Painting : Ravindra Vyas, Indore. |
कविता के भीतर कुछ शब्द लगातार कांपते रहते हैं. वे पत्तों की तरह होते हैं. हवा का चलना बताते हैं. दिशा-बोध कराते हैं. कांपते हुए शब्दों का दायित्व है कि वे दूसरे शब्दों को जगाए रखें, जिलाए रखें.
कविता के सौष्ठव और प्रभाव पर तभी फ़र्क़ पड़ता है, जब उन शब्दों के साथ अभ्यास व प्रयोग किया जाए. बाक़ी शब्द इतने सेंसिटिव नहीं होते.
कविता अपने में प्रयुक्त सारे शब्दों पर नहीं, महज़ कुछ शब्दों पर टिकी होती है. उन शब्दों से बनने वाले अदृश्य वातावरण पर टिकी होती है. क़रीब से देखें, तो अदृश्य पर सबकुछ नहीं टिक सकता. ध्वनि टिकती है. दृ श्य टिकता है. तरंग टिकती है. और आकाश भी इसी अदृश्य पर टिका है. बहुत दूर से पृथ्वी को देखें, तो पता चले कि पृथ्वी भी निराधार है. अदृश्य पर टिकी है.
इसलिए हर चीज़ को क़रीब से देखने की ज़रूरत भी नहीं. दूर होकर देखना बहुधा पूरा देखना है. यह उसी तरह है, जैसे बचपन में हम एक खेल खेलते थे. एक गेंद में रबर की रस्सी बंधी होती है. रबर का एक सिरा हम उंगली में बांध लेते, फिर गेंद को हाथ में पकड़ ठीक सामने फेंकते. गेंद तेज़ी से दूर जाती, उतनी ही तेज़ी से लौट आती. लौटती गेंद को पकड़ना आसान नहीं होता. यह उसे पकड़ लेने का खेल था.
कवि उसी गेंद पर बैठा होता है. वह जितनी तेज़ी से चीज़ के क़रीब जाता है, उतनी ही तेज़ी से लौट भी आता है. तेज़ी के इन्हीं पलांशों के बीच उसे अपनी स्थिरता का ग्रहण करना होता है. वे पल, पलांश ही उसकी काव्य-दृष्टि की मर्जना करते हैं.
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(डायरी का एक टुकड़ा. अभी समालोचन पर मेरी डायरी के कुछ टुकड़े प्रकाशित हुए हैं. डायरी मेरे नोट्स हैं. पढ़ाई या न-लिखाई के दिनों में साथ रहती है. उसमें निजी ब्यौरे बहुत कम होते हैं. मेरे पास बहुत कम निज है. जो निज है, वह इतना ज़्यादा निज है कि मैं उसे डायरियों को भी नहीं बताता.
बहरहाल, डायरी के उन टुकड़ों को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर जा सकते हैं. ऊपर जो टुकड़ा लगा है, वह समालोचन की प्रस्तुति में शामिल नहीं है.)
समालोचन : निज घर : गीत चतुर्वेदी की डायरी
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ऊपर लगी कलाकृति हमारे प्यारे मित्र रवींद्र व्यास की है. आज 10 अप्रैल उनका जन्मदिन है. उन्हें जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएं देते हुए यह सब उन्हें समर्पित.
5 comments:
नमन करती हूँ आपकी लेखनी को............
बस इतना ही..
अनु
"दूर होकर देखना बहुधा पूरा देखना है"
ये बात अच्छी लगी । पता नहीं क्यों । आपकी शैली में कहूँ तो अच्छी है, इसीलिए अच्छी लगी ।
क्या इस अच्छा लगने में मेरा अच्छा होना यानी अच्छे को ग्रहण करना, अच्छे को मान्य करना, स्वीकार करना शामिल नहीं ?
छोड़िए, आपकी शैली आपकी है । फिलहाल तो इस अच्छी टिप्पणी को कबूल कीजिए ।
आपकी डायरी पढने को मिलती रहे |
geet, kya kahoon! tumhara likhaa hamesha pasand aataa hai! kai cheezen dobara-tibara padhata hoon!
dher saari shubhkaamnaon k saath!
कवि उसी गेंद पर बैठा होता है. वह जितनी तेज़ी से चीज़ के क़रीब जाता है, उतनी ही तेज़ी से लौट भी आता है. तेज़ी के इन्हीं पलांशों के बीच उसे अपनी स्थिरता का ग्रहण करना होता है. वे पल, पलांश ही उसकी काव्य-दृष्टि की मर्जना करते हैं.
बहुत सुंदर विश्लेषण
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