तुम्हारी परछाईं पर गिरती रहीं बारिश की बूंदें
मेरी देह बजती रही जैसे तुम्हारे मकान की टीन
अडोल है मन की बीन
झरती बूंदों का घूंघट था तुम्हारे और मेरे बीच
तुम्हारा निचला होंठ पल-भर को थरथराया था
तुमने पेड़ पर निशान बनाया
फिर ठीक वहीं एक चोट दाग़ी
प्रेम में निशानचियों का हुनर पैबस्त था
तुमने कहा प्रेम करना अभ्यास है
मैंने सारी शिकायतें अरब सागर में बहा दीं
धरती को हिचकी आती है
जल से भरा लोटा है आकाश
वह एक-एक कर सारे नाम लेती है
मुझे भूल जाती है
मैं इतना पास था कि कोई यक़ीन ही नहीं कर सकता
जो इतना पास हो वह भी याद कर सकता है
स्वांग किसी अंग का नाम नहीं
आषाढ़ पानी का घूंट है
छाती में उगा ठसका है पूस.
6 comments:
स्वांग किसी अंग का नाम नहीं
आषाढ़ पानी का घूंट है
छाती में उगा ठसका है पूस.
मार्मिक रचना..... आपके ब्लॉग पर आकर सुकून सा मिलता है.
बहुत सुन्दर कविता गीत जी | हमेशा की तरह हर दो पंक्तियों में कहानी बदल जाती है | आपकी कविताओं के किरदार बदल जाते है | इस पल जो किरदार दिल पे निशान बना कर चोट कर रहा था | अगले ही पल वो हिचकी ले रहा है | बहुत खूब | लों जी , आपने अपनी सारी शिकायते अरब सागर में बहा दी | तभी मैं कहूँ ? ये सागर इतना खारा क्यों है ? गीत जी की इक़ विशेष अदा है लिखने की , वो ही सिर्फ जानते है की कविता की कौनसी पंक्ति से वो शुरू हो रही है | मुझे लगता है , कविता इस पंक्ति से शुरू हुई है " जो इतना पास हो वो भी याद कर सकता है ? " सिर्फ इस इक़ पंक्ति पर ही इक़ पूरी किताब लिखी जा सकती है | कितना मासूम सा सवाल वो भी बिना प्रश्नवाचक चिन्ह के | बहुत खूब |
जो जितना पास होता है , वो उतना याद आता है | हीर को रांझा मिल गया था | फिर भी वो राँझा राँझा चिल्लाती रही | किसी के बहुत करीब बैठ कर उसका इंतजार करना | किसी के रूबरू होकर उसकी जुस्तजू करना | बहुत गहरे रहस्य है साहब |
हिचकी को रोकने के लिए इक़ इक़ नाम को याद करना और जो याद कर रहा है उसे भूल जाना | वो भोली नहीं जानती होगी की उसकी हिचकी अनगिनत लिए नामो में से किसी इक़ नाम के कारण बंद हुई | या सामने बैठे प्रेम में आकंठ डूबे प्रेमी ने इक़ पल के लिए अपने दिल की धडकन को रोक दिया था | अपनी सांसों को विराम दे दिया था | इस वजह से हिचकी बंद हुई है |
प्रेम की पराकाष्टा है | किसी के सामने रह कर भी उसे पाने की जुस्तजू करना | जैसे किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर उसके सुगन्धित फूलों के झरने का इंतजार करना | जैसे किसी दरगाह पे आखें बंद करके मन ही मन कहना --अर्जियाँ सारी में , चेहरे पे लिख के लाया हूँ | तुमसे क्या मांगू मैं ? तुम खुद ही समझ लों ....दरगाह के खुदा तो बिन मांगे झोली भर देते हैं | लेकिन प्रेम के खुदा बड़े निर्मम होते है | वो आपके चेहरे पर लिखी अर्जी को नहीं अपनी मर्जी को पढ़ते है | उनकी प्यास के अलग अंदाज है राशिद , कभी दरिया को ठुकराते है तो कभी शबनम भी पीते है |
यह कविता प्रेम का बारहमासा है .प्रकृति,मौसम और प्रेमियों को एक सूत्र में बांध दिया गया है.बरसात तन से अधिक मन पर पड़ती है और धरती आकाश के भीगे संवाद में दो प्रेमी निकट आते हैं.आसमानी बारिश और आंख की बारिश दोनों को मिला दिया गया है. बूंदों का घूंघट दोनों के मिलने से बना है. बरसते गगन को पानी का लोटा, आशाढ को पानी का घूँट और पूस को छाती में उगा ठसका बताना नए बिम्ब है. सीधे दिल में उतरने वाली प्रेम से ओतप्रोत कविता.
यह कविता प्रेम का बारहमासा है .प्रकृति,मौसम और प्रेमियों को एक सूत्र में बांध दिया गया है.बरसात तन से अधिक मन पर पड़ती है और धरती आकाश के भीगे संवाद में दो प्रेमी निकट आते हैं.आसमानी बारिश और आंख की बारिश दोनों को मिला दिया गया है. बूंदों का घूंघट दोनों के मिलने से बना है. बरसते गगन को पानी का लोटा, आशाढ को पानी का घूँट और पूस को छाती में उगा ठसका बताना नए बिम्ब है. सीधे दिल में उतरने वाली प्रेम से ओतप्रोत कविता.
kya kamal likha hai sir g
बहुत खूबसूरत..बहुत भावात्मक!
Post a Comment