अम्मा-बाबा-दादी टाइप के संबोधनों वाले बूढ़ों के ज़माने के कांपते गीतों में से
किसी की मौज या शग़ल है ताल-बेताल-क़दमताल
ओह, देखो-देखो, अब भी वही सिंदूर तिलकित भाल
या पूरे इतिहास को दिखा दे ताक़त के खेल की ताक़त है
पूरब के मेटा-फि़जि़क्स का मोटा फ़ार्मूला है - के एक दिन तय है सबका मरना
मेरा कर्मा... कर्मा... कर्मा... तू... मेरा धर्मा... धर्मा... धर्मा
ऊप्स! तीनों में से कोई फ़ुक्कट में नहीं मरा, काम करते-करते मरा,
जिनके लिए शहीद जैसा कोई शब्द क्यों नहीं, ऐसा प्लकार्ड लिए अभी गुज़रे थे स्वामी वर्ग-चैतन्य कीर्ति-आकांक्षी 1008
भुजंग की तरह मैं भी पूछ बैठा - शिवाकाशी का बचपना क्यों नहीं जाता...
आईक्यू जितना कम होगा, कविता उतनी अच्छी होगी; जीवन भी
मैं कहता हूं, जहां रहना है वहां से संन्यास ले लीजिए; इसमें डुप्लेक्स रिहाइश का मज़ा है :-)
नको बाबा
कक्षा 1ली वर्ग अ और वर्ग ब का संघर्ष नहीं, बहुत जटिल है जितना कि विचित्र मेरा वर्ग-मानचित्र है
जो है उसे वैसे ही पेश करना रिवायतों के खि़लाफ़ है
तो जैसे मैं घर की बरमूडा और टी-शर्ट पहने ही दफ़्तर आ गया
उसी तरह इस पेशकश में पेश्ट करता हूं
ग़ौर से पढि़ए, यह मेरे मध्य-वर्ग का मर्म-गीत है :
राजा मरा लड़ाई में
रानी मरी कड़ाही में
बच्चे मरे पढ़ाई में...
(अगस्त 2009 में लिखी गई कविता. इधर, प्रतिलिपि के ताज़ा अंक में चेस्वाव मिवोश की एक कविता पर कुछ लिखा है. यहां पढ़ सकते हैं.)
7 comments:
बढ़िया है भाई!!
अपने टेस्ट का
mivosh ki kavita.....
duniya ko dekhne ka ek nazariya hi ho sakta hai sirf...
jaise hum book of genesis me likhi gayee baato'n ko bhi kavita hi maan le agar to....
un poorvjo ki likhi huyee jinki drishti mivosh jaisi nahi thi...
shayad sankuchit thi ya fir doordrishti........
kya pata???
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vaise apka lekh bahut achha hai. badhayee.
उत्तम!
आभार.
इसका असर किसी कविता में ही फूट सकता है...
कलम के महारथी को ब्लॉगवुड में देखकर दिल खुश हो उठा। पता मनीषा पांडे के ब्लॉग़ से मिल गया।
बिलकुल सटीक।
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