व्यास हिमाचल को रूप देती है, आकार देती है. शील, सैन, संस्कार देती है. व्यास तीरे मैं उसे देखता रहा, सुनता रहा.
कहते हैं कि वशिष्ठ ने पुत्रशोक से विह्वल होकर अपने को रस्सी में बांध यहीं-कहीं व्यास में छोड़ दिया था. इस गंभीरा नदी ने वशिष्ठ को पाशमुक्त किया और किनारे लगाया. तब से यह विपाशा कहलाती है. लेकिन हम तो इसे सिर्फ़ इसलिए विपाशा न मानेंगे कि इसने कभी वशिष्ठ का पाश हरा. हम तो इसे तब विपाशा मानें, जब यह हमारा पाश हरे. हम अंदर-बाहर पाशों से बंधे हुए हैं. कहीं झटक कर छुड़ाते हैं, तो ये राग-द्वेष दूसरी ओर से, दूसरे रूप में, अरूप में आकर बांध लेते हैं. ये पाश अंतर, अंतरतम के हैं और बाहर के भी हैं. मैं विपाशा तीरे अपने पाश देखता रहा. विपाशा को देखता रहा. सुनता रहा. फिर जैसे सब देखना-सुनना सुन्न हो गया. भीतर-बाहर सिर्फ़ हिमवान, वेगवान, प्रवाह रह गया. न नाम, न रूप, न गंध, न स्पर्श, न रस, न शब्द. सिर्फ़ सुन्न. प्रवाह, अंदर-बाहर प्रवाह. यह विपाशा क्या अपने प्रवाह के लिए है? क्या इसीलिए गंगा, यमुना, सरस्वती, सोन, नर्मदा, वितस्ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी की तरह विपाशा महानद है? पुण्यतमा है? क्या शीतल, नित्य गतिशील, सिलसिले में ही ये पाश कटते हैं? विपाश होते हैं?
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यह लिखना भी देखने में बाधक होता है. एक कि़स्म का परिग्रह होता है. अहंता है- मैं इसे लिखूंगा. ममता है. इसलिए संचय की भावना आ जाती है. फिर आरंभ करिए, तो इच्छा और परिग्रह का अंत नहीं होता. इसलिए सध सके, तो बिल्कुल ही न लिखें; न लिखने के लिए देखें. सिर्फ़ देखते रहें, तो ही ठीक देखना होता है. उस देखे की भाषा मौन होती है. उस संवेदन का प्रकाश नहीं किया जा सकता. लेकिन जीने के लिए अंतों को छोड़ना अच्छा होता है. इसलिए न तो बस लिखने के लिए लिखने की अति हो कि देखना ही न हो सके, न सिर्फ़ देखना ही देखना हो कि कुछ लिखा ही न जा सके. इसके बीच क्या कोई रास्ता है कि देखना भी परिमित हो, लिखना भी, इच्छा भी.
वैसे स्मृति भी एक पाश है. भोग की स्मृति, चाहे दुखभोग हो, चाहे सुखभोग, बंधनकारक होती है. मरण स्मृति शायद मुक्त करती है. मरना है, यह याद रहे तो आदमी या औरत बहुत-से झंझटों से छूट जाता है. इसकी अति भी बरजने जैसी है. हमेशा यह लगा रहे कि अब मरा, तब मरा, या मरना है, इसलिए लट्ठे की तरह पड़े रहना है, तो यह भी अच्छा नहीं. स्मृति चाहे भोग की हो, चाहे मरण की, पाश ही है. क्योंकि यह 'जो नहीं है' को 'जो है' पर थोप देती है. इसलिए 'जो है' उसमें जीना नहीं होता. स्मृति काल-क्रम को ही तखड़-पखड़ कर देती है.
( ब्यास तीरे खड़े होने पर कृष्णनाथ बेतहाशा याद आए थे. यह उनकी पुस्तक 'स्पीति में बारिश' का एक अंश है.)
15 comments:
बहुत सुंदर। भावों और शब्दों के अद्भुत चितेरे कृष्णनाथ के यात्रावृत्त स्थानों से होते हुए आख्यानों के पुण्यलोक में ले जाते हैं। ...एक दार्शनिक चेतना के साथ।
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"कैसा है यह मेला?
अशब्द। शब्द-अर्थ से परे। दिक्-काल से परे। सन् संवत् से परे। हिन्दू या बौद्धधर्म के परे। आदिम ढांचा है। आदिम ही शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श है।"
स्पिति में बारिश की अगली कड़ी किन्नर धर्मलोक से...
व्यास है या ब्यास......कविवर..कथावर....पत्रकर...
यह लिखना भी देखने में बाधक होता है. एक कि़स्म का परिग्रह होता है. अहंता है- मैं इसे लिखूंगा. ममता है. इसलिए संचय की भावना आ जाती है. फिर आरंभ करिए, तो इच्छा और परिग्रह का अंत नहीं होता. इसलिए सध सके, तो बिल्कुल ही न लिखें; न लिखने के लिए देखें. सिर्फ़ देखते रहें, तो ही ठीक देखना होता है. उस देखे की भाषा मौन होती है. उस संवेदन का प्रकाश नहीं किया जा सकता. लेकिन जीने के लिए अंतों को छोड़ना अच्छा होता है. इसलिए न तो बस लिखने के लिए लिखने की अति हो कि देखना ही न हो सके, न सिर्फ़ देखना ही देखना हो कि कुछ लिखा ही न जा सके. इसके बीच क्या कोई रास्ता है कि देखना भी परिमित हो, लिखना भी, इच्छा भी.....
ये टुकड़ा तो उतर गया है भीतर। आपकी पिछली पोस्ट भी अच्छी लगी थी पर खुद को उस कविता के बारे में कुछकह पाने में असमर्थ पाते हुए चुप रहा था। यह बस देखने का सुख था...
बहुत अच्छा पीस छांट कर लाए गीत भाई!
और इतनी सारी नदियों के नाम और उनकी स्मृतियां ... गंगा, यमुना, सरस्वती, सोन, नर्मदा, वितस्ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, विपाशा ...
बहुत सुन्दर!
सलिए सध सके, तो बिल्कुल ही न लिखें; न लिखने के लिए देखें. सिर्फ़ देखते रहें, तो ही ठीक देखना होता है. उस देखे की भाषा मौन होती है. उस संवेदन का प्रकाश नहीं किया जा सकता. लेकिन जीने के लिए अंतों को छोड़ना अच्छा होता है. इसलिए न तो बस लिखने के लिए लिखने की अति हो कि देखना ही न हो सके, न सिर्फ़ देखना ही देखना हो कि कुछ लिखा ही न जा सके. इसके बीच क्या कोई रास्ता है कि देखना भी परिमित हो, लिखना भी, इच्छा भी.
कुछ शब्द भी कैसे बोलते है ना !!
जहां कृष्णनाथ के शब्द हैं, वहां व्यास है (चूंकि पुस्तक में यही वर्तनी है, क्यों छेड़ूं, जब छिड़ने को छिड़के-छिनकहे तैयार हैं) :-)
नीचे जहां मेरे कुछ शब्द हैं, वहां ब्यास है.
बस, यही है.
अरे वाह सर ब्यास जी का संबंध गुरू वशिष्ठ से भी था ये तो आज पहली बार ही सुना मैंने
बहुत बहुत धन्यवाद इतनी रोचक जानकारी देने के लिए
ओ भाजी, थोड़ा जिहा आराम वी कर लिया करो। नहीं तां जल्दी बुड़े हो जाऊंगे, फिर जे बुड़े हो गए तां देखन वाली मौन भाषा ही कोल रह जाणी है होर कुछ नहीं।
हा हा हा
धन्यवाद ऐसी पोस्ट पढ़ाने के लिए। जो तीन पहरों में जाने कितना कुछ समेटे हुए है।
bahut badhiya hai.
वैसे स्मृति भी एक पाश है. भोग की स्मृति, चाहे दुखभोग हो, चाहे सुखभोग, बंधनकारक होती है. मरण स्मृति शायद मुक्त करती है. मरना है, यह याद रहे तो आदमी या औरत बहुत-से झंझटों से छूट जाता है. इसकी अति भी बरजने जैसी है. हमेशा यह लगा रहे कि अब मरा, तब मरा, या मरना है, इसलिए लट्ठे की तरह पड़े रहना है, तो यह भी अच्छा नहीं. स्मृति चाहे भोग की हो, चाहे मरण की, पाश ही है. क्योंकि यह 'जो नहीं है' को 'जो है' पर थोप देती है. इसलिए 'जो है' उसमें जीना नहीं होता. स्मृति काल-क्रम को ही तखड़-पखड़ कर देती है.
'स्पीति में बारिश' sampoorna hi ek behtreen kruti he..
sadhuvaad jo fir ek baar yaad aayaa..
अले...महान कवि....खरे की .....छवि
धन्यवाद ,
इस ब्लाग के लिए।मुझे पहले पता नही था
कि ब्लाग्स पर वो सब कुछ है, जो मैं चाहता
हूँ।पुनः बधाई।
ANDEKHE KI MOUN BHSA
sahi baat hai, HUM TO ISE TAB BIPASA MANE, JAB YAH HAMARA PASH HARE.
kya piece khojkar laye ho yaar...maza aa gaya.
aaj rasranjan ke saath padha
pata nahi kiska nasha zyada hai!!1
jite raho
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