एक कामयाब नींद क्या होती है? उसमें प्रवेश कर लेना या सुबह ख़ुद को, अपनी जाग में सही-सलामत पा लेना? मेरी जाग क्या है? एक अनियंत्रित नींद ही तो है. अपनी जाग में ही ख़ुद को सही-सलामत पा लेने की क्या गारंटी? एक नाकाम नींद, एक नाकाम जाग... बीते कई दिनों का अफ़साना है.
एक बूढ़ा आया था. बता गया, रोज़ रात वह एक ऐसी गोली खाता है, जिससे उसके सपनों का बनैलापन ख़त्म हो जाता है. कहता है, स्मृतियों से परेशान है. उसकी गोली वाली विलक्षणता, स्मृतियों के जि़क्र मात्र से उड़ गई. मैंने कहा, शिव को स्मृतियों का संहारक कहा जाता है. हर जन्म में ब्रह्मा को शिव की स्तुति करनी होती है, ताकि वह खो चुकी स्मृति पा सकें. उसने अपनी किसी कहानी का जि़क्र करते हुए कहा, दुनिया का सारा साहित्य स्मृति और उसके परिष्कार से बनता है. स्मृतियों को बचाने के लिए लिखा जाता है. तो क्या लिखना शिव को चुनौती देने जैसा है?
उसे विदा करने के लिए सिगरेट की दुकान तक जाता हूं. बेतहाशा कोहरा है. अंधेरे में कोहरा. भवों पर बूंदों का आभास होता है. ठंडी पड़ गई नाक को उलटी हथेली से छूता हूं. बहुत भीतर से एक सांस छोड़ता हूं... जैसे सदियों वह फेफड़े में फंसी रही. गुलाबी कार्डिगन पहने एक स्त्री जा रही है. एक कार वाला बार-बार उसके पास अपनी कार खड़ी कर देता है. वह पलटकर देखती है, फिर आगे बढ़ जाती है. मैं दुकान वाले से माचिस मांगता हूं और बिना सिगरेट जलाए मुंह से निकलता कोहरा देखता हूं. कार थोड़ा आगे रुक गई है. स्त्री वहीं खड़े-खड़े शायद सुबक रही है. कार वाला उसे शॉल ओढ़ा रहा है और वह उसे झटक कर दूर कर रही है. वह शायद शॉल नहीं, किसी ताज़ा स्मृति को झटक रही है.
पूरी धरती ही एक पलंग है.
मैं प्रसन्न रहना चाहता हूं, पर पाता हूं, ज़्यादातर समय सिर्फ़ सन्न हूं.
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