The 400 blows |
फ्रेंच निर्देशक फ्रांसुआ त्रूफो की फिल्म 400 ब्लोज़ के आखिरी दृश्य में समंदर आता है, जबकि उस फिल्म का किशोरवयीन नायक शुरुआत से ही अपनी सबसे बड़ी आकांक्षा यह बताता है कि उसे समंदर देखना है। आकांक्षाएं हमारे भीतर शुरुआत में ही बनती हैं। ऐसे भी कह सकते हैं कि जब आकांक्षाओं का उत्पादन हमारे भीतर होता है, वही हमारी शुरुआत का क्षण बन जाता है, जबकि ऐसा बहुत कम होता है कि जीवन की फिल्म का आखिरी फ्रेम चल रहा हो और हम पाएं कि सामने हमारी आकांक्षाओं का समंदर डोल रहा है।
जीवन जितना बारीकियों से बनता है, उतना ही विस्तारों से भी। किशोरवयीन नायक दौड़ता हुआ समंदर की ओर जाता है और उसके ठीक नज़दीक पहुंचकर, पैर गीले करके, वह लौट पड़ता है। दौड़ते हुए कैमरे में समा जाता है। आकांक्षा की पूर्ति तुरंत दूसरी आकांक्षा के जन्म का क्षण होता है। वह जैसे ही समंदर को सामने देखता है, उसके भीतर जीवन का उद्दाम विस्तार अपनी जगह बनाता है और वह उसे छूकर लौटता है, जीवन के नए रास्तों के लिए। यहां एक क्रिया के रूप में लौटना महत्वपूर्ण है। बिना लौटे आगे नहीं बढ़ा जा सकता, कोई बड़ा स्वप्न नहीं देखा जा सकता। समंदर लौटना सिखाता है।
समंदर का सारा पानी ताउम्र इस कोशिश में रहता है कि वह किसी तरह किनारे पहुंच जाए। पर दुनिया का कोई समंदर किनारे पर अपना घर नहीं बना पाया। लहरें किनारे पर पहुंचती हैं, किनारे को छूकर अपना पैर गीला करती हैं और फिर लौट जाती हैं। इसी से समंदर का जीवन चलता है। अगर ये न हो, तो समंदर अपना समंदरपना खो देगा। हम अपने एक सपने के लिए जी रहे होते हैं, उस सपने को पूरा कर पाते हैं और वहां से तुरंत लौट आते हैं, अगले सपने के लिए।
एक यूनानी लोककथा में एक बच्चा अपनी मां से पूछता है कि सपने कहां से आते हैं? वह कहती है- दुनिया के सारे सपने समंदर के पेट में रहते हैं। वहां से एक सीढ़ी सीधा चांद के दरवाज़े पर जाती है। वे एक-एक सीढ़ी चढ़कर चांद पर जाते हैं और वहां से हमारी नींद के समंदर में आ जाते हैं। इसीलिए जब हम सपना देख रहे होते हैं, चांद मुस्करा रहा होता है, कभी पूरा सफेद बनकर, कभी अंधेरे में खुद को छिपाकर।
फिर हमारे देखे हुए सपने कहां जाते हैं? शायद वे वापस समंदर के भीतर चले जाते हैं। एक दूसरी कहानी याद आती है, जिसमें एक बच्चा पूछता है कि आंख से गिरने के बाद आंसू गाल पर तो दिखता है, उसके बाद कहां चला जाता है? यहां भी जवाब देने वाली मां ही है- गाल जहां खत्म होते हैं, वहां से समंदर शुरू हो जाता है। आंसू समंदर में चले जाते हैं। जैसे सारी बारिशें समंदर के पानियों के ऊपर उठ जाने से होती हैं, उनसे नदियां भरती हैं और नदियां वापस समंदर में चली जाती हैं।
यानी जहां सपनों का घर होता है, वहीं आंसू का भी घर होता है। सपने आंखों में रहते हैं। आंसू भी वहीं रहते हैं। और समंदर के पेट में भी दोनों साथ-साथ ही रहते हैं। दोनों ही दुख, विफलता, भावुकता और अतिरेकों की उत्पत्ति हैं। पीड़ा न हो, तो आंसू न होगा। पीड़ा न हो, तो कोई बड़ा स्वप्न भी नहीं होगा। आंसू न हो, तो स्वप्न भी नहीं होगा। और स्वप्न न हों, तो विफलता या सफलता के आंसू भी न होंगे। दोनों लौट-लौटकर एक-दूसरे के भीतर जाते हैं। और लौटना, तो समंदर का ही गुण है।
आंसू के नुक्तों को पकड़कर गाल से नीचे कूद जाया जाए, तो समझ आएगा, समंदर और कुछ नहीं होता, सिवाय एक संचित रुदन के। विज्ञान के लिए वह पानियों का समुच्चय होता होगा, लेकिन मनुष्यों को उसे एक स्वप्न की तरह देखना चाहिए, लाड़ से भरी एक सांत्वना, जो भीतर से बहुत गीली होती है, लेकिन पुचकारकर जो सांत्वना देती है, वह पैरों में टिके रहने लायक लोहा पैदा कर देती है।
(दैनिक भास्कर से)
12 comments:
true....!
beautiful !!!!!
बहुत सुन्दर निर्दोष रचना... कोमल... आपकी कविताओं जैसी... इसमें कविता और संगीत को महसूसा जा सकता है...
''गाल जहां खत्म होते हैं, वहां से समंदर शुरू हो जाता है''
इस लाइन में कितना गहरा दर्शन है अगर सूमंदर रूदन है तो पूरी देह भी रूदन हो जाती है...
गीत भाई आपने स्पष्ट कर दिया है कि क्या सीधे शब्दों में समंदर को एक गीला घर कहा जा सकता है या उसे सिर्फ एक संज्ञात्मक और प्राकृतिक "चीज़" के तौर पर देखा जाए. निश्चय ही "गीला घर"... इस लेख का यूनानी लोककथाओं से जो जुड़ाव है, वह अपने में अनूठा है. समंदर की गहराई को आपने बड़ी सफलता से उस घर के माहौल का हिस्सा बनाया है, जहां किसी भी तरह के भाव या मानसिकता में अंतर का मूल बिंदु ढूंढ पाना मुश्किल होता है. सपने अजीब होते हैं, अनुत्तरित भी...हमेशा की तरह उलझे हुए-से, लेकिन इस लेख में वे एक चक्र का हिस्सा हैं (जल-चक्र की तरह) जहाँ उसे फिर से अपने मूल स्रोत में मिल जाना होता है. ख़ूबसूरत...
एक अनुरोध है कि सपनों पर भी कुछ लिखिए, उनके अनुत्तरितपन में कुछ अलग और विशेष जोड़ने की दिशा में.
हर शै में एक दर्शन छुपा है..क्या पेड़, क्या समुंदर..बस पारखी नज़र और चमत्कारी कलम की जरूरत है अभिव्यक्ति के लिए।
..बहुत सुंदर।
जीवन जितना बारीकियों से बनता है, उतना ही विस्तारों से भी।
आकांक्षा की पूर्ति तुरंत दूसरी आकांक्षा के जन्म का क्षण होता है
दुनिया का कोई समंदर किनारे पर अपना घर नहीं बना पाया।
सपने आंखों में रहते हैं। आंसू भी वहीं रहते हैं। और समंदर के पेट में भी दोनों साथ-साथ ही रहते हैं।
पीड़ा न हो, तो आंसू न होगा। पीड़ा न हो, तो कोई बड़ा स्वप्न भी नहीं होगा।
लौटना, तो समंदर का ही गुण है।
आंसू के नुक्तों को पकड़कर गाल से नीचे कूद जाया जाए, तो समझ आएगा, समंदर और कुछ नहीं होता, सिवाय एक संचित रुदन के।
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बेहद सूक्ष्म निरीक्षण है गीत जी. सम्पूर्ण समुन्दर में समा जाने जैसा. आंसू , जीवन, सपने, पीड़ा, घर, सबके साथ जोड़ लिया समुन्दर को. बहुत खूब . यूनानी लोक कथा का उदाहरण बहुत सटीक लग रहा है यहाँ.
शुभकामनाएं.
आज ४ फरवरी को आपकी यह सुन्दर विचारोत्तेजक पोस्ट और ब्लॉग चर्चामंच पर है... आपका धन्यवाद ..कृपया वह आ कर अपने विचारों से अवगत कराएं
http://charchamanch.uchcharan.com/2011/02/blog-post.html
समंदर जैसे विषय पर लीक से हट कर एक अद्भुत प्रस्तुति|
जीवन से भरपूर रचना।
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ध्यान का विज्ञान।
मधुबाला के सौन्दर्य को निरखने का अवसर।
इस रात की कोई सुबह नहीं और इन सपनो का कोई अंत नहीं...बेहतरिन post......
बहुत सुन्दर दर्शन | सागर और बूंद दोनों में कितना बड़ा अंतर ..लेकिन कहाँ है अलग ? इक से बना दूजा | सागर से ही बूंद है जिन्दा ..और बूंद से ही सागर है जीवित | मैं तो अक्सर सोचती हूँ की मीठी नदियों को ये खारा सागर इतना आकर्षित क्यों करता है ? जीवन भर पहाड़ , घाटियों से गुजर गुजर कर आखिर में तलाश सागर पर पूरी होती है | जब सभी नदियाँ मीठी है तो वो अपनी सारी मिठास से इस खारे सागर को मीठा क्यों नहीं कर देती ? या ऐसा है की संसार भर में अपनी मिठास बांटती रहती है और अपने लिए आसूँ संचित करती रहती है | और जब सागर की बाँहों में समां जाती हैं तो आसुओं का सैलाब उमड़ पड़ता होगा | और सागर खारा हो जाता होगा |
गाल से नीचे समन्दर है | बहुत खूब | आसूँ भी तब तक ही आसूँ है जब तक वो किसी गाल पर चिपका हुआ है | जैसे ही नीचे गिरा ...समाप्त | दर्द भी तो ऐसे ही बहता है हममे से | रिसता रहता है धीरे धीरे और इक दिन फिर नए रूप लेकर प्रेम के रूप लेकर | प्रेम के लिबास में | सावन बन कर बरस जाता है | आखों में सपने सजाता है | हंसाता है | और यही रुलाता भी है |
कितने सपने बह गए गालों के रस्ते से ..कौन हिसाब रखे ? कितने समन्दर बनाये हमने कौन गिने ? कभी फुर्सत मिली तो सोचेगे की कितनी बूंदे दर्द की थी और कितने कण पीड़ा के .......चलिए इक शेर सुनिए --समन्दर ने मुझे प्यासा ही रख्खा | मैं सेहरा में था जब , प्यासा नहीं था |
समुद्र बहुत आकर्षित करता है.उसके सामने जाने पर दूर तक फैली भव्यता और विशालता के समक्ष अपनी लघुता का अहसास होने लगता है.पृथ्वी के पार आंसुओं में डूबा गहन संसार.सच है सपने हमारी वे आकांक्षाएं हैं जो पूरा होने पर भी रुलाते हैं और टूटने पर भी.लहरों की तरह हम भी औरों तक जाते हैं,फिर खुद में लौट आते हैं.मन की गहराई में गोता लगाकर लिखी गयी सुन्दर रचना.
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