Wednesday, January 21, 2009

मेरी लम्‍बी कहानियां

अपनी लंबी कहानियों के लिए मेरे भीतर कुछ वैसा ही त्रास भरा स्‍नेह रहा है, जैसा शायद उन मांओं का अपने बच्‍चों के लिए, जो बिना उनके चाहे लम्‍बे होते जाते हैं- जबकि उम्र में छोटे ही रहते हैं. ऐसी कहानियों को क्‍या कहा जाए, जो कहानी की लगी-बंधी सीमा का उल्‍लंघन तो कर लेती हैं, किंतु उपन्‍यास के 'बड़प्‍पन' में जाने का साहस नहीं कर पातीं? अंग्रेज़ी का शब्‍द 'नॉवेला' शायद मेरे आशय के सबसे निकट आता है, जिसे उन्‍नीसवीं शती के रूसी कथाकारों ने इतनी कुशलता से साधा था. टॉल्‍स्‍टॉय की कहानी 'ईवान इल्यिच की मृत्‍यु', तुर्गनेव की अनेक सुंदर 'उपन्‍यासिकाएं' और चेखव की 'वार्ड नंबर छह' ऐसी कहानियों के श्रेष्‍ठ उदाहरण हैं, जो कहानी और उपन्‍यास के बीच की ज़मीन पर एक अनूठी कथात्‍मक विधा रचती हैं.

जबसे मैंने कहानियां लिखना शुरू किया, लम्‍बी कहानियों की यह दुनिया मुझे बहुत आत्‍मीय लगती रही है-- न तो छोटी कहानियों की तरह बहुत कसी हुई, न ही उपन्‍यासों की तरह बहुत फैली हुई... संयम और उन्‍मुक्‍तता के इस अद्भुत सम्मिश्रण से एक तरह का लिरिकल सौंदर्य उत्‍पन्‍न होता है, जहां शब्‍द अपनी स्‍पेस निर्धारित करते हैं... जो बाहर की तरफ़ न जाती हुई अपनी भीतर की तहों को खोलती है. अधिकांश लम्‍बी कहानियां अक्‍सर सोचती हुई-सी कहानियां (रिफ़्लेक्टिव) कहानियां होती हैं, उनका चेहरा दुनिया की ओर उन्‍मुख होता हुआ भी आंखें कहीं भीतर झांकती-सी दिखाई देती हैं. उदास और चिंतामग्‍न. मैंने जान-बूझकर लम्‍बी कहानियां नहीं लिखीं-- वे मनमाने ढंग से अपने आप लम्‍बी होती गईं... ...

***  निर्मल वर्मा.
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ग्‍यारह लम्‍बी कहानियां की भूमिका.  पेंटिंग: सुब्रतो धर