वह भयानक रात थी, जब उसकी आंखें नशे से डोल रही थीं और वह रिसीवर पर बाक़ायदा चीख़ रहा था, 'हलो... गीतू... मैं गुरु... मैं बहुत अकेला हूं... प्लीज़, आज मेरे पास आ जाओ... आई नीड यू गीता...'. वह गिड़गिड़ा रहा था. बरसों से एक डाह में जल रही गीता दत्त खिलखिलाईं और ज़हर बुझे तीरों से उस ख़रगोश को बींधकर रख दिया, 'आई स्टिल लव यू गुरु... पर तुम मेरे लिए नहीं, उस वहीदा के लिए तड़प रहे हो. उसे मद्रास फोन कर लो, शायद वह आ जाए. मैं नहीं आने वाली... किस मुंह से तुम मुझे बुला रहे हो...'
गीता नहीं आई. वहीदा दूर हो ही गई थी. काग़ज़ के फूल ख़ुशबू नहीं दे पाए थे. गुरुदत्त कई रातों से दुख के तंदूर में भुन रहे थे, कभी इस करवट, कभी उस करवट. उस रात अपनी पसंदीदा स्कॉच में उन्होंने नींद की बीसियों गोलियां मिला लीं. उससे पहले कभी राज कपूर को फोन करते, कभी देव आनंद को. दोनों ने आने से इंकार कर दिया. वह सिर्फ़ एक रात के लिए अपना अकेलापन किसी की गोद में रखकर देर तक रोना चाहते थे. देव के साथ 'प्रभात' के शुरुआती दिनों को याद करना चाहते थे. राज के साथ बंबई के समंदर के साथ की गई शैतानियों को सिमर भीतर से गीला होना चाहते थे. गीता से कहना चाहते थे कि उन्होंने उससे बेइंतहा प्यार किया है. वहीदा को बताना चाहते थे कि तुम मेरी कलाकृति हो और कलाकार को अपने सिर से ज़्यादा प्यारी होती है अपनी कलाकृति. उनकी इस तड़प को सनक माना गया. सबने अपने-अपने तरीक़े से इंकार कर दिया.
गुरु ने बाहोश गोलियां खाईं और बेहोशी में जिस्म को छोड़ दिया. रूह आगे-आगे भागती रही (जैसे 'काग़ज़ के फूल' का आखिरी सीन), जिस्म वहीं पड़ा दुनियादार लोगों का इंतज़ार करता रहा. उस वक़्त उनका फोन लगातार बज रहा था. गीता दत्त उन्हें कॉल कर रही थीं कि हां गुरु, मैं अभी आ रही हूं... मद्रास से वहीदा रहमान ठीक उसी समय बहुत परेशान होकर लाइटनिंग कॉल बुक करा रही थीं- मि. गुरुदत्त पादुकोण के नाम. देव आनंद और राज कपूर भी आंखें मींचते हुए उन्हें कॉल करना चाह रहे थे. पौ फट चुकी थी. गुरु के चेहरे पर यक़ीन था- ख़ुद के मर जाने का यक़ीन. इस बात का यक़ीन कि कोई नहीं आएगा अब... बिछ़ड़े सभी बारी बारी. यह यक़ीन बहुत निर्णायक होता है. मरने में बहुत मदद करता है. इसी यक़ीन ने गुरुदत्त की लाश के होंठों को एक मुस्कान सौगात की. गुरु व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ मरे थे- तिरछी मुस्कान. सबने जागने में देर कर दी थी. उस रात की सुबह बहुत रुक कर आई. कुछ घंटों के बाद पूरी दुनिया उनके दरवाज़े पर जमा थी और गुरुदत्त की रूह दरवाज़े पर दोनों हाथ फैलाए मद्धम-सी आवाज़ में गा रही थी- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है... रोशनी उस रूह के पीछे से आ रही थी. आगे तो सब कुछ अंधेरा था.
अंधेरा उसे बहुत प्यारा था. वह श्वेत-श्याम का जादूगर था. जितना श्वेत में खिलता था, उससे कहीं ज़्यादा श्याम में. वह अंधेरे में हिलती हुई एक परछाईं था. कोई उसे साफ़-साफ़ नहीं देख पाया. न गीता, न वहीदा और न ही ढाई घंटे के लिए हॉल में आने वाले दर्शक, जिनके अंधकार को रोशनी से भरने के लिए वह बरसों अपनी स्कॉच में अपने दिल के तमाम गलियारों में छाए अंधेरों का अर्क मिलाकर पीता रहा. उस अर्क को आंसू बनाकर बहाता रहा.
उसे आंसू बहुत प्रिय था. गुरुदत्त उस बूंद का नाम था, जो आंसू की कोख से निकलता है और एक बारिश में बदल जाता है. वह ग़म की बारिश था. वह नम-सी बारिश था. वह गालों को छूकर किसी अतल में जा धंसा एक अनाम-सा आंसू था. जिंदगी में हम कई लोगों को छूते हैं. कइयों से गले मिल लेते हैं, लेकिन कोई एक छुअन ऐसी होती है, जो बाक़ी तमाम स्पर्शों को हीन बताती है और अपनी अद्वितीयता में ताक़त देती है. हम सिर्फ़ उस छुअन को याद कर पूरी उम्र निकाल देते हैं. ताउम्र हमारी पूंजी सिर्फ़ एक निगाह होती है जो दिल में बस जाती है, साये की तरह बदन को लपेटती है, जो वक़्त की धूप को अपनी छांह से चुनौती देती है, अपनी ठंडक में पुचकारती है, तपिश को बर्फ़ का दान देती है और जलती आंखों को नम फ़ाहे. ताउम्र हम सिर्फ़ एक मुस्कान को याद रखते हैं, जो किसी फुनगी की तरह उमगती है. हम सिर्फ़ एक हुलस में जीते हैं, जो फ़सल के बीचोबीच चुनरी लहराकर लहलहाती है.
हम एक सच पर पूरी दुनिया वार देते हैं, एक झूठ पर ख़ुद को क़त्ल कर देते हैं. गुरुदत्त भी एक छुअन में जिये. वहीदा की उस निगाह में उन्होंने अपना घर बना लिया, जो पहली बार हैदराबाद में उन पर आ टिकी थी. उस आंसू में रहे, जो बंगाल के शरत और नॉर्वे के नट हैमसन को पढ़कर उनकी आंखों से निकले. उस भटकन में रहते थे, जो मुंबई के नंगी रातों में सड़क पर फिसली हुई होती है.
कश्मीर की डल झील में डोलते हुए शिकारे में जब वहीदा ने उनके माथे पर चुंबन की रोली लगाई, तो उनकी आंखें छलछला गईं. उन्होंने कहा, गीता मुझे छोड़ गई है. तुम मत छोड़ना कभी. और वहीदा ने कुछ ही दिनों बाद उनका साथ छोड़ दिया. बिना पूरा सच बताए. गुरु को झूठ का यक़ीन नहीं था और सच का अंदेशा भी नहीं. वहीदा कैरियर के लिए बाहर की फिल्में साइन करने लगीं. फिल्म इंडस्ट्री भी इसी दुनिया की तरह क़दम-क़दम पर चालाक लोमड़ों से भरी पड़ी है. गुरु ने, उनके दोस्त अबरार अल्वी ने बार-बार समझाया कि तुम्हारी ज़रूरत गुरु को है. वहीदा ने अपने कैरियर और सपने गिनाए. उस दिन गुरु फिर टूटे. ऐसा टूटे कि फिर कभी जुड़ नहीं पाए. उनके माथे पर पड़ा आखिरी चुंबन चालबाज़ निकला. उसने माथे पर पड़ने वाली लकीरों को कई गुना बढ़ा दिया.
गुरुदत्त की लगभग हर चिट्ठी माफ़ी से भरी होती. एक ख़रगोश जो अपनी नींद में बाड़े तोड़ निकल भागता हो, और अपनी जाग में लौटने पर कंटीली बाड़ों से माफि़यां मांगता हो. वह एक तड़पा हुआ दिल था. प्यार की तलाश में मारा-मारा फिरता. पानी के छींटों पर बैठकर दूर-दूर तक उड़ता. दिल का कांच टूटने पर बनी किरचों पर लहू के क़तरों की तरह चस्पा रहता. वह दुनिया से सिर्फ़ एक चीज़ मांग रहा था- आओ, मुझे थोड़ा-सा समझो, थोड़ा-सा संभालो. दुनिया कह रही थी कि यह सनक का सुल्तान है. इसे कुछ मत दो. सिर्फ़ हंस दो. जबकि गुरुदत्त को उन रंगों से भी परहेज़ था जिन्हें हंसी के रंग कहते हैं. गुरुदत्त के आसपास की दुनिया उसे समझ नहीं पाई, वह जो चाहता था, नहीं दे पाई. एक दिन गुरु ने दुनिया की फ़ेहरिस्त से अपना नाम ख़ारिज कर लिया.
(9 जुलाई 2007 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित.)
17 comments:
"वाह ! गीतजी,......!"
बस पढ़ता ही रह गया !
एक अतीन्द्रिय अनुभव, .....
सादर,
मार्मिक और अपने बयान में मोहक...
लेखनी का कमाल!
एक फ़्लो में पूरा पढ़ने के बाद लगा कि अभी क्यों ख़त्म हो गया।
सारे दृश्य चित्र के समान आंखों के आगे घूमते रहे।
पहली बार यहाँ आयी हूँ ! जगह तो ठीक दिखती है !
एक दिन गुरु ने दुनिया की फ़ेहरिस्त से अपना नाम ख़ारिज कर लिया.
aisa bhi ho sakta hai ......kabhi socha n tha, gud post .
पढ़ कर बेहद छटपटाहट हुयी...
गुरुदत्त मेरे पसंदीदा निर्देशक हैं, उनकी फिल्मों में एक बेचैनी महसूस की है.
आपने बेहद अच्छा लिखा है...दर्द को, खालीपन को इतनी खूबसूरती से बयान करना मुश्किल है.
he is my fav....क्रिमनल फिल्मो से शुरुआत कर उदासी भरी रूमानी फिल्मे उनके व्यक्तित्व का एक्सटेंशन दिखाती है ....पर इमोशनली वीक आदमी थी ....हमारे यहाँ(मेडिकल फील्ड ) ऐसे लोग सुसाइड के लिए ससेटटेबल माने जाते है
गुरुदत्त से इश्क मुझे इसीलिए है के उनकी आंखों में वहीदा झलकतीं थीं.
एक पंक्ति "अनुराग वत्स" की उनके ब्लाग "सबद"
से याद आती है इस बारे -
"कि 'हम अक्सर उसे क्यों चाहने लगते हैं जो पहले से किसी और के प्यार में मुब्तिला रहता है"
कसक, ख़लिश, तड़प, सोज़...बस यही तो थे वे...एक भावुक यथार्थ..
बेहद शानदार लेख। इस लेख को लिखा भले ही कलम से गया हो लेकिन इसकी स्याही में अनुभव की नमी भरी है। बधाईयां.....
बेहद शानदार लेख। इस लेख को लिखा भले ही कलम से गया हो लेकिन इसकी स्याही में अनुभव की नमी भरी है। बधाईयां.....
इस दर्द पे जाँ निसार...
ho chuki jab khatm' apni zindgi ki dastan'
unki far'maaish huyee hai isko dobara kahe'n......
...
...दर्द और खालीपन
उफ्फ्फ..
इस पोस्ट को कई बार पढ़ा है...लेकिन अंत में एक चुप्पी के सिवा कुछ नहीं मिलता कहने को, ले जाने को
ये गुरुदत्त की चुप्पी हो सकती है...या फिर वहीदा की गुरु के जाने से पहले और बाद की चुप्पी भी
सर वहीदा के बारे में भी कुछ लिखिए....
ओहो वहीदा... वहीदा... मेरे कमरे में वहीदा की एक तस्वीर लगी होती थी, निर्मल वर्मा की पेंटिंग के साथ.
यक़ीनन, उन पर कभी न कभी ज़रूर लिखना होगा.
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