बहुत पहले दुनिया में सिर्फ़ रात थी, मेरी कंखौरियों में मिट्टी के दिए चिपके थे. मैं उड़ने के लिए हाथ उठाता, दिए अपने आप बल उठते. रोशनी की फुहार उठती, बरसती. मैं हाथ नीचे करता, अंधेरा फिर हो जाता. मुझे इस तरह देखने के बाद ईश्वर ने जुगनू बनाए.
फिर भी उड़ने का हुनर मुझे कभी न आया. न ही रोशनी का भंडारगृह बन पाया.
जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है.
(मोत्सार्ट सिंफनी नंबर 1)
12 comments:
sundar rachna..sachmuch ek image bana deti hai nazar ke samne..jugnuon ke banne ka itihas rochak tha.. :-)
जुगनू से साक्षात्कार...अनूठी रचना
अँधेरे में मुस्कुराते जुगनू की तरह आपकी रचना ...
अद्भुत.....
जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है........
दार्शनिक....
कंखौरी = बाहुमूल के नीचे का गड्ढा, काँख।
जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है..कितना सच!!!
जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है..कितना सच!!!
रोशन दूसरों के अँधेरो को जो लोग किया करते हैं वो भी तो जुगनू कि मानिंद ही जला करते हैं??नहीं?
बहुत बढ़िया
nice...
यह लघुकथा खलील जिब्रान की याद दिलाती है जिसमें गहन चिंतन और दर्शन है. नायक उजाले का दूत होते हुये भी जीवन में अँधेरे को दूर नहीं कर पाता .गीत की रचनाओं में अनेक स्वर स्तर हैं जिनका सीधा सरल एक अर्थ तो किया ही नहीं जा सकता.हाँ कोशिश की जा सकती है की यह कहना चाहते होंगे .जैसे जीवन से अधिक बड़ा सच मृत्यु है वैसे ही प्रकाश की तुलना में अँधेरा अधिक व्याप्त रहता है.
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