Art : Mike Stillkey |
लिखने-पढ़ने को लेकर एक चर्चा सबद पर हुई थी. वहां के सवाल-जवाब यहां भी :
१. आप कब लिखते हैं?
इसका कोई निश्िचत समय नहीं है. कई बार ऐसा होता है कि कोई विचार या छवि मन या दृष्टि में आई, और उसे उसी क्षण लिख लिया गया.और कई बार ऐसा होता है कि कोई विचार या छवि पंद्रह साल से मन के भीतर थी, और अब जाकर लिखी गई. जैसे परागण की प्रक्रिया है.तितलियां एक फूल पर बैठती हैं, उसके परागकणों को अपने पैरों में चिपकाकर दूर देश ले जाती हैं और वहां उन परागों का बीजन होता है.तितलियों के पैर में चिपकते समय यह पता नहीं चलता कि उस परागकण का कोई अस्तित्व भी है या नहीं, और उसका भविष्य क्या होगा.लेखन में आने वाली छवियां भी ऐसी ही होती हैं. विशेषकर वे, जिनके बारे में हम कहते हैं कि ये बरसों पहले की कोई छवि अथवा विचार हैं. वेछवियां या विचार बरसों तक मन के भीतर की हवा में भटकते हैं, बाहर आते हैं, तो कई बार पता भी नहीं चलता था कि ये भी भीतर थे. अमूमन,तुरंत कुछ नहीं होता, सिवाय एक टेंपरेरी जॉटिंग के, वह विलंबित रहता है. किसी विचार को कब लिखा जाना है, इसलिए यह तय नहीं होता.
२. क्या लिखने का कोई तय वक़्त है?
हां. लिखने की अलग्-अलग छवियां हैं. लिखना मेरे लिए निहायत निजी काम है. कोई मुझे देख रहा हो, तो मैं लिख नहीं सकता. जैसे कोई मुझेदेख रहा हो, तो आम नहीं खा सकता. आम खाना भी निहायत निजी रस है. मुझे हैरत होती है कि ग़ालिब सबके सामने आम कैसे खा लेते थे.और लोग भी. :-) इसीलिए मैं अमूमन रात को लिखता हूं, यह तय होने के बाद कि अब मुझे लिखता देखने के लिए कोई शरीर नहीं आएगा.इसका एक व्यावहारिक कारण नौकरी भी है. हालांकि मेरे लिए कोई नियम अंतिम नहीं होता, मैं ख़ुद को चौंका देता हूं और सबसे ज़्यादा वादाखि़लाफ़ी भी ख़ुद से ही करता हूं. इसीलिए कुछ चीज़ें मैंने दिन में भी लिखी हैं. 'पिंक स्लिप डैडी' का एक हिस्सा मैंने मुंबई एअरपोर्ट के बाहरएक ओपन रेस्त्रां में लिखा था. ट्रेन में यात्रा करते हुए भी मैंने कुछ चीज़ें लिखी हैं. लेकिन यह सब हमेशा नहीं. नियमित लेखन के लिए रात कासमय तय है. लिखते समय कई बार मुझे रेफरेंस की ज़रूरत पड़ती है, डायरी में लिए गए नोट्स पढ़ने होते हैं, मुझे अच्छा लगता है कि लिखतेसमय मेरे चारों ओर किताबें, फिल्में और संगीत हो. यह हर कमरे में उपलब्ध नहीं. इसलिए मैं अपनी स्टडी में, अपने टेबल पर ही बैठकर लिखता हूं.
३. लिखने के लिए कम्प्यूटर या कागज़ में से किसका इस्तेमाल करते हैं और क्यों?
अब काग़ज़ की आदत नहीं रही. मानसिकता भी वैसी नहीं रही. काग़ज़ कुछ भी लिखा जाए, तो वह प्रथमदृष्टया जॉटिंग्स होते हैं. मुख्य लेखनसीधे लैपटॉप पर ही होता है. मैं कई बरसों से कम्प्यूटर के साथ हूं. और अधिकतम लिखाई उसी पर है. काग़ज़ ज़्यादा श्रम लेता है. मुझे रफ़्तारपसंद है. और की-पैड पर उंगलियां कई बार मन में आने वाले विचारों की रफ़्तार के साथ तालमेल बिठा लेती हैं. बशर्ते की-पैड रफ़्तार से घबराकर मशीन को हैंग न कर दे. लिखने के बाद उलटफेर करता हूं और वह कम्प्यूटर पर आसान है. गैजेट्स और तकनीक मुझे आकर्षित करते हैं. इसलिए जब कुछ नहीं होता, तो मैं अपने मोबाइल पर भी लिख लेता हूं, कई बार अपने टैब पर भी. मुझे याद है कि कविता की कुछ पंक्तियाँ ऑन-द-गो सूझी हैं और उन्हें मैंने मोबाइल पर टाइप कर ख़ुद को ही एसएमएस कर दिया है.
४. लेखन के बीच अन्तराल या निरन्तरता किस तरह बनाते हैं? यह चीज़ तो बिल्कुल अपने हाथ में नहीं है. मैं निरंतरता बनाना चाहता हूं, जीवन अंतराल बनाता है. दोनों के बीच छीनाझपटी चलती है. और दोनों एक दूसरे से दुखी हो जाते हैं. चूंकि मैं एक थीम या प्लॉट पर काफ़ी समय तक काम करता रहता हूं, इसलिए पहली दिक़्क़त यह होती है कि इतने समय के लिए एक विचार को, उसके कई सहयोगी विचारों को, अपने दिमाग़ में बनाए रखना. उसके सूत्र को पकड़े रखना. इसीलिए मेरे लिए कौंध का विशेष महत्व नहीं है. कौंध भी संचयित हो जाती हैं. तुरंत बाहर आ नहीं दमकतीं. जैसे 'सावंत आंटी की लड़कियां' लिखने में मुझे चार साल का समय लगा था, और उस दौरान मैंने पांच शहर बदले थे. कुछ दिन लिखने के बाद सब कुछ छूट जाता, और मैं लगभग यह भूल जाता कि आखि़र बात कहां छूटी थी, मुख्य विचार क्या था. हर चीज़ के नोट्स लेने, ईको की तरह चित्र और नक्शे बनाने की पुरानी आदत के कारण काफ़ी चीज़ें संभल जातीं. दो-तीन सिटिंग के स्ट्रगल के बाद मैं वापस अपनी लय पकड़ पाता. इसीलिए लिखने से पहले हर चीज़ के नोट्स बनाने को मैं अपने लिए ज़रूरी मानता हूं.
लेखक हमेशा एक रायटर्स ब्लॉक की तरफ़ अग्रसर होता है. यदि रचनात्मकता कोई प्रवाह है, तो यक़ीनन उसमें बाधाएं भी होंगी. सारी धाराएं अंतत: एक विशाल और व्यापक बाधा की ओर प्रस्थान ही हैं. मुझे कई बार रायटर्स ब्लॉक का अनुभव होता है. इस सवाल के साथ मुझे कालिदास का एक सुंदर बिंब याद आता है. कुमारसंभव का दृश्य है यह. तपस्या के बाद पार्वती को शिव के दर्शन हुए हैं. वह आगे बढ़कर शिव को छू लेना चाहती हैं, लेकिन साथ ही खुद को रोक भी देती हैं. कालिदास यहां एक बिंब देते हैं कि जिस तरह नदी एक बाधा के पास पहुंचकर अपने प्रवाह को वापस मोड़ लेती है, दीवार से टकराकर पानी थोड़ा मुड़कर या तो पीछे की तरफ़ अपना रास्ता बनाता है, या ज़रा-सा दूसरे किनारे की ओर बढ़ जाता है, उसी तरह पार्वती अपना एक पैर उठा लेती हैं, जिससे यह भान होता है कि वह आगे बढ़ रही हैं, लेकिन अपने दूसरे पैर को वह टिकाए रखती हैं यानी ज़मीन भी नहीं छोड़ रहीं यानी आगे बढ़ना भी नहीं चाहतीं. कालिदास ने दृश्य को यहीं फ्रीज कर दिया है. यह स्त्रियोचित गति और स्थैर्य का, मन और अन्यमनस्कता का, आगे बढ़ने और रुक जाने का बहुत सुंदर बिंब है. यह अवांतर अर्थों में प्रेम की प्रतीक्षा का बिंब हो, लेकिन कई बार मुझे यह रायटर्स ब्लॉक का बिंब दिखता है. यह रचनात्मकता का भी बिंब है. लेखक हमेशा पार्वती जैसी इसी मुद्रा में रहता है. एक पैर आगे बढ़ाए हुए, हवा में और दूसरा पैर रोके हुए, ज़मीन पर टिकाए हुए. आप कभी भी रचना की तरफ़ पूरी तरह, दोनों पैर बढ़ाकर नहीं जा सकते. आपमें जितनी गति होगी, उतना ही स्थैर्य भी होगा. आप जितना मन से कर रहे होंगे, उतनी ही अन्यमनस्कता भी होगी. मैं हर समय लिख रहा होता हूं और हर समय एक ब्लॉक में भी रहता हूं. मन और अन्यमनस्कता के बीच, गति और स्थैर्य के अनुपात में फ़र्क़ आता है, तो वह ब्लॉक बन जाता है. मेरे साथ कई बार होता है ऐसा.
कुछ बहुत ही स्थूल किस्म के कारण भी होते हैं. मनोदशा, परिस्थितियों के अलावा कई बार कोई ऐसा असाइनमेंट अपने हाथ में ले लें, जो दरअसल आपकी सीमा से काफ़ी बाहर हैं. ख़ुद को स्ट्रेच करने के बाद भी वहां तक नहीं पहुंच पाते, फिर भी संघर्ष कर रहे हैं, तो नतीजा यह निकलता है कि आप जो मूल काम कर रहे थे, उससे तो भटक ही गए, यह जो बीच में काम शुरू किया था, यह भी गया. जैसे क्रिकेट में खिलाड़ी फॉर्म खो देते हैं, एक संघर्ष भरी पारी के बाद, उसी तरह लेखन में भी होता होगा. कई बार मैं मित्रों-संपादकों को नाराज़ कर देता हूं, और इसी डर के कारण मना कर देता हूं. क्योंकि ऐसे कामों के कारण यह ब्लॉक मेरे अनुभव में आ चुका है.
वैसे, मैं यह मानता हूं कि ऐसा ब्लॉक होना बहुत ज़रूरी है. यह विश्लेषण का समय देता है. प्रवाह में आई कोई भी बाधा एक ख़ास कि़स्म का घर्षण पैदा करती है और घर्षण अमूमन ऊर्जा के कारक बनते हैं. ठीक ब्लॉक के वक़्त में बेचैनी होती है, अवसाद आता है, लेकिन उसके बाद ताज़गी भी दिखती है. यह सांप का केंचुल छोड़कर अपना त्वचा को पुनर्नवा करते रहने के उपक्रम की तरह है.
रायटर्स ब्लॉक का चूंकि कोई एक कारण होता नहीं, इसलिए उससे निपटने का भी कोई एक तरीक़ा नहीं हो सकता. यह बहुत निजी और इंडीविजुअल्स के हिसाब से बदलता जाता है. जैसे क्रिकेट में कहते हैं न, अपने बेसिक्स से चिपके रहो, लाइन और लेंग्थ पर ध्यान दो, फुटवर्क और टाइमिंग संभालो. वही करता हूं. ब्लॉक्स के दिनों में मैं मिनिमलिस्ट हो जाता हूं. बहुत बुनियादी तकनीकों का प्रयोग करता हूं. उन दिनों मेरा लक्ष्य किसी भी तरह ख़ुद को अभिव्यक्त कर लेना होता है. अभिव्यक्ति की सुंदरता द्वितीय हो जाती है. संकट तो अभिव्यक्ति पर है. एक बार वह संकट हटा दिया जाए, तो अभिव्यक्ति में कलात्मक सुंदरता को वापस पाया जा सकता है. उसमें आप ख़ुद एक बदलाव महसूस करते हैं. अचानक एक चमकीला विचार या एक चमकीली पंक्ति आती है, जो आपको ब्लॉक से बाहर खड़ा कर देती है. जैसे मुझे याद है, उभयचर में मैंने एक पंक्ति लिखी है, 'दुर्भाग्य के दिनों में सुंदरता की फि़क्र करना कला से ज़्यादा जिजीविषा है.' यह पंक्ति एक ब्लॉक के दौरान ही लिखी गई थी. उस समय मैं ख़ुद से जूझ रहा था और मैंने पाया कि जब आप न लिखने के संकट का साहस से सामना करते हैं, तब आपकी जिजीविषा ही आपकी कला बन जाती है.
न लिखने के दिनों में मैं बहुत कुछ करता हूं. पढ़ता हूं. बार-बार पढ़ी गई चीज़ों को बार-बार पढ़ता हूं. बीस साल पुराना ग्रीटिंग कार्ड खोजता हूं और पंद्रह साल पुरानी कोई तस्वीर. बहुत पीछे छूट गए किसी शख्स या बात का चेहरा खोजता हूं. जिन लोगों से प्रेम करता हूं, उनसे जी खोलकर बातें करता हूं. जल्दी सोने की कोशिश में बिस्तर में घुस जाता हूं और छह घंटे तक करवटें बदलने के बाद पाता हूं कि सो ही नहीं पाया, जाने क्या-क्या सोचता रहा. सड़क पर देर तक पैदल चलता हूं. पौधे लगाता हूं. उन्हें पालता-पोसता हूं. कुछ स्केच बनाता हूं, कभी-कभार पेंटिंग कर लेता हूं, किचन में कोई एकदम देसी या एकदम विदेशी या एकदम प्रायोगिक, व्यंजन बनाता हूं. कमरे की बत्ती बुझाकर अधलेटा संगीत सुनता हूं. नया संगीत खोजता हूं. पुराने के पास फिर-फिर जाता हूं. मोत्ज़ार्ट, फिलिप ग्लास और प्रैसनर तीनों को एक साथ चला देता हूं एक ही कमरे में, फिर स्वरलहरियों को खोजता हूं. फिल्में देखता हूं. अगर उस दौरान कुछ और काम नहीं, या छुट्टी का दिन है, तो एक ही दिन में चार-चार फिल्में देख लेता हूं. ये यब ऐसी हरकतें हैं, जिन्हें मेरे घरवाले नहीं समझ पाते और बहुत अचरज से देखते हैं. पर यह सब कुछ करते हुए दिमाग़ में लगातार वही चीज़ चलती रहती है, जो मैं लिख नहीं रहा, लेकिन जिसे मैं जल्द ही लिखने वाला हूं. दरअसल, जिन वक़्तों में मैं नहीं लिख रहा होता, उन्हीं वक़्तों में लिख रहा होता हूं. बाक़ी के दिन तो टाइपिंग के दिन हैं.
कितने घंटे का हिसाब नहीं बनता. ज़रूरी नहीं है कि आप छह घंटे टेबल पर बैठे हैं और सारा समय लिखते ही रहें, हो सकता है कि उन छह घंटों में आपने छह मिनट ही लिखा हो. लेकिन यह ज़रूर है कि मैं अपनी टेबल पर बैठता ज़रूर हूं, भले दो घंटे रोज़ के लिए या छह घंटे रोज़ के लिए. इस दौरान बहुत कुछ होता है. संभव है कि मैं किसी विचार के शक्ल लेने का इंतज़ार कर रहा होऊं. हो सकता है कि काफ़ी समय तक उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ जाए. उस दौरान मैं पढता रहता हूं. संगीत सुनता हूं या पसंदीदा फिल्मों की पसंदीदा क्लिप्स देखता हूं. उस समय किसी मित्र से बात ही कर रहा होऊं. इस बारे में मुझे काफ़्का की वह बात बहुत पसंद है, जो उन्होंने फेलिस को एक ख़त में लिखी थी- 'जैसे मुर्दे को उसकी क़ब्र से अलग नहीं किया जाता, उसी तरह कोई मुझे अपनी राइटिंग टेबल से अलग करने की कोशिश न करे.' लिखने की मेज़ लेखक का ताबूत होता है. वह उसी में दफ़न रहता है. अगर आप मेज़ पर नहीं लिखते, तो भी उस जगह का यही मतलब है.
८. कितना लिख लेना एक दिन में पर्याप्त लगता है ?
यह भी अमूर्त है. पर्याप्त की बात तो ऐसे है कि एक ही बैठक में महाकाव्य लिख डालने की आस बन जाए. कोई भला प्रतीक्षा की वेदना से क्यों गुज़रना चाहेगा ? कई बार ऐसा होता है कि लिखने से पहले यह समझ में आ जाए कि क्या लिखने जा रहे हैं. अगर किसी प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है, तो पहले से पता होता है कि यह-यह लिखना है. यह देखना सुखद होता है कि जो-जो आप जिस-जिस तरह लिखना चाहते हैं, उस-उस को उसी-उसी तरह लिख ले रहे हैं. यह संतोष देता है. बाक़ी समय नोट्स लिखना चलता है और वह एक बैठक में एक पंक्ति भी हो सकता है. दिन-भर में मैं इतनी ई-मेल्स के जवाब देता हूं कि कई बार वह भी पूरा-पूरा लेखन ही लगता है. हालांकि पैक-अप करते समय मैं माइक्रोसॉफ़्ट वर्ड में जाकर, (मैं उसे बुनियादी टाइपिंग के लिए कभी इस्तेमाल नहीं करता, मेरी नज़र में वह बहुत ख़राब प्रोग्राम है टाइपिंग या लेखन के लिए) वर्ड काउंट ज़रूर करता हूं, क्योंकि उस प्रोग्राम का वर्ड काउंट सबसे सही है. कभी पचास शब्द होते हैं, तो कभी पांच सौ. एक दिन में अपने लिए डेढ़ हज़ार शब्द लिख लेना उत्सव की तरह है. मैं फ़ाइल पर पिछली सिटिंग के वर्ड काउंट डाल देता हूं. जब मुझे पता चला कि हेमिंग्वे भी रोज़ का लिखा गिनते थे और नोट करके महीने का औसत निकालते थे, तब मुझे अच्छा लगा था वह. फिर भी शब्द संख्या से ज्यादा महत्वपूर्ण संतोष और आनंद है, क्योंकि बाज़ दफ़ा ऐसा भी हो चुका है कि आज के लिखे हज़ार शब्द, कल दुबारा पढ़ने पर पूरी तरह डिस्कार्ड भी हो जाते हैं.
९. पढ़ने के लिए कितना वक़्त निकालते हैं ?
अमूमन दोनों का वक़्त एक ही है. उसी सिटिंग में पढ़ना भी है, उसी में लिखना भी. मेरे पास प्रिंट की किताबों से ज़्यादा ई-बुक्स हैं, इसलिए ऑन-द-गो मोबाइल में भी पढ़ना हो जाता है. जब मैं किसी थीम पर काम कर रहा होता हूं, तो सिर्फ़ वही चीज़ें पढ़ता हूं, जिनका संबंध मेरी थीम से होता है. वैसे भी, मेरी पढ़ाई बहुत फोकस्ड और थीमेटिक रही है. मैं सब कुछ नहीं पढ़ पाता.
१०. पढ़ने की आदत लेखन में बाधक तो नहीं ?
यह वही बात है कि जब आप सांस छोड़ते हैं, तो क्या आपको सांस लेने में दिक़्क़त महसूस होती है? लिखना ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पढ़ना अपने आप शामिल है. मेरे लिए दोनों एक ही प्रक्रिया के दो खंड या पहलू हैं. जब मैं पढ़ रहा होता हूं, तब भी लिख रहा होता हूं. बिना उंगलियों की जुंबिश के. और जब लिख रहा होता हूं, तो भी पढ़ ही रहा होता हूं.
1 comment:
एक दिन में चार चार फ़िल्में!! आदतें मिलती जुलती हैं :)
Post a Comment