Wednesday, September 30, 2009

आत्मकथा के विरुद्ध

कमरे में घुसते ही उसे देखा. वह, सोफ़े के पास जो एक कॉर्नर रखा है, जिस पर अमूमन एक ट्रे में पानी से भरी मेरी केतली रखी होती है और पास ही हरे रंग का एक मग औंधा, और जहां अक्सर मेरे उंड़ेले जाने से कुछ बूंदें गिरी होती हैं, इन सबकी अनुपस्थिति में वह बैठी थी.

रहस्यकथाओं से अपने पुराने परहेज़ को ज़ाहिर करते हुए इसी पंक्ति में मैं यह कह दूं कि उसके वहां बैठे होने और मेरे उसे देख लेने का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि उसे मरे हुए, कुछ ही दिनों में, सत्रह साल पूरे हो जाएंगे. यह किसी भूत को देखने जैसा नहीं था, वह हवा की तरह नहीं थी, उसने पारंपरिक सफ़ेद कपड़े भी नहीं पहने थे, उसके होने के बैकग्राउंड में कोई डरावना संगीत भी नहीं बज रहा था. फिर भी मैं जैसे ही कमरे में घुसा, उसे वहां बैठे देखा. वह चुप थी. जैसा कि उसे तस्वीरों में देखा है, तब की, जब उसके पास बोलने का वक़्त होता था, ताक़त नहीं.

अगले ही पल उसका ग़ायब हो जाना भी कोई हैरतअंगेज़ बात नहीं. ऐसा होता आया है. वह पहले भी ग़ायब होने के लिए आती रही है. वह जितने भी दिन रही जीवन में, उन्हें इतने कम दिन कहा जा सकता है कि अब इतने समय बाद घूम कर देखा जाए, तो वे दिन कुछ लम्हों से ज़्यादा नहीं लगते. और जीवन के ज़्यादातर लम्हे जीवन में इसीलिए आते हों, मानो उन्हें भुला दिया जाना हो. हम लगातार किसी की तस्वीर न देखें, तो एक दिन उसका चेहरा भूल जाते हैं. और भीतर चेहरे का जो चित्र बनाकर रखते हैं, वह असल से कितना अलग होता है, यह जांचने का हमारे पास कोई ज़रिया नहीं होता. मुझे पता है, मैं उन सारी स्त्रियों के चेहरे भूल चुका हूं, जिनसे दस-बारह साल की उम्र में मैंने शिद्दत से प्रेम किया था. उस स्त्री का भी, जो नवंबर के आखि़री दिनों में बुख़ार से तपते मेरे चेहरे पर झुकी थी, जिसे मैं चुंबन के पहले अनुभव की तरह याद करता हूं; वह भय और कंपकंपाहट अलबत्ता अब भी याद है, जिसे सबने बुख़ार के प्रमाणों-सा माना था.

वे सभी स्त्रियां जिनके लिए स्त्री का संबोधन उनकी उम्र के हिसाब से नहीं, महज़ उनकी क़ुदरती उपस्थिति के लिहाज़ से है, लौटकर इस तरह नहीं आईं कि एक रात जब मैं किताबों से अव्यवस्थित अपने कमरे में घुसूं और एक मोड़ लेकर उस जगह तक पहुंचूं, जहां काग़ज़ों में लिपटे हुए पसंदीदा कि़स्मों के टी-बैग्स पड़े हों, केतली का बटन दबाने की सोचूं, उससे पहले ही उस अजीब आकार वाले कॉर्नर पर बैठी हुई दिख जाएं! वे इस तरह लौटकर नहीं आतीं, शर्मसार और चिंतित करने के लिए नहीं, किसी उल्लास का दाय पाने को नहीं, तुम्हारे आसान-से मायाजालों को उधेड़ने भी नहीं.

क्या़ तुमने इससे कहा था- ‘मैं तुम्हें कभी नहीं भूल सकता’? तो क्या वह इसी बयान को चुनौती देने आई है? यह सत्रह साल से बीच-बीच में आती रही, और कभी कुछ नहीं कहा. एकदम चुप. सत्रह साल लंबी चुप्पी .

बाइबल में जब ईश्वर ने सोडोम नगरी को नष्ट करने का आदेश जारी किया था, तो तीन फ़रिश्ते उसे पूरा करने उतरे थे. उतरते हुए उनमें से दो ने पहले कोसा था, और बाद में जाते हुए आशीष दिया था. तीसरा लगातार चुप था.

शायद वह लंबी चुप्पी का फ़रिश्ता था. जैसे कि ये लड़की, जो सत्रह साल की उम्र वाली एक चुप्‍पी लिए धीरे से उतरती है मुझ पर.

चुप फ़रिश्ते पक्षहीन नहीं होते. वे शायद कोसना और आशीषना से इतर एक तीसरा पक्ष लिए चलते हैं. चुप्‍पी का अपना एक पक्ष होता है. एक चुप पक्ष. 

वांग कार-वाई की एक फि़ल्म में नायक एक खंडहर की दीवार में बने छेद में मुंह लगाकर अपने जीवन का क़ीमती रहस्य बोलता है. फिर घास और गीली मिट्टी से उस छेद का मुंह बंद कर देता है. इससे वह रहस्य हमेशा के लिए उस छेद के भीतर छिपा-सुरक्षित रहेगा. मेरे पास दीवारों में बहुत सारे छेद हैं, पर कोई रहस्य नहीं. तीस से ज़्यादा की मेरी उम्र रहस्यों को निरस्त करती है. और यह निरस्त करना आत्मकथाओं के विरुद्ध्‍ा है.

यह स्‍त्री जो यहां थोड़ी देर पहले आई थी, यह भी कोई रहस्य नहीं, क्योंकि मैं इसका चेहरा भी भूल चुका हूं और पक्का नहीं कह सकता कि यह वही थी, जो सत्रह साल से इसी तरह ग़ायब हो जाने के लिए आती रही. रहस्यकथाओं से मेरा पुराना परहेज़ है. मैं उनका आखिरी पृष्‍ठ पहले पढ़ना चाहता हूं. पर हर कहानी आखिरी पृष्‍ठ तक पहुंचे, यह कोई ज़रूरी है क्‍या? कुछ कह‍ानियां मेरी उम्र से लंबी हैं. मैं उनकी जिल्‍द में बंधने का अनिच्‍छुक बीच के पन्‍नों में से एक हूं.

रहस्‍य मेरे भीतर से होकर गुज़रेगा, लेकिन उसकी अंतिम परिणति तक मैं उसके साथ नहीं रह पाऊंगा.

हम दोनों एक ही जिल्‍द में रहेंगे, लेकिन हमारे बीच कई पन्‍नों का फ़ासला होगा. 

केतली का बटन दबाकर चालू करता हूं. पानी गरम होने की सनसनाहट गूंज रही है. मैं यह तय नहीं कर पाता कि हरी चाय पीनी है या लेमन. डिब्बे में सिर्फ़ एक सुगर क्यूब बची है. उस औरत के पैर जहां लटक रहे थे, वहां एक टी-बैग गिरा हुआ है. मैं किताबों के बीच से एक और मग उठाता हूं. उसमें वह टी-बैग डालता हूं. सुगर क्यूब भी. उसे घुलता वहीं रख देता हूं.

और दूसरे मग में बिना शक्कर की अपनी चाय लिए बाहर बाल्कनी में चला जाता हूं. सड़क पर पीली बत्तियां हैं, कुछ ठीक पेड़ों के सिर पर चमक रही हैं और नीचे सड़क पर रोशनी के साथ छायाएं भी फेंक रही हैं. इनसे भी एक रहस्यलोक बनता है, रात को आधा चमकता हुआ.

हो सकता है, सत्रह साल बाद वह आई हो पास खड़े हो एक कप चाय साथ पीने के लिए.


Friday, September 25, 2009

दान्‍सा दान्‍सा

जब कोई आपको नाचता देखना ही चाहता हो, तो क्‍यों नहीं बत्तियातो की स्‍टाइल में पूछता. क्‍यों नहीं कहता-  वोयल्‍यो वेदर्ती दान्‍सारे, कोमे ले ज़ीन्‍गारो देल देत्‍ज़र्तो...
क्‍यों नहीं, बोलो, क्‍यों नहीं ?




Sunday, September 20, 2009

जब उसका मन भर जाता है


उसका कोई एक नाम नहीं है। वह किसी एक शहर में नहीं रहती। उसका कोई एक देश नहीं है। वह अपने लिए किसी ब्रह्मा की मोहताज नहीं, वह अपना विधान ख़ुद लिखती है। शिव की ज़रूरत भी नहीं, विष्णु की भी नहीं। वह ख़ुद ही पालती है ख़ुद को और अपनी ही तीसरी आंख के सामने खड़ी हो जाती है एक दिन, जब उसका मन भर जाता है... हर ब्रह्मांड में ग्यारह शिव होते हैं, उनमें से सिर्फ़ एक के पास तीसरी आंख होती है, वह जब तक रही, उसी एक को पाने के लिए भटकती रही और अंत में वह एक ख़ुद उसी की नसों के भीतर बने कैलाश में रहता मिला। वह दुर्गा का एक सौ चौथा नाम थी- आत्मरूपविनाशिनी... वह एंटीगोन है, जो हर जन्म में राजा  का हुक्म तोड़ेगी और मारी जाएगी.



- बहुत सुंदर थी वह?

- हां, काफ़ी। इतनी कि देखते ही नीयत मचल जाए।

- उसकी तस्वीरें तो देखी थीं हमने।

- उसकी कविताएं भी पढ़ी होंगी?

- पढ़ी तो हैं, लेकिन हम लोगों को उसकी तस्वीर ज़्यादा अच्छी लगती थी।

- तुम्ही को नहीं, सब ही को। उसके बारे में कोई कहता था कि एक बार उसने एक संपादक के पास अपनी तस्वीर के बिना कविता भेजी, तो वापस आ गई। दूसरी बार उसने अपनी तस्वीर के साथ वही कविताएं भेजीं, तो अगले ही अंक में छप कर आ गईं।

- हां, जादू तो था ही उसकी तस्वीर में। हम सोचा करते थे, यह सचमुच इतनी सुंदर है या फोटोग्राफर का कमाल है या किसी बीते ज़माने के एलबम से कुछ मार लिया गया है...

- नहीं, वह सच में सुंदर थी और उससे लोगों ने यह बात कई बार कही भी थी। उसे पता भी था कि वह सुंदर है। यह भी पता था कि सुंदरता को किस तरह पेश किया जाता है। वह कविताएं लिखती थी, यही ग़लत था। अगर वह कोई किताब लिखती, मसलन ‘सिर्फ़ चेहरा दिखाकर सफल हो जाइए’ या ‘कविताओं को इस तरह बेचिए’, तो उसका ज़्यादा नाम हो सकता था।

- लोग उसके बारे में जो कहते थे, वह सही था?

- कौन-सी बात?

- यही जो तुम अभी बता रहे हो। जैसे उसे पता था, अपनी सुंदरता का इस्तेमाल करना। या कि वह बहुत अच्छी सेल्सगर्ल थी।

- हर लड़की को पता होता है, अपने चेहरे का इस्तेमाल कैसे किया जाए। जब आप किसी भी तरह सफल होने की ठान लेते हैं, तो आपको भी यह हुनर आ जाता है।

- हाथ क्यों काट लिया था उसने?

- पता नहीं।

- कहते हैं, बहुत परेशान थी वह?

- पता नहीं। ख़ुशी-ख़ुशी तो हाथ काटा नहीं होगा!

- तुम भी उससे प्यार करते थे?

- कौन बेवक़ूफ़ उसकी तमन्ना ना करता होगा?

- हां, सफल भी थी।

- पर उसे ऐसा नहीं लगता था।

- क्यों?

- उसे लगता था, वह जितना डिज़र्व करती है, उतना उसे नहीं दिया जा रहा। उसे अभी और पुरस्कार चाहिए थे, वह चाहती थी कि उस पर अभी और लिखा जाए, उसके लिखे को, न कि दिखे को, गंभीरता से लिया जाए।

- जहां तक मुझे मालूम है, उसे पर्याप्त गंभीरता से लिया जाता था।

- नहीं, लोग उसे संदेह से देखते थे।

- वह लड़की थी।

- हां, लड़कियों की सफलता को संदेह से देखा जाता है।

- बिल्कुल, लड़की होना ही संदिग्ध होना है। उसकी लियाक़त को मंज़ूरी नहीं मिलती।

- लोगों को लगता था कि वह सुंदर है, इसीलिए उसे छापा जा रहा है। उसकी चीज़ों को अच्छा बताया जा रहा है।

- वैसे, यह बात पूरी तरह ग़लत भी नहीं थी।

- नहीं, उसमें दम था। उसके शब्द बहुत बलवान थे।

- महाबली शब्द? ख़ैर, उसमें स्त्री होने का इतना सियापा क्यों था?

- क्योंकि वह स्त्री होने के दुख से भरी हुई थी। वह अपने भीतर की स्त्री के मरने से बहुत क्षुब्ध थी। जिस दिन वह मरी थी, उस दिन सिर्फ़ वही नहीं मरी थी।

- हां, उसने अपने बेटी को भी मार दिया था।

- हुम्म। पहले उसने उसके हाथ की नस काटी थी, फिर अपनी।

- कैसी कवि थी! हत्या की उसने।

- अगर वह कवि न भी होती, तो भी वह हत्या ज़रूर करती। अगर वह अभिनेत्री होती, तो भी। अगर वह बंबई में होती, तो भी यही करती। शंघाई में होती, तो भी और चिकागो में भी वह यही करती।

- तुम मिले थे उससे?

- मैं उसके साथ तीन महीने रहा था।

- झकास! तब तो बहुत मज़ा आया होगा।

- नहीं, वह बेड में बहुत ख़राब थी, मेरे चूमते-चूमते सो जाती थी... एक्चुअली, मैं उससे परेशान हो गया था और एक दिन उसे छोड़कर आ गया था। उस दिन उससे मुझसे कहा था, मैं तुमसे तंग आ गई हूं।

- तुम दोनों एक-दूसरे से तंग आ गए थे?

- लगभग। वह चाहती थी, मैं पुरुषों जैसा व्यवहार न करूं, जबकि वह अपना स्त्रियों वाला व्यवहार कभी बदल नहीं पाई। अगर उस समय मैंने उसे छोड़ा नहीं होता, तो शायद वह मेरी हत्या कर देती।

- इतनी हिंसक थी?

- नहीं, वह बहुत निराश थी।

- लेकिन उसे किसी चीज़ की कमी न थी।

- बहुत सारी चीज़ों की। उसे और नाम चाहिए था, उसे ढंग के पैसे चाहिए थे।

- उसका पति तो अच्छा-ख़ासा कमाता था।

- हां, पर वह समझौता नहीं करना चाहती थी।

- बाहर वालों से कर सकती थी, घरवाले से नहीं?

- उसने बाहर वालों से भी समझौता नहीं किया था।

- फिर कैसे इतनी जल्दी स्थापित हो गई थी?

- तुम भी उसे संदेह से देख रहे हो?

- क्यों न देखा जाए? और भी साले कब से लिखे जा रहे हैं, उन्हें तो घंटा नहीं मिला। दुनिया के सारे पुरस्कार उसी को कैसे मिल रहे थे?

- उसमें दम था। उसकी कविताएं कमाल की थीं।

- लेकिन वे तुम्‍हारी कविताओं से बहुत मिलती-जुलती थीं...

- ऐसा बहुत-से लोग कहते हैं।

- लोग तो यह भी कहते हैं कि तुम ही उसके नाम से कविताएं लिखा करते थे।

- नहीं, मैं उतनी अच्छी कविताएं नहीं लिख सकता। मैंने कोशिश की थी, एक-दो बार उसकी कविताओं में सुधार करने की। वैसे, सच में कुछ लाइनें मेरी ही होती थीं...

- फिर?

- वह मुझसे ज़्यादा तेज़ थी। मुझसे पहले चीज़ों को पकड़ लेती थी।

- फिर भी तुमने उसे छोड़ दिया?

- दरअसल, उसी ने मुझे छोड़ा था।

- उसका माथा तिकोना था, सामुद्रिक कहता है, ऐसी लड़कियां सिर्फ़ मित्र हो सकती हैं, एकाध बार के बाद दूर हो जाने वाली... ऐसे भी, वह साथ रहने लायक़ नहीं थी।

- वह कहीं भी रहने लायक़ नहीं थी।

- हां, अगर वह अमेरिका में रहती, तब भी ख़ुदकुशी करती। सिंगापुर में भी और भारत में भी।

- हां, अगर फिल्मों में होती, तो भी। राजनीति में होती, तो भी। और अगर गृहिणी होती, तो भी।

- अच्छा हुआ, मर गई। शायद वह ऐसी ही मौत चाहती थी...

- जि़ंदगी हमें कभी अमर नहीं बनाती, एक अच्‍छी, रहस्‍य से भरी मृत्‍यु हमें अमरता देती है. उसकी बेचैनी थी, शायद ऐसी ही तलाश करने की... वह चाहती थी कि टेलीफ़ोन का रिसीवर टंगा ही रह जाए, जब उसे मौत आए, उस तरफ़ कोई उसकी आखि़री सांस की आवाज़ को बेतहाशा बेबसी में सुने और तड़पे...

- यातना का महासुख?

- नहीं, जीवन का वैंडेटा.

-  इच्‍छा का हायकू?

-  जीवन का महाकाव्‍यात्‍मक विकल्प,  सारे ईश्वरों को चुनौती देता...

देखो खिड़की से झांक कर
बाहर कोहरा छाया हुआ है
यह तुम्हारी आंखों में चुभ जाएगा अभी
और फिर तुम कभी कुछ नहीं देख सकोगे...

पेंटिंग : पोलिश चित्रकार तमारा दे लेम्पिका



संगीत : शोस्‍ताकोविच, सिम्‍फनी नंबर 5





Friday, September 18, 2009

द क्‍वेस्‍ट फ़ॉर द सेल्‍फ़


All novels, of every age, are concerned with the enigma of the self.

Man hopes to reveal his own image through his act, but that image bears no resemblance to him. The paradoxical nature of action is one of the novel’s great discoveries. But if the self is not to be grasped through action, then where and how are we to grasp it? So the time came when the novel, in its quest for the self, was forced to turn away from the visible world of action and examine instead the invisible interior life.

Joyce analyzes something still more ungraspable than Proust’s “lost time”: the present moment. There would seem to be nothing more obvious, more tangible and palpable, than the present moment. And yet it eludes us completely. All the sadness of life lies in that fact.

The more powerful the lens of the microscope observing the self, the more the self and its uniqueness elude us; beneath the great Joycean lens that breaks the soul down into atoms, we are all alike.

But if the self and its uniqueness cannot be grasped in man’s interior life, then where and how can we grasp it? Can it be grasped at all? Of course not. The quest for the self has always ended, and will always end, in a paradoxical dissatisfaction.

-from The Art of the Novel, Milan Kundera, F&F.



Thursday, September 3, 2009

कज़ुओ इशिगुरो : संगीत हमसे वादा करता है


हर सुख के लिए संगीत है, हर दुख के लिए भी. सांध्‍यसंगीत में उदासी और अवसाद जाने क्‍यों आ जाता है. मैंने किसी के लिए सेरेनेड जैसा कुछ नहीं बजाया कभी. आता भी नहीं. सेरेनेड सुने हैं, पढ़े हैं. और महसूस किया है, रात के वीराने में अकेली गूंजती हुई वायलिन की आवाज़, जो, हस्‍बमामूल, कलेजों का निशाना ताड़कर निकलती होगी. 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा' में फ़्लोरेन्तिनो बजाता है, फ़रमीना के मकान के नीचे, लाइटहाउस के पास, और एक बार मीलों दूर से, तो महसूस करता है कि वह उसकी वायलिन के तारों को ख़ुद ही छेड़ रही है, उसकी आवाज़ सुनकर बाल्‍कनी में आ रही है. पता नहीं, हममें से कितनों ने अपने प्रेम के लिए संगीत बजाया होगा, गिटार के तार के कटाव को उंगलियों पर महसूसा होगा, घुप्‍प अंधेरे में किसी छत पर खड़े होकर माउथ ऑर्गन को हल्‍के से फूंका होगा... जब भी हम संगीत सुनते हैं या बजाते हैं, वह हमसे कुछ वादा करता है, वह हमें कुछ देना चाहता है, या हम उससे कुछ पाना चाहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले कज़ुओ इशिगुरो को पढ़ा. उनका नया कहानी-संग्रह. 'नॉक्‍टर्न्‍स'. नाम से ही ज़ाहिर है कि इसमें संगीत होगा. आपस में गुंथी हुई पांच कहानियां हैं और दो कहानियों में किरदार लौट कर आते हैं. बीते ज़माने का एक सुपरस्‍टार गायक है, जो अब वेनिस में उपेक्षित बैठा है. वह हनीमून के लिए वेनिस आया था और अब दुबारा, 24 साल बाद, पत्‍नी के साथ आया है. यह पत्‍नी के साथ उसका आखि़री सफ़र होगा. फिर दोनों अलग हो जाएंगे. उसे 'कमबैक' करना है, एक बार फिर संगीत की दुनिया में छा जाना है, पर बूढ़ी पत्‍नी के साथ ऐसा नहीं कर सकता. मीडिया में कवरेज के लिए उसे एक जवान पत्‍नी चाहिए होगी, और वह अलग होने के लिए पत्‍नी को राज़ी कर चुका है. वेनिस में उसे एक नौजवान नौसिखिया नायक संगीतकार मिलता है, जो आखि़री रात उसके साथ गिटार बजाता है और बूढ़ा गोंदोला में बैठकर अपनी पत्‍नी की पसंद के गीत गाता है. सूनी रात में पानी की सड़क पर बैठ जब वह महान गायक सेरेनेड शुरू करता है, तो उससे पहले बेतहाशा भय में गला खंखारता है, सिर झुकाए देर तक चुप रहता है और बिना किसी इशारे के अचानक गाना शुरू कर देता है. संध्‍या का प्रेमगीत ग़र्द से सने बालों से छिपे चेहरे की मानिंद हो जाता है. ऊपर होटल के कमरे में गीत सुनती उसकी पत्‍नी रोने लगती है. नायक नौसिखिया ख़ुश हो जाता है- वी डिड इट. वी गॉट हर बाय द हार्ट. पर क्‍या बूढ़ा भी ख़ुश था, क्‍या उसकी स्‍त्री गानों से दिल के चिर जाने पर ही रोई थी?

ढलती हुई उम्र की एक स्‍त्री है, जो उस गायक के गीत सुना करती थी, जब वह बहुत लोकप्रिय था. कभी न लौटकर आने वाले पति की जब भी याद आती, वह उसके रिकॉर्ड बजाती. एक-एक शब्‍द दुहराती और भूल जाती कि किस समय वह रोती हुई नहीं थी. संगीत प्रतीक्षाओं को स्‍वर देता है, ताक़त भी. उसका छोटा बेटा, जो किसी जाने हुए-से भविष्‍य में एक दिन उसी गायक, जो गुमनाम हो चुका होगा, के साथ गोंडोला में बैठ गिटार बजाएगा, तब वह संगीत से सुकून मांगेगा या जुनून?

इशिगुरो की ये कहानियां इसी संघर्ष पर हैं- हम संगीत से क्‍या पाना चाहते हैं और जि़ंदगी हमें क्‍या दे देती
है.

पांच कहानियों का यह संग्रह अवसाद के जिस 'लो' से शुरू होता है, वहीं आकर ख़त्‍म भी होता है. पांच ऐसी कहानियां, जो एक ही जिल्‍द में हों, और 'सा रे ग रे सा' बना दें, इनके बीच कोई छिपा हुआ सुर भी हो, जो दरअसल कंपन की शक्‍ल में पसलियों के बीच भटक जाने को अभिशप्‍त हो, जब आप पढ़ें, तो अपने निजी सेरेनेड्स खोजने लग जाएं, रात की नीरवता में सड़क पर निकलें, और उसके संगीत से अपने हिस्‍से का पाना चाहें.

पर संघर्ष तो यहीं होता है- संगीत से हमें क्‍या पाना है, जीवन ने हमें क्‍या देना है.

इशिगुरो मुझे पहली बार अच्‍छा लगा है. उसकी भाषा पहली बार किसी खरे तालाब की तरह लगी है- रात में न दिखने वाले तालाब की तरह, जिसमें कोई पौधा कभी नहीं लगा, कोई कुमुदिनी कभी नहीं खिली, लेकिन फिर भी उस पौधे, उस कुमुदिनी के डोलने की आवाज़ गूंज जाती है.

इशिगुरो इस एक ही किताब से यासुनारी कवाबाता के कितना क़रीब पहुंच जाता है. हालांकि मेरी समझ में नहीं आता कि क्‍यों 'रिमेन्‍स ऑफ़ द डे' और 'नेवर लेट मी गो' की तरह यहां भी उसके नैरेटर जितना बोलना चाहते हैं, उससे कहीं ज़्यादा बोल जाते हैं, बार-बार न चाहते हुए भी... (वैसे, मुझे यह भी नहीं समझ में आता कि क्‍यों हर पांचवें पेज पर पामुक मुझे चौंका देना चाहते हैं या क्‍यों हर दूसरे उपन्‍यास में मुराकामी अपनी बिल्‍ली की खोज में निकल पड़ते हैं...)