Thursday, December 30, 2010

Democracy Don’t Rule the World





बॉब डिलन ने यह गाना 27 साल पहले लिखा था. तीन-चार दिन से मेरे मन में गूंज रहा है. डिलन कहते हैं- एक बात बहुत अच्‍छी तरह अपने भेजे में घुसा लो, इस दुनिया पर लोकतंत्र का राज नहीं है, बल्कि हिंसा का है. पूंजीवाद सारे क़ानूनों से ऊपर है. डिलन उस दिन को भी देख रहे हैं, जब घर में बग़ीचा बनाना भी क़ानून का उल्‍लंघन करने जैसा ही होगा. यह डिलन की प्रॉफ़ेसी है, एक कवि, एक गायक, एक संगीतकार की. एक भयानक डिस्‍टोपिया है. साकार दिख रहा है.

यह हिंसा कौन-सी है? लोकतंत्र का राज क्‍यों नहीं है? यह पोस्‍टर देख लीजिए, समझ में आ जाएगा. 

क्‍या भारत, क्‍या पाकिस्‍तान, क्‍या अमेरिका! क्‍या बिनायक, क्‍या असांजे. डिलन का यह गाना सारी दुनिया के लिए है. देश का नाम बदल दीजिए, देश के नेता की तस्‍वीर बदल दीजिए, तब भी क्‍या यह तस्‍वीर बदली हुई लगेगी?

Union Sundown
- Bob Dylan



Union Sundown

Well, my shoes, they come from Singapore
My flashlight’s from Taiwan
My tablecloth’s from Malaysia
My belt buckle’s from the Amazon
You know, this shirt I wear comes from the Philippines
And the car I drive is a Chevrolet
It was put together down in Argentina
By a guy makin’ thirty cents a day

Well, it’s sundown on the union
And what’s made in the U.S.A.
Sure was a good idea
’Til greed got in the way

Well, this silk dress is from Hong Kong
And the pearls are from Japan
Well, the dog collar’s from India
And the flower pot’s from Pakistan
All the furniture, it says “Made in Brazil”
Where a woman, she slaved for sure
Bringin’ home thirty cents a day to a family of twelve
You know, that’s a lot of money to her

Well, it’s sundown on the union
And what’s made in the U.S.A.
Sure was a good idea
’Til greed got in the way

Well, you know, lots of people complainin’ that there is no work
I say, “Why you say that for
When nothin’ you got is U.S.–made?”
They don’t make nothin’ here no more
You know, capitalism is above the law
It say, “It don’t count ’less it sells”
When it costs too much to build it at home
You just build it cheaper someplace else

Well, it’s sundown on the union
And what’s made in the U.S.A.
Sure was a good idea
’Til greed got in the way

Well, the job that you used to have
They gave it to somebody down in El Salvador
The unions are big business, friend
And they’re goin’ out like a dinosaur
They used to grow food in Kansas
Now they want to grow it on the moon and eat it raw
I can see the day coming when even your home garden
Is gonna be against the law

Well, it’s sundown on the union
And what’s made in the U.S.A.
Sure was a good idea
’Til greed got in the way

Democracy don’t rule the world
You’d better get that in your head
This world is ruled by violence
But I guess that’s better left unsaid
From Broadway to the Milky Way
That’s a lot of territory indeed
And a man’s gonna do what he has to do
When he’s got a hungry mouth to feed

Well, it’s sundown on the union
And what’s made in the U.S.A.
Sure was a good idea
’Til greed got in the way

Copyright © 1983 by Special Rider Music


Monday, November 29, 2010

उसका आना तय था बहुत पहले से



जब मैं छोटा था, तो सोचता था, बड़ा होकर किताब बनूंगा। लोगों को चींटियों की तरह मारा जा सकता है, एक लेखक को मारना भी मुश्किल नहीं, लेकिन किताबों को नहीं मारा जा सकता। उन्हें नष्ट करने की कितनी भी कोशिश की जाए, यह संभावना हमेशा रहती है कि दुनिया के किसी निर्जन कोने में, किसी लाइब्रेरी के किसी खाने में, उसकी एक प्रति तब भी बची रह जाए।
- अमोस ओज़  (अ टेल ऑफ लव एंड डार्कनेस)



बूढ़े की कहानी-3

पेंसिल उसे परेशान करती है। छीलते-छीलते जब लगता है कि खासी नुकीली हो गई है, ठीक उसी समय जाने क्या हो जाता है कि नोंक टूट जाती है और शार्पनर में अटक जाती है। किसी तरह ठोंक-ठाककर वह नोंक निकालता है और पेंसिल को नए सिरे से छीलना शुरू करता है।

दीवार के सहारे पीठ टिकाकर अधलेटे बसरमल की जांघों पर ड्राइंग बुक है। बूढ़े और कांपते हाथों से वह उस पर पेंसिल बिछा देता है। आड़ा-तिरछा हिलाकर कुछ लकीरें बनाता है।

मंगण मां धीमे कदमों से बाहर आती है। उसके हाथ में पानी से भरा मग्गा है, जो छलक रहा है और दूसरे हाथ में प्लास्टिक का गुड्डा है। मग्गे के पानी में साबुन का झाग है। गुड्डे को पानी में डाल, तल्लीनता से उंगलियों से रगड़-रगड़कर उसे धो रही है।

बसरमल कुर्सी पर बैठी मंगण मां की तस्वीर बनाने लगता है। सबसे पहले कुर्सी की पीठ बनाता है। फिर उस पर टिकी हुई मंगण मां की पीठ। फिर कुर्सी की सीट बनाता है। फिर उससे सटी हुई मंगण मां की सलवार। फिर सलवार से बाहर निकले उसके पैर।

एक आकृति-सी बन गई है। सलवार को देखकर लग रहा है कि यह मंगण मां है। बस, इससे ज़्यादा नहीं बनाना उसे। पता नहीं, कितने साल पहले, उसने मंगण मां से कहा था, ‘यह समझ में आ जाए कि आप क्या सोच रहे हैं और क्या बनाना चाहते हैं, तो उसके बाद नहीं बनाना चाहिए।’

याद नहीं, उस समय मंगण मां ने क्या कहा था।

वह फिर वही बात उससे कहता है। उसका गुड्डा पानी में डूबा हुआ है। उसकी उंगलियां भी वहीं पर है। वह पानी में ही हाथ डाले-डाले उसकी ओर देखती है। इस तरह, जैसे सुन ना पाई हो। वह अपनी बात दुहराता है। मंगण मां का चेहरा फिर वैसा ही है। जैसे चाहती हो, एक बार और कही जाए वही बात, उसी तरह। कुछ पल पहले की तरह, कुछ बरस पहले की तरह।

वह उठकर चली जाती है। भीतर से वाश बेसिन में पानी गिरने की आवाज़ आती है। उसने गुड्डे को अब साफ पानी से धो दिया है।

बसरमल अपनी ड्राइंगबुक के पिछले पन्नों को देखता है। वहां कई पन्नों से मंगण मां नहीं है। उसने बहुत दिनों बाद उसकी देह और आकृति पर पेंसिल फिराई है। वह उस पर आहिस्ता से उंगली फिराता है। याद नहीं, आखिरी बार कब उसने मंगण मां की देह पर उंगलियां फिराई थीं। वह तस्वीर के बगल में सिंधी में लिखता है- 'जालो’। फिर रबर से मिटा देता है। फिर अंग्रेज़ी में लिखता है- 'शी’। फिर उसे भी मिटा देता है। फिर वह अंग्रेज़ी में ही लिखता है- 'मेलन्कली’।

अमरूद की खुशबू पूरे कमरे में फैल जाती है। इतनी बारीक होती है वह खुशबू कि कई बार नाकों की पकड़ में नहीं आती। पर बसरमल उस महक को मीलों दूर से भी पहचान लेता है। वह एक पुराने पन्ने की ओर जाता है। वहां एक पीठ है, और उस पर एक लंबी चोटी लहरा रही है। उसके पीछे एक पन्ने पर किसी बच्चे के पैर हैं और एक फुटबॉल। उसके किनारे लिखा है-

उसका आना तय था बहुत पहले से
वह आज भी इंतज़ार कर रही है

वह उन पैरों के आसपास दो जोड़ी पैर और बनाता है। एक ने पैंट और बूट पहने हैं, दूसरे ने सलवार और चप्पल। फैमिली पूरी हुई।

मंगण मां भीतर से लंबी पाइप लेकर निकली। रबर की पीली पाइप, जो करीब चालीस फुट की होगी। उसने उसका एक सिरा वॉश बेसिन के नल में लगाया है और दूसरा सिरा पकड़कर खींच रही है। वह उसे बाहर लेकर जाएगी। सामने की सड़क धोएगी।

'सड़क को क्यों धोना भई? वैसे ही वहां से पब्लिक निकलती है।’

मंगण मां फिर बसरमल की तरफ उसी तरह देखती है, जैसे सुनी हुई बात को एक बार और सुनने की इच्छा हो। कमर झुकाए धीरे-धीरे बाहर निकल जाती है।

बसरमल ड्राइंग की किताब में और पीछे जाता है। वहां एक खिड़की बनी है। जैसे पूरा पन्ना एक दीवार हो और उस पर एक खिड़की। अधूरी-सी। उसमें एक ही पल्ला है। दूसरा कहीं गिर गया या बनाया नहीं गया। खिड़की पर जाली है, जिस पर बड़े-बड़े फूल बने हैं। वह जाली के बीच बची सफेद जगह पर तिरछी पेंसिल से पतली-पतली लकीरें भरने लगता है। थोड़ी देर बाद एक पन्ने पर जाकर रुक जाता है। वहां किताबों की रैक है, जिसमें किताबें नहीं हैं। वे नीचे फर्श पर बिखरी हुई हैं। उसके किनारे लिखा है,

एक डॉट यानी फुल स्टॉप
तीन बार डॉट डॉट डॉट यानी
चीज़ें अभी खत्म नहीं हुईं
जिंदगी जारी है

किताबों की बगल में वह एक बोरी बनाता है। उसकी बगल में एक और बोरी। फिर एक और। फिर एक कुदाल। फिर कुछ ईंटें। ईंटें, ईंटों जैसी नहीं दिखतीं। वह उन्हें मिटा देता है। फिर वह बोरियों को मिटा देता है। फिर कुदाल को। फिर रैक को। फिर किताबों को। वह सब कुछ मिटा देता है। पूरे पन्ने को फिर से सादा बना देता है।

दराज़ से वह नया इरेज़र निकालता है और पूरी ड्राइंग बुक को सादा करने पर जुट जाता है।

उसे नहीं याद, यह आदत उसमें कब और क्यों आई। वह एक ड्राइंग बुक लेता है, उसमें कुछ समय तक तस्वीरें बनाता है और कुछ समय बाद सबको मिटा देता है। फिर उन्हीं पन्नों पर कुछ और बनाता है। तब तक, जब तक कि वे पन्ने इस लायक बचे रहें।

वह एक पेंसिल बन जाना चाहता है, ताकि इस दुनिया की आकृति में कुछ ज़रूरी रेखाएं जोड़ दे।

वह एक इरेज़र बन जाना चाहता है, ताकि इस दुनिया की आकृति से कुछ फालतू रेखाएं मिटा दे।

या एक खिड़की। या एक गेंद। या एक बच्चा। या एक स्त्री। वह बसरमल बनना छोड़ बाकी कुछ भी बन जाना चाहता है।

बाहर आकर मंगण मां के पास बैठ जाता है। वह पानी के फव्वारा से सड़क धो रही है। उसकी धोई हुई सड़क से फटफट करती एक मोटरसाइकल गुज़रती है। मंगण मां बुदबुदाने लगती है। मेहनत का ज़ाया होना उसे बुरा लगता है।

बसरमल कहता है, 'उसका फोन फिर आया था। वही सारी बातें। पर मैं नहीं बेचना चाहता।’

मंगण मां उसकी तरफ नहीं देखती।

वह उसके हाथ से पानी की पाइप ले लेता है और खुद भी वहीं बैठकर सड़क धोने लगता है।

(कहानी सिमसिम का एक अंश)


 

Friday, November 12, 2010

आदत बदस्‍तूर





लिखने की आदतें के बाद कुछ मित्रों की चाह थी कि मैं अपनी आदतों के बारे में भी लिखूं. ऐसा करना आसान नहीं होता, क्‍योंकि आदतें इसीलिए आदतें होती हैं कि उन्‍हें आप ख़ुद नहीं पहचान पाते. कोई न कोई, कभी, दर्ज या अ-दर्ज तरीक़े से आपको टोकता है, टोक कर आपका ध्‍यान उसकी ओर ले जाता है और तब आप पाते हैं कि हां, यह तो सही कह रहा है, मैं तो ऐसा ही करता हूं. आदत अच्‍छी लगी, तो आप ज़ाहिरा तौर पर मान जाते हैं. अच्‍छी नहीं लगी, तो मुकर भी जाते हैं, फिर भी आदत बदस्‍तूर रहती है. 

जैसे पॉल ऑस्‍टर से किसी ने पूछा, अब लैपटॉप्‍स का ज़माना आ गया है, आप अभी भी अपने पुराने टाइप राइटर पर ही क्‍यों लिखते हैं? ऑस्‍टर कुछ देर सोच में पड़ गए और बोले, मैंने यह बात सोची ही नहीं थी कि मुझे लैपटॉप पर शिफ़्ट हो जाना चाहिए. निश्चित ही उन्‍हें अहसास होता होगा, जैसा कि उन्‍होंने बाद में कहा भी कि कंप्‍यूटर पर कॉपी एडिट करना ज़्यादा आसान होता है, लेकिन उनकी आदत में कंप्‍यूटर नहीं घुसता, तो नहीं घुसता. ड्राफ़्ट फ़ाइनल होने तक वह हर बार पूरी स्क्रिप्‍ट को फिर से टाइप करते हैं. यानी दस बार करेक्‍शंस किए, तो दस बार टाइपिंग. मैं सोचता हूं कि इस तरह न्‍यूयॉर्क ट्रायलॉजी पूरा करने में उन्‍हें कितना वक़्त लगा होगा.

पर मैं ऐसा नहीं करता. मेरी आदतें अभी भी बहुत मिली-जुली हैं और की-बोर्ड के कारण लंबे समय तक क़लम का साथ छूटे रहने के बाद भी पिछले कुछ बरसों में मेरा यह पक्‍का विश्‍वास हो गया है कि फा़इनल होने से पहले प्रिंट आउट्स पर क़लम के निशान होने ही चाहिए. कॉपी राइटिंग और एडिटिंग दोनों तरह से हो. पहले जितना कुछ ऑनलाइन हो सकता हो, उतना. फिर ऑफ़लाइन क़लम से. वह भी अपनी पसंदीदा हरी स्‍याही से. या फिर बैंगनी स्‍याही से. बिना लाइन वाले सादे काग़ज़ों पर. पॉल ऑस्‍टर की आदत दूसरी है. वह अपना सारा लेखन चार लाइन वाली नोटबुक में करते हैं, जैसी नोटबुक्‍स छोटी क्‍लासों में बच्‍चों को अंग्रेज़ी और कर्सिव में महारत के लिए दी जाती हैं. 

हालांकि मैं अपनी आदतों की तफ़सील में नहीं जाऊंगा, क्‍योंकि वह ख़ुद को भी अटपटा ही लगेगा और मैं देर तक सिर्फ़ अपने बारे में बोल भी नहीं पाऊंगा, दो-चार लाइनों बाद ही उसमें मेरे प्रिय लेखकों के प्रसंग आने लग जाएंगे. जैसा कि ऊपर के पैराग्राफ़ में ही हो गया है. 

कविता और कहानी लिखने के तरीक़े भी अलग-अलग हैं. छोटी और स्‍वत:स्‍फूर्त कविताएं एक बार में लिख ली जाती हैं, अगर उस समय कंप्‍यूटर पर हों, तो तुरंत टाइप हो जाता है, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है. कविताएं अचानक आती हैं, कई बार लंबे समय से दिमाग़ में चल भी रही होती हैं, लेकिन उन्‍हीं के बीच कोई अप्रत्‍याशित आती है. तब मेरी कोशिश होती है कि उसे पेंसिल से लिख लूं. और वे कुछ-कुछ पंक्तियों में होती हैं. तब जो किताब सामने है, उसके हाशिए पर, या अंत में प्रकाशक द्वारा फर्मे की सहूलियत के लिए छोड़े गए सादे पेजों पर नोट कर लेता हूं. फिर अगली फ़ुरसत में वे पेंसिल से ही डायरी या नोटपैड के सादे पेजों में चली जाती हैं, वहां जमा होती रहती हैं. कई बार इस तरह जमा होती रहती हैं कि बाद में पढ़ने पर यह समझ में नहीं आता कि यह पंक्‍ित क्‍यों लिखी थी. ख़ैर. कुछ कविताएं, पंक्‍ितयां देरी से खिलने वाले फूलों की तरह होती हैं. वे वैसी ही होती हैं, तो होती हैं. आप कुछ नहीं कर सकते. हां, उन पर ज़ोर-आज़माइश ज़रूर कर सकते हैं. इसी दौरान मैं एक बार उन्‍हें टाइप कर लेता हूं, प्रिंट ले लेता हूं और फिर उन पर काम. (कविता पर काम करना चाहिए या नहीं, मैं इस पर कुछ पंक्तियों बाद आऊंगा. यह एक दिलचस्‍प सवाल है, क्‍योंकि कई मित्र पर इस पर आपत्ति करते हैं, उनका मानना है कि कविता एक बार में ही जैसी लिखी जाए, वैसी ही होनी चाहिए, उस पर काम करने का अर्थ है कविता के आगमन के क्षणों की मन:स्थितियों या म्‍यूज़ का अनादर करना. मेरी नज़र में ऐसा नहीं है.)

काम का यह सिलसिला चलता ही रहता है. जब तक कि उससे एक ख़ास कि़स्‍म की विरक्ति न हो जाए. यहां विरक्ति, आसक्ति का ही समानार्थी है, जैसे मैंने पहले भी कई बार अतीत को भविष्‍य का समार्थी माना है. और समार्थी का संधि-विच्‍छेद मुझे एक और अर्थ देता है, वह है 'सम पर पहुंचाने वाला अर्थ.' जैसे मेरी एक कविता है 'माउथ ऑर्गन'. मैंने उसे सबसे पहले 97 में लिखा था, और बाद के बरसों में वह नोटपैड में यूं ही पड़ी रही. बीच के छह बरसों में जब मैंने लिखना लगभग बंद ही कर दिया था, तब मैं बीच-बीच में उसमें चला जाता, उसमें कुछ खदड़-बदड़ कर देता, जैसे सिम पर रखी हुई सब्‍ज़ी को आप जांचने के लिए उसमें यूं ही कलछुल फिरा दिया करते हैं. पर उससे कुछ हुआ नहीं. कविता की मूल संरचना और रेंज पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. दस साल बाद मैंने उसे टाइप किया और उसके प्रिंट पर काम करना शुरू किया, और तब मैं शायद उसके आरोह को छू पा रहा था,  मुझे यह नहीं याद था कि पहली बार मैंने उसे क्‍या सोचकर लिखना शुरू किया था, लेकिन दस साल बाद मैंने पाया कि इसकी कुछ पंक्तियों में अभी भी धड़कन बाक़ी है. और उसी धड़कन को और ज़्यादा पंप करने की ज़रूरत है. और यह तब तक चलता रहा, जब तक कि मैंने अपने संग्रह का आखि़री प्रूफ़ नहीं पढ़ लिया. उसमें तब भी बहुत बदलाव हुए थे. और वह संग्रह की उन कुछेक कविताओं में से है, जिनका पहले कभी प्रकाशन हुआ ही नहीं था. इन सबका अर्थ यह नहीं कि वह एक बहुत बड़ी और महान कविता हो गई, क्‍योंकि अब भी मैं उसमें अपने स्‍टैंटर्ड्स पर नहीं पहुंच पाया हूं. जब मैं रचनाओं से जुड़े हुए पृष्‍ठभौमिक तथ्‍यों के बारे में बात करता हूं, तो दरअसल रचना की रसोई की एक यात्रा करने जैसा होता है. चूंकि हमारे यहां रचनाओं की फिजि़क्‍स पर बात करने का कोई चलन ही नहीं है, सो इसे तुरंत एक नकरात्‍मक प्रवृत्ति की तरह देखा जाता है कि अरे देखो साब, फलां की एक किताब अभी छपी नहीं कि वह यह गिनाने लग गए हैं कि यह पांचवां ड्राफ़्ट है, इसे लिखने में मुझे चार साल लग गए या ब्‍ला-ब्‍ला. जबकि यह तो महज़ उसके फिजि़क्‍स का एक फ़ैक्‍ट है, जिसे लेखक उतनी ही सहजता से बताता है, जितना कि वह अपनी रचना में जाता है. सहजता एक दुर्लभ गुण है, केवल लेखक के रूप में ही नहीं, पाठक और साथी लेखक के रूप में भी हमें इसे सहर्ष, सगर्व आरोहित करना चाहिए. इसे एक लेखक की इन्‍वॉल्‍वमेंट के रूप में भी देखा जाना चाहिए. 

इसी सिलसिले में मुझे एक बार फिर विलियम फॉकनर याद आते हैं. उनसे एक बार पूछा गया कि आप अपनी किस किताब को सबसे ज़्यादा पसंद करते हैं. उनका जवाब था, 'जिस किताब ने लिखने के दौरान मुझसे सबसे ज़्यादा संघर्ष कराया हो, जिसने सबसे ज़्यादा रुलाया हो, सबसे ज़्यादा मेहनत कराई हो. मैं अपनी रचनाओं की गुणवत्‍ता को इसी आधार पर मापता हूं. जैसे कि एक मां अपने उस बच्‍चे से सबसे ज़्यादा प्रेम करती है, जो उसकी बात नहीं मानता, बड़ा होकर अपराधी बन जाता है या चोरी-हत्‍याएं करने लगता है. मां को पता है कि अच्‍छा बेटा तो अच्‍छा ही है, वह बुरे काम नहीं करेगा, लेकिन यह जो बुरा बेटा है, इसे ज़्यादा प्‍यार करो, क्‍योंकि प्‍यार के कारण इसके सुधर जाने की संभावनाएं बची रहेंगी. उसी तरह एक लेखक अपनी सबसे शैतान, बदमाश, चंचल कृति की ओर देखता है.' उन्‍होंने 'द साउंड एंड द फ़्यूरी' को इसी श्रेणी में रखा, जिसे उन्‍होंने पांच अलग-अलग तरीक़ों से लिखा था और उम्र के आखि़री बरसों में बाक़ी चार वर्शन्‍स को भी छपवा देने के बारे में विचार किया था. और जहां तक मुझे याद पड़ता है, एक निबंध में उन्‍होंने बताया था कि इसका अंत उन्‍होंने पैंतीस से ज़्यादा बार लिखा था. इससे थोड़ा-सा कम काम उन्‍हें 'ऐज़ आय ले डाइंग' पर करना पड़ा था. और यहां यह कहना दिलचस्‍प होगा कि फॉकनर के जिस 'योक्‍नेपटाफ़ा' ने आगे चलकर माकोंदो और मालगुड़ी की रचना में प्रेरक भूमिका निभाई, छपकर आने के बाद उनके इस उपन्‍यासों पर कम ही लोगों ने ध्‍यान दिया था. 

हर लेखक अपने लिए लिखने का एक समय तय कर लेता है, लगभग, वह उसी समय लिखेगा या उस समय लिखने को लेकर ज़्यादा आरामदेह महसूस करेगा. जैसे कुछ ड्यूटी अवर्स की तरह नौ से पांच का समय चुन लेते हैं, कुछ दोपहर का. ज़्यादातर लोग सुबह जल्‍दी उठकर लिखते हैं. रॉबर्ट ब्‍लाय मेरे प्रिय अंग्रेज़ी कवियों में हैं और उनके ग़ालिब के अनुवादों को कई बार मैं इस शायर को आज दिनांक में समझने के लिए गाइड की तरह देखता हूं, उनकी सुबह लिखने की आदत हैरान करती है. वह सुबह पांच बजे उठते हैं, बिस्‍तर छोड़ने से पहले ही वह काग़ज़-क़लम लेकर एक कविता लिखते हैं. हर सुबह बिला नागा. जैसे सुबह की चाय. और पिछले पचास साल से वह हर सुबह ऐसा ही करते हैं. उनकी सुबह लिखी कविताओं का संग्रह 'मॉर्निंग पोएम्‍स' नाम से संकलित भी है. 

मेरे लिए सबसे आरामदेह समय रात का होता है, रात ग्‍यारह बजे के बाद. मुझे अंधेरा चाहिए. तेज़ रोशनी से मेरा माइग्रेन भड़क उठता है और मैं जिन चीज़ों से सबसे ज़्यादा डरता हूं, उनमें यह माइग्रेन भी है. दिन में कोई कमरा ऐसा नहीं होता, जहां पूरी तरह अंधेरा हो, और दिन में घर रहा भी नहीं जाता, काम पर जाना होता है. सो रात का समय सुविधाजनक होता है. नौकरी के घंटे बदलते-बढ़ते रहते हैं, इसलिए यह बैठक कई बार अनिश्चित हो जाती है. कई बार लंबा स्‍थगन. ऐसा सबके साथ होता होगा. एक दिन आप एक शब्‍द भी नहीं लिख्‍ा पाते और किसी दिन पूरे हज़ार शब्‍द लिख जाते हैं. इसका कोई औसत या हिसाब नहीं. हेमिंग्‍वे जैसे लोग अपवाद हैं. उनकी डेस्‍क के सामने एक चार्ट लगा होता था, जिसमें वह हर रोज़ नोट करते थे कि आप कितने शब्‍द लिख लिए. कभी साढ़े छह सौ तो कभी पंद्रह सौ. हर रोज़ के चार्ट के बाद वह महीने का औसत निकालते थे और अगर वह ठीकठाक रहा, तो ख़ुश होते थे, वरना कलपते थे, ख़ुद को कोसते थे और अपना औसत बढ़ाने की कोशिश करते थे.

बैठक से जुड़े हुए नखरे भी हैं. जैसे मैं थर्मस में चाय बनाकर अपने साथ रखता हूं. कई बार अलग-अलग तरह की चाय. रेगुलर, ग्रीन और लेमन तीनों. मूड अच्‍छा हुआ और माइग्रेन का ख़तरा न रहा, तो कॉफ़ी. यहां जैक केरुआक की याद आती है. वह लिखते समय खाने की कुछ चीज़ें लेकर बैठता था. हालांकि कई लोगों को निरर्थक लगेगा यह सब, क्‍योंकि एक तरह से आप क्‍या लिख रहे हैं, बहुत महान या कचरा लिख रहे हैं, इन सब बातों का इससे कोई लेना-देना नहीं, और मैं अभी कंटेंट पर बात कर भी नहीं रहा, अलबत्‍ता कंटेंट भी एक आदत ही होता है, ऐसा मेरा मानना है, फिर भी यह ज़रूर कि सारी कलाएं या लेखन एक नशे की तरह ही होता है और सारी आदतें नशों में ही तब्‍दील हो जाती हैं, वे अपने आप होने लगती हैं, इसलिए वे अनजाने ही एजेंट प्रोवोकेटर की भूमिका ले लेती हैं. 

कहानी पर काम करने की आदतें अलग हैं, कविताओं से अलग, उन पर कभी अगली बार बात करेंगे. इस समय 'काम करना' पर अटकाव है. क्‍या एक लेखक को अपनी रचनाओं पर काम करना चाहिए? यानी जब रचना स्‍वत:स्‍फूर्त तरीक़े से ख़ुद को लिखवा ले जाती है, तो क्‍या सायास उसकी तराशना, मरम्‍मत, पुनर्लेखन आदि करना चाहिए? कला निजी आदत और निजी अनुभव है, इसलिए उसका कोई नियम तो होता नहीं, हर कलाकार अपने लिए कुछ सरणियां तैयार करता है और उन्‍हीं के आधार पर इस प्रश्‍न से जूझता है. मुझे बाबा बोर्हेस बहुत पसंद हैं और उनकी कही बातें न केवल लेखक, बल्कि किसी भी कलाकार के लिए दिशासूचक होती हैं, लेकिन उनकी कुछ बातों से मैं कभी सहमत नहीं हो पाता, उनमें से एक यह है कि वह कहते हैं, जब आप अपनी रचनाओं पर बार-बार काम कर रहे होते हैं, तो ज़रूरी नहीं कि आप उसकी सुंदरता बढ़ा ही रहे हों, ज़्यादातर मौक़ों पर आप उसे बर्बाद कर रहे होते हैं. बाबा को ऐसे अनुभव हुए होंगे, जो वह ऐसा कहने पर विवश हुए, पर मेरे अनुभव अलग हैं. 

मैंने पिछले दिनों आर्ट ऑफ नॉवल पर कुछ बेहतरीन चीज़ें पढ़ी हैं, और उन्‍हें पढ़ते हुए ऐसे कई मुद्दों पर मैं अपनी राय से संतुष्‍ट भी हुआ. मैंने पहले भी कहा है कि कला स्‍वत:स्‍फूर्त नहीं होती, वह अत्‍यंत नियंत्रित अभिव्‍यक्ति है. स्‍वत:स्‍फूर्त होना सिर्फ़ एक भ्रम है. आप अपने चेतन में या अवचेतन में उसके बारे में सोचते रहते हैं, उसे पा लेना चा‍हते हैं, और पा लेते हैं. कुछ चीज़ें अनायास आपके पास आ जाती हैं, लेकिन वे इसलिए आती हैं कि कुछ दूसरी चीज़ें उनके लिए ज़मीन तैयार कर देती हैं. गेंदबाज़ी इसके लिए बढि़या उदाहरण है. बॉलर जानता है कि उसे इनस्विंग करानी है, तो बॉल को कहां टप्‍पा दिलाना होगा, कलाई को कैसे झटकना होगा. वह इन‍स्विंग फेंकना चाहता है, सो फेंकता है. यही उसका नियंत्रण है. इनस्विंग फेंकने की इच्‍छा के बावजूद अगर वह आउटस्विंग फेंक देता है, तो वह असफल है, अनियंत्रित है, कलाहीन है. भले उस आउटस्विंग पर उसे विकेट मिल जाए, लेकिन वह ख़ुद जानता है कि वह ग़लत है. संभव है कि अगली बार उसे इस ग़लती का खामियाजा भुगतना पड़े. वह एक स्‍वत:स्‍फूर्त गेंद का इंतज़ार नहीं कर सकता. उसकी एक चाही हुई इनस्विंगर अगर उसकी उम्‍मीद से ज़्यादा स्विंग हो जाती है, तो भी यह स्‍वत:स्‍फूर्त नहीं है, क्‍योंकि इसमें पिच का वह गड्ढा या पैच मददगार है, जो एक्‍स्‍ट्रा टर्न दे देता है या वह हवा जो गेंद पर सहायक रहम करती है. आज जितनी भी कलाएं हैं, उनमें बॉलिंग से ज़्यादा कलात्‍मक उदाहरण नहीं मिल सकता, कलात्‍मक नियंत्रित अभिव्‍यक्ति का.  और इस नियंत्रण के लिए उसे लगातार काम करना होता है, अभ्‍यास करना होता है. लेखक का काम करना गेंदबाज़ के काम करने से थोड़ा ज़्यादा कठिन है, क्‍योंकि लेखक को नतीजा तुरंत नहीं मिलता, बरसों लग जाते हैं, जबकि गेंदबाज़ अगले कुछ मिनटों में जान लेता है कि कितना परसेंट डिलीवर हुआ. 

ओरहन पमुक की नई किताब इसी किस्‍म के विषयों को छूती है. यह है हार्वर्ड में उनके लेक्‍चर्स का संग्रह, जो कुछ दिनों पहले ही रिलीज हुआ है- 'द नाइव एंड द सेंटीमेंटल नॉवलिस्‍ट'. फ्रे‍डरिक शिलर नामक दो सदी पुराने एक जर्मन लेखक के एक निबंध को आधार बनाकर उन्‍होंने लेखकों की दो श्रेणियां बनाई हैं- पहली नाइव, जो सीधा-सादा, भोला-भाला है, जो उन्‍हीं चीज़ों में यक़ीन करता है, जो उसके पास अपने पैरों पर चलकर आ जाती हैं. और दूसरी श्रेणी है- सेंटीमेंटल, जो बहुत रिफ्लेक्टिव होता है. वह अपने तरीक़े से सोचता है, और अपने इमोशंस और रिफ्लेक्‍शंस के सहारे उसमें इनोवेट करते जाता है. आधुनिक समय का अच्‍छा लेखक दोनों ही तरीक़ों के मिश्रण से बनता है.   

यह किताब पमुक के सबसे सुंदर कामों में से है, जो रचना-प्रक्रिया और पाठकीय-प्रक्रिया की कई अंधेरी गलियों को रोशन करती चलती है. इनके अलावा मिलान कुंडेरा की नई किताब 'एनकाउंटर' भी है, जो आर्ट ऑफ फिक्‍शन को विश्‍लेषित करने वाली उनकी सीरिज का नया हिस्‍सा है. पुरानी तीन किताबें हैं 'द आर्ट ऑफ़ नॉवल', 'टेस्‍टामेंट्स बीट्रेड' और 'द कर्टेन'. मेरी कोशिश होगी कि अगली पोस्‍ट्स में मैं इन पांचों किताबों पर बात करूं. 



Tuesday, November 9, 2010

कैट्स इन द क्रैडल





लिखने कुछ और बैठा था, लेकिन मन इस पुराने गाने में अटक गया है. कुछ गाने लगातार आपके साथी बन जाते हैं, कुछ धुनें भी. वे आपके भीतर इस क़दर बस जाती हैं कि कब आपके मुंह से निकल पड़ें, आपको अंदाज़ा भी नहीं होता. कई बार आपकी पहचान भी उसी धुन से ही बन जाती है. वह उस धुन में ऐसे खो जाता है कि कब उस धुन को फेरबदल कर अपनी धुन बना लेता है, उसे भी नहीं पता चलता. जैसे मैंने अपने पिताजी को आज तक सिर्फ़ एक ही गाना गुनगुनाते हुए सुना है- मुबारक बेगम का 'कभी तनहाइयों में यूं हमारी याद आएगी'. वह अब भी जब तल्‍लीन होकर कुछ कर रहे होते हैं, तो यही गुनगुनाते हैं. मैंने कई बार पूछा है कि वे किसकी तनहाइयों में जाकर अपनी याद दिला आना चाहते हैं, हमेशा की तरह वह हा-हा-हा कर देते हैं. वह बहुत अच्‍छी बांसुरी बजाते हैं, तबला बजाते हैं, माउथ ऑर्गन भी. हैं कहूं या था, क्‍योंकि आखि़री बार उनसे यह सब सुने हुए भी दस से ज़्यादा साल होने को आए. किसी ज़माने में सितार पर उनका अच्‍छा हाथ था, यह भी जानने वालों से ही सुना है, उन्‍हें बजाते हुए नहीं सुना. वह संगीत में डूबे हुए धुनी इंसान थे, पर अब गाने की (या किसी भी कि़स्‍म की) ज़रा-सी ऊंची आवाज़ भी उनका ब्‍लडप्रेशर बढ़ा देती है. फिर भी कभी-कभार मुबारक बेगम उनके होंठों पर आ जाती है. कितना अचरज भरा लगता है कि एक इंसान किसी एक धुन के सहारे, एक गीत के सहारे अपना ज़्यादातर जीवन गुज़ार दे.

मुबारक बेगम का वह गीत कब मेरे भी पसंदीदा गीतों में शामिल हो गया, मुझे नहीं पता. यहां उसका चर्चा तो पिताजी के संदर्भ में आ गया, उस गीत को याद करने का काम मेरे दोस्‍तों राजकुमार केसवानी और यूनुस ख़ान के जि़म्‍मे, पर जिस गीत में मेरा मन अटका हुआ है, वह है अग्‍ली किड जो का कैट्स इन द क्रैडल. 1992 में जब अमेरिकाज़ लीस्‍ट वांटेड रिलीज हुआ था और इसके दो गाने बिजी़ बी और कैट्स इन द क्रैडल ने एमटीवी पर धूम मचा दी थी, तो मैंने ठाणे पश्चिम में स्‍टेशन से बिल्‍कुल लगी हुई, म्‍यूजि़क की उस समय की सबसे बड़ी दुकान, गणेशा म्‍यूजि़क सेंटर से तुरंत यह कैसेट ख़रीदा था. क़ीमत थी 95 रुपए. अब वह कैसेट मेरे पास नहीं है, लेकिन उसका कवर, उसकी मोटाई, उसे सुनते समय हुए अनुभव और उसके गानों के शब्‍द अब तक याद हैं. और 'कैट्स इन द क्रैडल' तो अब तक का साथी बना हुआ है. 

यह गाना ओरिजिनली अग्‍ली किड जो  का नहीं है, हैरी चैपिन का है. बहुत समय बाद जाकर यू-ट्यूब पर चैपिन वाला वर्शन सुना, लेकिन मैं दुनिया के उन बहुतेरे लोगों में शुमार हूं, जो यह मानते हैं कि किड्स ने चैपिन के सुंदर गाने को और सुंदर बना दिया. उसे एकदम से नया कर दिया. शायद मेरे ऐसा मानने के पीछे यह कारण हो कि मैंने बहुत लंबे समय तक सिर्फ़ किड्स वाला वर्शन ही सुना था और मेरे दिल के क़रीब वो ज़्यादा है. दिल तो दिल है, क़ुरबत बिना किसी शर्त के कर लेता है. यह एक पिता की तरफ़ से गाया गया गाना है, जो अपने बेटे को समय नहीं दे पाता. और एक दिन पाता है कि अब बेटा भी उसे समय नहीं दे पाता. 

मेरे पिताजी ने मुझे भरपूर समय दिया, भरपूर प्‍यार दिया, लेकिन फिर भी इसे सुनते हुए हर बार उनकी याद आ जाती है. यह गाना आप ही के लिए, डैड! 



Cats in the cradle
Ugly Kid Joe

My child arrived just the other day
came to the world in the usual way
but there were planes to catch
and bills to pay
he learned to walk while I was away
he was talking for a minute
and as he grew
he'd say I'm gonna be like you Dad
you know I'm gonna be like you

And the cats in the cradle
and the silver spoon
little boy blue and the
man on the moon
when you comin' home Dad
I don't know when
we'll get together then
you know we'll have
a good time then

Well my son turned ten
just the other day
he said thanks for the ball Dad
come on let's play
can you teach me to throw
I said not today - I got a lot to do
he said that's o.k.
and he walked away and he
smiled and he said
you know I'm gonna be like him yeah
you know I'm gonna be like him

And the cats in the cradle ...

Well he came from college
just the other day
so much like a man I just had to say
I'm proud of you could you
sit for a while
he shook his head
and he said with a smile
what I'd really like Dad
is to borrow the car keys
see you later can I have them please

And the cats in the cradle ...

I've long since retired
my son's moved away
I called him up just the other day
I'd like to see you if you don't mind
he said
I'd love to Dad
if I could find the time
you see my new job's hassle
and the kids have the flu
but it's sure nice talking to you Dad
it's been sure nice talking to you
and as I hung up the phone
I occured to me
he'd grown up just like me
my boy was just like me

And the cats in the cradle ...

And the cats in the cradle ...


Saturday, October 23, 2010

लिखने की आदतें

टाइम ने इस बार जोनाथन फ्रैंजन पर कवर स्‍टोरी दी है. बरसों बाद कोई लेखक टाइम के कवर पर आया है. फ्रैंजन का नाम सुना है, पर उसकी कोई किताब पढ़ी नहीं है. टाइम ने उस पर बढि़या लिखा है, ऐसा कि उसे पढ़ने की दिलचस्‍पी जग गई. इसी में पढ़ा कि एक लंबे राइटर्स ब्‍लॉक के दौरान जब फ्रैंजन कुछ नहीं लिख पा रहे थे, तो उन्‍होंने तंबाकू खाना शुरू कर दिया. यह आदत उनके लेखक दोस्‍त डेविड फॉस्‍टर वैलेस में थी. वैलेस की आत्‍महत्‍या के बाद वह आदत उनमें आ गई. उनकी एक और आदत के बारे में इसी से पता चला कि जब वह लिखते हैं, तो अपने पुराने डेल के लैपटॉप के आगे ज़ोर-ज़ोर से अपने डायलॉग्‍स बोलते हैं. छह घंटे के लेखन-सेशन के बाद उनका गला बैठ जाता है और यह लगभग रोज़ की बात है. उनका कहना है, ऐसा करने से उनके डायलॉग्‍स सरल, सहज, अमेरिकी बोलचाल की भाषा में हो जाते हैं. वे फिलिप रॉथ के डायलॉग्‍स को किताबी मानते हैं. लिखते समय अपना लिखना उच्‍चारने की आदत फॉकनर में भी थी. 

राइटर्स ब्‍लॉक से जूझने का लेखकों का तरीक़ा कई बार अद्भुत होता है. जैसे हारुकि मुराकामी ने तो पूरी एक किताब ही इस पर लिख दी है. उनके संस्‍मरणों की किताब व्‍हाट आय टॉक व्‍हेन आय टॉक अबाउट रनिंग   दौड़ने की उनकी आदत के बहाने की उनकी रचना-प्रक्रिया की पड़ताल है. अपनी किताबों के कई हिस्‍से उन्‍होंने इसी तरह दौड़ते हुए ही सोचे हैं. 

लिखते समय की कई अजीब आदतें हैं लोगों की. कई तो इतने अनुशासित होते हैं कि कल जहां छोड़ा था, वहीं से आज शुरू कर दिया. जैसे सलमान रूश्‍दी. वह सुबह उठने के बाद पहला काम जो करते हैं, वह है लिखना. टेबल पर पहुंच गए. कल क्‍या-क्‍या, कितना लिखा था, उसे पढ़ डाला. फिर आगे लिखने बैठ गए. तीन घंटे लिखने के बाद फ्रेश होने जाएंगे. फिर दुनियादारी. शाम को पेज तीन वाली जि़ंदगी में घुसने से पहले एक बार फिर पढ़ेंगे कि सुबह क्‍या-क्‍या लिखा था. फिर अगली सुबह छुएंगे. कोई करेक्‍शन हुआ, तो वह भी अगली सुबह. मिडनाइट्स चिल्‍ड्रन  लिखते समय वह नौकरी पर थे. पांच दिन नौकरी करते थे, पांचवीं शाम घर पहुंच घंटा-डेढ़ घंटा गरम पानी से नहाते, फिर लिखने बैठ जाते. सोमवार की सुबह तक सोते-जागते लिखते, फिर अपने काम पर चले जाते, पांच दिन के लिए. 

ओरहन पमुक ने अदर कलर्स  में बहुत दिलचस्‍प कि़स्‍से लिखे हैं अपनी ऐसी आदतों के बारे में. एक निबंध में वह कहते हैं- उन्‍हें घर में लेखन करना अजीब लगता था. उन्‍हें हमेशा एक दफ़्तर चाहिए होता, जो घर से अलग हो, जहां वह सिर्फ़ लिख सकें. (यह आदत कई लेखकों की रही है. इसके लिए उन्‍होंने घर के पास या तो कोई फ़्लैट ख़रीद लिया या किराये पर ले लिया और वहां काम किया.) ख़ैर, पमुक घर में लिखने की मजबूरी से अलग ही ढंग से निपटे. वह सुबह उठते, नहाते-धोते, नाश्‍ता करते, बाक़ायदा फॉर्मल सूट पहनते और पत्‍नी से यह कहकर कि अब मैं ऑफिस जा रहा हूं निकल पड़ते, पंद्रह-बीस मिनट सड़क पर टहलने के बाद वह वापस घर  लौटते, अपने कमरे में घुसते, और उसे अपना ऑफिस मान लिखने लग जाते. 

सुनने-पढ़ने में यह जितना आसान लग रहा है, उतना होता नहीं होगा. मैंने कुछ दोस्‍तों को यह तरीक़ा बताया है, और वे अब तक ऐसा नहीं कर पा रहे. घर पहुंचने के बाद घर, उन्‍हें हर तरह से घर ही लगता है. अब हम लोग जो घर में ही लिखते रहे हैं, लिख लेते हैं, लेखन के लिए दफ़्तर वाला चस्‍का लगा नहीं है, सो इस पूरी प्रताड़ना को समझने से भी बचे हुए हैं. लेकिन यह ज़रूर अचरज में डालता है कि ये सारे बड़े लेखक कितनी कमिटमेंट के साथ लिखते हैं. कोई नियमित दिन में बारह घंटे लिखता है जैसे पमुक इस्‍तांबुल के लिए, मारकेस सॉलीट्यूड के समय और बाद में भी सुबह नौ से दोपहर तीन बजे तक लिखते थे और उसके बाद पॉपुलर संगीत सुना करते थे. लिखते समय उनकी टेबल पर पीला गुलाब होना ज़रूरी था, यह तो कई बार कही गई बात है. 

पर मुझे सबसे अजीब आदत  हेमिंग्‍वे  की लगती है. वह आदमी खड़े-खड़े लिखता था, बैठकर लिख ही नहीं पाता था. उसने बाक़ायदा अपने लिए स्‍टडी बनवाई थी, लेकिन लिखने का काम बेडरूम में करता था. अपने लिए एक ऐसी डेस्‍क बनवाई थी, जिस पर उसके काग़ज़, टाइप राइटर और तुरंत काम में आने वाली किताबें रखे रहता. एक टांग मोड़कर, दूसरी अकेली टांग पर खड़े रहता. कभी इस पैर पर वज़न डालता, कभी उस पैर पर. इस दौरान पेंसिल से पुराने लिखे काग़ज़ों में करेक्‍शन करता रहता, इस बीच जब उसे लगता कि अब वह रौ में आ गया है, आनन-फानन टाइप करना शुरू कर देता. ओल्‍ड मैन एंड द सी   ऐसे ही लिखा गया है. दूसरे उपन्‍यास भी. एक लंबे राइटर्स ब्‍लॉक से निकलने के लिए उसने यह आदत पैदा कर ली थी, जो ऐसी चिपकी कि उससे अलग हो कुछ लिखा ही न जाता. 

राइटर्स ब्‍लॉक बहुत ख़राब चीज़ होती है. जो न कराए सो कम. जैसे क्रिकेटर फॉर्म खो जाने से ख़ाइफ़ रहते हैं, वैसे ही लेखक ब्‍लॉक से. वैसे, विलियम फॉकनर इस बारे में बहुत ही बेरहम बात करते हैं कि जो लेखक बहुत नखरे करते हैं, लिखने के लिए ढेर सारी मांग करते हैं, मन की शांति से लेकर धन की शांति तक, वे दरअसल फर्स्‍ट रेट लेखक होते ही नहीं, लिखने के लिए तो सिर्फ़ कुछ सादे काग़ज़ और एक छिली हुई पेंसिल की ज़रूरत होती है. फॉकनर आजोबा की यह सच्‍ची बात माथे पर बल डालने के लिए काफ़ी थी. पर एक दूसरे निबंध में यह भी पढ़ लिया कि इन्‍हीं फॉकनर आजोबा ने यह भी कहा था कि लेखक दिन-भर नौकरी और पैसे के जुगाड़ में लगा रहेगा, तो क्‍या खा़क लिखेगा. (यह उन्‍होंने तब कहा था, जब उन्‍हें पोस्‍ट ऑफिस की एक नौकरी से इसलिए निकाल दिया गया था कि वह ड्यूटी अवर्स में बैठकर किताब पढ़ते पकड़े गए थे.) 

यह सारी बातें तो मुझे इसलिए याद आईं कि कल दिन में किसी दोस्‍त से बात हो रही थी और मैं उसे बता रहा था कि मैंने चैट और एसएमएस करते हुए अपनी कविता या कहानी की पंक्तियां पाई हैं. फिर उन्‍हें पिरोया है. चीज़ों को सब अपनी-अपनी तरह पाते हैं, और कई चीज़ें कई दूसरे लोगों जैसे ही मिलती हैं. कुछ संयोग है, कुछ आदत की बात, कुछ हालात हैं, तो कुछ प्रेरणाओं का दबाव. आखि़र हम सब ही जानते हैं, हिकमत की कविताएं जेल में सिगरेट की डिब्बियों पर लिखी गई थीं.

ऐसी बहुत-सी स्‍मृतियां हैं. कई लेखकों की आदतें याद आ रही हैं. अब बस.  उन पर फिर कभी.  



Sunday, October 17, 2010

धरती पर सबसे अजनबी चीज़






क्या कभी हवा आकर मुझसे कहती है कि मानो, मैं बह रही हूं। मेरे अस्तित्व को मान लो। मेरे महत्व को भी। कभी वह पूछती है कि देखो, मेरे भीतर पानी के कण भी मौजूद हैं, तुमने देखा है कभी? कभी पानी ही आकर यह पूछता है कि मेरे भीतर भी हवा है, जानते हो? 

रात में पेड़ अपनी छांव कहां दे आते हैं? बचाकर रखते हैं? उन पेड़ों के लिए जो अपने पत्तों से विरत हो चुके हैं? 
ऐसे ही आत्मा आकर कभी नहीं बताती।

कहीं पढ़ा था कि आत्मा इस धरती पर सबसे अजनबी चीज़ है।

***

एक बार नबोकोव एक क्लास में थे। टॉल्स्टॉय पर उनका लेक्चर था। वह बार-बार समझाना चाह रहे थे कि टॉल्स्टॉय का एसेंस क्या है। तभी उन्होंने क्लास की खिड़की के परदों को हटा दिया। तेज़ रोशनी भीतर आई। कमरा पूरी तरह रोशन हो गया। नबोकोव ने कहा, एग्जैक्टली, मैं यही बताना चाहता था, टॉल्स्टॉय यही हैं। अचानक आई इस रोशनी की तरह।

***

एक फिक्शन राइटर के तौर पर हमें यह कोशिश कभी नहीं करनी चाहिए कि हम अपने कैरेक्टर्स के साथ सिम्पैथी का खेल खेलें। लिखते समय सहानुभूति से दूर रहें। यह पाठक का औज़ार है। 

***

जब आप नहीं लिख रहे होते, तब आप क्या कर रहे होते हैं? मैं ज़्यादातर समय नहीं लिख रहा होता। ज़्यादातर मैं पढ़ रहा होता हूं, संगीत सुन रहा होता हूं, कोई फिल्म देख रहा होता हूं या यूं ही नेट सर्फ कर रहा होता हूं। मैंने पाया है, ईमानदारी से, कि जिन वक्तों में मैं नहीं लिख रहा होता, वह मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि असल में मैं उन्हीं वक्तों में लिख रहा होता हूं।

जब फिलिप ग्लास की आठवीं सिंफनी सुन रहा होता हूं, तो दरअसल, मैं खुद उस सिंफनी की रचना कर रहा होता हूं। इस तरह मैं खुद फिलिप ग्लास बन जाता हूं। जब मैं प्रैसनर को सुन रहा होता हूं, तो किस्लोवस्की बन जाता हूं। मैं उसके सिक्वेंस पढऩे लगता हूं। 

हर कला के मूल में संगीत है। बिना संगीत के किसी कला का अस्तित्व नहीं। सृष्टि चाहे ओम के नाद से बनी हो या बिग बैंग से, वह साउंड ऑफ म्यूजि़क ही रहा होगा।

***

अच्छी चीज़ों का सबसे बड़ा गुण या अवगुण यह है कि आप पर उसका कोई भी असर पड़े, उससे पहले वह आपको भरमा देती है। अच्छी कविता तो सबसे पहले भरमाती है। वह आपके फैसला करने की क्षमता को कुंद करती है और फैसला देने की इच्छा के लिए उत्प्रेरक बन जाती है। वह तुरत आपके मुंह से यह निकलवाती है- यह क्या बला है भला? ऐसा कैसे हो सकता है? फिर वह धीरे-धीरे आपमें प्रविष्ट होती है। यही समय है, जब आपकी ग्रहण-क्षमता की परीक्षा होनी होती है। आप उसे अपने भीतर कितना लेते हैं, इसमें अच्छी रचना का कम, आपका गौरव ज़्यादा होता है। अगर आपको अच्छी चीज़ों की अच्छाई की ऐतिहासिकता का भान पहले से न हो, यानी उसे पढऩे-सुनने-देखने से पहले आपको यह पता न हो कि इसे समय ने बहुत अच्छे की श्रेणी में रखा है, तो आप  नाक सिकोड़ेंगे। उसकी अच्छाई का ज्ञान आपको उसे स्वीकार करने में मदद तो करता है, लेकिन हम कभी यह नहीं पता कर सकते कि उसे अच्छा माने जाने की प्रक्रिया उसे रचने की प्रक्रिया से भी ज़्यादा श्रमसाध्य रही होगी। 

बाज़ दफा, आप कई बार बिना किसी श्रम के भी चीज़ों को अच्छा मान लेते हैं, ऐसा भी होता है।

सही समय पर दी गई दाद, राग और आलाप की श्रेष्ठता से ज़्यादा, श्रोता के संस्कारों का परिचायक होती है।

***

बनैलापन क्या होता है? वाइल्डनेस? किसी को जंगल का शेर वाइल्ड लग सकता है, तो किसी को जंगले में बंद शेर। आर्ट में टेम्ड वाइल्डनेस को ज़्यादा एन्ज्वॉय किया जाता है, क्योंकि वह उपस्थित में है, दृश्य के बीच है, यानी सभ्यता के बीच एक निश्चित परिमाण में। 

अगर आपके पास अनटेम्ड वाइल्डनेस है, तो उस पर ध्यान ही नहीं दिया जाएगा। उल्टे यह पूछा जाएगा कि वाइल्डनेस तो है ही नहीं। जंगल आपको तभी वाइल्ड लगेगा, जब आप शहर में खड़े होकर उसके अनुभवों के आधार पर जंगल को देखेंगे। जंगल के बीच रह रहे हों, या जंगल ने आपको अपने भीतर पूरी तरह समो लिया है, तो आप उसे वाइल्ड नहीं मानेंगे। 

यह जंगल की सफलता है।

वाइल्डनेस एक मांग होती है। एक उम्मीद और एक अवधारणा। मेरी पारिस्थितिकी में मेरी सहजता, आपकी अवधारणाओं के उलट एक नई अवधारणा बना देती है।

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अव्यवस्था के दबाव के बिना व्यवस्था की निर्मिति नहीं होती। इसलिए अव्यवस्था ऐतिहासिक अर्थों में उदात्त है। 

एक कहानी में मैं बहुत सारी चीज़ों को ले आया और उनसे बची बहुत सारी चीज़ों को मैंने बाहर रख दिया। या वे बाहर छूट गईं। असल दबाव उन बाहर छूट गई वस्तुओं का है। कहानी के भीतर बहुत सारी जगह है, लेकिन कहानी के बाहर तो कोई जगह है ही नहीं। इसे पृथ्वी और अंतरिक्ष के संबंध की तरह लिया जाए। अंतरिक्ष अनंत है, एटर्नल स्पेस, पर वहां उन चीज़ों के लिए कोई स्पेस नहीं है, जो पृथ्वी पर हैं। जो पृथ्वी पर टिकी हैं, वे पृथ्वी के गुरुत्व बल के कारण। इसी तरह कहानी का भी एक गुरुत्व बल है, जो चीज़ों को रोक लेता है, पर कहानी के बाहर चीज़ें भटक रही हैं और वे ज़्यादा हैं और वे एक निर्वात में हैं, नॉन-स्पेस में। 

वे चीज़ें लगातार आपके दरवाज़े खटखटाती हैं। और जितनी बार वे दस्तक देती हैं, कहानी के भीतर व्यवस्था मज़बूत होती जाती है। 

***

कई जगहों पर पहली बार जाते ही सोच लेता हूं कि यहां दुबारा जाऊंगा। मुझे पता होता है, पहली बार में मैं उस जगह को नज़र-भर भी देख ना पाऊंगा। इसी तरह कई लोगों से पहली मुलाकात के वक्त ही सोच लेता हूं, इनसे दूसरी मुलाकात में बात करूंगा। पहली मुलाकात अक्सर चुप्पी, झिझक और संकोच से भरी होती है। कई लोगों से, कई जगहों से हर मुलाकात ऐसी ही होती है।

(पुरानी टीपें. चित्रकृतियां : अल्‍बेर्तो सावीनियो)


Friday, October 1, 2010

अब्‍बू ख़ां की बकरी





यह बहुत पुरानी कविता है, इतनी कि लंबे समय तक यह याद भी नहीं रहा था कि ऐसी कोई कविता लिखी थी. पुराने काग़ज़ों की सफ़ाई करते वक़्त मिली. सफ़ाई तो पहले भी की है, लेकिन मिली अबकी. इसके नीचे तारीख़ है 8 सितंबर 98. यह पूरी होने की तारीख़ है. तब मैं कविता के नीचे पूरी होने की तारीख़ डाला करता था, शुरुआत की नहीं. इसलिए यह नहीं याद कि शुरू कब हुई थी. कुछ ही समय बाद यह गोरखपुर की पत्रिका 'दस्‍तावेज़' में छपी थी. उसके बाद का कुछ नहीं याद. जैसे कभी यह सब लिखा ही न था. मेरे पास वे पत्रिकाएं कभी नहीं होतीं, जिनमें मेरी चीज़ें छपी होती हैं. ऐसा कोई अंक नहीं है, किसी भी पत्रिका का. 2007 में इस कविता की याद नागपुर से कवि-मित्र बसंत त्रिपाठी ने दिलाई. उनसे पहली बार फ़ोन पर बात हो रही थी, और उसी दौरान उन्‍होंने इसका जि़क्र छेड़ा. उन्‍होंने तब पढ़ी थी. उस समय याद आया कि हां, ऐसी एक कविता लिखी थी, पर वह कहां गई, नहीं पता. उस समय भी मैंने इसे खोजा था. बाद के दिनों में भी कुछ और दोस्‍तों ने इस कविता को याद किया. मैं बार-बार याद करता कि उस कविता में मैंने लिखा क्‍या था, कुछ विचारधाराओं-प्रतीकयोजनाओं के आधार पर इसकी सिलाई की थी, इससे ज़्यादा कुछ याद न आता. यही कारण था कि यह न संग्रह में रही, न बातचीत में, न डायरियों में, न ही ऑनलाइन डाटा में. कल शाम मिल ही गई आखि़र. जब इसे नहीं खोज रहा था तब. यही नहीं, कुछ और भूल चुकी कविताएं भी मिली हैं. एकाध को पढ़कर मुझे समझ ही न आया कि ये किन मन:स्थितियों में लिखी गई थीं और इनका अर्थ क्‍या है (जो लोग मुझसे मेरी कविताओं का अर्थ पूछते हैं, उन्‍हें ख़ुश होना चाहिए). 

मुझे ऐसा लगता है कि उस समय मुझे उत्‍तर-आधुनिकता के बारे में कुछ संपट नहीं पड़ा होगा, क्‍योंकि हाशिए पर एक नोट में उसे भी इसमें शामिल करने का निर्देश लिखा हुआ है. संपट होती, तो पता नहीं क्‍या लिखता. अभी भी यही सोच रहा हूं कि क्‍या लिखा है. पुरानी, विस्‍मृत रचनाओं को देखकर हम हमेशा ऐसा सोचते हैं कि इसे आज लिखा होता, तो ये-ये, वो-वो दुरुस्‍त कर देता. दुरुस्‍त कर लेने वाला भाव ही शायद आपका क्रमिक विकास होता हो. 

ख़ैर, बारह साल पहले भूली जा चुकी यह कविता पढ़ें. इसे यहां लगाने से पहले मैं इसे कवि बसंत त्रिपाठी को ही समर्पित करता हूं.     
***



अब्‍बू ख़ां की बकरी


अब्‍बू ख़ां एक परंपरा है
अब्‍बू ख़ां की बकरी एक मुहावरा

सबसे पहले हमें कुछ बुनियादी बातों पर सोचना चाहिए
अब्‍बू ख़ां कौन था
वह बकरियां क्‍यों पालता था
उसने कितनी बकरियां पाली थीं
उसकी बकरियां बार-बार उसके पास से भाग क्‍यों जाती थीं
उसकी बकरियों को खा जाने वाला भेडि़या कौन था
जब उसने धीरे-धीरे सारी बकरियां खा डालीं
तो क्‍या अब्‍बू ख़ां ने बकरियां पालना छोड़ दिया

मार्क्‍सवादी पद्धति से इस पर सोचा जाए
तो अब्‍बू ख़ां मेहनतकश वर्ग का था जिसे
सर्वहारा कहा जाना चाहिए
अय्यप्‍प पणिक्‍कर की एक कविता खुजली और बंबई में
प्रचलित शब्‍द खुजली के आशयों के अनुसार
उसे बकरी पालने की खुजली थी
या उसके पेट में भूख नाम की एक पिशाचिनी रहती थी
जो उससे बकरी पलवाती थी
और उसका दूध निकलवाती थी
यानी बकरी उसके लिए उत्‍पादन का साधन थी
जिसे दुहकर वह एक तरह से दूध का उत्‍पादन करता था
इस तरह देखा जाए तो
उत्‍पादन के उस साधन पर अब्‍बू ख़ां की मिल्कियत थी
अब्‍बू ख़ां दूध निकालने में मेहनत भी करता था
अर्थात वह मेहनतकश भी था
अर्थात उत्‍पादन के साधन पर मेहनतकश का स्‍वामित्‍व था
तो इस तर्क के आधार पर हम यह कैसे कह सकते हैं
कि अब्‍बू ख़ां सर्वहारा था
लेकिन उसकी माली हालत इतनी अच्‍छी भी नहीं थी कि
उसे नेशनल बूर्ज्‍वाजी का नाम दे सकें
उसे हम मध्‍यवर्ग या निम्‍न(मध्‍य)वर्ग में ले सकते हैं
जो श्रम करता है और वस्‍तुत: भूख का श्रमिक होता है

दूसरी तरफ़ इसे थोड़ा अस्तित्‍ववादी मोड़ दिया जाए
तो अब्‍बू ख़ां एक स्‍वतंत्र व्‍यक्ति था
और उसकी एक निरपेक्ष्‍ा इच्‍छा थी कि बकरी पाली जाए
अस्तित्‍वाद में व्‍यक्ति के पास इच्‍छा का होना ज़रूरी है
इसमें ऐसा नहीं कि भूख मर जाती है
बल्कि भूख मिटाने की इच्‍छा का होना महत्‍व का है
व्‍यक्तिनिष्‍ठ तरीक़े से वह एक व्‍यक्ति था
जिसके पास एक व्‍यक्तिगत भूख होती है
जिसे वह व्‍यक्तिगत या सार्वजनिक माध्‍यम से पूरा करता है
उसकी बकरियों की भी एक निहायत व्‍यक्तिगत इच्‍छा होती है
मुक्ति की जिसे आध्‍यात्मिक शब्‍दों में
अब्‍बू ख़ां से मुक्ति पूरी दुनिया से मुक्ति पा मोक्ष की तलाश
कह सकते हैं
जबकि मार्क्‍सवादी शब्‍दों में बकरी सर्वहारा नहीं है
क्‍योंकि उसके पास खोने के लिए बेडि़यां और पाने के लिए सबकुछ के ठीक उलट
खोने के लिए बेडि़यों के साथ सुरक्षा और प्‍यार और पाने के लिए भेडि़ये से संघर्ष और मौत है
हालांकि मार्क्‍सवाद नियतिवाद में विश्‍वास नहीं करता

अस्तित्‍ववादी परंपरा और रेनेसां की प्रतीकयोजना के मुताबिक़ यह भी संभव है कि
अब्‍बू ख़ां भारत का एक आम व्‍यक्ति हो
और उसके पास कोई बकरी ही न हो
यानी अब्‍बू ख़ां के दिमाग़ के कुछ अंधेरे पहलू हों
और उनमें कुछ बकरियां निवास करती हों
बकरियां ज़रूरी नहीं कि बकरी की तरह ही हों
बकरियां नादान होती हैं सीधी-सादी होती हैं
सो बकरियां दिमाग़ के नादान सुविचार भी हो सकती हैं
और भेडि़या भी दिमाग़ में ही निवास करता हो
किसी भयानक कुविचार की तरह
अब्‍बू ख़ां के दिमाग़ की बकरियां जब-जब हरे-भरे मैदानों में तफ़रीह करना चाहती हों
यानी अब्‍बू ख़ां के नादान सुविचार उससे मुक्‍त हो अमल में आना चाहते हों
या अभिव्‍यक्‍त हो सार्वजनिक हो जाना चाहते हों
ठीक उसी समय धर दबोचता हो उन्‍हें कुविचार का भेडि़या
अब्‍बू ख़ां की बकरी को हम देश के हर आदमी के दिमाग़ के अंधेरे पहलुओं में
चल रहे सुविचार-कुविचार के संघर्ष के रूप में देख सकते हैं
पर चूंकि यह वैदिक-ऐतिहासिक धर्म-अधर्म का संघर्ष नहीं
सो इसमें बकरी रूपी धर्म अर्थात कमज़ोर नादान सुविचारों की ही जीत हुई हो
इतिहास में ऐसा कभी दर्ज नहीं हो पाया

यह भी संभव है कि अब्‍बू ख़ां अपनी बकरियों और भेडि़ये और अपनी पूरी कहानी समेत हमारे दिमाग़ में रहता हो, लड़ाई चलती ही रहती हो और वह हमारे बहुत सारे निर्णयों को प्रभावित भी करता हो 

आजकल के टाइम का एक व्‍यावहारिक सिद्धांत यह भी है
बतर्ज लड़की अगर मिनी स्‍कर्ट पहनेगी तो रेपिस्‍ट तो आएगा ही कि
बकरी जब देर रात घने जंगल में अकेले घूमेगी
तो भेडि़या तो उसे खाएगा ही
इसमें दोष बकरी का ही था
क्‍योंकि बकरी ही बार-बार आज़ाद होने के लिए अब्‍बू ख़ां के पास से भाग जाती थी
और भेडि़ये के इलाक़े में पहुंच जाती थी
फुक्‍कट में भेडि़ये को दोष कायको देना
उसके पास भी भूख है और पारिस्थितिकी के अनुसार उसका आ‍हार बकरियां हैं
सवाल यह है कि बकरियां अब्‍बू ख़ां से आज़ादी क्‍यों चाहती थीं
क्‍या मेहनतकश अब्‍बू ख़ां शोषक अब्‍बू ख़ां भी था
क्‍या अब्‍बू ख़ां की पालना में रहना अब्‍बू ख़ां की कष्‍टकर ग़ुलामी में रहना था
वे अब्‍बू ख़ां के पास घास खाने, दूध देने, छोटी-छोटी लेंडियां करने और
जब-तब में-में करने के सिवाय करती ही क्‍या थीं
अब्‍बू ख़ां में कोई लाड़-प्‍यार भी था जो बकरियों का दिमाग़ फिरा देने को काफ़ी था
और उन बकरियों की भूख नामक मूलभूत ज़रूरत पूरी तरह संतुष्‍ट थी
क़ायदे की बात है कि जब पेट भरा हुआ होता है
तो आज़ाद होने की बात ख़याल आती है
(देश की आज़ादी का पूरा संघर्ष ही भरे पेट वाले लोगों की अगुआगिरी में हुआ था)

अब यहां कलावादी उचककर सवाल करते हैं
लेकिन हर चीज़ आकर भूख पर ही क्‍यों टिक जाती है
और भी ग़म हैं ज़माने में भूख के सिवाय

ये तो आप जानते ही हैं कि ऐसा कौन कहेगा कि
भेडि़या हिंदू था और मुसलमान (की) बकरियों को ही खाना प्रिफ़र करता था

क़ानून की बात कि अब्‍बू ख़ां ने अपनी बकरियों की सुरक्षा का इंतज़ाम कैसा किया था
अलेक्‍ज़ेंडर ब्‍लोक के प्रतीकवाद और मायकोवस्‍की के बाद के भविष्‍यवाद पर आएं
और अब्‍बू ख़ां की बकरियों को अब्‍बू ख़ां की बेटियों के रूप में देखें तो
लड़कियों के बार-बार भेडि़यों द्वारा खा लिये जाने की अनंत दारुण कथा समझ में आती है
तब भेडि़ये को कैसे लें
जवान लड़कियों को सुनहरी सपने दिखा खींच लेने वाला प्रलोभन
एक ऐसा चुंबक जिसे पता है मिट्टी और लोहे के बुरादों का फ़र्क़
फिर बकरियों को क्‍यों नहीं पता अब्‍बू ख़ां और भेडि़ये का फ़र्क़

जब-जब कोई बकरी मारी जाती है
तब-तब अब्‍बू ख़ां ख़ुद को भयंकर असुरक्षित और एकाकी महसूस करता है
जब-जब हमारे दिमाग़ में कोई पराजय होती है दुख सिर उठाता है
हम अब्‍बू ख़ां की गति को प्राप्‍त होने लग जाते हैं
उपभोक्‍तावाद में बकरी हमारी संस्‍कृति बन जाती है और भेडि़या बाज़ार आक्रांता
हम एक-एक करके अपनी बकरियां खोते जा रहे हैं अलग-थलग होते जा रहे हैं
पूंजीवाद अपने विध्‍वंसक रूप के प्रभावों से व्‍यक्ति को लगातार आत्‍मकेंद्रित
अलग-थलग और एकाकी बनाता जाता है

ज़रा फिर मार्क्‍सवादी-समाजवादी संदर्भों में लौटें
भुवनेश्‍वर, सर्वेश्‍वर से लेकर विमल कुमार की कविताओं का भेडि़या कितने रूप बदल चुका है
क्‍या अब्‍बू ख़ां की बकरियों के प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण करने की प्रवृत्ति ही भेडि़या है
अगर बकरी अब्‍बू ख़ां का श्रम है तो उसे बेमोल पचा ले जाता है
उसके उत्‍पादन का एक अंग तो लगान की तरह वसूल ले जाता है
अब्‍बू ख़ां लाख सिर पटकता है
बकरी उसके पास टिकती नहीं
पालतू ग़ाफि़ल हो बार-बार भग जाती है
घात लगाये भेडि़या दबोच लेता है
अब्‍बू ख़ां रोता है
अकेले में बूढ़ा होता है

अब्‍बू ख़ां एक परंपरा है
अब्‍बू ख़ां की बकरी एक कहावत-मुहावरा
भेडि़या परंपराओं-कहावतों से रूढ़ एक नंगी असलियत
(फिन देक के लो न भिड़ू, कविता को परंपराओं-मुहावरों से बचाने का है,
बोले तो काय-काय चीज़ से बचाने का है, समझ के लो न)


Monday, July 5, 2010

बाबा बोर्हेस - 2

कुछ लोग एकदम ही उल्‍टा रास्‍ता पकड़ते हुए, सबसे पहले यही तय करते थे कि किस तरह सारी बेकार किताबों को ठिकाने लगा दिया जाए. वे छह दीवारों वाले कमरों पर आक्रमण कर देते थे और अपनी पहचान इस तरह दिखाते थे, जो हमेशा झूठ नहीं हुआ करती थीं, नाक-भौं सिकोड़ते हुए किसी किताब का एकाध पन्‍ना पलट लेते थे और फिर किताबों से भरी पूरी दीवार की निंदा किया करते थे. 

बाबा बोर्हेस
द लाइब्रेरी ऑफ़ बैबल, 1941.

Monday, June 28, 2010

दो नई किताबें और एक सरप्राइज़

शाम दोनों किताबें सावंत आंटी की लड़कियां और पिंक स्लिप डैडी छपकर हाथ में आ गईं. हैप्‍पी. मराठी के उपन्‍यासकार भालचंद्र नेमाड़े ने दोनों किताबों का लोकार्पण किया. नामवर सिंह और पंकज बिष्‍ट भी मौजूद थे. एक अच्‍छा अनुभव. ख़ुशनुमा अहसास. अपनी नई-नवेली, ताज़ा किताबों को छूना किसी भी लेखक को भावुक कर सकता है. और ये तो पहली किताबें हैं कहानी की, तो भला क्‍यों न हुआ जाए?


इन दोनों किताबों के साथ एक पुस्तिका भी. सबद पर अनुराग वत्‍स ने जो मेरा इंटरव्‍यू किया था, उसे राजकमल प्रकाशन ने पुस्तिका ‘सम्‍मुख : गीत चतुर्वेदी’ के रूप में प्रकाशित किया और इन्‍हीं दोनों के साथ उसका लोकार्पण भी हुआ. सबद पर इस इंटरव्‍यू के प्रकाशन के कुछ ही दिनों बाद राजकमल ने इसे पुस्तिका की तरह छापने का निर्णय लिया था. यह इंटरव्‍यू अनुराग की लंबी मेहनत है. और उनकी पहली प्रकाशित पुस्‍तक भी.  इसके लिए उन्‍हें ढेर सारी बधाइयां.




Friday, June 25, 2010

किताबें






कहानी की दो किताबें हैं. सावंत आंटी की लड़कियां और पिंक स्लिप डैडी.

रविवार 27 जून को शाम छह बजे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्‍सी में इनका लोकार्पण है.

लोकार्पण करेंगे मराठी के मशहूर लेखक भालचंद्र नेमाड़े.
तफ़सील के लिए तस्‍वीर पर क्लिक करके बड़ा करें.

ज़रूर आएं. आपका स्‍वागत है.


Monday, June 21, 2010

नया



इधर एक इंटरव्‍यू हुआ है, जो सबद पर लगा है. अनुराग की लंबी मेहनत है,  उसे यहां देख सकते हैं.



आशुतोष भारद्वाज ने एक सुंदर विश्‍लेषण किया है उभयचर का. और उन गलियों पर बात की है, जिधर लोग कम ही गए. इसे यहां पढ़ सकते हैं और यहां भी.

Friday, June 11, 2010

जाना सुना मेरा जाना

अर्थ बचा रहे इसके लिए ज़रूरी है कि लिपि में शब्दों के बीच दूरी बनी रहे
दोनों पैर एक साथ बढ़ाता हूं तो गिर जाता हूं उछलना पड़ता है इसके लिए
चल सकूं अपने पैरों को बारी-बारी आगे बढ़ाता हूं
सड़क से मुहब्बत का यह आलम है उसे चोट नहीं देना चाहता
फिर क्यों तुमको बार-बार सड़क मानने से कतराता
इस दुनिया में कोई चीज़ अगर हर वक़्त गर्भवती है तो
समय है वह क्या-क्या नहीं जन्म लेता यहां से हर समय
इतना विशाल गर्भाशय कि गर्भाशय का कैंसर हो गया तो कौन ठीक करेगा
जो था वह था ही नहीं रहता है भी हो जाता है
जो नहीं था वह भी है हो जाने को अकुलाता है
कुछ चीज़ों की वृद्धि उनके छोटे होते जाने में रही फिर भी
बिना पेंसिल उठाए हंसते चेहरे का चित्र बना लेने वालों के हुनर से हमेशा घबराया
इतिहास में ऐसे मौक़े ज़्यादा आए जब ग़लत चीज़ों पर एकमत रहा बहुमत; उन मौक़ों पर मैं किस तरफ़ रहा?
जिन लोगों के बीच रहा उनकी अपेक्षाएं नहीं रहीं कभी बहुत ही
इसीलिए बहुत कुछ पाया भी नहीं उन्होंने कभी      वे सब व्यवस्था के कारकून बोले तो अव्यवस्था के मसीहा
इस जहां में जहां जहां जाना है उन्हें पाना है उस जहां में भी जहां जहां
मेरी नसों को नश्तरों से खोलेंगे फिर ख़ून में तैरेंगे ख़ून को खोजते हुए
फिर एक दिन कह देंगे ख़ून है नहीं रहा ही नहीं इन नसों में कभी
नसों की दीवारों पर बने चित्रों को आदिम गुफ़ाओं की परंपरा का कहेंगे
और वहां पर्यटन की संभावना पर बैठक होगी
मेरे शरीर में नेअनडरठाल रहते हैं यह कितना दिलचस्प शोध होगा
बहुत अकेले छितराए हुए थे नेअनडरठाल बिखरे हुए जब उनकी प्रजाति नष्ट हुई थी
वे इतिहास के सबसे कुरूप लोग थे शिकारी थे बावजूद योद्धा न थे
आकांक्षाएं योद्धाओं को आकर्षित करती हैं आकर्षित जो होते हैं वे योद्धा बन जाते हैं
आंसू के बिना कोई प्रार्थना लिखी ही नहीं गई इस दुनिया में कभी
कम न हो आत्मबल मनोबल मुंह के बल गिरने पर भी बल के मुंह को धो-पोंछ संवार लेना
इतना बूढ़ा न होना कि ख़ुद को जवान न कह सकना
इतना संपन्न हमेशा रहना कि कुछ भी लुट जाने से डर न लगे
इतना निष्फिकिर भी कभी नहीं कि फ़क दिस वर्ल्‍ड विद योर मिडिल फिंगर
सुंदरताएं भी क्रूर होती हैं कई बार अनिवार्य रूप से क्रूर
उसके बाद भी वे सुंदर होती हैं यह उनकी क्रूरता को थोड़ा कम करता है
सितारे आसमान में, अपनी दूरी-क़ुरबत से, जो आकृतियां बनाते हैं वे दरअसल
न पढ़ी गई लिपियों के अक्षर होते हैं पढ़े जाने के सुराग़
क्या फ़रक़ पड़ता है कि दीवार पर लिखे गए स्क्रीन पर मन पर मचलते तन पर कितौ आसमान पर ही लेकिन
काग़ज़ भी तो अंकल मुहब्बत की शै होती है
अकेला होकर भी चंद्रमा कभी अल्पमत में नहीं होता आसमान पर काग़ज़ के टुकड़े-सा चिपका हुआ
कौन मूल है क्लोन कौन है
इस युग में जितनी तेज़ी है अचरज मत करना इस पर अगर कहीं यह पता चले कि
क्लोन पहले पैदा हुआ था मूल से, एक अधिभौतिक भूल से
पचीस-पचास-पांच सौ साल पहले दुनिया में आकर कोई तीर नहीं मार लिया उनने
बड़े-बुज़ुर्गों की इज़्ज़त करने से बेहतर है उन चीज़ों की इज़्ज़त करना
जो आधी रात तुमको अचक्के जगा जाती हैं जब जगते हो तो पाते हो
टूटा घड़ा रात-भर में इतना टपका कि ख़ालीपन से भर गया
ऐसी हवा चली कि तुम्हारे प्रिय पेड़ के सारे पत्ते आंगन में गिर गए गिर कर कूड़ा बन गए
ऐसी तमाम चीज़ों को मुश्किल पाता हूं बहुत
पाने जाता हूं इन सबको आती हैं और भी मुश्किलें
देने के लिए मेरे पास सिर्फ़ प्रेम है और, इज़्ज़त, मुझे लगता है,
एक निहायत सामंती परंपरा है जिसके धागों से ओढऩे-बिछाने के कपड़े बने सबके
एक दिन जिनका तार-तार हो जाना निहायत अनिवार्य है
पर यह कितना अजीब है कि कुछ हत्याओं का कारण प्रेम को माना गया कुछ का इज़्ज़त को
कि घृणा करने के सारे गुर प्रेम ही सिखाता है
कुछ हथियार ऐसे होते हैं जो हाथ बदलते ही अपनी ताक़त खो बैठते हैं
जबकि दुनिया में कोई शै ऐसी नहीं जिसके लिए लड़ा जाए
जबकि दुनियाओं का विस्तार अन्वेषणों से कम हुआ आक्रमणों से ज़्यादा
एक ऐसा दरवाज़ा जिसे सदियों से खटकाया जाता है न खुलता है न ही भहराकर टूटता है जो
एक खिड़की जिसमें से निकलती है एक हरी लता जो कभी बढ़ती नहीं छंटती भी नहीं
उसमें से जो सुगंध निकलती है उसके स्थगन से पैदा होती है
इतना जाना सुना है मेरा जाना कि सब कुछ को देखना सब कुछ के साथ रुका होना है
इतना अ-जाना अ-सुना है मेरा अ-जाना कि जाने से पहले ही लगता है जा चुका हूं
लौटने से पहले से लौटता रहा हूं बाद भी जैसे रॉकेट की पूंछ से निकलता धुआं एक विलंबित लौट के अभ्यास में
बहुत देर तक बहुत बहुत देर तक दिखता है खो जाने के बाद भी दिखता ही रहता है स्थिरता में अपनी
मैं पूर्व में जाता था जबकि सारी दुनिया पश्चिम जा रही
पश्चिम वाले और पश्चिम और पश्चिम एक ने कहा जापान, अमेरिका के पश्चिम में है
सो एक तरफ़ से ही मानो दिशाएं क्या बताऊं मेरा पूर्व दिशा नहीं है
जैसे तीसरी आंख दरअसल आंख नहीं जैसे पांचवां सिर दरअसल सिर नहीं जैसे तीसरी दुनिया कोई दुनिया ही नहीं
जैसे हर धर्म में होती है एक पवित्र भूमि, एक प्रॉमिस्ड लैंड
उसकी आकांक्षा कितना गौरवान्वित करती है हमेशा के लिए खो जाने की इस प्रक्रिया को बामुराद
इतने नए सिरे से आई है यह गुमशुदगी अनिश्चित अप्रत्याशित
इतना अंधेरा है और मैं इतना निश्चिंत कि धीरे-धीरे हाथ डुलाते उन दिनों को याद करता हूं
जब मैं गर्भाशय में था
पैर को थोड़ा-सा हिलाकर किसी को ख़ुशी दे देता हुआ
गुम हो जाना बिना हाथ हिलाए विदा हो जाना है
जब बर्दाश्त से बाहर हो जाएगी भूख हम अपना भविष्य खा लेंगे



Thursday, May 6, 2010

जो था, है


जो था, वह था ही नहीं रहता, है भी हो जाता है... 

जो नहीं था, वह भी है हो जाने को अकुलाता है



नया क्‍या है?
जो नया है, वह यहां है.

कहां मिलेगी?




Saturday, April 24, 2010

जुगनू


बहुत पहले दुनिया में सिर्फ़ रात थी, मेरी कंखौरियों में मिट्टी के दिए चिपके थे. मैं उड़ने के लिए हाथ उठाता, दिए अपने आप बल उठते. रोशनी की फुहार उठती, बरसती. मैं हाथ नीचे करता, अंधेरा फिर हो जाता. मुझे इस तरह देखने के बाद ईश्‍वर ने जुगनू बनाए.

फिर भी उड़ने का हुनर मुझे कभी न आया. न ही रोशनी का भंडारगृह बन पाया.

जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है. 




(मोत्‍सार्ट सिंफनी नंबर 1)


Thursday, April 1, 2010

अलसाहट के बीच दस साल पुरानी तस्‍वीर

'मेरे मन टूट एक बार सही तरह, अच्‍छी तरह टूट मत झूठमूठ ऊब मत रूठ, मत डूब सिर्फ़ टूट'

रघुवीर कह गए थे. मन टूटा हुआ है, जबकि चाह थी कि ये दिन टूटें. इन दिनों को घुटने पर रखकर ऐसा झटका मारा जाए कि टूटकर दो टुकड़े हो जाएं. दिन नहीं टूट रहे. घुटना टूट रहा है. मन मेल्‍या पहले से टूटा हुआ है. या तो करने-कहने को कुछ बचा ही नहीं है या जो बचा है, उसे कहना-करना नहीं है. कैसी ट्रैजडी ही नीच!

दस साल पुरानी एक तस्‍वीर मिली है, दो दिन से दिल इसे ही घूरे जा रहा है. क्‍या पता, घूरे पर जा रहा है? अप्रैल 2000 है, नासिक का नज़ारा है, पीछे गोदावरी में डुबकियां लग रही हैं और तस्‍वीर के बाहर मन से कहा जा रहा है- मत डूब सिर्फ़ टूट.



Tuesday, February 9, 2010

पुरानी, बहुत पुरानी, मेरी स्मृति से पुरानी नहीं पर



ठीक-ठीक याद नहीं है कि यह तस्वीर किस वर्ष की है, शायद 98 या 99; पर इस मुलाक़ात की यादें हैं. मुंबई में कवि अनूप सेठी का घर है, कुमार वीरेंद्र, संजय भिसे और गुरुदत्त पांडेय की कविताएं हैं, राकेश शर्मा जी की छेड़छाड़ है, रमन‍ मिश्र-शैलेश के ठहाके हैं, अनूप जी की तस्वीरें हैं और आलोचकद्वय शिवकुमार मिश्र-अजय तिवारी के ‘युवा कवियों के लिए मशविरे’ हैं.

यानी यह चित्र है. रुका हुआ- स्टिल. पर निगाह-भर भी देखता हूं, तो चल-चित्र बन जाती है. ऐसे ही झटकों में मैं मुंबई पहुंच जाता हूं.

अब कितनों से कितने बरस हुए, बात न हो पाई.

अनुनाद पर अनूप सेठी जी के कमेंट ने उन्हीं की खींची इस तस्वीर की याद दिला दी, जो उन्होंने 16 अगस्त 2006 को एक मेल में भेजी थी. याद करते हुए. याद दिलाते हुए.

तस्वीर में सबसे बाएं बैठे मित्र का नाम भूल गया, उसके बाद इच्छाशंकर, मैं, गुरुदत्त, राकेश शर्मा, शिवकुमार मिश्र, रमन मिश्र (नीचे), अजय तिवारी, शैलेश सिंह (नीचे), संजय भिसे, ब्रजेश कुमार और कुमार वीरेंद्र (नीचे). क्लिक करके बड़ा कर लें, तो शायद बेहतर साफ़ दिखे.


Tuesday, January 12, 2010

मध्‍य-वर्ग का मर्म-गीत

यह श्री गुरु गोबिंद सिंह हिंदी प्राइमरी स्‍कूल में पढ़ाई जाने वाली राइम्‍स में से है
अम्‍मा-बाबा-दादी टाइप के संबोधनों वाले बूढ़ों के ज़माने के कांपते गीतों में से
किसी की मौज या शग़ल है ताल-बेताल-क़दमताल
ओह, देखो-देखो, अब भी वही सिंदूर तिलकित भाल
या पूरे इतिहास को दिखा दे ताक़त के खेल की ताक़त है
पूरब के मेटा-फि़जि़क्‍स का मोटा फ़ार्मूला है - के एक दिन तय है सबका मरना
मेरा कर्मा... कर्मा... कर्मा... तू... मेरा धर्मा... धर्मा... धर्मा
ऊप्‍स! तीनों में से कोई फ़ुक्‍कट में नहीं मरा, काम करते-करते मरा,
जिनके लिए शहीद जैसा कोई शब्‍द क्‍यों नहीं, ऐसा प्‍लकार्ड लिए अभी गुज़रे थे स्‍वामी वर्ग-चैतन्‍य कीर्ति-आकांक्षी 1008
भुजंग की तरह मैं भी पूछ बैठा - शिवाकाशी का बचपना क्‍यों नहीं जाता...
आईक्‍यू जितना कम होगा, कविता उतनी अच्‍छी होगी; जीवन भी
मैं कहता हूं, जहां रहना है वहां से संन्‍यास ले लीजिए; इसमें डुप्‍लेक्‍स रिहाइश का मज़ा है :-)
नको बाबा
कक्षा 1ली वर्ग अ और वर्ग ब का संघर्ष नहीं, बहुत जटिल है जितना कि विचित्र मेरा वर्ग-मानचित्र है
जो है उसे वैसे ही पेश करना रिवायतों के खि़लाफ़ है
तो जैसे मैं घर की बरमूडा और टी-शर्ट पहने ही दफ़्तर आ गया
उसी तरह इस पेशकश में पेश्‍ट करता हूं
ग़ौर से पढि़ए, यह मेरे मध्‍य-वर्ग का मर्म-गीत है :
राजा मरा लड़ाई में
रानी मरी कड़ाही में
बच्‍चे मरे पढ़ाई में...


(अगस्‍त 2009 में लिखी गई  कविता. इधर, प्रतिलिपि के ताज़ा अंक में चेस्‍वाव मिवोश की एक कविता पर कुछ लिखा है. यहां पढ़ सकते हैं.)