Saturday, April 24, 2010

जुगनू


बहुत पहले दुनिया में सिर्फ़ रात थी, मेरी कंखौरियों में मिट्टी के दिए चिपके थे. मैं उड़ने के लिए हाथ उठाता, दिए अपने आप बल उठते. रोशनी की फुहार उठती, बरसती. मैं हाथ नीचे करता, अंधेरा फिर हो जाता. मुझे इस तरह देखने के बाद ईश्‍वर ने जुगनू बनाए.

फिर भी उड़ने का हुनर मुझे कभी न आया. न ही रोशनी का भंडारगृह बन पाया.

जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है. 




(मोत्‍सार्ट सिंफनी नंबर 1)


12 comments:

स्वप्निल तिवारी said...

sundar rachna..sachmuch ek image bana deti hai nazar ke samne..jugnuon ke banne ka itihas rochak tha.. :-)

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

जुगनू से साक्षात्कार...अनूठी रचना

Renu goel said...

अँधेरे में मुस्कुराते जुगनू की तरह आपकी रचना ...

डॉ .अनुराग said...

अद्भुत.....

Vivek Ranjan Shrivastava said...

जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है........
दार्शनिक....

सोनू said...

कंखौरी = बाहुमूल के नीचे का गड्ढा, काँख।

Pooja Prasad said...

जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है..कितना सच!!!

Pooja Prasad said...

जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है..कितना सच!!!

Alpana Verma said...

रोशन दूसरों के अँधेरो को जो लोग किया करते हैं वो भी तो जुगनू कि मानिंद ही जला करते हैं??नहीं?

Deepak chaubey said...

बहुत बढ़िया

वंदना शुक्ला said...

nice...

sarita sharma said...

यह लघुकथा खलील जिब्रान की याद दिलाती है जिसमें गहन चिंतन और दर्शन है. नायक उजाले का दूत होते हुये भी जीवन में अँधेरे को दूर नहीं कर पाता .गीत की रचनाओं में अनेक स्वर स्तर हैं जिनका सीधा सरल एक अर्थ तो किया ही नहीं जा सकता.हाँ कोशिश की जा सकती है की यह कहना चाहते होंगे .जैसे जीवन से अधिक बड़ा सच मृत्यु है वैसे ही प्रकाश की तुलना में अँधेरा अधिक व्याप्त रहता है.