photo source : unknown (with apologies) |
कल एक मित्र ने पूछा, 'जब भी प्रेम पर लिखते हो, उसमें समंदर ज़रूर आता है. क्यों?'
मैंने कहा, 'पेड़ भी आते हैं. आसमान भी आ ही जाता है.'
'लेकिन समंदर ज़्यादा आता है.'
मैंने उसे कुछ कारण बताए. सारे तो मैं बता भी नहीं पाऊंगा. या उनका समय ही नहीं अब. पर समंदर मेरी निजी पसंद है. बहुत सारे लोगों को पसंद है, इसलिए निजता वैसी भी नहीं. कुछ ऐसी है, जैसे हवा सबकी निजी ज़रूरत है, फिर भी जीव होने के कारण मेरी विशेष ज़रूरत भी है.
पहला कारण तो संभवत: यही है कि मैं मुंबई का हूं, वहीं पला-बढ़ा, वहीं हंसा-रोया. जब बहुत ख़ुश होता, तो समंदर के पास चला जाता. जब बहुत उदास होता, तो समंदर के पास चला जाता. किनारे जब अकेला बैठता, तो समंदर सशरीरी रूप में मेरी बग़ल में आ बैठता. किनारे जब किसी के साथ बैठता, तो समंदर हम दोनों के बीच एक पतली दरार की तरह अंड़स जाता. जिस समय निगाहों के आगे न होता, उसकी तस्वीर होती. भयानक चुप्िपयों के बीच मैंने समंदर की आवाज़ को स्मृति की तरह सुना है. तब से मेरा यक़ीन है कि आवाज़ें गीली होती हैं.
इस समय भी जब यह लिख रहा हूं, कमरे में सिर्फ़ की-बोर्ड खटक रहा है, बीच-बीच में आदत के मुताबिक़ टाइप करते हुए मैं शब्दों को उच्चार भी रहा हूं. जैसे यही पंक्ति उच्चार कर टाइप की. और कोई बाहरी आवाज़ नहीं है. फिर भी मैं समंदर की गीली आवाज़ को कानों में टपकता पाता हूं.
मैं अपनी हथेली का स्पर्श अपनी ही जीभ से करता हूं. अरब सागर का नमक मेरे स्वाद का अभिवादन करता है.
मुझे तैरना नहीं आता. गहरे पानी से मैं हमेशा ख़ाइफ़ रहता हूं. डूबने के लिए किसी ट्रेनिंग की ज़रूरत नहीं पड़ती. उसे कोई नहीं सिखा सकता, इसलिए वह तैरने से भी ज़्यादा मुश्किल है.
जितनी बार मैंने समंदर को देखा, पाया, वह सिर्फ़ ऊपर से ही बेज़ार रहता है, लगातार अस्थिर. एक ही दिशा में बार-बार दौड़ता हुआ. उसके भीतर की तस्वीरें देखी हैं. निस्तब्धता है. गहरी शांति. अपूर्व स्थिरता. लहरें गहराई का गुण नहीं. लहरें समंदर की त्वचा हैं, शल्कयुक्त. अस्थिरता आंखों का सुरमा है. चंचलता गहना है. शांति उपलब्धि है. स्थिरता को हमेशा एक अस्थिर चादर की दरकार होती है. लहरें सबकुछ बाहर फेंक देती हैं. गहराई सबकुछ समेट लेती है.
प्रेम का स्वभाव भी कुछ ऐसा ही है. सारी बेचैनी ऊपरी होती है, भीतर कहीं प्रेम की शांति होती है. आप कितना भी लड़ रहे हों, भीतर एक स्थिरता होती है, इस अनुभूति से भरी कि प्रेम है, निश्िचत है, तभी यह अस्थिरता है. प्रेम हर चीज़ को लौटा देता है. प्रेम हर चीज़ को गहराई में समेट लेता है. प्रेम निराकार न होता, तो यक़ीनन उसका आकार समंदर जैसा होता. एक अस्थिर स्थिरता. एक स्थिर अस्थिरता. एक स्थिर गति. एक गतिमान स्थैर्य. यानी प्रेम. यानी समंदर.
घंटों समंदर के किनारे अकेले बैठे रहने के बाद उभरने वाली ये अनुभूतियां अब भी साथ चलती हैं. इसीलिए समंदर अब भी साथ चलता है. दृष्टि में नहीं है. स्मृति में चलता है. जीवन में आप कितनी भी बुरी स्थिति में हों, प्रेम हमेशा आपके साथ चलेगा. दृष्टि में न चले, स्मृति में तो चलेगा ही.
*
Pic by Diana Catherine |
एक और कारण्ा है. वह ग्रीक मिथॉलजी से आता है. अफ्रोडाइटी ग्रीक मिथ में प्रेम, सौंदर्य और आनंद की देवी हैं. उसके पिता आसमान (यूरेनस) और मां दिन (दिएस) है. लेकिन वह दिएस से नहीं जन्मी थी. वह समंदर से जन्मी थी. बहुत सुंदर कथा है. विस्तार में नहीं जाऊंगा. यही कि एक द्वंद्व में यूरेनस का जननांग कटकर समंदर में गिर गया. लहरें झाग से भरी हुई थीं. झाग को लातिन में अफ्रोस कहते हैं. उस झाग से एक सुंदर युवती का जन्म या अवतरण हुआ. महान सुंदरी. अफ्रोस से निकलने के कारण उसका नाम अफ्रोडाइटी पड़ा. उस महान सुंदरी को प्रेम की देवी कहा गया. इस तरह प्रेम की देवी का जन्म समंदर के भीतर से होता है. अफ्रोडाइटी की सुंदरता के कारण युद्ध हुए. ख़ुद उसने कई युद्धों में भाग लिया. ट्रॉय के युद्ध में वह पेरिस के साथ थी. पेरिस के प्रेम ने उस युद्ध को जन्म दिया था.
अफ्रोडाइटी, जिसने जीवन में अनंत बार प्रेम किया. प्रेम की शुद्धि और निष्ठा पर विमर्श चलाना सरपंचों का काम है, सहृदय सिर्फ़ उसका प्रेम देखेगा. मैं जब भी किनारे की झाग देखता हूं, मुझे अफ्रोडाइटी याद आती है. मैं झाग से निकलती एक देवी को देखता हूं और पाता हूं कि समय का गुज़र जाना हमारा भ्रम है. वह वहीं रहता है. कहीं नहीं जाता. जैसे हज़ारों साल पुराना वह ग्रीक समय कहीं नहीं गया. वह बांद्रा में बैंड स्टैंड के किनारे खड़ा रहता है. वह नरीमन पॉइंट पर खड़े होने पर मरीन ड्राइव के क्वीन्स नेकलेस की तरह दमकता रहता है.
*
ऋग्वेद कहता है कि हम सब जल की संतति हैं. हम सब पानी से पैदा हुए हैं. समंदर के पानी से. अफ्रोडाइटी पानी से पैदा होती है. हम सब पानी से पैदा हुए हैं. हम सब अफ्रोडाइटी हैं. अफ्रोडाइटी प्रेम की देवी है. हम सब प्रेम के देव हैं. प्रेम के देवों को समंदर पैदा करता है. प्रेम को समंदर पैदा करता है. फिर क्यों न भला समंदर प्रेम का स्वामित्वबोधी रूपक हो?
भाषा में मुझे नर-नारायण्ा का युग्म बड़ा मोहता है. सवाल आस्तिकताओं का नहीं, भाषा का है. नारायण, जिसका व्यावहारिक अर्थ विष्णु से लिया जाता है, लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ है - वह जो पानी पर तैरता हो. जब यह कहा जाता है कि नर ही नारायण है, तो तुरंत मुझे ख़्याल आता है कि नर तो पानी पर तैरते हैं. भले तैरना न भी आए, तब भी. मन आपका सबसे बड़ा तैराक है. देह डुबो दोगे, मन को कैसे डुबोओगे? वह तो तिरता पार निकल जाएगा. डूबने की नई जगह का पता खोज लाएगा. उठो, नई जगह चलो. आप प्रेम में डूबते हैं, लेकिन प्रेम हमेशा तैरता रहता है. सबकुछ समंदर में डूबता है, लेकिन समंदर हमेशा तैरता रहता है. भले कहीं न पहुंचे. इस तरह समंदर ही नारायण है. वह जो पानी पर तैर सके. प्रेम भी यही है. हमेशा तैरता रहता है. भले कहीं न पहुंचे.
पानी यानी नदी नहीं. जीवन की पहली नदी, (जिसे सही तरह से नदी कह सकते हैं, मुंबइया नाला टाइप नदियों से परे) जब देखी थी, तब तक मैं समंदर के इश्क़ में पड़ चुका था. और जब यह विचार आया कि अंतत: सारी नदियां, समंदर के मोह में ही धरातल पर तैरती हैं, तो लगा, मैं तो पहले ही गंतव्य में डूबा हूं. मैं नदी से समंदर की तरफ़ नहीं जाता, समंदर से नदियों की तरफ़ आया हूं. मैं उल्टे रास्तों का यात्री हूं.
जब मैं ये सारी चीज़ें देखता हूं, तो समंदर को प्रेम से सिल देता हूं. दोनों एक हैं मेरे लिए. मेरी कविता और गद्य के लिए भी.
पुराने ज़माने से कवियों को समंदर एक रूपक की तरह लुभाता रहा है. मुझे भी लुभाता है. ऐसे समय में मुझे नेरूदा का वह उद्घोष याद आता है, जब उन्होंने छद्म प्रयोगवादियों की ओर मुस्कान फेंकते हुए कहा था-- The Rose and The Moon are not alien to us. यानी सृष्टि के अंत तक दोनों ही प्रेम के प्रतीक बने रहेंगे, चाहे कितने भी नयेपन का आग्रह हो.
ऐसे बहुत सारे कारण हैं, जिनके बारे में इत्मीनान से लिखूंगा, जिनने मेरे चेतन-अवचेतन में इस तरह के बिंब जिलाए हैं. और मेरे जिन दोस्तों को हमेशा यह गुप्तरोग रहता है कि तुम विदेशी साहित्य से प्रभावित हो, वे हैरत में पड़ जाएंगे कि अधिकांश बातें भारतीय मिथॉलजी से निकलकर आती हैं.
(डायरी का हिस्सा, 21 फ़रवरी 2012)
8 comments:
आपकी डायरी का यह अंश बेहद खूबसूरत और जानकारीप्रद लगा। उम्मीद है पढ़ने को मिलता रहेगा।
डूबने के लिए किसी ट्रेनिंग की ज़रूरत नहीं पड़ती. उसे कोई नहीं सिखा सकता, इसलिए वह तैरने से भी ज़्यादा मुश्किल है.
यकीनन!
bahut achcha likha hai aapne...gahraayi wala lekh...
समंदर की ध्वनि अच्छी लगी ! जैसे मै भी किनारे फिर रहा हूँ ! बधाई !
Aur ekaant main haathon ka shank banakar kaano ko dhak dein to jo sunai deta hai wah bhi samandar.
Ashish
सुंदर समंदर :)
देह डुबो दोगे, मन को कैसे डुबोओगे? वह तो तिरता पार निकल जाएगा. डूबने की नई जगह का पता खोज लाएगा. उठो, नई जगह चलो.
मैंने कई लोगों से और खुद आप से भी आपके लिए हमेशा फ़िराक का एक शेर कहा है
मेरे सीने में है वो रौशनी न उम्र जिसकी बता सकें
वही जलवे दौरे जदीद के, वही परतवे अहदे कुहन।
आप भारतीय क्लासिकल साहित्य से भीतर तक जुड़े हैं। आप के दोस्तों ने आपका इंटरव्यू नहीं पढ़ा शायद। मुझे ये गुप्तरोग कतई नहीं है।
Post a Comment