Wednesday, September 21, 2011

स्त्री की शक्ल में इच्छा का रेखांकन






भाषा त्‍वचा है; मैं अपनी भाषा को दूसरी भाषा से रगड़ता हूं. जैसे कि मेरे पास उंगलियों की जगह शब्‍द हों, या शब्‍दों की पोर पर उंगलियां रहती हों. मेरी भाषा इच्‍छाओं से कंपकंपाती है.
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तस्‍वीर हमेशा अदृश्‍य होती है; वह कभी वह नहीं होती, जो हम देखते हैं.
-- रोलां बार्थ


‘इन द सिटी ऑफ़ सिल्विया’ में भाषा तस्‍वीर बन जाती है, जो कि अदृश्‍य है, इसीलिए उसमें संवादों की कोई जगह नहीं. और सामने जो तस्‍वीरें चल रही हैं, वे भाषा की तरह इच्‍छाओं से कंपकंपा रही हैं. उनमें इच्‍छाओं की अनित्‍य स्‍मृति है. अनित्‍य इसलिए कि इसमें नित्‍य का वर्तमान नहीं. विलक्षण प्राप्तिहीनता का इतिहास है. खोये हुए का खोया हुआ टाइम वार्प है. और दोनों को ही पा लेने की आकांक्षा का तल्‍लीन रेखांकन है. रेखांकन में स्त्रियां हैं. अगर इच्‍छा का रेखांकन किया जाए, तो वह किसी स्‍त्री का चेहरा ले लेती है. 

नायक जिसका कोई नाम नहीं है, वह रेखांकन करता है. वह किसी एक शहर में आया है. शायद स्‍ट्रासबुर्ग. शुरुआत के दृश्‍य शुरुआत में ही समझ नहीं आते, वे आगे चलकर स्‍पष्‍ट होते हैं कि नायक छह साल पहले भी यहां आया था, तब उसे सिल्विया नाम की लड़की मिली थी. शायद बहुत कम समय के लिए. शायद एक झलक ही देखी थी. शायद गली के किनारे खड़े होकर उसने उस लड़की से कोई पता पूछा था और शायद नाम भी. शायद ऐसा इस फिल्‍म में हुआ ही नहीं था; फिल्‍म से पहले की किसी फिल्‍म में ऐसा हुआ था. लेकिन आज छह साल बाद वह उस लड़की को खोज रहा है. वह होटल के कमरे में चित्र बनाता है और स्‍मृति का इम्‍तहान लेता है कि वह लड़की ऐसी ही थी; और हर बार चित्र बर्बाद होता है. कमरे से बाहर आकर वह फुटपाथ पर एक कैफ़े में बैठता है. वहां ढेर सारे लोग हैं, उन्‍हें बार-बारी से, हरेक को देर तक, देखता है. ज़्यादातर लड़कियों को. शायद उनमें से कोई सिल्विया हो. शायद वे सब ही सिल्विया हों. वह वहां भी चित्र बनाता है. लोग आपस में बातें कर रहे हैं, पर कोई कुछ नहीं बोल रहा. हर तरफ़ चुप्‍पी है. सिर्फ़ रेखांकन बोल रहा है, टेबल पर अचानक गिर पड़ी कॉफ़ी बोल रही है, बीच-बीच में एक दक्षिण एशियाई फूल वाला बोल रहा है, गले में घडि़यां और ज़ंजीरें टांग कर बेचता एक अफ्रीकी बार-बार आता है और घड़ी ख़रीद लेने का प्रस्‍ताव करता है, एक पूर्वी यूरोपियन संगीतकार है, जो धुनों पर खेल रहा है; ये सारे लोग बोल रहे हैं, लेकिन ये सब शहर की आवाज़ में बोल रहे हैं, किसी व्‍यक्ति की आवाज़ में नहीं. यहीं से यह फिल्‍म व्‍यक्तियों की फिल्‍म होने से स्‍वयं को निरस्‍त कर देती है. 

वहां किसी का इंतज़ार करते बैठे नायक को अचानक दुकान की कांच में एक लड़की का चेहरा दिखता है और उसे जैसे यक़ीन हो जाता है कि वही सिल्विया है. वह उसका पीछा करने लगता है. इस गली, उस गली, इस सडक, उस सड़क. वह उसके पीछे-पीछे है, उस तक पहुंचने-पहुंचने को है कि ठिठक जाता है, शायद उसके भीतर का संदेह उठ गया है, पर फिर पीछे लग जाता है. पहले उस लड़की को पता नहीं चलता, पर जैसे ही पता चलता है, उसकी रफ़्तार में तेज़ी, अनिष्‍ट की आशंका और बच निकलने की साहस-भरी बेचैनी आ जाती है. वह ग़च्‍चा देना चाहती है. किसी दुकान में छुप जाती है, लेकिन नायक बाहर इंतज़ार कर रहा है. निकलने के बाद, थोड़ी देर तक और पीछा होते जानने के बाद वह एक ट्राम में चढ़ जाती है. नायक भी. उसके नज़दीक जाकर खड़ा हो जाता है. वह सहमी हुई है. वह उसे थोड़ा सहज करते हुए पूछता है, क्‍या तुम्‍ही सिल्विया हो. वह इंकार करती है कि वह किसी सिल्विया को नहीं जानती. वह बार-बार पूछता है. बताता है कि छह साल पहले मिली थी, पर वह लड़की, जो अब थोड़ा सहज हो गई है, हंसकर इंकार कर देती है. अपने स्‍टॉप पर उतरकर लड़की पीछे मुड़ती है और हाथ हिलाकर मुस्‍कराकर उसे बाय करती है. 

यहां एक पल को यह लगता है कि वही लड़की सिल्विया थी, जो अब मुस्‍करा रही है, मिल जाने पर भी जा रही है. पर ऐसा कुछ भी स्‍पष्‍ट नहीं. नायक वापस होटल लौट आता है और अगले दिन फिर सिल्विया की खोज में भटकने लगता है. 

2007 में आई यह फिल्‍म है स्‍पैनिश फि़ल्‍मकार ख़ोसे लुई गेरीन की. गेरीन उन लोगों में से हैं, जो कभी परंपरागत प्‍लॉट, नैरेटिव्‍स, कहानी और चित्रांकन पर यक़ीन नहीं करते. वह अनुभूतियों, तर्कों, विधाओं और तकनीकों को बेहद ख़ूबसूरती से आपस में मिश्रित कर देते हैं और नाज़ुक दृश्‍य–बंध की रचना करते हैं. इसी फि़ल्‍म में वह जितना अवां-गार्द होते हैं, उतना ही पुरातन भी. परिमार्जित पुरातन अवां-गार्द की शहतीर होता है. गेरीन के पास भी है. जब सिनेमा की शुरुआत हुई थी, तो जिस तरह उत्‍साही अमेच्‍योर्स कैमरे से शहरों, जगहों की चलती-चुप तस्‍वीरें लिया करते थे, इसे देखकर उनकी याद हो आती है. 

गल्‍पेतर औज़ारों से गल्‍प की रचना की चुनौती उन्‍हें तमाम प्रोवोकेटिव-मेलोड्रामाटिक यूरोपीय निर्देशकों से अलग कर देती है. फि़ल्‍म एक शहर का विज़ुअल स्‍टेटमेंट है, आसानी से गले के नीचे नहीं उतरती, हमारा दर्शक दस मिनट में कुर्सी छोड़ सकता है, लेकिन कलाकृतियां दर्शकों के उठने-बैठने से महान नहीं बनतीं. स्‍वाभाविक है कि गेरीन की फि़ल्‍में व्‍यावसायिक सफलता नहीं पातीं. और उसकी ऐसी कोई आकांक्षा भी नहीं दिखती. इसीलिए वह बिना किसी स्‍क्रीनप्‍ले के फि़लमें बनाया करते हैं. उनका मानना है कि स्‍क्रीनप्‍ले फि़ल्‍मकार का हाथ बांध देने वाली रस्‍सी होती है. 

एक इंटरव्‍यू में गेरीन बताते हैं कि इस फि़ल्‍म के लिए वह सात साल तक तैयारी करते रहे. उस दौरान वह कई बार स्‍ट्रॉसबुर्ग गए, उनमें विचार था कि एक चित्रकार-फि़ल्‍मकार एक लड़की को खोज रहा है, जिसे वह 22 साल पहले जानता था, वह एक नर्स थी. इसके लिए उन्‍होंने शहर की तस्‍वीरें खींचनी शुरू कीं, अस्‍पतालों, बस-अड्डों के पास चलती हुई महिलाओं की पीछे से तस्‍वीरें लीं और उन तस्‍वीरों को आधार बनाकर उन्‍होंने फि़ल्‍म पर काम शुरू किया. इन सारी तस्‍वीरों को इकट्ठा कर उन्‍होंने एक डॉक्‍यमेंटरी बनाई ‘ऊनास फोतोस एन ला थिउदाद दे सिल्विया’ यानी सिल्विया के शहर की कुछ तस्‍वीरें. वह अपनी डॉक्‍यूमेंट्रीज़ के लिए ख़ासा जाने जाते हैं और यही कारण है कि उनकी फ़ीचर फि़ल्‍मों में डॉक्‍यूमेंटरी का ख़ास पुट होता है. अमूमन उनकी फि़ल्‍मों को ‘नॉन-फि़क्‍शन’ कहा जाता है. अगले बरसों में यह ‘इन द सिटी ऑफ़ सिल्विया’ में तब्‍दील हुई, तो इसमें कुछ बदलाव भी कर दिए. 

गेरीन के यहां फ़ैक्‍ट और फि़क्‍शन ब्‍लर हो जाते हैं और न्‍यौता देती काल्‍पनिकता दर्शक को अपनी अनुभूतियों का कायांतरण करने को प्रेरित करती हैं. यह बचपन के उस परीक्षात्‍मक खेल की तरह है, जिसमें आपके सामने पेड़ों-झुरमुटों के बीच चट्टान पर साफ़ा बांधे, सिर और बांसुरी झुकाए एक लड़़के का चित्र रख दिया जाता है और उसके आधार पर आपको एक कहानी गढ़ने के लिए कहा जाता है. सिर झुकाकर न जाने किसका इंतज़ार करते उस लड़के का अनुवाद किसी के चले जाने के दुख और अवसाद में सिर झुकाए लड़के में हो जाता है या बिलकुल एक तीसरी ही गुप्‍त लिपि बन जाता है वह, पर चित्र इतना ख़ूबसूरत दिखता है कि उसे सिर्फ़ एक कहानी में रिड्यूस कर देने से मन की इच्‍छा नहीं भरती. बार-बार अलग-अलग कहानी में जाया जाता है. जो उपस्थित है, कल्‍पना उसे नकार देती है, और जो अनुपस्थित है, वहां प्रवेश कर लेते ही उसका उपस्थित हो जाना घटित हो जाता है. इस तरह उसे भी एक नकार मिलती है. उपस्थित और अनुपस्थित का यह खेल चलता रहता है. अपनी भाषा के बौना रह जाने और उसे दूसरे की त्‍वचा से रगड़कर उसमें घुल जाने की अव्‍यक्‍त वाणी है यह. एक परित्‍यक्‍त इच्‍छा, जो देहरी पर बैठकर अपनी उपस्थिति का बलवान अहसास कराती है. 

‘अ लवर्स डिसकोर्स’ में बार्थ ने कहा था- ‘मैं दूसरे की अनुपस्थिति को दुनिया में अपनी उ‍पस्थिति का जिम्‍मेदार मानता हूं. मैं इस दुनिया से हटना चाहता हूं, लेकिन उसके लिए दूसरे के लौट आने का इंतज़ार करता हूं. वह आएगा और मुझे ले जाएगा.’ 

सिल्विया की यह कहानी बार्थ की इन्‍हीं पंक्तियों के ‘उपस्थित मैं, दुनिया, इंतज़ार और अनुपस्थित दूसरे’ को तस्‍वीरों और मौन में पकड़ने की कोशिश जान पड़ती है. नायक उपस्थित है, उसकी दुनिया बार्थ की दुनिया नहीं, यह एक प्रायश्चित की दुनिया है. देर से समझ में आया प्रेम जब अपने अंकुरण के इतिहास का आभास देता है, तो प्रेम दुनियावी शक्‍ल में नहीं आता, वह हाथ से निकल गई एक इच्‍छा और उसे पा न सकने के अवसाद भरे प्रायश्चित में आता है. नायक के इस अजीबोगरीब दुनिया में होने का कारण क्‍या है- सिल्विया का अनुपस्थित होना. अगर वह पहले से उपस्थित होती, तो नायक इस दुनिया में पहुंचता ही नहीं. अब वह उसका इंतज़ार कर रहा है- बेचैन तलाश के पहियों पर गतिमान इंतज़ार. वृत्‍ताकार इंतज़ार जिसमें आरंभ और अंत मिश्रित हो जाते हैं. अगर यह अनुपस्थित दूसरा यानी सिल्विया मिल जाती है, तो नायक इस प्रेम-प्रायश्चित की दुनिया से बाहर निकल जाएगा. सो, उसके बाहर निकलने की जिम्‍मेदारी भी उसी अनुपस्थित दूसरे पर है. यहां छूकर चले गए प्रेम का आफ्टर टेस्‍ट है. तलाश कई किस्‍मों की होती है. एक तो उस चीज़ की तलाश होती है, जो आपके पास थी, लेकिन अब खो गई है. दूसरी तलाश उस चीज़ की होती है, जो आपके पास कभी नहीं थी, लेकिन आप उसे पाना चाहते हैं. पहले में आपके पास अपनी तलाश व चीज़ का एक रेखांकन होता है, दूसरी तलाश में रास्‍तों का रेखांकन हो सकता है, चीज़ का बहुधा नहीं होता. वह अपने अमूर्तन में आपकी तलाश को अग्नि-सा भड़काती जाती है. 

नायक की तलाश ये दोनों नहीं हैं, बल्कि वह इसीलिए अद्वितीय हो जाती है, क्‍योंकि उसकी तलाश में इन दोनों तलाशों का मिश्रण है. उसे सिल्विया मिली थी, परंतु उस समय प्रेम नहीं हुआ था. जब प्रेम जैसा कुछ हुआ, तो सिल्विया नहीं थी. तब तक यह भ्रम भी भीतर बैठ गया कि क्‍या सिल्विया कभी थी भी? जो चीज़ थी और नहीं भी थी, उसकी तलाश का रास्‍ता क्‍या होगा? रेखांकन तो है, लेकिन वह इच्‍छा का है, इच्छित का नहीं, तो रेखांकन असल है? एक मोहक भ्रम, एक मासूम-सी माया इस फिल्‍म की कविता का रचाव बनाती है. प्रेम का वह‍ क्षण, जिसमें उसका अंकुरण होता है, उसे कब पकड़ा जा सकता है? अंकुरण तो एक ही क्षण में होता है, बाक़ी सारे क्षण तो पश्‍चात-कथाएं होती हैं. क्‍या वह एक क्षण सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण नहीं है? किंतु उसके आने, खो जाने के बारे में कितनी बार पता चल पाता है? सिल्विया कोई लड़की नहीं थी, उस ‘ठीक एक क्षण’ का इम्‍पर्सोनेटेड रूप है, जिसमें प्रेम अंकुरित होता है, और जिसके बारे में हमें बहुत बाद में पता चलता है. यह फिल्‍म बहुत बारीक स्‍तर पर जाकर समय के हाथ से छूट जाने की कहानी बन जाती है. 

उन्‍हें अपने दर्शक की बिल्‍कुल चिंता नहीं होती, इसीलिए दर्शक उनके साथ हो जाता है. यह बात बार-बार रेखांकित की जाती है कि इस फिल्‍म में संवाद न के बराबर हैं. ट्राम के दृश्‍य के अलावा कहीं कोई संवाद नहीं, लेकिन एक संगीत लगातार इसके भीतर गूंजता रहता है. महान फिल्‍मकारों की माकूल अनुपस्थिति इस फिल्‍म के उपस्थित होने की जिम्‍मेदार बन जाती है. जैसे यासुजिरो ओजू अपनी गति-संरचना के साथ इसमें आते हैं, बिल्‍कुल अनुपस्थि‍त होकर. ओजू की फिल्‍में इस बात का सुंदर उदाहरण होती थीं कि जब आ‍कृतियों का लोप हो जाता है, तो परिवेश उभरने लगता है. बहुत कम फिल्‍मकार होते हैं, जो अपनी कृतियों में अपने लिए एक निश्चित रफ्तार का प्रस्‍ताव करते हैं और उसे आखिरी फ्रेम तक निबाह भी ले जाते हैं. इसे साधारण शब्‍दों में कहा जाए, तो यूं कि वे अपनी कार लगातार 60 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पर ले जाते हैं, न पांच किलोमीटर कम, न पांच ज्‍यादा. दो घंटे तक लगातार इसी रफ्तार को मेंटेन रखना लगभग असंभव काम होता है. पर कला में इसे संभव कर दिखाया जाता है. ओजू और ब्रेसां जैसे फिल्‍मकारों ने किया है. 

सिल्विया की गति-संरचना ओजू को एक श्रद्धांजलि भी है. ओजू एक व्‍यक्ति की कहानी को एक पूरे समूह, फिर समाज की कहानी में तब्‍दील कर देने के हुनरमंद थे. सिल्विया की कहानी पहले एक चित्रकार, फिर एक लड़की की कहानी बनती है, लेकिन आकृतियों का जल्‍द ही लोप हो जाता है, तस्‍वीर में शहर बसने-बढ़ने लगता है. इसकी संवादहीनता का अर्थ मौन नहीं है. पूरी फिल्‍म में शहर बोलता है, जंज़ीर और लटकती घडियां बोलती हैं, ट्राम बोलती है, पदचाप बोलती है, खड़ंजा बोलता है, कोला के केन पर पड़ी जोरदार लात से निकली आवाज़ बोलती है, किसी की प्रतीक्षा करती वायलिन बोलती है, आसपास की कारें बोलती हैं. ये सब आवाज़ें पहले एक शहर की आवाज़ बन जाती हैं, फिर पता चलता है कि यह तो दरअसल नायक के भीतर से निकल रही आवाज़ थी. फिर यह भी आभास होता है कि पूरा शहर ही नायक के भीतर से निकल रहा है. एक अप्राप्‍य स्‍त्री की अनुपस्थिति में पूरा एक शहर उपस्थित हो जाता है. 

और आखिर शहर उपस्थित क्‍यों हो जाता है? सिल्विया खो सकती है, तो भला शहर क्‍यों नहीं खो सकता? यह सिल्विया का ही तो शहर है. पर या तो सिल्विया रहेगी, या शहर. यही तो प्रेम का जादू होता है. वह अपनी सुंदरता और दैनंदिनी में मौजूद है. यह मौजूदगी ही बताती है कि सिल्विया नहीं है. शहर और दुनिया की सारी आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, इसीलिए तो अंदर की कोई आवाज नहीं आ रही. और इसीलिए तो इस आवाज में इजाफा करती मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रही. 

चित्र का एक अर्थ दृश्‍य से मुक्ति भी है. मुक्ति का एक अर्थ विस्‍तार भी है. आवाज का एक अर्थ ध्‍वनि से मुक्ति भी है. मुक्ति का एक अर्थ गहरा धंसा मौन भी है. समय का एक अर्थ काल से मुक्ति भी है. मुक्ति का एक अर्थ असीमित संकुचन भी है. प्रेम का एक अर्थ इच्‍छा से मुक्ति भी है. मुक्ति का एक अर्थ यात्रा भी है, क्‍योंकि लक्ष्‍य हमेशा भ्रम होते हैं. सच तो यह है कि यात्राएं ही इतिहास में लक्ष्‍य का स्‍थानापन्‍न बन जाती हैं.



6 comments:

sarita sharma said...

सपने और हकीकत के बीच चलती फिल्म.नायक सिल्विया से प्रेम तब करने लगता है जब वह उससे दूर जा चुकी होती है.स्मृति के आधार पर उसे खोजना बहुत मुश्किल है.यादें हमेशा हूबहू चित्र नहीं बना सकती हैं.फिल्म की तकनीक अनूठी है .किसी की तलाश हम लंबे समय बाद कैसे कर सकते हैं वह भी पहले चित्र बनाकर.रिश्तों का अधूरापन यादों का भ्रमजाल इस फिल्म में बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है.लेख में फिल्म का सटीक विश्लेषण किया गया है "परिमार्जित पुरातन अवां-गार्द की शहतीर होता है'और "फि़ल्‍म एक शहर का विज़ुअल स्‍टेटमेंट है'.कम संवादों वाली शहर को चित्रित करने वाली ऐसी फिल्में काश हिंदी में भी बनें.

vandana khanna said...

भाषा त्‍वचा है; मैं अपनी भाषा को दूसरी भाषा से रगड़ता हूं. जैसे कि मेरे पास उंगलियों की जगह शब्‍द हों, या शब्‍दों की पोर पर उंगलियां रहती हों. मेरी भाषा इच्‍छाओं से कंपकंपाती है...बेहद खूबसूरत, पूरा का पूरा, अभी इसी के नशे में हूँ, कुछ चीजें अभी समझ रही हूँ , उसके लिए दोबारा पड़ना होगा...सही है sarita ji काश के ऐसी फ़िल्में हिंदी में भी बनें.

अजित वडनेरकर said...

"कलाकृतियां दर्शकों के उठने-बैठने से महान नहीं बनतीं"
सही कहा।
बढ़िया समीक्षा।

mamta vyas bhopal said...

बहुत सुन्दर और बहुत गहरे अर्थों में बात को संप्रेषित किया आपने | भाषा इक त्वचा है --बहुत खूब | वाकई देखा जाए तो शब्द कितने मामूली होते है | इक खाली खोल की तरह | हम उनमे भाव भर कर उन्हें अर्थपूर्ण करते हैं | कैसे जीवित हो उठते है इक इक शब्द | और जब यही शब्द हम किसी के पास भेजते है तो वो उसे छूने लगते है |
शब्दों के रूप में हम ही तो उसे स्पर्श करते है | हम मामूली से दिखने वाले शब्दों में ही जीते है | जीते रहते है | पल -पल ये शब्द हमारे अन्दर सांसें भरते है | तो कभी कहीं यही शब्द हमें मार ही डालते है | या कहूँ मारते ही रहते है पल -पल | क्षण क्षण |
अब बात सिल्विया की ---ऐसा नहीं लगता की हम सभी को इक सिल्विया की तलाश है | वो सिल्विया जो कभी इक झलक दिखा कर गुम हो गयी | जिन्दगी की तरह | और हम खोजते रहे उसे ताउम्र ...सय्यारोंमें , बियाबानों में , हरेक चेहरे को छू कर देखते है | कहीं ये वही तो नहीं | जब कहीं से कोई खुश्बू चली आई हम चल दिए जहाँ ले चले वो ...उसके रूबरू उसकी ही जुस्तजू करते हुए | पर वो है कहाँ ? कोई तस्वीर नहीं बनती | क्या तलाश है कुछ पता नहीं | सिल्विया की तलाश हम सभी को है | सभी की आखों में इक सिल्विया बसी है | उसे खोजते खोजते पूरी दुनिया देख लेते है हम | उम्र भी गुजार आते है | सच्ची बात है वो सिल्विया भीतर ही थी | इसमे ये बात सोचने की है की , बाहर की जो चीजे आपको खींच रही है | यकीनन वो सदियों से आपके मन में ही छिपी हुई थी | उसका प्रतिबिम्ब बाहर दिखता है और हम बौराए से उसके पीछे चले जाते है | इसलिए ये तलाश कभी पूरी नहीं होती | आदतन तुमने कर दिए वादे| आदतन हमने एतवार किया | तेरी राहों में रुक रुक कर हमने हमारा ही इन्तजार किया |

GGShaikh said...

स्त्री की शक्ल में इच्छा का रेखांकन...

गीत जी,
आपके आलेखों में 'अथाह' विस्मित करे...
'अथाह' और अस्तित्व एक समान...आपकी अभिव्यक्ति ही आपके व्यक्तित्व की पहचान है...और इस अभिव्यक्ति में हमारे वर्तमान की भी पहचान निहीत... जहां मूर्त अमूर्त का भेद मिट जाए और 'क्लिक' हो जाए हमारा 'होना'...
हम अंधी भीड़ में भी जी उठे, खिल उठे...
हमारे 'स्व' की भी पहचान रेखांकित है आपके आलेखों में. आप के ही संग...
आपकी अभिव्यक्ति कविता-सी जहां कवित्व की खींचातानी भी नहीं.

अनुपमा पाठक said...

समय के हाथ से छूट जाने की कहानी और लक्ष्य का अधिकांशतः भ्रम होना...!
समुद्र की गहराई लिए हुए बेहद सुन्दर विवेचना!