एक जर्मन फिल्म में एक किरदार है, जो अपने दफ्तर की खिड़की से एक पेड़ को देखा करता है। सड़क किनारे सिर झुकाने-जैसी मुद्रा में खड़ा वह पेड़ उसे अपने बचपन के घर जैसा लगता है, कभी दबंग पिता जैसा लगता है, तो कभी नाराज़ होकर दूर चली गई प्रेमिका जैसा उदास। उस किरदार के जीवन में कुछ भी हरा नहीं बचा, इसलिए वह उस पेड़ की हरियाली को अपनी जीवन में सब्स्टीट्यूट की तरह ले लेता है। वह भीड़ में जाता है, कुछ लोगों की मदद करता है और वापस अपने अकेले फ्लैट में, भीड़ भरे दफ्तर के अकेलेपन में खो जाता है। एक दिन पाता है कि वह उस पेड़ में खुद को देखने लगा है। जीवन में हम सबको एक आईने की जरूरत हमेशा पड़ती है, जिसमें हम अपना निखालिस अक्स निहार सकें। कभी वह आईना किसी व्यक्ति के भीतर मिल जाता है, तो कभी किसी चीज के भीतर। उसे उसका आईना उस पेड़ में दिखाई दिया, जिसने बता दिया कि अगर वह अकेला है, तो उसे पेड़ की तरह जीना चाहिए। अपने अकेलेपन को खत्म भी न करे और कुछ-कुछ सबके काम भी आता रहे।
वांग कार-वाई की एक फिल्म में एक किरदार जब अपने भीतर किसी भावना के उत्पात को महसूस करता है, बहुत बेचैन हो जाता है, अपनी बात कहने के लिए उसे कोई नहीं मिलता, तो वह घर से दूर एक उपवन में अपने एक प्रिय पेड़ के पास जाता है। उसके एक कोटर में मुंह घुसाकर, फुसफुसाते हुए अपनी बात कहता है, फिर घास के तिनकों से उस कोटर को ढंक देता है। उसे लगता है कि पेड़ ने उसकी बात सुनकर, संजो ली है। वह पेड़ किसी तीसरे को नहीं बताएगा। यह दरअसल चीन के एक समुदाय की मान्यता भी है। खुद को अभिव्यक्त न कर पाने की उसकी बेचैनी खत्म हो जाती है। वह बहुत शांत महसूस करता है। उसे शांति इसीलिए मिलती है कि जिसे वह बता रहा है, वह खुद शांत है। पेड़ में चंचलता नहीं है, इसीलिए उसे विश्वास है कि उसका राज यहां राज ही रहेगा।
जिन लोगों को अकेले रहने की आदत होती है, पेड़ उनके सबसे क़रीबी साथी हो सकते हैं या उनके सबसे नज़दीकी राज़दार। अकेले रहने का हुनर भी पेड़ ही सिखाते हैं। पानी में अकेलापन नहीं होता, पहाड़ में भी नहीं, हवा में तो बिल्कुल नहीं। घास, जानवर और मछलियां भी एक खास किस्म की सामूहिकता उत्सर्जित करते हैं, लेकिन पेड़ समूहों में रहकर भी अकेलेपन का भावबोध देते हैं। मछलियां एक दिशा में तैरती हैं, पानी के अणु एक दिशा में बहते हैं, पहाड़ अपने तिकोनेपन में सबसे ऊपर सबसे ज्यादा संकुचित होते हैं। ये उनकी स्वाभाविक विशेषताएं हैं।
पेड़ों के साथ ऐसा नहीं। कतार से सारे पेड़ एक ही दिशा में नहीं झुके होते। जंगल को देखिए, हर पेड़ अकेला है, तभी तो अपनी-अपनी राह बढ़ता है। उनका अकेलापन, वृद्धि की स्वच्छंद इच्छा और नितांत निजी शख्सियत ही जंगल के सौंदर्यबोध का विकास करती हैं। पेड़ों की सामूहिकता मनुष्य की सामूहिकता से मिलती-जुलती है। भरी भीड़ में अकेला होने की सामूहिकता। आदमी का व्यवहार भी ऐसा ही होता है। दोस्ती किसी से भी हो सकती है, लेकिन विश्वास वह उन्हीं पर कर पाता है, जिनमें पेड़ जैसी विशेषताएं हों। यानी जिनमें स्थिरता हो, कम से कम चंचलता हो, जो अपने अकेलेपन में भी मदद की छांव बढ़ाए रखते हों, जो अपने भीतर की हरियाली को सामने वाले के भीतर रोप सकें, कड़ी धूप में भी शीतलता का निर्यात कर सकें और छोटे-मोटे धक्कों से उखड़ न जाएं।
16 comments:
पेड़ से ज्यादा दरख़्त शब्द अकेलेपन का बोध कराता लगता है |
@जिन लोगों को अकेले रहने की आदत होती है, पेड़ उनके सबसे $करीबी साथी हो सकते हैं या उनके सबसे नज़दीकी राज़दार।
'करीबी' शब्द के आगे $ चिन्ह क्या किसी वजह से लगाया है ?
सच..
बहुत आत्मीय गद्य...इन द मूड फॉर लव...का वह दृश्य घूम गया आंखों में...और यह : ''पानी में अकेलापन नहीं होता, पहाड़ में भी नहीं, हवा में तो बिल्कुल नहीं। घास, जानवर और मछलियां भी एक खास किस्म की सामूहिकता उत्सर्जित करते हैं, लेकिन पेड़ समूहों में रहकर भी अकेलेपन का भावबोध देते हैं'' लाजवाब स्थापना है...शुक्रिया
प्रभावी आलेख. वैसे इस पेड़ को कहीं देखा है.
... bhaavpoorn lekhan !!
खुद को अभिव्यक्त न कर पाने की बैचेनी ,जीवन की कुछ जटिल घटनाओं में से एक है ,और यह 'बैचेनी'ही शायद कभी कभी किसी साहित्यिक रचना के ज़न्म की वज़ह भी होती है ,बावजूद इस त्वरित समाधान के,बैचेनी से छुटकारा पाना आसान नहीं होता ,बस,लेखन के जरिये उसे बांटा या express भर किया जा सकता है !सतत प्रक्रिया ...!बैचेनी मनुष्य की स्वभावगत विशेषता है,अतः इसका समाधान सिर्फ अध्यात्म से ही संभव है,जिसका आरंभ ही मौन (शांत )और धेर्य से होता है!मौन रहना या करना अपने अप में एक पूर्ण समाधान है ,जो पेड़ प्रत्यक्षतः ,और हर पल हमें महसूस कराते हैं !
@नीरज
अमूमन मैं दूसरे फॉन्ट में लिखता हूं. यहां के लिए यूनिकोड में कन्वर्ट करना पड़ता है. कन्वर्ट करते समय नुक़्ते इस चिह्न $ में बदल जाते हैं.
बस, उसे सुधारना रह गया था. यहां वह 'क़रीब' में क का नुक़्ता है. अब ठीक कर दिया है.
पारुल, अनुराग, पीएनजी, नयाजी और वंदना का शुक्रिया.
दोस्ती किसी से भी हो सकती है, लेकिन विश्वास वह उन्हीं पर कर पाता है, जिनमें पेड़ जैसी विशेषताएं हों।...
बात में दम है !
पता नहीं....मेरे निजी अनुभव थोड़े अजीब है...छोटा था ...आठवी में .देहरादून में पढता था .अक्सर स्कूल पैदल जाता .....जाने क्यों रस्ते के पेडो को शुक्रिया कहता .ऑक्सीजन ओर छाया देने के लिए.....शायद उस वक़्त पड़ोस में रह रहे एक नए बाबा का असर ज्यादा था ....उस साल मेरा स्वास्थ्य सबसे अच्छा रहा ....स्कूल में एक नयी इमेज मिली...वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ..पेशे के मुताल्लिक ऐसी बाते अजीब सी लगती है ....शायद जे सी बोस ने किसी ज़माने में क्या सोचा हो .पर बचपन की कई न भूलने वाली बातो में से एक बात ये भी है ....
आपने मुझे वापस उन रास्तो पे धकेल दिया ......
शुक्रिया वाणी जी, अनुराग जी.
बात मन के भ्रम की है, यह भी भ्रम ठीक है, वैसे ये सब एक किस्म के पागलपन के लक्षण है...अफ़सोस कि यह पागलपन सुन्दर नही बन पाया, विचार भ्रमित है..अकेलेअपन को परिभाषित करने की विफ़ल चेष्टा
कोटर में मन की बात संजो कर रखनेवाली बात अच्छी लगी. कभी कर के भी देखूंगी. अभी तो सोच कर ही अच्छा लग रहा है!
ye ped to mera vahi dost hai
jis se mai sari bate karti hun
bahut khub
...
ye ped to mera vahi dost hai
jis se mai sari bate karti hun
bahut khub
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ye ped to mera vahi dost hai
jis se mai sari bate karti hun
bahut khub
...
जिन लोगों को अकेले रहने की आदत होती है, पेड़ उनके सबसे क़रीबी साथी हो सकते हैं या उनके सबसे नज़दीकी राज़दार। अकेले रहने का हुनर भी पेड़ ही सिखाते हैं। पानी में अकेलापन नहीं होता, पहाड़ में भी नहीं, हवा में तो बिल्कुल नहीं। घास, जानवर और मछलियां भी एक खास किस्म की सामूहिकता उत्सर्जित करते हैं, लेकिन पेड़ समूहों में रहकर भी अकेलेपन का भावबोध देते हैं। मछलियां एक दिशा में तैरती हैं, पानी के अणु एक दिशा में बहते हैं, पहाड़ अपने तिकोनेपन में सबसे ऊपर सबसे ज्यादा संकुचित होते हैं। ये उनकी स्वाभाविक विशेषताएं हैं।
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सचमुच ..........
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