Thursday, March 26, 2009

उस देखे की मौन भाषा

व्‍यास हिमाचल को रूप देती है, आकार देती है. शील, सैन, संस्‍कार देती है. व्‍यास तीरे मैं उसे देखता रहा, सुनता रहा.

कहते हैं कि वशिष्‍ठ ने पुत्रशोक से विह्वल होकर अपने को रस्‍सी में बांध यहीं-कहीं व्‍यास में छोड़ दिया था. इस गंभीरा नदी ने वशिष्‍ठ को पाशमुक्‍त किया और किनारे लगाया. तब से यह विपाशा कहलाती है. लेकिन हम तो इसे सिर्फ़ इसलिए विपाशा न मानेंगे कि इसने कभी वशिष्‍ठ का पाश हरा. हम तो इसे तब विपाशा मानें, जब यह हमारा पाश हरे. हम अंदर-बाहर पाशों से बंधे हुए हैं. कहीं झटक कर छुड़ाते हैं, तो ये राग-द्वेष दूसरी ओर से, दूसरे रूप में, अरूप में आकर बांध लेते हैं. ये पाश अंतर, अंतरतम के हैं और बाहर के भी हैं. मैं विपाशा तीरे अपने पाश देखता रहा. विपाशा को देखता रहा. सुनता रहा. फिर जैसे सब देखना-सुनना सुन्‍न हो गया. भीतर-बाहर सिर्फ़ हिमवान, वेगवान, प्रवाह रह गया. न नाम, न रूप, न गंध, न स्‍पर्श, न रस, न शब्‍द. सिर्फ़ सुन्‍न. प्रवाह, अंदर-बाहर प्रवाह. यह विपाशा क्‍या अपने प्रवाह के लिए है? क्‍या इसीलिए गंगा, यमुना, सरस्‍वती, सोन, नर्मदा, वितस्‍ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्‍णा, कावेरी की तरह विपाशा महानद है? पुण्‍यतमा है? क्‍या शीतल, नित्‍य गतिशील, सिलसिले में ही ये पाश कटते हैं? विपाश होते हैं?
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यह लिखना भी देखने में बाधक होता है. एक कि़स्‍म का परिग्रह होता है. अहंता है- मैं इसे लिखूंगा. ममता है. इसलिए संचय की भावना आ जाती है. फिर आरंभ करिए, तो इच्‍छा और परिग्रह का अंत नहीं होता. इसलिए सध सके, तो बिल्‍कुल ही न लिखें; न लिखने के लिए देखें. सिर्फ़ देखते रहें, तो ही ठीक देखना होता है. उस देखे की भाषा मौन होती है. उस संवेदन का प्रकाश नहीं किया जा सकता. लेकिन जीने के लिए अंतों को छोड़ना अच्‍छा होता है. इसलिए न तो बस लिखने के लिए लिखने की अति हो कि देखना ही न हो सके, न सिर्फ़ देखना ही देखना हो कि कुछ लिखा ही न जा सके. इसके बीच क्‍या कोई रास्‍ता है कि देखना भी पर‍िमित हो, लिखना भी, इच्‍छा भी.

वैसे स्‍मृति भी एक पाश है. भोग की स्‍मृति, चाहे दुखभोग हो, चाहे सुखभोग, बंधनकारक होती है. मरण स्‍मृति शायद मुक्‍त करती है. मरना है, यह याद रहे तो आदमी या औरत बहुत-से झंझटों से छूट जाता है. इसकी अति भी बरजने जैसी है. हमेशा यह लगा रहे कि अब मरा, तब मरा, या मरना है, इसलिए लट्ठे की तरह पड़े रहना है, तो यह भी अच्‍छा नहीं. स्‍मृति चाहे भोग की हो, चाहे मरण की, पाश ही है. क्‍योंकि यह 'जो नहीं है' को 'जो है' पर थोप देती है. इसलिए 'जो है' उसमें जीना नहीं होता. स्‍मृति काल-क्रम को ही तखड़-पखड़ कर देती है.

( ब्‍यास तीरे खड़े होने पर कृष्‍णनाथ बेतहाशा याद आए थे. यह उनकी पुस्‍तक 'स्‍पीति में बारिश' का एक अंश है.)

Monday, March 9, 2009

सेब का लोहा

पत्थर भी अपने भीतर थोड़ी मोम बचा कर रखता है
ख़ुद आग में होता है बुझ जाने का हुनर
जब वह अपने आग होने से थक जाती है
गिरते हुए कंकड़ को अभय दे
अंगुल भर खिसक जाता है समुद्र एक दिन
सबसे हिंसक पशु की आंखों की कोर पर एक गीली लकीर
धीरे-धीरे काजल की तरह दिखने लगती है
सबसे क्रूर इंसान भी रोता है
और प्रार्थना में एक दिन उठाता है हाथ

पत्थर आग पानी और जानवर अभिनय नहीं जानते
मैं जानता हूं

मुझे सेब की फांक पर उग आया लोहा कह लो
या पहिए और पटरी के बीच से कभी फ़ुरसत से निकली चिंगारी
या तमाम माफि़यों से भरी वह प्रार्थना जिसका मसौदा सदियों से अपनी जेब में रखते आया
पढ़े जाने के माकूल वक़्त का इंतज़ार करते

जो कुछ छोड़े जा रहा हूं
क्‍या उसके बदले सिर्फ़ एक माफ़ी काम की होगी
जिसे पढ़ना होगा पुरखों नहीं संततियों के आगे
बताना होगा कि मेरी हथेलियां बहुत छोटी थीं
छिटकते समय को सहेज लेने के वास्ते

सिर्फ़ एक रास्ता काफ़ी नहीं इस जगह से घर को
सिर्फ़ एक जड़ से नहीं मिला छतनार को जीवन
सिर्फ़ एक बार नहीं बना था परमाणु बम
सिर्फ़ एक अर्थ से नहीं चलता रोज़गार शब्‍दों का
सिर्फ़ नीयत ही काफ़ी नहीं होती हर बार
बिना चले गठिया का पता नहीं चलता

मैं भय विनाश भूख और त्रासदी से निकला हूं
सिर्फ़ एक अनुभव से नहीं समझा जा सकता जिन्हें
सेब की फांक पर उभरे लोहे से चाक़ू नहीं बनता

कोई आता है हांक लगाता पुकारता मेरा नाम
एक उबासी से करता हूं उसका स्वागत फिर ढह जाता हूं
एक दिन वह बना लेता है उपनिवेश
मेरी देह और दिमाग़ के टू-रूम फ़्लैट में
फिर छिलके-सा उतार दिया जाता हूं
किसी आरोप या बिना किसी आरोप के

मेरी राजनीतिक उदासीनता राजनीतिक नासमझी में बदल जाती है
हर इच्छा एक नागरिक उदासीनता की तरफ़ ले जाती है

शरीर में लोहे की कमी है सड़कों और खदानों में नहीं
इसीलिए अपने हिस्से का सेब कभी नहीं फेंकता मैं
थोड़ा-सा मनुष्य भी है मुझमें
जो सदियों पुरानी धुनों पर गाता है भ्रम के गीत

कोई और रहता है मेरे भीतर
जो लिखता है कविता या गाता है
जब वह मेरे सामने आता
मिलता नहीं कोना जहां अकेले बैठ थोड़ी देर सचमुच रो सकूं मैं
अभिशप्‍त भटकता हूं
जैसे लिखे जाने से पहले खो गई किसी पंक्ति की तलाश में
तभी झमाझम बरसती हैं स्मृतियां
भूल जाता हूं पिछली बार कहां रख छोड़ा था छाता

शब्‍द के उच्चारण या नाद से निकली सृष्टि में
क्‍यों बार-बार भूल जाना कि
इतिहास से पहले भी जीवन था
बोली जाने वाली भाषा से पहले समझी जाने वाली
उससे भी पहले एक आंसू उससे भी पहले एक पीड़ा
उन्हीं के अवशेषों की भाषा लिखता हूं

मुझको पढ़ना बार-बार पढ़ी जा चुकी किताब-सा आसान नहीं
मेरा हर व्यवहार एक विचार है
हर हरकत एक इशारा
मैं आधी समझी गई पंक्ति हूं
अभी आधा काम बाक़ी है तुम्‍हारा

(पूर्वग्रह में प्रकाशित)