तो कोई आपके उस रुदन का मखौल कर सुख पाए।

आंख का पानी क्या होता है? लोग कहते हैं, एक लाज होता है, जो कुछ बुरा करने से पहले आंखों पर छा जाता है। जिनकी आंख का पानी सूख जाता है, वे बिना सोचे-समझे, कुछ भी बुरा कर सकते हैं। कुछ कहते हैं, ये भावनाओं का विगलित रूप होता है। जब वे शब्दों और मुद्राओं में अभिव्यक्त नहीं हो पातीं, तो द्रव में बदल जाती हैं।

जब हम रोने से बचना चाहते हैं, तो दरअसल अपनी अभिव्यक्ति पर रोक लगा रहे होते हैं। अभिव्यक्ति हमेशा एक प्रवाह की तरह होती है। नदियां किसी तल पर प्रचंड वेग से चलती हैं और कहीं एकदम मंथर हो जाती हैं। मंथर होना भी प्रवाह है, लेकिन अगर सबसे स्थिर मंथरता पर रोक लगा दी जाए, तो वह घात होता है।

पूरे जीवन में हम जितना दूसरों से घात नहीं करते, उससे ज़्यादा ख़ुद से करते हैं। हम जितनी बार अपनी अभिव्यक्ति के प्रवाह पर रोक लगाते हैं, उतनी बार हम अपनी ऊर्जा का क्षय करते हैं। अपने भीतर के अंधकार को बढ़ा देते हैं।

रोना रोशनी देता है। आंख में बसा हुआ पानी नूर का एक परदा होता है, जो आपके आगे फैले अंधेरे को दूर कर देता है। जब कोई रोता है, तो वह अपने भीतर प्रकाश का आवाह्न करता है। वैदिक काल में ऋषि सूर्य का आवाह्न करते हुए मंत्र पढ़ते थे। विज्ञान ने भले यह सुलझा लिया हो कि सूर्य को देखोगे, तो न केवल आंखें चौंधियां जाएंगी, बल्कि वे गीली भी हो जाएंगी। लेकिन यह हमेशा रहस्य रहेगा कि ऋषि सूर्य का आवाह्न गीली आंखों से ही क्यों करते थे? 

शायद वे जानते थे कि आंख का आंसू जल नहीं होता, वह तो प्रकाश का जलीभूत रूप होता है। दृष्टि आंसुओं का संपुंजन होती है। इसीलिए जब आंख की परत सूखने लगती है, तो दृष्टि प्रभावित होती है। महान अंधत्व भी आंसुओं से भरे होते हैं, लेकिन तब आंसुओं से बनी दृष्टि अपना घर बदल लेती है।

जब मैं उस फिल्म के नायक-नायिका के बारे में सोचता हूं, तो पाता हूं, कि वे प्रेम में इस क़दर चोट खाए हुए हैं कि प्रेम से नज़रें चुरा रहे हैं। प्रेम ऐसी देह है, जिसका गंगाभिषेक नहीं होता, उसे आंसुओं से ही नहलाना पड़ता है। प्रेम एक महान दुख है, जिसे आंख पर चढ़े नूर के इस परदे से ही देखा जा सकता है। यह ऐसा दुख है, जिससे आंख चुराना सबसे बड़ी चोरी है।


(दैनिक भास्‍कर में 3 अगस्‍त 2011 को प्रकाशित)

Tuesday, August 2, 2011

आखि़री औषधि





तुम टूटी हुई आई थी मेरे पास
अपनी टूटन को छिपाती हुई.

एक दिन तुम्‍हारे एक टुकड़े में कहीं दर्द हुआ और तुमने कुछ घाव मुझे दिखाए.
कुछ मरहम थे मेरे पास. छोटी-छोटी गोलियां. हरी नीली लाल पीली.
चिंदियां थीं कुछ, जिन्‍हें मैं पट्टी की तरह बांध देता था घाव पर.
अपनी आत्‍मा का हर दराज़ टटोला मैंने
बहुत सारा प्‍यार था. बहुत सारी हंसी. शरारतें थीं जाड़ों की रज़ाइयों जैसी. हमारी गुदगुदियों से उचक लहर-लहर जाती.
मैंने ज़मीन पर बिछा दिया अपने भीतर का सारा जल
और तुमसे कहा-
ऐसे ही खिलो इस पर, जैसे खिलती है कुमुदिनी पोखर पर.

मैं होंठों का यात्री. अपने होंठों से तुम्‍हारी देह पर चलता रहा.
बरसों से बंद तुम्‍हारे मन के दरवाज़ों पर रोग़न किया मैंने क़ब्‍ज़ों में लगी ज़ंग को होंठों से पोंछ दिया
सकुचाई तुम्‍हारी आत्‍मा के लिए नई-नई झालरें सिलीं टांक दिया उन्‍हें पंखों की जगह
यह क्षण की यात्रा थी सदियों पुराने दीर्घ उस क्षण की जो अभी तक बीत न सका
राह में आने वाले घावों को, टूटन को, खुरचन को, तिड़कन को, दरारों को अपने होंठों से सहलाता रहा मैं.

हर सहलाहट बनी तुम्‍हारे होंठों की मुस्‍कराहट.

तुम बिखरी हुई आई थी.
मैंने तुम्‍हें रूप दिया.
बदले में तुमने मुझे तोड़ दिया.
बार-बार कहा मैंने कि देखो, मैं टूट रहा
तुम मानती रही इस बात को
ऐसा कुछ भी नहीं किया फिर भी कि मैं जुड़ सकूं ज़रा भी
मुझ पर करती ही रही घनहथौड़ों से प्रहार
इतने कि हाथ में छाले पड़ गए तुम्‍हारे.

जब चूर-चूर हो जाऊं
मुझे उबटन बना लेना
उसका लेप लगा लेना
अपने हाथ के छालों पर.